थ्री मिस्टेक्स ऑफ माय लाइफ
थ्री मिस्टेक्स ऑफ माय लाइफ युवा भारतीय लेखक चेतन भगत का तीसरा बेस्टसेलर अंग्रेजी उपन्यास है। यह उपन्यास भारतीय युवा वर्ग की वर्तमान मन: स्थितियों को बारीकी से प्रस्तुत करता है। उपन्यास के केन्द्र में व्यवसाय प्रधान राज्य गुजरात का एक व्यवसायोन्मुख युवक गोविन्द है। आत्महत्या की कोशिशों के बाद बच जाने वाला यह युवक चेतन भगत को अपनी त्रासद कथा सुनाता है, जिसमें तीन घटनाओं में अपनी भागीदारी को वह तीन गलतियों के रूप में चिन्हित करता है। पहली गलती के रूप में धीरे-धीरे जम रहे व्यवसाय को ऊँचे मकाम पर ले जाने के लिए लगाई गई छलाँग को रेखांकित किया जाता है? तो दूसरी गलती के रूप में युवा प्रेमियों में सेक्स के लिए बेताबी के रूप में युवा प्रेमियों में सेक्स के लिए बेताबी से पैदा मुश्किलातों को देखा गया है तीसरी गलती में समय पर एक जरूरी फैसला ना ले पाने से हुई जीवन की हानि को दिखाया जाता है।
युवा मनोविज्ञान की अच्छी समझ है चेतन को, जो संवादों में अपनी बारीकी के साथ अभिव्यक्त होता है। 21वीं सदी का निम्न मध्यवर्गीय युवा किन कठिनाइयों से रोज दो-चार होता है और अपने अस्तित्व को बचाने के लिए कैसी-कैसी हिकमतें आजमाता है और जब उसकी गाडी जरा-सी लाइन पर आती दिखती है कि व्यवस्थाजन्य उत्पात कैसे उसे मरनांतक पीड़ा पहुँचाते हुए नष्ट कर देते हैं। इसका उदाहरण है ओमी-ईशान-गोविन्द की तिकड़ी और विद्या एक चौथा कोण है,जीवन की जिदों के प्रतीक-सी वह जिन्दा रंग भरती है उपन्यास के वीरान सफों में और सबसे ऊपर है क्रिकेटर अली।
भारतीय मानस के हिसाब से चेतन ने सही नाम दिया है उपन्यास को, थ्री मिस्टेक्स ऑफ माय लाइफ। पर इसका नाम क्रिकेटर अली भी रखा जा सकता था। बारह साल के इस बच्चे की नीली आँखें जहाँ से इस उपन्यास में चमकनी शुरू होती हैं वहाँ से सारी कथा पीछे छूट जाती है ओर कहानी का एकमात्रा लक्ष्य रह जाता है,इस नन्हे अली को महान् क्रिकेटर बनाने की कथा नायकों की समवेत इच्छा और उनकी अविराम कोशिशें जिसे दंगे की घृणित आग भी जला नहीं पाती। हो क्यों नहीं, अली तो अली है,एक निर्णयक मकाम पर जब अली से अस्ट्रेलिया की नागरिकता स्वीकारने की बाबत पूछा जाता है तो वह साफ इनकार करता हुआ कहता है कि सौ जन्म बाद भी वह एक भारतीय क्रिकेटर के रूप में ही जीवित रहना पसन्द करेगा।
