रविवार, 24 अक्टूबर 2010
पंचतंत्र की प्रेरक कहानियां
एक बार एक जंगल के निकटदो राजाओं के बीच घोर युद्ध हुआ। एक जीता दूसरा हारा। सेनाएं अपने नगरों को लौट गई। बस, सेना का एक ढोल पीछे रह गया। उस ढोल को बजा-बजाकर सेना के साथ गए भांड व चारण रात को वीरता की कहानियां सुनाते थे। युद्ध के बाद एक दिन आंधी आई। आंधी के जोर में वह ढोल लुढकता-पुढकता एक सूखे पेड के पास जाकर टिक गया। उस पेड की सूखी टहनियां ढोल से इस तरह से सट गई थी कि तेज हवा चलते ही ढोल पर टकरा जाती थी और ढमाढम ढमाढम की गुंजायमान आवाज होती। एक सियार उस क्षेत्र में घूमता था। उसने ढोल की आवाज सुनी। वह बडा भयभीत हुआ। ऐसी अजीब आवाज बोलते पहले उसने किसी जानवर को नहीं सुना था। वह सोचने लगा कि यह कैसा जानवर हैं, जो ऐसी जोरदार बोली बोलता हैं’ढमाढम’। सियार छिपकर ढोल को देखता रहता, यह जानने के लिए कि यह जीव उडने वाला हैं या चार टांगो पर दौडने वाला। एक दिन सियार झाडी के पीछे छुप कर ढोल पर नजर रखे था। तभी पेड से नीचे उतरती हुई एक गिलहरी कूदकर ढोल पर उतरी। हलकी-सी ढम की आवाज भी हुई। गिलहरी ढोल पर बैठी दाना कुतरती रही। सियार बडबडाया “ओह! तो यह कोई हिंसक जीव नहीं हैं। मुझे भी डरना नहीं चाहिए।” सियार फूंक-फूंककर कदम रखता ढोल के निकट गया। उसे सूंघा। ढोल का उसे न कहीं सिर नजर आया और न पैर। तभी हवा के झुंके से टहनियां ढोल से टकराईं। ढम की आवाज हुई और सियार उछलकर पीछे जा गिरा। “अब समझ आया।” सियार उढने की कोशिश करता हुआ बोला “यह तो बाहर का खोल हैं।जीव इस खोल के अंदर हैं। आवाज बता रही हैं कि जो कोई जीव इस खोल के भीतर रहता हैं, वह मोटा-ताजा होना चाहिए। चर्बी से भरा शरीर। तभी ये ढम=ढम की जोरदार बोली बोलता हैं।” अपनी मांद में घुसते ही सियार बोला “ओ सियारी! दावत खाने के लिए तैयार हो जा। एक मोटे-ताजे शिकार का पता लगाकर आया हूं।” सियारी पूछने लगी “तुम उसे मारकर क्यों नहीं लाए?” सियार ने उसे झिडकी दी “क्योंकि मैं तेरी तरह मूर्ख नहीं हूं। वह एक खोल के भीतर छिपा बैठा हैं। खोल ऐसा हैं कि उसमें दो तरफ सूखी चमडी के दरवाजे हैं।मैं एक तरफ से हाथ डाल उसे पकडने की कोशिश करता तो वह दूसरे दरवाजे से न भाग जाता?” चांद निकलने पर दोनों ढोल की ओर गए। जब वह् निकट पहुंच ही रहे थे कि फिर हवा से टहनियां ढोल पर टकराईं और ढम-ढम की आवाज निकली। सियार सियारी के कान में बोला “सुनी उसकी आवाज्? जरा सोच जिसकी आवाज ऐसी गहरी हैं, वह खुद कितना मोटा ताजा होगा।” दोनों ढोल को सीधा कर उसके दोनों ओर बैठे और लगे दांतो से ढोल के दोनों चमडी वाले भाग के किनारे फाडने। जैसे ही चमडियां कटने लगी, सियार बोला “होशियार रहना। एक साथ हाथ अंदर डाल शिकार को दबोचना हैं।” दोनों ने ‘हूं’ की आवाज के साथ हाथ ढोल के भीतर डाले और अंदर टटोलने लगे। अदंर कुछ नहीं था। एक दूसरे के हाथ ही पकड में आए। दोंनो चिल्लाए “हैं! यहां तो कुछ नहीं हैं।” और वे माथा पीटकर रह गए। सीखः शेखी मारने वाले ढोल की तरह ही अंदर से खोखले होते हैं।
चिड़िया और चींटी
एक दिन एक छोटी सी चिड़िया एक दाना दाल ले कर अपने घोंसले कि ओर उडती जा रही थी संयोग से वो दाना उसकी चोंच से गिरा और एक खूंटे की दरार में फँस गया चिड़िया ने बहुत चोंच मारी लेकिन दाना इतने गहरे चला गया था कि निकल न पाया
चिड़िया उड़ कर बढ़ई के पास पहुँची और उसने कहा-
‘बढ़ई-बढ़ई खूँटा चीर, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
बढ़ई – जा-जा तेरा एक दाना निकालने के लिए मैं खूँटा चीरने ना जाऊँगा
अब चिड़िया उड़ के राजा के पास शिकायत करने पहुंची -
राजा-राजा बढ़ई डाण (को दंड दे), बढ़ई ना खूँटा चीरे, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
राजा – जा-जा तेरे एक दाने के लिए मैं अपने बढ़ई को दंड नहीं दूँगा
चिड़िया वहाँ से उड़ के रानी के पास पहुँची, और उसने रानी से अपनी व्यथा कही-
रानी-रानी राजा छोड़, राजवा ना बढ़ई डाणै,बढ़ई ना खूँटा चीरे, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
रानी- अरी चिड़िया पागल हो गई है क्या ? तेरे एक दाने दाल के लिए मैं अपने राजा को क्यूँ छोड़ दूँ ?
चिड़िया फिर उड़ी अब वो साँप के पास गई और उससे बोली-
साँप-साँप रानी काट, रनिया ना राजा छोड़े,राजवा ना बढ़ई डाणै, बढ़ई ना खूँटा चीरे,खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
साँप- जा-जा मैं ना जाता तेरे दाल के दाने के लिए रानी को डसने !
चिड़िया फिर उड़ी इस बार वो लाठी के पास पहुँची और कहा-
लाठी-लाठी कीड़ा (साँप) मार, कीडवा ना रानी डसैरनिया ना राजा छोड़े, राजवा ना बढ़ई डाणै,बढ़ई ना खूँटा चीरे, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
लाठी – मैं तो तेरे लिए साँप मारने ना जाने वाला तू कोई और जतन कर ले
चिड़िया ने अभी भी हार नहीं मानी वो आग के पास जा पहुँची और उससे भी यही दोहराया -
आग-आग लाठी जार (जला), लठिया ना कीड़ा मारे,कीडवा ना रानी डसै, रनिया ना राजा छोड़े,राजवा ना बढ़ई डाणै, बढ़ई ना खूँटा चीरे,खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
आग- मैं ना जाती तेरे एक दाने के लिए लाठी जलाने !
