रविवार, 25 अप्रैल 2010

मम्मी और मां

कल पार्क में बहुत दिनों के बाद घूमने गया था। स्‍टूडेंट़स लाइफ में पार्क में घंटों बैठकर भिवष्‍य की योजना बनाते रहते थे। लेकिन अब फ़ुर्सत नहीं मिलती है सोचने के लिए। वहां कुछ देर बाद बच्‍चा को रोते हुए देखा। पहले तो अनसुना कर िदया, लेकिन जब इधर उधर दौडने लगा, तो वहां जाना मुनािसब समझा। उसे देखकर कुछ लोग आहें, तो कुछ लोग हंस रहे थे। हंस रहे थे आधुनिक मम्मी पर और चिंतित थे बच्चा को लेकर। चिंतित थे इस कारण कि बच्चा उम्र में काफी छोटा था। सभी लोग उसे समझा रहे थे, लेकिन उसे सिर्फ मम्‍मी चाहिए थी। इस कारण सिर्फ रोता रहता था। बच्चा भी अजीब था वह शक्‍ल से पिता को पहचानता था, लेकिन पूरा नाम नहीं जानता था कि कोई भी उसे अपने घर पर छोड सके। घर को पहचानता था लेिकन घर का पता नहीं जानता था। इस कारण मम्मी को ढूंढ रहा था ताकि घर और पापा के पास पहुंच सके। चर्चा में मम्मी और बच्चा ही थाकुछ लोग मम्मी ढूंढ रहे थे, तो कुछ लोग मम्मी को कोस रहे थे। आज की मम्मी करियर देखती है, बच्चे की देखभाल दूसरी प्राथमिकता है। इसलिए बच्चे को छोड़कर गुम हो जाती है। केकेयी भी कुमाता बनी बच्चों के लिए मम्मी कुमाता बन रही है अपना करियर के लिए। दोनों में समय का फर्क है। क‌र्त्तव्य जाननेवाली मां कहलाई अधिकार जाननेवाली मम्मी। मां और मम्मी में यही तो फर्क है शायद। एक बुजुर्ग बच्‍च्‍े को लेकर इस तरह की बातें बोलता जा रहा था। सभी परेशान थे कि बच्‍चे को कैसेट उसके घर पहुंचाया जाए। अंत में लाचार होकर उसे पुलिस थाने में रख दिया गया। मैं भी सोचने लगा और मम्‍मी और मां में फर्क करने लगा, तो एक घंटे लग गए। अंत में इस निष्‍कर्ष पर पहुंचा कि मां दिल की सच्ची थी। इसिलए हमेशा बच्चे में खोई रहती थी। वह करियर नहीं जानती थी इसलिए गांव में रहती थी। जहां बच्चे गुम होने का कोई अंदेशा नहीं। आज की मम्मी शहर में रहती हैत्र जींस पहनती है, टॉपलेस हो जाती है करियर के लिए। कुछ घरों में रौब जमाती है अपने पति पर। और जब बात नहीं बन पाती हैतो गुम हो जाती है बच्चे को छोड़कर। क्‍योंकि मम्मी खुद की पहचान चाहती है और भीड़ से अलग भी दिखना चाहती है। नहीं करनी है उन्हें बच्चों की देखभालयह तो नौकर भी कर सकता है। शायद यही सोचकर गुम हो जाती है। बच्चे तो फिर आ सकते हैं, दूसरी शादी भी की जा सकती है लेकिन करियर नहीं बनाया जा सकता समय बीतने के बाद। लेकिन बच्चे नादान हैं, उसे नहीं चाहिए अपनी पहचान। वह मम्मी के साथ रहना चाहता है। नहीं चाहिए आईसक्रीम और खिलौने, उसे पापा भी नहीं चाहिएसिर्फ मम्मी के पास रहना चाहता है वह। लेकिन आज के बच्चे को यह भी नसीब नहीं, जिन्हें मम्मी मिली भी, तो कुछ वर्षो के बाद गुम हो गई।आधे से अधिक बच्चे को यह ीाी नसीब नहीं। करियर की आपाधापी में नहीं रहा वह मां का प्यार, जो बच्चे के लिए सर्वस्व लूटा देती थी। अब प्यार की जगह करियर महत्वपूर्ण है। इसलिए बड़े होने पर मम्मी रोती है बच्चे के लिए और बच्चे मशगूल रहते हैं करियर के लिए।

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

मैं और मेरा जीवन चार

जब बहन का पेंट पहना