अली चेतन का आदर्श चरित्रा है? इस चरित्रा के अंकन में चेतन उस अंधता तक जाते हैं जिस तक कोई भी आदर्शवादी लेखक अपनी सच्ची जिद में जा पहुँचता है,इसीलिए यह सम्भव हो पाता है कि अली सा मात्र बारह-तेरह साल का लड़का देशभक्ति का जज्बा जिस तरह दर्शाता है वह सामान्य नहीं लगता। इस तरह का जज्बा उपन्यास के अन्य चरित्रों पर फबता। पर देशभक्ति के आदर्श की यही सीमा भी होती है कि अक्सर वह कच्चे दिमागों में अपनी जडें जमाता है और देश को जनसमूह के रूप में देखने की बजाय एक ईकाई के रूप में देखने लगता है,जैसे एक व्यक्ति के महान् क्रिकेटर बनने में ही जैसे मुल्क का भविष्य छिपा हो। इस तरह देखें तो इस उपन्यास का सबसे प्रभावी हिस्सा छोटी उम्र की कोरी भावुकता को ही तरजीह देता है,जैसे कि बाकी तीन समस्याग्रस्त युवकों का भविष्य यह कोरी भावुक जिद ही तय कर देगी? क्योंकि असली भारत चेतन के ये तीन युवा ही बनाते हैं,और अली चाहे जितने छक्के लगा ले वह इस युवा वर्ग को उनके संकटों के पार नहीं ले जा सकता। इस तरह यह उपन्यास उसी मानसिकता को विज्ञाप्ति करता है जिसे रोज ब रोज के हमारे समाचार पत्रा व चैनल करते हैं जो क्रिकेट को दो देशों की बीच एक जंग के रूप में प्रचारित करते हैंµऔर इस तरह एक नकली जंग में पूरे मुल्क को मुिब्तला रखकर युवा वर्ग को उसके अपने संकटों को दूर करने के सही प्रयासों से भटकाता है।
इन तथ्यों के आलोक में देखें तो लगता है जैसे चेतन एक उपन्यास को बेस्टसेलर बनाने के तमाम गुरों का इस्तेमाल एक ही उपन्यास में कर जाते हैं, व्यवसायी वर्ग,दंगा-क्रिकेट-राष्ट्रवादी और सेकुलर पार्टियों के झगडे,प्रेम व सेक्स के अंतरंग दृश्य, कुल मिलाकर चेतन भारतीय बेस्ट सेलर्स गुलशन नंदा से लेकर धर्मवीर भारती तक ऐसे लेखकों को काफी पीछे छोड़ देते हैं? हिन्दी के उपन्यासों के बरक्स देखा जाए तो वे गुनाहों का देवता और मुझे चांद चाहिए के मध्य जगह बनाते दिखते हैं। हालाँकि विवरण की बारीकियां चेतन को इन दोनों से अलग पहचान देती हैं पर जहां तक जीवन दृष्टि का सवाल है वह मुझे चांद चाहिए में ज्यादा समर्थ ढंग से अभिव्यक्त होती है।
चेतन के इस उपन्यास पर फिल्म बनने जा रही है। उपन्यास का अन्तिम हिस्सा एक फिल्म की तरह तेजी से घटता है। उसमें कल्पना का प्रयोग अविश्वसनीयता की हद तक किया जाता है। दंगाई भीड़ से जिस तरह तीनों युवा निपटते हैं वह विश्वसनीय नहीं बन पाया है। पर फिल्मों में कुछ भी संभव होता है। इस तरह चेतन उपन्यास के अंत में पटकथा लिखने लगते है। शायद व्यवसायी दिमाग की उपज है यह। अन्त में अली के शाट्स से जिस तरह मुख्य दंगाई मारा जाता है वह उपन्यासकार की व्यवसाय की प्रतिभा का प्रमाण है। चेतन के उपन्यास इस तरह हिन्दी को एक नया पाठक वर्ग भी देंगे। जैसा कि सभी लोकप्रिय रचनाकार देते हैं। उनकी तीनों पुस्तकों के हिन्दी में अनुवाद हो भी चुके हैं? यूँ हिन्दी के युवा रचनाकार चेतन से बहुत-सी बातें सीख सकते हैं,खासकर अपने परिवेश को व अन्तर्मन की बुनावट को अभिव्यक्त करने की उनकी कला?