चिड़िया फिर आगे उड़ चली रास्ते में उसे नदी मिली, उसने नदी से कहा-
नदी-नदी भाड़ (आग की भट्टी) बुझा, अगिया ना लाठी जारे,लठिया ना कीड़ा मारे,कीडवा ना रानी डसै, रनिया ना राजा छोड़े, राजवा ना बढ़ई डाणै,बढ़ई ना खूँटा चीरे, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
नदी – जा यहाँ से मैं तेरी कोई मदद नहीं कर सकती
चिड़िया फिर उड़ी अब वो हाथी के पास गई और हाथी से कहा-
हाथी-हाथी नदी सोख, नदिया ना भाड़ बुतावे (बुझाये),अगिया ना लाठी जारे, लठिया ना कीड़ा मारे,कीडवा ना रानी डसै, रनिया ना राजा छोड़े,राजवा ना बढ़ई डाणै, बढ़ई ना खूँटा चीरे,खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
हाथी- मैं ना जाता तेरे लिए नदी सोखने तू कोई और ढूंढ ले !
इस बार निराश सी होके चिड़िया एक पेड़ कि शाख पे बैठ के रोने लगी तभी उसे दाल पे कुंलांचे भरती चींटी दिखी चिड़िया ने चींटी से गुहार लगाई-
चींटी-चींटी हाथी मार, हथिया ना नदी सोखे,नदिया ना भाड़ बुतावे (बुझाये),अगिया ना लाठी जारे, लठिया ना कीड़ा मारे,कीडवा ना रानी डसै, रनिया ना राजा छोड़े,राजवा ना बढ़ई डाणै, बढ़ई ना खूँटा चीरे,खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
चींटी – अरी चिड़िया तू क्यों रोती है ? मैं हूँ ना ! चल देखूं तो इस हाथी को
चींटी चिड़िया को ले के हाथी के पास पहुँची और उसने हाथी को चिड़िया की मदद करने को कहा हाथी ना माना तो चींटी उसके सूंड में घुस गईं और अंदर काटना शुरू किया हाथी दर्द के मारे लोटने-बिलबिलाने लगा और चींटी से माफ़ी मांगी-
हमका दर्द दियो ना कोय हम तो नदिया सोखब होय
चींटी बाहर निकल आई और तीनो चल दिए नदी की ओर नदी हाथी को देख के घबराई, हाथ जोड़ के नतमस्तक हो गई और कहा-
हमका सोखेव-वोखेव ना कोय, हम तो भाड़ बुताइब होय
नदी भी साथ हो ली अब चारों भाड़ के पास पहुँचे नदी को गर्जना करते आते देख आग सिर झुका के खड़ी हो गई और उसने फ़रियाद की -
हमका बुतायो-वुतायो ना कोय, हम तो लाठी जारब होय
आग भी साथ हो ली पांचो लाठी के पास पहुँचे आग देखते ही लाठी के होश गुम हो गए घबरा के लाठी बोली -
हम जारेव-बारेव ना कोय, हम तो कीड़ा मारब होय
लाठी भी साथ चली अब छहों साँप के पास पहुँचे लाठी को देखते ही साँप की भी फुस्स हो गई बेचारा मिन्नत करने लगा -
हमका मारेव-वारेव ना कोय, हम तो रानी डसबै होय
साँप भी साथ हो लिया सातों पहुँचे रानी के महल में साँप ने फन फैलाया तो रानी के होश गुम हो गए रानी गिडगिडाते हुए बोली -
हमका डसे-वसे ना कोय, हम तो राजा छोडब होय
रानी को साथ ले के सातों दरबार में पहुँचे जैसे राजा को पता चला की रानी उसे छोड़ के चली जायेगी बेचारे के होश उड़ गए उसने कहा-
हमका छोडेव-वोडेव ना कोय हम तो बढ़ई डाणब होय
बढ़ई दरबार में बुलाया गया राजा ने कहा – तुम फ़ौरन चिड़िया का दाना खूंटे से निकाल के दो वर्ना तुम्हे कठोर दंड भुगतना पड़ेगा बढ़ई ने याचना की-
हमका डाणै-वाणै ना कोय हम तो खूँटा चीरब होय
बढ़ई ने आरी उठाई और खूँटा चीर दिया चिड़िया ने दाना चोंच में उठाया, चींटी को धन्यवाद दिया और खुशी-खुशी अपने घोंसले की ओर उड़ चली
जागरण जंक़्शन से साभार
चिड़िया उड़ कर बढ़ई के पास पहुँची और उसने कहा-
‘बढ़ई-बढ़ई खूँटा चीर, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
बढ़ई – जा-जा तेरा एक दाना निकालने के लिए मैं खूँटा चीरने ना जाऊँगा
अब चिड़िया उड़ के राजा के पास शिकायत करने पहुंची -
राजा-राजा बढ़ई डाण (को दंड दे), बढ़ई ना खूँटा चीरे, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
राजा – जा-जा तेरे एक दाने के लिए मैं अपने बढ़ई को दंड नहीं दूँगा
चिड़िया वहाँ से उड़ के रानी के पास पहुँची, और उसने रानी से अपनी व्यथा कही-
रानी-रानी राजा छोड़, राजवा ना बढ़ई डाणै,बढ़ई ना खूँटा चीरे, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
रानी- अरी चिड़िया पागल हो गई है क्या ? तेरे एक दाने दाल के लिए मैं अपने राजा को क्यूँ छोड़ दूँ ?
चिड़िया फिर उड़ी अब वो साँप के पास गई और उससे बोली-
साँप-साँप रानी काट, रनिया ना राजा छोड़े,राजवा ना बढ़ई डाणै, बढ़ई ना खूँटा चीरे,खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
साँप- जा-जा मैं ना जाता तेरे दाल के दाने के लिए रानी को डसने !
चिड़िया फिर उड़ी इस बार वो लाठी के पास पहुँची और कहा-
लाठी-लाठी कीड़ा (साँप) मार, कीडवा ना रानी डसैरनिया ना राजा छोड़े, राजवा ना बढ़ई डाणै,बढ़ई ना खूँटा चीरे, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
लाठी – मैं तो तेरे लिए साँप मारने ना जाने वाला तू कोई और जतन कर ले
चिड़िया ने अभी भी हार नहीं मानी वो आग के पास जा पहुँची और उससे भी यही दोहराया -
आग-आग लाठी जार (जला), लठिया ना कीड़ा मारे,कीडवा ना रानी डसै, रनिया ना राजा छोड़े,राजवा ना बढ़ई डाणै, बढ़ई ना खूँटा चीरे,खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
आग- मैं ना जाती तेरे एक दाने के लिए लाठी जलाने !
