शनिवार, 29 सितंबर 2012


क्या भूलूँ क्या याद करूँ मैं!
याद सुखों की आँसू लाती,
दुख की, दिल भारी कर जाती,
दोष किसे दूँ जब अपने से 
अपने दिन बर्बाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
जिंदगी इम्‍तहान लेती है। जब दो क्‍लास में था, तभी ये शब्‍द मेरे कानों में गुंजे थे, लेकिन उसका अर्थ अब समझ में आ रहा है। नौकरी करते हुए दस वर्ष बीत गए हैं। इध से न जाने अतीत की बातें खूब याद आ रही है। कभी कभी तो ऐसा होता है कि रात भर सोचते सोचते सुबह हो जाती है। अगणित अवसादों के क्षण हैं। दुख की दिल भारी कर जाती है। वैसे तो हर व्‍यक्‍ति संघर्ष करता है और संघर्ष करके जीवन को सुवासित बनाता है, लेकिन मुझे अन्‍य लोगों से अधिक ही संघर्ष करना पड रहा है। इसका प्रमुख कारण यह है कि शारीरिक रूप से अक्षम होने के कारण लाख कोशिशों के बावजूद खुद को संभाल नहीं पाता हूं मैं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि मैं अपने से कई लोगों से दूर होता जा रहा हूं। कल पटना से सुपर थर्टी के संस्‍थापक आनंद आए थे। वे अच्‍छे दोस्‍त हैं और जरूरत के समय हमेशा सहयोग करते हैं। मैं उन्‍हें देखा हूं, क्‍योंकि वे पब्‍लिक फीगर हैं, लेकिन वे मुझे सिर्फ नाम से जानते हैं। कानपुर आने से पहले और जाने के बाद भी वे लगभग दस बार फोन किए होंगे, मुझसे मिलने के लिए, लेकिन मैं उनसे जानकर भी इस कारण नहीं मिला कि मुझे डर था कि यदि वे मुझे देख लेंगे, तो बाद मेरे संबंध पहले की तरह नहीं रह पाएंगे। आप कह सकते हैं कि आपको जाना चाहिए, क्‍योकि वे शक्‍ल देखकर नहीं अपितु आपके विचारों का दोस्‍त है। लेकिन न जाने हमें इतना डर लगता है कि मैं चाहकर भी नहीं जाता हूं। भविष्‍य में कई अनहोनी घटना घटी है, जिसे यदि याद करूं, तो समय ही बर्बाद हो जाए। अंत में हारकर बचचन जी की पंक्‍ति ही सहारा देती है
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
अगणित उन्मादों के क्षण हैं,
अगणित अवसादों के क्षण हैं,
रजनी की सूनी घड़ियों को 
किन-किन से आबाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
याद सुखों की आँसू लाती,
दुख की, दिल भारी कर जाती,
दोष किसे दूँ जब अपने से 
अपने दिन बर्बाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
दोनों करके पछताता हूँ,
सोच नहीं, पर मैं पाता हूँ,
सुधियों के बंधन से कैसे 
अपने को आज़ाद करूँ मैं!

क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!