उपन्यास का केन्द्रीय पात्रा अली हाईपर-रिपलैक्स नामक एक मनोरोग से ग्रस्त है और चिकित्सकों का मानना है कि इस बीमारी की वजह से ही अली एक ओवर की शुरू की चार गेंदों पर लगातार छक्के मारने का करतब दिखा पाता है। मनोरोग के साथ जीवन में आगे बढ़ाने की कला भी अली से सीखी जा सकती है। रिपलैक्स एक्शन में दिमाग सोचने की शक्ति और क्रिया को खत्म कर देता है। वह केवल बचाव कर सकता है...इसलिए प्रतिउत्तर का समय बहुत तेज होता है। इस क्षमता का प्रयोग कर अली बॉल की तेजी की पहचान कर उतनी ही तेजी से जवाब दे पाता है?
अपनी कमजोरियों को सकारात्मक तरीके से जानकर उनका सही उपयोग करने की कला ही जीवन की कला है। अली के चरित्रा के द्वारा चेतन इसी बात को सामने रखते हैं। उपन्यास के अन्त में अली की इसी क्षमता का चमत्कारिक ढंग से प्रयोग कराकर उपन्यासकार अपनी कहानी को एक सुखद अन्त की ओर ले जा पाता है।
प्यार के निहिताथों को भी चेतन सही ढंग से पहचानते हैं। कि प्यार साधारण जीवन स्थितियों को भी अपने सहज स्पर्श से असाधारण बना देता है। विद्या और गोविन्द के प्रेम प्रसंग इसे उचित ढंग से अभिव्यक्त कर पाते हैं। गोविन्द जब आस्ट्रेलिया जाता है तो वहाँ फोन कर पूछता है कि उसे गिफ्ट के रूप में क्या चाहिए,गोविन्द की गरीबी का ध्यान है विद्या को, सो वह कहती है कि वह समुन्दर किनारे की रेत लेता आए थोड़ी-सी। गोविन्द माचिस में रेत डालकर भारत लाता है तो उसे प्रेम से उटकेरती विद्या देखती है कि रेत में सीपी है एक। फिर वह कहती है,यह ठीक है क्योंकि जीवन के सबसे बेहतरीन तोहफे मुफ्त हैं।
यहाँ महत्त्वपूर्ण बस यह है कि एक ओर जहाँ चेतन प्रेम जैसे बहुआयामी ध्वनि वाले शब्द को उसकी ताकत के साथ अभिव्यक्त कर बाजारवाद से जूझते दिखते हैं वहीं विद्या,गोविन्द के प्रणय के अतिरिक्त दृश्य यह साबित करते हैं कि वे सतर्कता से बाजार के नुस्खों का ध्यान रखते हैं? क्योंकि पढ़ाई के वक्त प्रेमी शिक्षक और छात्रा जिस कदर यौन क्रिया में मशगूल दिखाए जाते हैं वह सहज नहीं है। और इसके परिणाम भी सही नहीं आते इसे चेतन दूसरी गलती के रूप देखते भी हैं। पर मुझे लगता है यह उपन्यासकार की एकमात्रा गलती है कि वह उपन्यास को फामूर्लाबाजी की हदों में जाने से नहीं बचा पाते। उपन्यास के अन्त में दंगे के दृश्यों को फिल्मी बनाते से चेतन यह गलती दुहराते हैं।
शुक्रवार, 10 जून 2011
हुक्म मेरे आका
कायनात कहेगी, हुक्म मेरे आका
संजय खाती