चिड़िया फिर आगे उड़ चली रास्ते में उसे नदी मिली, उसने नदी से कहा-
नदी-नदी भाड़ (आग की भट्टी) बुझा, अगिया ना लाठी जारे,लठिया ना कीड़ा मारे,कीडवा ना रानी डसै, रनिया ना राजा छोड़े, राजवा ना बढ़ई डाणै,बढ़ई ना खूँटा चीरे, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
नदी – जा यहाँ से मैं तेरी कोई मदद नहीं कर सकती
चिड़िया फिर उड़ी अब वो हाथी के पास गई और हाथी से कहा-
हाथी-हाथी नदी सोख, नदिया ना भाड़ बुतावे (बुझाये),अगिया ना लाठी जारे, लठिया ना कीड़ा मारे,कीडवा ना रानी डसै, रनिया ना राजा छोड़े,राजवा ना बढ़ई डाणै, बढ़ई ना खूँटा चीरे,खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
हाथी- मैं ना जाता तेरे लिए नदी सोखने तू कोई और ढूंढ ले !
इस बार निराश सी होके चिड़िया एक पेड़ कि शाख पे बैठ के रोने लगी तभी उसे दाल पे कुंलांचे भरती चींटी दिखी चिड़िया ने चींटी से गुहार लगाई-
चींटी-चींटी हाथी मार, हथिया ना नदी सोखे,नदिया ना भाड़ बुतावे (बुझाये),अगिया ना लाठी जारे, लठिया ना कीड़ा मारे,कीडवा ना रानी डसै, रनिया ना राजा छोड़े,राजवा ना बढ़ई डाणै, बढ़ई ना खूँटा चीरे,खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
चींटी – अरी चिड़िया तू क्यों रोती है ? मैं हूँ ना ! चल देखूं तो इस हाथी को
चींटी चिड़िया को ले के हाथी के पास पहुँची और उसने हाथी को चिड़िया की मदद करने को कहा हाथी ना माना तो चींटी उसके सूंड में घुस गईं और अंदर काटना शुरू किया हाथी दर्द के मारे लोटने-बिलबिलाने लगा और चींटी से माफ़ी मांगी-
हमका दर्द दियो ना कोय हम तो नदिया सोखब होय
चींटी बाहर निकल आई और तीनो चल दिए नदी की ओर नदी हाथी को देख के घबराई, हाथ जोड़ के नतमस्तक हो गई और कहा-
हमका सोखेव-वोखेव ना कोय, हम तो भाड़ बुताइब होय
नदी भी साथ हो ली अब चारों भाड़ के पास पहुँचे नदी को गर्जना करते आते देख आग सिर झुका के खड़ी हो गई और उसने फ़रियाद की -
हमका बुतायो-वुतायो ना कोय, हम तो लाठी जारब होय
आग भी साथ हो ली पांचो लाठी के पास पहुँचे आग देखते ही लाठी के होश गुम हो गए घबरा के लाठी बोली -
हम जारेव-बारेव ना कोय, हम तो कीड़ा मारब होय
लाठी भी साथ चली अब छहों साँप के पास पहुँचे लाठी को देखते ही साँप की भी फुस्स हो गई बेचारा मिन्नत करने लगा -
हमका मारेव-वारेव ना कोय, हम तो रानी डसबै होय
साँप भी साथ हो लिया सातों पहुँचे रानी के महल में साँप ने फन फैलाया तो रानी के होश गुम हो गए रानी गिडगिडाते हुए बोली -
हमका डसे-वसे ना कोय, हम तो राजा छोडब होय
रानी को साथ ले के सातों दरबार में पहुँचे जैसे राजा को पता चला की रानी उसे छोड़ के चली जायेगी बेचारे के होश उड़ गए उसने कहा-
हमका छोडेव-वोडेव ना कोय हम तो बढ़ई डाणब होय
बढ़ई दरबार में बुलाया गया राजा ने कहा – तुम फ़ौरन चिड़िया का दाना खूंटे से निकाल के दो वर्ना तुम्हे कठोर दंड भुगतना पड़ेगा बढ़ई ने याचना की-
हमका डाणै-वाणै ना कोय हम तो खूँटा चीरब होय
बढ़ई ने आरी उठाई और खूँटा चीर दिया चिड़िया ने दाना चोंच में उठाया, चींटी को धन्यवाद दिया और खुशी-खुशी अपने घोंसले की ओर उड़ चली
जागरण जंक़्शन से साभार
सोमवार, 18 अक्टूबर 2010
टेढ़ी खीर
एक नवयुवक था. छोटे से क़स्बे का. अच्छे खाते-पीते घर का लेकिन सीधा-सादा और सरल सा. बहुत ही मिलनसार.
एक दिन उसकी मुलाक़ात अपनी ही उम्र के एक नवयुवक से हुई. बात-बात में दोनों दोस्त हो गए. दोनों एक ही तरह के थे. सिर्फ़ दो अंतर थे, दोनों में. एक तो यह था कि दूसरा नवयुवक बहुत ही ग़रीब परिवार से था और अक्सर दोनों वक़्त की रोटी का इंतज़ाम भी मुश्किल से हो पाता था. दूसरा अंतर यह कि दूसरा जन्म से ही नेत्रहीन था. उसने कभी रोशनी देखी ही नहीं थी. वह दुनिया को अपनी तरह से टटोलता-पहचानता था.
लेकिन दोस्ती धीरे-धीरे गाढ़ी होती गई. अक्सर मेल मुलाक़ात होने लगी.
एक दिन नवयुवक ने अपने नेत्रहीन मित्र को अपने घर खाने का न्यौता दिया. दूसरे ने उसे ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार किया.
दोस्त पहली बार खाना खाने आ रहा था. अच्छे मेज़बान की तरह उसने कोई कसर नहीं छोड़ी. तरह-तरह के व्यंजन और पकवान बनाए.
दोनों ने मिलकर खाना खाया. नेत्रहीन दोस्त को बहुत आनंद आ रहा था. एक तो वह अपने जीवन में पहली बार इतने स्वादिष्ट भोजन का स्वाद ले रहा था. दूसरा कई ऐसी चीज़ें थीं जो उसने अपने जीवन में इससे पहले कभी नहीं खाईं थीं.
इसमें खीर भी शामिल थी. खीर खाते-खाते उसने पूछा, "मित्र, यह कौन सा व्यंजन है, बड़ा स्वादिष्ट लगता है."
मित्र ख़ुश हुआ. उसने उत्साह से बताया कि यह खीर है.
सवाल हुआ, "तो यह खीर कैसा दिखता है?"
"बिलकुल दूध की तरह ही. सफ़ेद."
जिसने कभी रोशनी न देखी हो वह सफ़ेद क्या जाने और काला क्या जाने. सो उसने पूछा, "सफ़ेद? वह कैसा होता है."