टीचर ने छात्रवृत्ति की तैयारी के लिए मेरा भी नाम सेलेक्ट किया। उस समय इसके बारे में कुछ भी जानकारी नहीं थी। खुशी इस कारण थी कि चार स्टूडेंट्स में मेरा भी नाम शामिल था। यह बात जब घर में बताया, तो लाल भैया डांटने लगे और बोले कि तुम इस परीक्षा में पास नहीं कर पाओगे। इस कारण तुम पर पैसा खर्च करना व्यर्थ है। मां हमेशा से हमारी बात सुनती थी। इस संबंध में मेरा कहना था कि जब टीचर हमें सेलेक्ट किए हैं, तो कुछ खासियत अवश्य देखे होंगे। इस कारण मैं जाऊंगा। अंत में बात मेरी रही और मां की सहमति मिल गई। काफी खुश हुआ मां के निर्णय पर। उसके बाद से स्कूल में हमलोगों के लिए विशेष व्यवस्था थी। वहां हमलोग पढ़ाई कम, गप्पें ज्यादा लड़ाते थे। कुछ दिनों के बाद परीक्षा तिथि घोषित हुई और हम सभी बनमनखी जाने के लिए तैयारी करने लगे। मेरे साथ में टीचर भी थे। उस समय कितने पैसे देने पड़े थे, मुझे याद नहीं है। जब मैं बनमनखी जाने के लिए तैयार हुआ, तो जाने के लिए मेरे पास हाफ पेंट नहीं था। एक जो था, वह काफी गंदा और फटा हुआ था। खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। अंत में लाचार होकर मां ने छोटी बहन की एक नई पेंट को मोडिफाई करके दी। लड़का और लड़की के पेंट में अंतर यह रहता था कि लड़के के पेंट में नीचे रबड़ नहीं होते थे, जबकि उसमें होते थे। खैर, उसे पहनकर एग्जाम दिया और बाद में पहनकर स्कूल भी जाने लगा। कुछ दोस्तों ने इस पर कमेंट भी किया, लेकिन मैं कुछ भी जवाब नहीं दिया। परीक्षा अच्छी गई थी, रिजल्ट भी निकला और मैं पास हो गया था। अब फाइनल एग्जाम की तैयारी में लग गया। इसी बीच मेरा एडमिशन बनमनखी के आदिवासी आवासीय उच्च विद्यालय में हो गया। उसमें 6 क्लास से ही पढ़ाई शुरू थी, इस कारण पांचवीं की पढ़ाई किए बिना ही छठी में पढ़ने लगा।
बर्बादियों का साल
इस एक वर्ष ने मुझे अर्श से लेकर फर्श पर ढकेल दिया। इस बीच मैं पांचवीं और छठी के द्वंद्व में फंसा रहा और पढ़ाई नहीं की। स्कूल सितंबर में गया, इस कारण घर पर ही रहने लगा और वहीं पढ़ाई करने लगा। कहने को तो लाल भैया और प्रमोद भैया घर पर ही थे, लेकिन वे लोग सिर्फ डांटने और दुत्कारने के सिवा कुछ नहीं करते थे। स्थिति यह हो गई कि मैं पढ़ाई से भागने लगा और निडर बनता गया। आलोचना रोज की घटना थी, जिससे मुझे कोई भी फर्क नहीं पड़ता था। पिताजी और लाल भैया पढ़ाई न करने पर मारते भी थे, लेकिन पढ़ाई न के बराबर करता था। अंत में लाचार होकर उसी स्कूल में पांचवीं क्लास में पढ़ने लगा। दलील यह दी गई कि स्कूल में पांचवीं क्लास का पढ़ो और घर पर छठी कक्षा का पढ़ो। उस समय तो यह दलील बढि़या लगा, लेकिन अंदर से मैं पढ़ाई में इतना कमजोर हो गया कि आगे सपना देखना ही छोड़ दिया। खुद को अंदर से कमजोर समझने लगा। अब सिर्फ समय व्यतीत करता था। इस तरह की स्थिति अगस्त तक बनी रही। इस एक वर्ष ने मुझे काफी कमजोर बना दिया। परिणाम यह हुआ कि गणित देखकर भागने लगा। यह स्थिति अभी तक बनी हुई है। आज भी सपने में गणित को देखकर परेशान हो जाता हूं। आश्चर्य तो तब होता है कि मुझसे बड़े चारों भाई गणित में बहुत अच्छे-बहुत अच्छे और बहुत अच्छे हैं। उस समय घर में गणित न जानना अपराध माना जाता था, लेकिन ताज्जुब होता है कि सभी ने गणित पढ़ाने के लिए जोर तो दिए, कमजोरी के कारण को कोई नहीं समझे। यह बात मुझे अब पता चल रहा है।