जिंदगी में जोश भरने वाली किताबों का जैसा चलन हाल के बरसों में दिखा है, वह लाजवाब है। पुराने जमाने में हमारी मदद के लिए सिर्फ धर्म होता था। हालांकि डेल कार्नेगी, स्वेट मार्डेन और विन्सेंट पील की किताबों से लोगों ने अपनी जिंदगी को पॉजिटिव मोड़ देने की कोशिश शुरू कर दी थी, लेकिन इस ट्रेंड ने जोर तब पकड़ा, जब वेस्टर्न स्टाइल यहां भी आम होने लगी। यंग प्रफेशनल्स के लिए धार्मिक प्रवचन उतने आसान और नजदीक नहीं थे। वे मॉडर्न स्टाइल में जो प्रेरणाएं चाहते थे, वे उन्हें इन किताबों में मिलीं। आज चिकन सूप फॉर सोल जैसी किताबों का बिजनेस करोड़ों डॉलर का है। बहरहाल, इस कैटिगरी की सबसे पॉपुलर या फिर विवादित किताब अलकेमिस्ट रही। ओम शांति ओम फिल्म में शाहरुख के डायलॉग के बाद हमारे यहां कई लोगों का ध्यान इसकी ओर गया, लेकिन तब तक यह पूरी दुनिया में फेमस हो चुकी थी। अलकेमिस्ट की थीम या मेसेज है - अगर आप किसी चीज को पूरी शिद्दत से चाहते हैं, तो पूरी कायनात उसे आपसे मिलाने की तैयारी में जुट जाती है। अलकेमिस्ट के कुछ बरस बाद एक और किताब आई - द सीक्रेट। इसमें बताया गया है कि दुनिया में एक ऐसा रहस्य है, जिसे सदियों से दबाया जाता रहा, लेकिन हर महान शख्स को इसका पता था। द सीक्रेट इस सबसे बड़े राज को हम सबके लिए खोलने का दावा करती है और वह राज है : आप अपनी दुनिया खुद बनाते हैं। सब कुछ वैसे ही होगा, जैसा आप चाहेंगे, इसलिए वह सब कुदरत से मांगिए, जिसकी आपको चाहत है - पैसा, शोहरत और प्यार, कुछ भी।
अलकेमिस्ट और द सीक्रेट की थीम एक ही है - कायनात आपके हुक्म का पालन करती है, बस आपको हुक्म देना आना चाहिए। अलकेमिस्ट में यह बात वैसे भड़काऊ तरीके से नहीं कही गई, जैसे द सीक्रेट में, लेकिन ये दोनों किताबें मोटिवेशन और सेल्फ हेल्प की तमाम बिरादरी से अलग हो जाती हैं, क्योंकि ये सीधे-सीधे खुशी की गारंटी देने लगती हैं।
मैंने अलकेमिस्ट पढ़ी और द सीक्रेट पर बनी एक फिल्म देखी। सोचने की बीमारी वाले तमाम लोगों की तरह मेरे मन में भी यह खयाल आया - क्या ऐसा मुमकिन है? क्या महज सोचने भर से कोई भी ख्वाहिश पूरी हो सकती है? क्या दुनियावी तौर पर कामयाब हो जाना इतना आसान है? क्या हमारे हाथ अलादीन का चिराग लग गया है?
क्या ये किताबें महज शोशेबाजी हैं या फिर इनके लेखकों को सचमुच में खुदा का पैगाम सुनने का मौका मिला है? मैंने इन किताबों के कट्टर प्रशंसकों की बातें सुनी हैं। मैंने कई कॉरपोरेट लीडर्स को इन्हें अपनी रीडिंग लिस्ट में गिनाते पाया है। क्या इन किताबों ने अपनी लफ्फाजी से उन लोगों को बेवकूफ बना लिया है?