मित्र दुविधा में फँस गया. कैसे समझाया जाए कि सफ़ेद कैसा होता है. उसने तरह-तरह से समझाने का प्रयास किया लेकिन बात बनी नहीं.
आख़िर उसने कहा, "मित्र सफ़ेद बिलकुल वैसा ही होता है जैसा कि बगुला."
"और बगुला कैसा होता है."
यह एक और मुसीबत थी कि अब बगुला कैसा होता है यह किस तरह समझाया जाए. कई तरह की कोशिशों के बाद उसे तरक़ीब सूझी. उसने अपना हाथ आगे किया, उँगलियाँ को जोड़कर चोंच जैसा आकार बनाया और कलाई से हाथ को मोड़ लिया. फिर कोहनी से मोड़कर कहा, "लो छूकर देखो कैसा दिखता है बगुला."
दृष्टिहीन मित्र ने उत्सुकता में दोनों हाथ आगे बढ़ाए और अपने मित्र का हाथ छू-छूकर देखने लगा. हालांकि वह इस समय समझने की कोशिश कर रहा था कि बगुला कैसा होता है लेकिन मन में उत्सुकता यह थी कि खीर कैसी होती है.
जब हाथ अच्छी तरह टटोल लिया तो उसने थोड़ा चकित होते हुए कहा, "अरे बाबा, ये खीर तो बड़ी टेढ़ी चीज़ होती है."
वह फिर खीर का आनंद लेने लगा. लेकिन तब तक खीर ढेढ़ी हो चुकी थी. यानी किसी भी जटिल काम के लिए मुहावरा बन चुका था "टेढ़ी खीर."
एक दिन उसकी मुलाक़ात अपनी ही उम्र के एक नवयुवक से हुई. बात-बात में दोनों दोस्त हो गए. दोनों एक ही तरह के थे. सिर्फ़ दो अंतर थे, दोनों में. एक तो यह था कि दूसरा नवयुवक बहुत ही ग़रीब परिवार से था और अक्सर दोनों वक़्त की रोटी का इंतज़ाम भी मुश्किल से हो पाता था. दूसरा अंतर यह कि दूसरा जन्म से ही नेत्रहीन था. उसने कभी रोशनी देखी ही नहीं थी. वह दुनिया को अपनी तरह से टटोलता-पहचानता था.
लेकिन दोस्ती धीरे-धीरे गाढ़ी होती गई. अक्सर मेल मुलाक़ात होने लगी.
एक दिन नवयुवक ने अपने नेत्रहीन मित्र को अपने घर खाने का न्यौता दिया. दूसरे ने उसे ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार किया.
दोस्त पहली बार खाना खाने आ रहा था. अच्छे मेज़बान की तरह उसने कोई कसर नहीं छोड़ी. तरह-तरह के व्यंजन और पकवान बनाए.
दोनों ने मिलकर खाना खाया. नेत्रहीन दोस्त को बहुत आनंद आ रहा था. एक तो वह अपने जीवन में पहली बार इतने स्वादिष्ट भोजन का स्वाद ले रहा था. दूसरा कई ऐसी चीज़ें थीं जो उसने अपने जीवन में इससे पहले कभी नहीं खाईं थीं.
इसमें खीर भी शामिल थी. खीर खाते-खाते उसने पूछा, "मित्र, यह कौन सा व्यंजन है, बड़ा स्वादिष्ट लगता है."
मित्र ख़ुश हुआ. उसने उत्साह से बताया कि यह खीर है.
सवाल हुआ, "तो यह खीर कैसा दिखता है?"
"बिलकुल दूध की तरह ही. सफ़ेद."
जिसने कभी रोशनी न देखी हो वह सफ़ेद क्या जाने और काला क्या जाने. सो उसने पूछा, "सफ़ेद? वह कैसा होता है."
मित्र दुविधा में फँस गया. कैसे समझाया जाए कि सफ़ेद कैसा होता है. उसने तरह-तरह से समझाने का प्रयास किया लेकिन बात बनी नहीं.
आख़िर उसने कहा, "मित्र सफ़ेद बिलकुल वैसा ही होता है जैसा कि बगुला."
"और बगुला कैसा होता है."
यह एक और मुसीबत थी कि अब बगुला कैसा होता है यह किस तरह समझाया जाए. कई तरह की कोशिशों के बाद उसे तरक़ीब सूझी. उसने अपना हाथ आगे किया, उँगलियाँ को जोड़कर चोंच जैसा आकार बनाया और कलाई से हाथ को मोड़ लिया. फिर कोहनी से मोड़कर कहा, "लो छूकर देखो कैसा दिखता है बगुला."
दृष्टिहीन मित्र ने उत्सुकता में दोनों हाथ आगे बढ़ाए और अपने मित्र का हाथ छू-छूकर देखने लगा. हालांकि वह इस समय समझने की कोशिश कर रहा था कि बगुला कैसा होता है लेकिन मन में उत्सुकता यह थी कि खीर कैसी होती है.
जब हाथ अच्छी तरह टटोल लिया तो उसने थोड़ा चकित होते हुए कहा, "अरे बाबा, ये खीर तो बड़ी टेढ़ी चीज़ होती है."
वह फिर खीर का आनंद लेने लगा. लेकिन तब तक खीर ढेढ़ी हो चुकी थी. यानी किसी भी जटिल काम के लिए मुहावरा बन चुका था "टेढ़ी खीर."
एक मुहावरे की कथा
एक नगर सेठ थे. अपनी पदवी के अनुरुप वे अथाह दौलत के स्वामी थे. घर, बंगला, नौकर-चाकर थे. एक चतुर मुनीम भी थे जो सारा कारोबार संभाले रहते थे.
किसी समारोह में नगर सेठ की मुलाक़ात नगर-वधु से हो गई. नगर-वधु यानी शहर की सबसे ख़ूबसूरत वेश्या. अपने पेश की ज़रुरत के मुताबिक़ नगर-वधु ने मालदार व्यक्ति जानकर नगर सेठ के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया. फिर उन्हें अपने घर पर भी आमंत्रित किया.
सम्मान से अभिभूत सेठ, दूसरे-तीसरे दिन नगर-वधु के घर जा पहुँचे. नगर-वधु ने आतिथ्य में कोई कमी नहीं छोड़ी. खूब आवभगत की और यक़ीन दिला दिया कि वह सेठ से बेइंतहा प्रेम करती है.
अब नगर-सेठ जब तब नगर-वधु के ठौर पर नज़र आने लगे. शामें अक्सर वहीं गुज़रने लगीं. नगर भर में ख़बर फैल गई. काम-धंधे पर असर होने लगा. मुनीम की नज़रे इस पर टेढ़ी होने लगीं.