हॉस्टल यात्रा
बनमनखी हॉस्टल में अगस्त से रहने लगा। मुझे छोड़ने के लिए मां और प्रमोद भैया आए थे। काफी मशक्कत के बाद हॉस्टल में रहने के लिए आया। यहां आने के बाद पहली बार मां से अलग हुआ था। इस कारण काफी रोया। उम्र उस समय लगभग ग्यारह या बारह वर्ष के हुए होंगे। यहां आने के बाद पता चला कि मैं सबसे तेज स्टूडेंट हूं। कारण यहां सभी आदिवासी और विकलांग ही पढ़ते थे, जिसे पढ़ने में कम और इधर-उधर घूमने में अधिक मन लगता था। मैं यह संकल्प लेकर यहां आया था कि आने के साथ खूब पढू़ंगा, लेकिन पढ़ाई के बदले मैं उन्हीं के साथ घूमने लगा। मैं अपना लक्ष्य भूल चुका था और अब परिवार का डर भी नहीं था। क्योंकि कभी-कभी घर जाता था और बातों में उलझाकर ठग लेता था। खाने का उत्तम प्रबंध था। इस कारण मौज-मस्ती करने लगा। पारिवारिक संस्कार की वजह से कम पढ़ाई के बावजूद भी क्लास में प्रथम आता था। इस कारण घरवाले भी अधिक परेशान नहीं करते थे। इस बीच यह हुआ कि गणित को बहुत कम बनाता था। घर आने पर जो पढ़ाया जाता था, उसे कॉपी में नोट कर यहां प्रैक्टिस करता और किसी तरह गणित में पास होता रहता था। इसकी भरपाई अन्य विषयों से करता था। इसी तरह आठ क्लास में पहुंच गया।
हॉस्टल रुटीन
जहां हमलोग रहते थे, वहां कोई टीचर नहीं थे। इस कारण स्वयं ही पढ़ाई करनी पड़ती थी। सीनियर भी उतने तेज नहीं थे कि कुछ बता सके। इस कारण जो जानते थे, उसी को पढ़ते रहते थे। सुबह 6 बजे उठते थे और मुंह हाथ धोकर नाश्ता के लिए बैठ जाते थे। स्कूल की तरफ से चना और गुड़ मिलता था। मुझे घर से मुरही या लाई खरीदकर हर सप्ताह दिया जाता था। दोनों को मिलाकर नाश्ता करते थे। यदि इच्छा हुई, तो पढ़ने के लिए बैठ गए अन्यथा सोते या गप्प लड़ाते रहते थे। नौ बजे नहा धोकर खाना खाते थे और फिर इच्छा होती थी, तो स्कूल जाते अन्यथा सो जाते थे। उसके बाद शाम को घूमने के लिए निकलते और लगभग दो घंटे तक वाकिंग करते रहते थे। शाम को जब खाने के लिए सब्जी काटा जाता तो सप्ताह में कम से कम दो दिन किसी तरह एक प्याज चुराते और उसमें नमक मिर्च डालकर स्वादिष्ट खाना का आनंद उठाते। उन लोगों में सबसे अधिक मैं ही पढ़ता था। सभी मुझे तेज स्टूडेंट कहते थे। इस कारण पास करने के लिए नहीं, लेकिन अपनी इज्जत बचाने के लिए सप्ताह में तीन-चार दिन पढ़ लिया करते थे और दो-तीन दिन स्कूल भी चला जाता था। वहां हमारी उम्र भी उनलोगों की अपेक्षा काफी कम थी, इस कारण वे लोग हमेशा मारते रहते थे।
जब परमानंद बाहर हुए
परमानंद हम विकलांगों में सबसे उम्र दराज और दुष्ट स्टूडेंट था। वह एक गुट बनाया था और जो भी खाना आता था, तो पहले अपनी थाली भरकर तभी औरों को देता था। विरोध करने पर पीटता भी था। उसकी एक तरह से तानाशाही चलती थी। मुझे सभी टीचर्स बहुत प्यार करते थे। हेड मास्टर की सख्त हिदायत थी कि उन्हें किसी प्रकार की परेशानी नहीं होनी चाहिए। एक दिन मुझे सब्जी कम दिया गया, विरोध करने पर काफी मारा। खाना छोड़कर मैं सीधे हेड मास्टर के कमरे में घुस गया। उसके बाद उन्हें काफी पीटा