क्या कुदरत को हु्क्म देने के इस फॉर्म्युले की साइंटिफिक जांच मुमकिन है? इन किताबों का यह दावा मुझे सही लगता है कि सारी कायनात एक सिस्टम में बंधी हुई है। हम और सब कुछ दरअसल एक हैं, इसलिए हमारे विचार कुदरत से रिएक्शन कर सकते हैं और काफी हद तक उस पर असर भी डाल सकते हैं। लेकिन यह असर हमारी बड़ी-से-बड़ी कल्पना को सच में बदलने के लिए घटनाओं को मोड़ने की ताकत रखता है, यह बड़ा सवाल है।
क्या कुदरत की चेतना होने के नाते हमें यह पावर हासिल है, इस सवाल का जवाब मुझे नहीं मिलता। और जब मैं यह देखता हूं कि किसी चमत्कारिक ईश्वर को बीच में न लाते हुए भी इन किताबों ने तमाम संदेहों से परे चले जाने की जो शर्त रखी है, वह इन्हें धर्म के बराबर पहुंचा देती है -जरा भी संदेह रखा तो कुछ हासिल नहीं होगा, यानी अगर आपकी ख्वाहिश पूरी नहीं हुई तो हमारे फॉर्म्युले में नहीं, आपकी निष्ठा में ही कोई खोट रहा होगा।
यह एक ट्रिकी बात है, जो इन किताबों के दावों को साइंटिफिक जांच से परे कर देती है। लेकिन जब मैं यह सोच रहा था, तभी अचानक मुझे हकीकत की झलक मिल गई।
अलकेमिस्ट और द सीक्रेट महज इसलिए हिट नहीं हैं कि वे आपकी ख्वाहिश पूरी करने की गारंटी देती हैं, वे इसलिए इतनी पॉपुलर हैं कि वे आपको इसका सपना देखने की ताकत देती हैं। वे हमें जिंदगी में पॉजिटिव को अपनाना सिखाती हैं। उजाले को देखो, यह तमाम लोग कहते हैं, लेकिन ये किताबें इस उजाले को हमारे स्वार्थ का हिस्सा बनाकर उसे देखने और लंबे अरसे तक देखते रहने की आदत डाल देती हैं।
संजय खाती
जिंदगी में जोश भरने वाली किताबों का जैसा चलन हाल के बरसों में दिखा है, वह लाजवाब है। पुराने जमाने में हमारी मदद के लिए सिर्फ धर्म होता था। हालांकि डेल कार्नेगी, स्वेट मार्डेन और विन्सेंट पील की किताबों से लोगों ने अपनी जिंदगी को पॉजिटिव मोड़ देने की कोशिश शुरू कर दी थी, लेकिन इस ट्रेंड ने जोर तब पकड़ा, जब वेस्टर्न स्टाइल यहां भी आम होने लगी। यंग प्रफेशनल्स के लिए धार्मिक प्रवचन उतने आसान और नजदीक नहीं थे। वे मॉडर्न स्टाइल में जो प्रेरणाएं चाहते थे, वे उन्हें इन किताबों में मिलीं। आज चिकन सूप फॉर सोल जैसी किताबों का बिजनेस करोड़ों डॉलर का है। बहरहाल, इस कैटिगरी की सबसे पॉपुलर या फिर विवादित किताब अलकेमिस्ट रही। ओम शांति ओम फिल्म में शाहरुख के डायलॉग के बाद हमारे यहां कई लोगों का ध्यान इसकी ओर गया, लेकिन तब तक यह पूरी दुनिया में फेमस हो चुकी थी। अलकेमिस्ट की थीम या मेसेज है - अगर आप किसी चीज को पूरी शिद्दत से चाहते हैं, तो पूरी कायनात उसे आपसे मिलाने की तैयारी में जुट जाती है। अलकेमिस्ट के कुछ बरस बाद एक और किताब आई - द सीक्रेट। इसमें बताया गया है कि दुनिया में एक ऐसा रहस्य है, जिसे सदियों से दबाया जाता रहा, लेकिन हर महान शख्स को इसका पता था। द सीक्रेट इस सबसे बड़े राज को हम सबके लिए खोलने का दावा करती है और वह राज है : आप अपनी दुनिया खुद बनाते हैं। सब कुछ वैसे ही होगा, जैसा आप चाहेंगे, इसलिए वह सब कुदरत से मांगिए, जिसकी आपको चाहत है - पैसा, शोहरत और प्यार, कुछ भी।
अलकेमिस्ट और द सीक्रेट की थीम एक ही है - कायनात आपके हुक्म का पालन करती है, बस आपको हुक्म देना आना चाहिए। अलकेमिस्ट में यह बात वैसे भड़काऊ तरीके से नहीं कही गई, जैसे द सीक्रेट में, लेकिन ये दोनों किताबें मोटिवेशन और सेल्फ हेल्प की तमाम बिरादरी से अलग हो जाती हैं, क्योंकि ये सीधे-सीधे खुशी की गारंटी देने लगती हैं।
मैंने अलकेमिस्ट पढ़ी और द सीक्रेट पर बनी एक फिल्म देखी। सोचने की बीमारी वाले तमाम लोगों की तरह मेरे मन में भी यह खयाल आया - क्या ऐसा मुमकिन है? क्या महज सोचने भर से कोई भी ख्वाहिश पूरी हो सकती है? क्या दुनियावी तौर पर कामयाब हो जाना इतना आसान है? क्या हमारे हाथ अलादीन का चिराग लग गया है?