एक दिन सेठ को बुखार आ गया. तबियत कुछ ज़्यादा बिगड़ गई. कई दिनों तक बिस्तर से नहीं उठ सके. इसी बीच नगर-वधु का जन्मदिन आया. सेठ ने मुनीम को बुलाया और आदेश दिए कि एक हीरों जड़ा नौलखा हार ख़रीदा जाए और नगर-वधु को उनकी ओर से भिजवा दिया जाए. निर्देश हुए कि मुनीम ख़ुद उपहार लेकर जाएँ.
मुनीम तो मुनीम था. ख़ानदानी मुनीम. उसकी निष्ठा सेठ के प्रति भर नहीं थी. उसके पूरे परिवार और काम धंधे के प्रति भी थी. उसने सेठ को समझाया कि वे भूल कर रहे हैं. बताने की कोशिश की, वेश्या किसी व्यक्ति से प्रेम नहीं करती, पैसों से करती है. मुनीम ने उदाहरण देकर समझाया कि नगर-सेठ जैसे कई लोग प्रेम के भ्रम में वहाँ मंडराते रहते हैं. लेकिन सेठ को न समझ में आना था, न आया. उनको सख़्ती से कहा कि मुनीम नगर-वधु के पास तोहफ़ा पहुँचा आएँ.
मुनीम क्या करते. एक हीरों जड़ा नौलखा हार ख़रीदा और नगर-वधु के घर की ओर चल पड़े. लेकिन रास्ते भर वे इस समस्या को निपटाने का उपाय सोचते रहे.
चित्रांकनः हरीश परगनिहा
नगर-वधु के घर पहुँचे तो नौलखा हार का डब्बा खोलते हुए कहा, “यह तोहफ़ा उसकी ओर से जिससे तुम सबसे अधिक प्रेम करती हो.”
नगर-वधु ने फटाफट तीन नाम गिना दिए. मुनीम को आश्चर्य नहीं हुआ कि उन तीन नामों में सेठ का नाम नहीं था. निर्विकार भाव से उन्होंने कहा, “देवी, इन तीन में तो उन महानुभाव का नाम नहीं है जिन्होंने यह उपहार भिजवाया है.”
नगर-वधु की मुस्कान ग़ायब हो गई. सामने चमचमाता नौलखा हार था और उससे भारी भूल हो गई थी. उसे उपहार हाथ से जाता हुआ दिखा. उसने फ़ौरन तेरह नाम गिनवा दिए.
तेरह नाम में भी सेठ का नाम नहीं था. लेकिन इस बार मुनीम का चेहरा तमतमा गया. ग़ुस्से से उन्होंने नौलखा हार का डब्बा उठाया और खट से उसे बंद करके उठ गए. नगर-वधु गिड़गिड़ाने लगी. उसने कहा कि उससे भूल हो गई है. लेकिन मुनीम चल पड़े.
बीमार सेठ सिरहाने से टिके मुनीम के आने की प्रतीक्षा ही कर रहे थे. नगर-वधु के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे.
मुनीम पहुचे और हार का डब्बा सेठ के सामने पटकते हुए कहा, “लो, अपना नौलखा हार, न तुम तीन में न तेरह में. यूँ ही प्रेम का भ्रम पाले बैठे हो.”
सेठ की आँखें खुल गई थीं. इसके बाद वे कभी नगर-वधु के दर पर नहीं दिखाई पड़े.
किसी समारोह में नगर सेठ की मुलाक़ात नगर-वधु से हो गई. नगर-वधु यानी शहर की सबसे ख़ूबसूरत वेश्या. अपने पेश की ज़रुरत के मुताबिक़ नगर-वधु ने मालदार व्यक्ति जानकर नगर सेठ के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया. फिर उन्हें अपने घर पर भी आमंत्रित किया.
सम्मान से अभिभूत सेठ, दूसरे-तीसरे दिन नगर-वधु के घर जा पहुँचे. नगर-वधु ने आतिथ्य में कोई कमी नहीं छोड़ी. खूब आवभगत की और यक़ीन दिला दिया कि वह सेठ से बेइंतहा प्रेम करती है.
अब नगर-सेठ जब तब नगर-वधु के ठौर पर नज़र आने लगे. शामें अक्सर वहीं गुज़रने लगीं. नगर भर में ख़बर फैल गई. काम-धंधे पर असर होने लगा. मुनीम की नज़रे इस पर टेढ़ी होने लगीं.
एक दिन सेठ को बुखार आ गया. तबियत कुछ ज़्यादा बिगड़ गई. कई दिनों तक बिस्तर से नहीं उठ सके. इसी बीच नगर-वधु का जन्मदिन आया. सेठ ने मुनीम को बुलाया और आदेश दिए कि एक हीरों जड़ा नौलखा हार ख़रीदा जाए और नगर-वधु को उनकी ओर से भिजवा दिया जाए. निर्देश हुए कि मुनीम ख़ुद उपहार लेकर जाएँ.
मुनीम तो मुनीम था. ख़ानदानी मुनीम. उसकी निष्ठा सेठ के प्रति भर नहीं थी. उसके पूरे परिवार और काम धंधे के प्रति भी थी. उसने सेठ को समझाया कि वे भूल कर रहे हैं. बताने की कोशिश की, वेश्या किसी व्यक्ति से प्रेम नहीं करती, पैसों से करती है. मुनीम ने उदाहरण देकर समझाया कि नगर-सेठ जैसे कई लोग प्रेम के भ्रम में वहाँ मंडराते रहते हैं. लेकिन सेठ को न समझ में आना था, न आया. उनको सख़्ती से कहा कि मुनीम नगर-वधु के पास तोहफ़ा पहुँचा आएँ.
मुनीम क्या करते. एक हीरों जड़ा नौलखा हार ख़रीदा और नगर-वधु के घर की ओर चल पड़े. लेकिन रास्ते भर वे इस समस्या को निपटाने का उपाय सोचते रहे.
चित्रांकनः हरीश परगनिहा
नगर-वधु के घर पहुँचे तो नौलखा हार का डब्बा खोलते हुए कहा, “यह तोहफ़ा उसकी ओर से जिससे तुम सबसे अधिक प्रेम करती हो.”
नगर-वधु ने फटाफट तीन नाम गिना दिए. मुनीम को आश्चर्य नहीं हुआ कि उन तीन नामों में सेठ का नाम नहीं था. निर्विकार भाव से उन्होंने कहा, “देवी, इन तीन में तो उन महानुभाव का नाम नहीं है जिन्होंने यह उपहार भिजवाया है.”
नगर-वधु की मुस्कान ग़ायब हो गई. सामने चमचमाता नौलखा हार था और उससे भारी भूल हो गई थी. उसे उपहार हाथ से जाता हुआ दिखा. उसने फ़ौरन तेरह नाम गिनवा दिए.
तेरह नाम में भी सेठ का नाम नहीं था. लेकिन इस बार मुनीम का चेहरा तमतमा गया. ग़ुस्से से उन्होंने नौलखा हार का डब्बा उठाया और खट से उसे बंद करके उठ गए. नगर-वधु गिड़गिड़ाने लगी. उसने कहा कि उससे भूल हो गई है. लेकिन मुनीम चल पड़े.