गया और सख्त चेतावनी दी गई कि दोबारा करने पर उसे स्कूल से बाहर निकाल दिया जाएगा। मार खाने के बाद उसने सभी को अपनी तरफ मिला लिया और मुझे अलग कर दिया। इससे हमें फायदा यह मिला कि मैं कुछ पढ़ने लगा और स्कूल भी जाने लगा। छोटा बच्चा था। इस कारण चाभी गुम हो जाती थी। मां से कितनी बार डांट पड़ चुकी थी इस संबंध में। इस कारण कुछ नहीं बताता था। रात को सोते वक्त वह मेरा चाभी लेकर सभी नाश्ता खा जाता था और चाभी भी गुम कर देता था। एक-दो बार मां को बताया, लेकिन डांट के डर से उन्हें भी बताना छोड़ दिया। इसका वह काफी फायदा उठाया। स्कूल छोड़ने के बाद पता चला कि उसे स्कूल से बाहर कर दिया गया है।
अमरेंद्र बाबु
ये हमारे गुरु थे और अंग्रेजी पढ़ाते थे। ये हमारे पड़ोसी थे। इस कारण उन पर अधिकार समझता था। शुरुआत में आदिवासी को देखकर मुझे खाना नहीं खाया जाता था, जब उन्हें इस बारे में बताया तो वे खुद खाना खाकर मुझे खाने के लिए प्रेरित किए। मैं उन्हें ब्राह्मण समझ रहा था, बाद में पता चला कि वे बनिया थे। उन्होंने काफी सहायता की और साहस भी प्रदान किए। यदि वे नहीं रहते तो शायद मैं कब का स्कूल छोड़ दिया होता।
फिल्मी चक्कर
वहां मुझे छोड़कर सभी सिनेमा देखने जाते थे। मैं ही अकेला था कि सिनेमा नहीं जाता था। पापा शनिवार को साइकिल से आते थे और पैसा देकर चले जाते थे। सभी ने कहा कि पापा तो शनिवार को ही आएंगे। इस कारण सिनेमा दिखाने के लिए जिद करने लगे। मैं भी सुरक्षित आइडिया देखकर तैयार हो गया और नौ से बारह सिनेमा देखने चला गया। पिक्चर का नाम मुझे याद नहीं है, लेकिन सिनेमा हॉल में खूब सोया था, यह मुझे याद है। हॉस्टल आने पर पता चला कि पापा आए थे। मेरी जो हालत थी, वह मैं बता नहीं सकता। दूसरे दिन सफाई देने के लिए घर गया और फिर हॉस्टल आ गया। वहां जो डांट लगनी थी, वह लग चुकी थी। उसके बाद जिस दिन स्कूल छोड़कर पटना के लिए रवाना हुआ, उस समय गंगा यमुना सरस्वती देखने गया। बढि़या लगा और हॉस्टल आया तो पता चला कि अभी-अभी पापा आए थे। काफी दुख हुआ और आश्चर्य भी हुआ कि पापा को इसकी भनक कैसे लग जाती है। वहां दो सिनेमा ही देखा और दोनों बार पकड़ा गया। घरवाले यही समझते थे कि यह सभी सिनेमा देखता है। सिवा सुनने के कुछ कर भी नहीं सकता था।
एक सिकका
इस सिक्का का काफी महत्व था उस समय। बनमनखी से घर आने के लिए एक रुपया किराया देना पड़ता था। एक ही बस था। इस कारण काफी भीड़ रहती थी। उसमें किसी तरह चढ़ पा रहा था। यदि एक रुपया दे देता था, तो सीट मिल जाती थी। अन्यथा सीट से उठा दिया जाता था। एक-दो बार हिम्मत करके बिना पैसे ही बैठ गया किंतु जबर्दस्ती उठाने के बाद हिम्मत जवाब दे गई और उसके बाद पहले आने के बाद भी बस में तभी घुसता था, जब सीट भर जाते थे और उनकी नजरों से बचकर भीड़ में कहीं खड़ा हो जाता था। घर से आते वक्त तो पैसे रहते थे, लेकिन जाते वक्त हमेशा यही स्थिति रहती थी। सभी को मुझ पर दया आ जाती थी और वे पैसे नहीं मांगते थे। उस समय एक रुपया का सिक्का एक सोने के सिक्के के बराबर लगता था। अब जब कहीं भी उस सिक्के को देखता हूं, तो हंसी आती है और अपने आप पर दुख भी। आज तो एक बच्चा भी 50 से कम नहीं लेता है।