क्या ये किताबें महज शोशेबाजी हैं या फिर इनके लेखकों को सचमुच में खुदा का पैगाम सुनने का मौका मिला है? मैंने इन किताबों के कट्टर प्रशंसकों की बातें सुनी हैं। मैंने कई कॉरपोरेट लीडर्स को इन्हें अपनी रीडिंग लिस्ट में गिनाते पाया है। क्या इन किताबों ने अपनी लफ्फाजी से उन लोगों को बेवकूफ बना लिया है?
क्या कुदरत को हु्क्म देने के इस फॉर्म्युले की साइंटिफिक जांच मुमकिन है? इन किताबों का यह दावा मुझे सही लगता है कि सारी कायनात एक सिस्टम में बंधी हुई है। हम और सब कुछ दरअसल एक हैं, इसलिए हमारे विचार कुदरत से रिएक्शन कर सकते हैं और काफी हद तक उस पर असर भी डाल सकते हैं। लेकिन यह असर हमारी बड़ी-से-बड़ी कल्पना को सच में बदलने के लिए घटनाओं को मोड़ने की ताकत रखता है, यह बड़ा सवाल है।
क्या कुदरत की चेतना होने के नाते हमें यह पावर हासिल है, इस सवाल का जवाब मुझे नहीं मिलता। और जब मैं यह देखता हूं कि किसी चमत्कारिक ईश्वर को बीच में न लाते हुए भी इन किताबों ने तमाम संदेहों से परे चले जाने की जो शर्त रखी है, वह इन्हें धर्म के बराबर पहुंचा देती है -जरा भी संदेह रखा तो कुछ हासिल नहीं होगा, यानी अगर आपकी ख्वाहिश पूरी नहीं हुई तो हमारे फॉर्म्युले में नहीं, आपकी निष्ठा में ही कोई खोट रहा होगा।
यह एक ट्रिकी बात है, जो इन किताबों के दावों को साइंटिफिक जांच से परे कर देती है। लेकिन जब मैं यह सोच रहा था, तभी अचानक मुझे हकीकत की झलक मिल गई।
अलकेमिस्ट और द सीक्रेट महज इसलिए हिट नहीं हैं कि वे आपकी ख्वाहिश पूरी करने की गारंटी देती हैं, वे इसलिए इतनी पॉपुलर हैं कि वे आपको इसका सपना देखने की ताकत देती हैं। वे हमें जिंदगी में पॉजिटिव को अपनाना सिखाती हैं। उजाले को देखो, यह तमाम लोग कहते हैं, लेकिन ये किताबें इस उजाले को हमारे स्वार्थ का हिस्सा बनाकर उसे देखने और लंबे अरसे तक देखते रहने की आदत डाल देती हैं।
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