बीमार सेठ सिरहाने से टिके मुनीम के आने की प्रतीक्षा ही कर रहे थे. नगर-वधु के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे.
मुनीम पहुचे और हार का डब्बा सेठ के सामने पटकते हुए कहा, “लो, अपना नौलखा हार, न तुम तीन में न तेरह में. यूँ ही प्रेम का भ्रम पाले बैठे हो.”
सेठ की आँखें खुल गई थीं. इसके बाद वे कभी नगर-वधु के दर पर नहीं दिखाई पड़े.
लघु कथाएँ
लघु कथाएँ
नींद में चोर
चोर सोचता रहा, आख़िर वह चोर कैसे बन गया? वह चोर तो बनना नहीं चाहता था. वह चाहता था कि वह भी पढ़-लिखकर बाबू बने. उनके माता-पिता कह सकें कि मेरे बेटे ने ख़ानदान का नाम रोशन किया है. चोर दिनभर सोचता रहा और समझ नहीं पाया कि आख़िर वह चोर कैसे बन गया.
सोचते-सोचते उसे नींद आ गई. नींद में उसने देखा कि एक लड़का उसके घर से रोटी चुरा रहा है. उसने नींद में उसे फ़ौरन पकड़ लिया.
उसने ज़ोरों से चिल्लाकर कहा,‘‘चोरी करते तुम्हें शर्म नहीं आती.’’ जब नींद टूटी तो उसने देखा कि वह अपना ही हाथ पकड़े हुए है.
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चोर की सुहागरात
चोर की एक दिन शादी हो गई, पर लड़की वालों को पता नहीं था कि दूल्हा चोर है. दरअसल चोर के घरवालों को भी मालूम नहीं था कि उनका बेटा चोर है.
सुहागरात के दिन चोर जब अपनी पत्नी से मिला तो उसने यह नहीं बताया कि वह चोर है. रात में जब वह सोने लगा तो उसके मन में यह द्वंद्व उठने लगा कि क्या वह अपनी पत्नी को यह राज़ बताए कि वह चोर है? अगर आज वह यह राज़ नहीं बताता है तो एक दिन पत्नी को जब यह राज़ पता चलेगा तो उसे गहरा धक्का लगेगा. चोर इसी उधेड़बुन में था. वह करवटें बदलता रहा. पत्नी समझ नहीं पाई कि आख़िर चोर वह सब क्यों नहीं कर रहा है जो सुहागरात में उसे करना चाहिए. वह सकुचा रही थी. उसने पति से पूछा,‘‘लगता है आप मुझसे कुछ छिपा रहे हैं. कहिए ना क्या बात है? अब तो हमें ज़िंदगी भर साथ निभाना है, इसलिए एक-दूसरे पर विश्वास करना चाहिए और मन की बातें बतानी चाहिए.’’
तब चोर ने हिम्मत जुटाई. वह बोला,‘‘जानती हो मैं क्या काम करता हूँ. मैं एक चोर हूँ. चोरी कर घर-बार चलाता हूँ.’’ यह सुनकर उसकी पत्नी रोने लगी. चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी. उसके रोने की आवाज़ जब कमरे के बाहर सुनाई पड़ी तो घरवालों के कान खड़े हो गए. वे सोचने लगे कि आख़िर बात क्या है? क्या कुछ ऐसी-वैसी बात हो गई या दुल्हन को अपने घर की याद आ रही है? चोर अपनी पत्नी को बहुत देर तक मनाता रहा. उसने कहा,‘‘आख़िर तुमने ही कहा था कि मन में कोई बात नहीं छिपानी चाहिए. इसलिए मैंने तुम्हें सच-सच बता दिया.’’
चोर की पत्नी को चोर पर प्यार आ गया. उसने मन ही मन कहा,‘‘पति चोर है तो क्या हुआ, सच तो बोलता है. मुझ पर विश्वास तो करता है.’’ इसके बाद पत्नी ने चोर को चूम लिया. चोर को आज तक याद है अपनी सुहागरात. वह भूला नहीं है. जब भी उसे उसकी पत्नी चूमती है, उसे अपनी सुहागरात की याद आ जाती है.
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चोर का इंटरव्यू
एक दिन अख़बार में चोर का इंटरव्यू छपा. बहुत धमाकेदार इंटरव्यू. उसके बाद इलेक्ट्रॉनिक चैनल वाले भी इसका इंटरव्यू लेने आए. चोर ने बड़ी निर्भीकता से अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट से कही. अगले दिन उसके शहर के एसपी का फ़ोन आया,‘‘तुमको चोरी करनी है तो चोरी करो. इस तरह का इंटरव्यू मत दो, नहीं तो तुम्हें थाने के अंदर कर दिया जाएगा.’’
चोर यह समझ नहीं पाया. यह कैसा लोकतंत्र है! क्या मीडिया को इंटरव्यू देने के लिए किसी को धमकी दी जा सकती है, गिरफ़्तारी भी हो सकती है! उसने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को पत्र लिखा. आयोग का जवाब आया,‘‘हमने राज्य सरकार को नोटिस भेजा है. एक महीने के भीतर उसका जवाब मांगा है.’’
चित्रांकन-हरीश परगनिहा
एक महीने के बाद आयोग का जवाब आया-राज्य सरकार की ओर से कोई जवाब नहीं आया. आप चाहें तो उच्चतम न्यायालय का दरवाज़ा खटखटा सकते हैं. चोर के पास न इतने पैसे थे और न ही इतना समय कि वह कोर्ट के चक्कर लगाए. उसने नेताओं की तरह एक प्रेस बयान जारी किया कि मीडिया ने मेरी बातों को तोड़-मरोड़कर पेश किया है.
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चोर का भाग्य
एक चोर आस्तिक था तो एक चोर अनीश्वरवादी. जो चोर आस्तिक था, वह भाग्यवादी था. इसलिए वह मानता था कि यह चोरी करना उसके भाग्य में लिखा है. यही कारण है वह चोरी करता है. पर जो अनीश्वरवादी था, वह जानता था कि चोरी करना उसका भाग्य नहीं है. इसलिए वह अपने भाग्य को बदलने की फ़िराक़ में रहता था. आस्तिक चोर छोटा चोर ही बना रह गया. नास्तिक चोर बहुत बड़ा चोर बन गया.
बड़ा चोर बनते ही उसका भाग्य भी बदल गया.
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चोर की धर्मनिरपेक्षता
एक चोर मंदिर जाता था.एक चोर मस्जिद जाता था.एक चोर गिरजाघर जाता था.पर वे आपस में लड़ते नहीं थे, झगड़ते नहीं थे.वे आपस में मिलकर रहते थे.
