रविवार, 13 मार्च 2011

मेरे सब्र की इन्तहा


मत पुछ मेरे सब्र की इन्तहा कहाँ तक है, तू सितम करले तेरी ताकत जहाँ तक है,

वफ़ा की उमीद जिन्हें होंगी उन्हें होंगी, हमें तो देखना है की तू जालिम कहाँ तक है ।


जब आसमान गरजता होगा, तो मौसम भी अपना रंग बदलता होगा,

जब उठती होगी आप की निगाहें, तो खुदा भी गिर गिर कर संभालता होगा ।

सबको प्यार देने की आदत है हमें, अपनी अलग पहचान बनने की आदत है हमेंकितना भी ज़ख्म दे हमें कोई, उतना ही मुस्कराने की आदत है हमें ।

नाराज़ होकर जिंदगी से नाता नही तोड़ते, मुश्किल हो राह फ़िर भी मंजिल नही छोड़ते,

तनहा ना समझना खुदको कभी, हम उनमे से नही है, जो कभी साथ नही छोड़ ते ।

यकीं दिलाओ न मुझको कि तुम पराये नहीं

मुझे तो ज़ख्म लगे तुमने ज़ख्म खाए नहीं
मकाँ ख़मोश अगर है तो दोष किसका है

करे भी क्या जो कोई उसको घर बनाये नहीं

समझा के थक गए तो स्वयं मौन हो गएकहने लगे बच्चे कि पापा सुधर गए

ठोकरों से सरक सकता है हिमालयजो अपाहिज हैं ये उनकी कल्पना है

सोच समझकर बात करो अब राहों में भिखमंगों सेवरना तुम को समझा देगा वो भी इज्ज़त वाला है

बदली न जा सके कोई आदत नहीं होतीकमज़ोर दीवारों पर कोई छत नहीं होती


मुनव्वर’! माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना जहाँ बुनियाद हो इतनी नमीं अच्छी नहीं होती

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