पर जो लोग ख़ुद को शरीफ़ और ईमानदार कहते थेवे मंदिर-मस्जिद की बात पर बहुत झगड़ा करते थे.
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अमीर चोर
चोर अमीर होते हैं, ग़रीब होते हैं. सफल होते हैं, असफल होते हैं. कई चोर ज़िंदगी भर कपड़े, बर्तन, साइकिल आदि चुराते रहते हैं. उनमें महत्वाकांक्षा कम होती है. अमीर चोर महत्वाकांक्षी होते हैं. वे नई-नई योजनाएँ बनाते रहते हैं. वे विश्च बैंक से मिलकर देश को लूटने के ख़ाके तैयार करते हैं. उनकी चोरी ‘क्लास’ ही अलग है. वे चोर दिखते भी नहीं. वे बहुत संभ्रांत होते हैं. उन्हें चोर कहकर उनकी तौहीन नहीं की जा सकती. वे सभा-सोसाइटियों के लोग हैं. यही कारण है कि अमीर चोर ग़रीब चोरों को हेय दृष्टि से देखते हैं. वे उसे अपना मौसेरा भाई तो क्या, दूर के रिश्ते का भी कोई भाई नहीं मानते. इसलिए कई बार ग़रीब चोर भी अमीर चोरों के घर इतनी सफ़ाई से सेंध लगाते हैं कि उन्हें पता ही नहीं चलता और माल साफ़ हो जाता है. ग़रीब चोर इतना ज़रूर जता देते हैं कि वे सत्ता विमर्श में भले ही पीछे हों, पर उनकी कल्पनाशीलता और रचनात्मकता का कोई जवाब नहीं है.
**********पुस्तक अंशचोर पुराणलेखक-विमल कुमारपेंगुइन बुक्स11, पंचशील पार्क, नई दिल्ली 17.
नींद में चोर
चोर सोचता रहा, आख़िर वह चोर कैसे बन गया? वह चोर तो बनना नहीं चाहता था. वह चाहता था कि वह भी पढ़-लिखकर बाबू बने. उनके माता-पिता कह सकें कि मेरे बेटे ने ख़ानदान का नाम रोशन किया है. चोर दिनभर सोचता रहा और समझ नहीं पाया कि आख़िर वह चोर कैसे बन गया.
सोचते-सोचते उसे नींद आ गई. नींद में उसने देखा कि एक लड़का उसके घर से रोटी चुरा रहा है. उसने नींद में उसे फ़ौरन पकड़ लिया.
उसने ज़ोरों से चिल्लाकर कहा,‘‘चोरी करते तुम्हें शर्म नहीं आती.’’ जब नींद टूटी तो उसने देखा कि वह अपना ही हाथ पकड़े हुए है.
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चोर की सुहागरात
चोर की एक दिन शादी हो गई, पर लड़की वालों को पता नहीं था कि दूल्हा चोर है. दरअसल चोर के घरवालों को भी मालूम नहीं था कि उनका बेटा चोर है.
सुहागरात के दिन चोर जब अपनी पत्नी से मिला तो उसने यह नहीं बताया कि वह चोर है. रात में जब वह सोने लगा तो उसके मन में यह द्वंद्व उठने लगा कि क्या वह अपनी पत्नी को यह राज़ बताए कि वह चोर है? अगर आज वह यह राज़ नहीं बताता है तो एक दिन पत्नी को जब यह राज़ पता चलेगा तो उसे गहरा धक्का लगेगा. चोर इसी उधेड़बुन में था. वह करवटें बदलता रहा. पत्नी समझ नहीं पाई कि आख़िर चोर वह सब क्यों नहीं कर रहा है जो सुहागरात में उसे करना चाहिए. वह सकुचा रही थी. उसने पति से पूछा,‘‘लगता है आप मुझसे कुछ छिपा रहे हैं. कहिए ना क्या बात है? अब तो हमें ज़िंदगी भर साथ निभाना है, इसलिए एक-दूसरे पर विश्वास करना चाहिए और मन की बातें बतानी चाहिए.’’
तब चोर ने हिम्मत जुटाई. वह बोला,‘‘जानती हो मैं क्या काम करता हूँ. मैं एक चोर हूँ. चोरी कर घर-बार चलाता हूँ.’’ यह सुनकर उसकी पत्नी रोने लगी. चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी. उसके रोने की आवाज़ जब कमरे के बाहर सुनाई पड़ी तो घरवालों के कान खड़े हो गए. वे सोचने लगे कि आख़िर बात क्या है? क्या कुछ ऐसी-वैसी बात हो गई या दुल्हन को अपने घर की याद आ रही है? चोर अपनी पत्नी को बहुत देर तक मनाता रहा. उसने कहा,‘‘आख़िर तुमने ही कहा था कि मन में कोई बात नहीं छिपानी चाहिए. इसलिए मैंने तुम्हें सच-सच बता दिया.’’
चोर की पत्नी को चोर पर प्यार आ गया. उसने मन ही मन कहा,‘‘पति चोर है तो क्या हुआ, सच तो बोलता है. मुझ पर विश्वास तो करता है.’’ इसके बाद पत्नी ने चोर को चूम लिया. चोर को आज तक याद है अपनी सुहागरात. वह भूला नहीं है. जब भी उसे उसकी पत्नी चूमती है, उसे अपनी सुहागरात की याद आ जाती है.
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चोर का इंटरव्यू
एक दिन अख़बार में चोर का इंटरव्यू छपा. बहुत धमाकेदार इंटरव्यू. उसके बाद इलेक्ट्रॉनिक चैनल वाले भी इसका इंटरव्यू लेने आए. चोर ने बड़ी निर्भीकता से अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट से कही. अगले दिन उसके शहर के एसपी का फ़ोन आया,‘‘तुमको चोरी करनी है तो चोरी करो. इस तरह का इंटरव्यू मत दो, नहीं तो तुम्हें थाने के अंदर कर दिया जाएगा.’’
चोर यह समझ नहीं पाया. यह कैसा लोकतंत्र है! क्या मीडिया को इंटरव्यू देने के लिए किसी को धमकी दी जा सकती है, गिरफ़्तारी भी हो सकती है! उसने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को पत्र लिखा. आयोग का जवाब आया,‘‘हमने राज्य सरकार को नोटिस भेजा है. एक महीने के भीतर उसका जवाब मांगा है.’’
चित्रांकन-हरीश परगनिहा
एक महीने के बाद आयोग का जवाब आया-राज्य सरकार की ओर से कोई जवाब नहीं आया. आप चाहें तो उच्चतम न्यायालय का दरवाज़ा खटखटा सकते हैं. चोर के पास न इतने पैसे थे और न ही इतना समय कि वह कोर्ट के चक्कर लगाए. उसने नेताओं की तरह एक प्रेस बयान जारी किया कि मीडिया ने मेरी बातों को तोड़-मरोड़कर पेश किया है.
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चोर का भाग्य
एक चोर आस्तिक था तो एक चोर अनीश्वरवादी. जो चोर आस्तिक था, वह भाग्यवादी था. इसलिए वह मानता था कि यह चोरी करना उसके भाग्य में लिखा है. यही कारण है वह चोरी करता है. पर जो अनीश्वरवादी था, वह जानता था कि चोरी करना उसका भाग्य नहीं है. इसलिए वह अपने भाग्य को बदलने की फ़िराक़ में रहता था. आस्तिक चोर छोटा चोर ही बना रह गया. नास्तिक चोर बहुत बड़ा चोर बन गया.
बड़ा चोर बनते ही उसका भाग्य भी बदल गया.
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चोर की धर्मनिरपेक्षता
एक चोर मंदिर जाता था.एक चोर मस्जिद जाता था.एक चोर गिरजाघर जाता था.पर वे आपस में लड़ते नहीं थे, झगड़ते नहीं थे.वे आपस में मिलकर रहते थे.
पर जो लोग ख़ुद को शरीफ़ और ईमानदार कहते थेवे मंदिर-मस्जिद की बात पर बहुत झगड़ा करते थे.
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अमीर चोर
चोर अमीर होते हैं, ग़रीब होते हैं. सफल होते हैं, असफल होते हैं. कई चोर ज़िंदगी भर कपड़े, बर्तन, साइकिल आदि चुराते रहते हैं. उनमें महत्वाकांक्षा कम होती है. अमीर चोर महत्वाकांक्षी होते हैं. वे नई-नई योजनाएँ बनाते रहते हैं. वे विश्च बैंक से मिलकर देश को लूटने के ख़ाके तैयार करते हैं. उनकी चोरी ‘क्लास’ ही अलग है. वे चोर दिखते भी नहीं. वे बहुत संभ्रांत होते हैं. उन्हें चोर कहकर उनकी तौहीन नहीं की जा सकती. वे सभा-सोसाइटियों के लोग हैं. यही कारण है कि अमीर चोर ग़रीब चोरों को हेय दृष्टि से देखते हैं. वे उसे अपना मौसेरा भाई तो क्या, दूर के रिश्ते का भी कोई भाई नहीं मानते. इसलिए कई बार ग़रीब चोर भी अमीर चोरों के घर इतनी सफ़ाई से सेंध लगाते हैं कि उन्हें पता ही नहीं चलता और माल साफ़ हो जाता है. ग़रीब चोर इतना ज़रूर जता देते हैं कि वे सत्ता विमर्श में भले ही पीछे हों, पर उनकी कल्पनाशीलता और रचनात्मकता का कोई जवाब नहीं है.
**********पुस्तक अंशचोर पुराणलेखक-विमल कुमारपेंगुइन बुक्स11, पंचशील पार्क, नई दिल्ली 17.
बुढ़ापे का सहारा
ममता रानी वर्मा मां का इकलौता बेटा बुढ़ापे का सहारा अमरीका में जा बैठा था। नाम था उसका सोनू। यों तो उसका रहन-सहन ठाठ-बाट कम न थे। बड़े ऊंचे ओहदे पर जो था वो। पर माँ को अपने साथ रखने में हिचकिचाता था। पर बूढ़ी माँ क्या करे। किसके सहारे जिए। बुढ़ापे में किसके दरवाजे पर जा पड़े, यह सोच-सोचकर वह परेशान थी। रिश्तेदारों ने बेटे को समझाया कि बुढ़ापे में अपनी माँ को अपने साथ रखो। बेटा बोला मैं हिन्दुस्तान नहीं आऊंगा और माँ तो है ठेठ गंवार वह अमेरिका में कैसे रहेगी। मेरे दोस्त मेरी मजाक बनाएंगे। पर बाद में बहुत समझाने के बाद वह माँ को अपने पास अमेरिका ले जाने को तैयार हो गया। माँ अमेरिका अपने बेटे और बहू को पास चली गई। रिश्तेदारों ने भी चैन की सांस ली।अब वहां माँ का हाल बेहाल हो गया। बहू को घर की नौकरानी मिल गई। पर माँ तो माँ है। वह अपने घर का काम करने में ही संतोष का अनुभव करती। कुशल होने के कारण माँ का निभाव हो रहा था। बेटे ने एक दिन अपने बॉस को पार्टी दी। बॉस ने सोनू के प्रमोशन का वादा जो किया था। अब क्या घर की साज सजावट होने लगी। घर का सारा खराब समान इधर-उधर पलंग के नीचे छिपाया जाने लगा। अब वह घड़ी आने वाली थी, शाम के पांच बजे बॉस को आना था। तभी सोनू की पत्नी रेखा की नार माँ पर पड़ी। वह चौक कर बोली, अरे माँ का क्या करें। माँ उस समय कहां रहेगी जब तुम्हारे बॉस आएंगे? माँ को कहां छिपाएं? सोनू ने कहा, पहले खाने की तैयारी माँ के साथ मिलकर कर लो, फिर माँ को छिपाने का भी प्रबंध करते हैं। सारा खाना तैयार करवाकर डाइनिंग टेबल पर लगा दिया गया। पांच बजने वाले थे। माँ को कहां छिपाया जाए? इसी बात को लेकर सब परेशान थे। अंत में एक स्टोर रूम में माँ को छिपा दिया और हिदायत दी कि कुछ भी हो बाहर मत आना। ठीक पांच बजे श्रीमान मुकुन्द सोनू के बॉस आ गए। गपशप के बाद खाना खाकर तो मुकुन्द जी ऊंगली चाटते रह गए। उन्होंने इतना स्वादिष्ट खाना कभी न खाया था। सोनू के बॉस खाना खाकर रेखा की तारीफ के पुल बांधने लगे, पर सोनू के बेटे निखिल ने सारी पोल खोल दी कि अंकल ये सारा खाना तो दादी माँ ने बनाया है। बॉस सोनू की माँ से मिलने के लिए उत्सुक हुए, बोले हमें भी उनसे मिलवाओ। निखिल तपाक से बोला, ''मम्मी डैडी ने उन्हें स्टोर रूम में बंद कर रखा है।'' कारण पूछने पर सोनू ने बॉस को बताया कि माँ गांव की रहने वाली है, इसलिए मैं माँ को तुम्हारे सामने नहीं लाना चाहता था।सोनू के बॉस ने सोनू को समझाया, माँ ने तुमको नौ महीने पेट में पाला, अपने खून से सींचा। माँ तुम्हें दुनिया के सामने लाने में नहीं शर्माई और तुम माँ को मेरे सामने लाने से शरमा रहे थे। बॉस ने माँ से मिलकर मां के पैर छुए। सोनू और रेखा शरम से गड़े जा रहे थे। प्राथमिक शिक्षिका, केन्द्रीय विद्यालय, ओ.एन.जी.सी., सूरत
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