रविवार, 14 फ़रवरी 2010

मैं और मेरा जीवन तीन

दादी
भायजी यानी पापा जब भी आते थे, तो मैं डर जाता था। क्योंकि घर में सबसे अधिक शरारती मैं ही था। दादी को हमेशा चिढ़ाता रहता था। वह यही धमकी देती रहती थी कि भायजी के आने के बाद तुम्हें पिटवाती हूं। दादी दिल की सच्ची थी। कभी भी मेरी शिकायत नहीं की। वह अनपढ़ थी, लेकिन रामायण और महाभारत के श्लोक रटे हुए थे। पूजा-पाठ खूब करती थी। कहानी भी सुनाती थी। मां कहती है कि जब वह आई थी, तो घर के सभी सामान दूसरे को दे देती थी। इस कारण बाबा से उन्हें डांट भी पड़ती रहती थी। कुछ पड़ोसी उनका फायदा भी उठाए। वह किसी को भी भूखा नहीं देख सकती थी। मेरे पिताजी तीन भाई थे। बंटवारे के समय दादा और दादी हमलोगों के साथ ही थे, लेकिन दादी खुद जिद पकड़कर उन दोनों चाचा के पास चली गई। मेरी मां जब भी चाय या विशेष खाना बनाती, तो उन्हें जरूर खिलाती थी। उस समय दोनों चाचा अमीर थे। पारिवारिक माहौल गांव के अन्य परिवारों से बढिय़ा था। अलग रहने के बावजूद दोनों चाचा कभी भी भायजी को जवाब नहीं देते थे। इसका प्रभाव यह पड़ा कि हमलोग चाचा या चाची को कभी भी जवाब नहीं दिए। यही कारण है कि अभी तक हमलोगों का आंगन और दरवाजा एक ही है। यह गांववाले के लिए कौतूहल और इष्र्या का विषय है।
धीमा
पांच किलोमीटर की दूरी पर शिव मंदिर था, जिसे हमलोग धीमा कहकर पुकारते हैं। अभी तक मुझे इसका अर्थ मालूम नहीं है, लेकिन इलाके के सभी लोग इससे परिचित हैं। उस समय सभी लोग पैदल ही वहां जाते थे। गांव की एक झुंड जाती थी। दादी भी हर रविवार को वहां जाती थी और हमलोगों के लिए बतासा लाती थी। बतासा एक प्रकार की मीठाई थी। बतासा के इंतजार में हमलोग दादी के आने का इंतजार घंटों करते रहते थे। इसके लिए बहुत दूर तक पैदल भी चल देते थे। उस समय को याद करता हूं, तो अभी भी काफी खुशी मिलती है। याद है मुझे कि उन्हें धीमा जाने के लिए पैसे नहीं रहते थे। काफी हल्ला करने के बाद उन्हें पैसे मिलते थे। उस समय आर्थिक स्थिति भी खराब थी। दादी के जाने के बाद मैं यही सोचता था कि इस बार मां उन्हें पैसा नहीं दी है, इस कारण हमें वह मीठाई नहीं देगी। लेकिन वह सभी के साथ एकसमान व्यवहार करती थी। न पढऩे-लिखने के बावजूद इस तरह का व्यवहार देखकर तो आश्चर्य होता है आजकल के औरत की व्यवहार पर। उस समय शायद पढ़ाई की अपेक्षा संस्कार प्रभावी था। इस कारण अच्छे कुल में शादी करने को वरीयता दी जाती थी। दादी घर आने के बाद हमलोगों को बता देती थी। उनके पास जितने भी पैसे रहते थे, सभी खाने और सामान लाने में खर्च कर देती थी। इसके विपरीत पड़ोसी पैसा बचाकर घर लाते थे। दादी को पैसे बचाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उस समय तक अमीर-गरीब सभी पैदल ही जाते थे। अब तो हालात बदल गए हैं। आज भी सभी लोग जाते हैं, लेकिन पैदल कोई नहीं जाता है। एक दिन मैं भी गया था। मां भी साथ में थी। वहां पूजा करने के बाद गांव के सभी सदस्य बाजार से मंगाकर कुछ खा रहे थे। मां घर से चूड़ा और आलू की सब्जी बनाकर ले गई थी। मैं भी बाजार से कुछ मंगाने का जिद करने लगा। मां लाचार होकर घुघनी खरीदी थी। मात्रा कितनी थी, मुझे पता नहीं है, लेकिन मुझे उससे बढिय़ा अपनी सब्जी ही लगी थी और उस दिन से अभी तक चूड़ा और सब्जी का स्वाद जिंदा है। मौका पडऩे पर उसे अवश्य खाता हूं। उस समय मां के ये शब्द भी याद हैं कि घर का खाना बाजार के खाना से अच्छा और शुद्ध होता है। हो सकता हो कि मां किसी और प्रशेजन से बोली हो, लेकिन यह बात हमें दिमाग में बैठ गई, जिसका फायदा अभी तक मैं उठा रहा हूं।
बथुआ साग
साग के शौकीन हमारे परिवार में सभी थे। उस समय दादी के साथ हमलोग साग तोडऩे के लिए बहुत दूर चले जाते थे। साथ में गांव के बहुत सारे बच्चे रहते थे। सभी लोग दिन-चार घंटे तक साग तोड़ते थे और अपनी-अपनी दादी या बहन को देते थे। उस समय शर्म नहीं लगती थी। न ही यह सोच डेवलप था कि लोग क्या कहेंगे। हमारे उम्र के बच्चे तो आजकल दूसरे के घर जाने में भी शर्म महसूस करते हैं। जब दादी साथ नहीं रहती थी, तो गांव के लड़की और लड़के के साथ साग तोडऩे के लिए जाते थे। उसमें कुछ उम्र में काफी बड़े थे। जहां तक मुझे याद है कि हम सभी साग तोडऩे के बाद एक जगह इकट्टïा होते थे, और सभी अपनी झोली से कुछ न कुछ साग भगवान को चढ़ाते थे। इसके पीछे यह विश्वास था कि भगवान को साग चढ़ाने से अपने आप अधिक साग हो जाएगा। यह डर भी था कि जो इस साग को चुपके से घर ले जाएगा, भगवान उस पर क्रोधित होंगे। इस कारण मैंने कभी भी साग नहीं चुराया। अब यदि दिमाग पर जोर लगाता हूं, तो अंदाजा यह लग रहा है कि सभी साग हमलोगों में से जो बड़े थे, आपस में बांट लेते थे। इस मामले में हमलोग बेबकूफ ही बने रहते थे। घरवाले पढऩे के लिए जोर देते थे और मैं साग तोडऩे में अधिक दिलचस्पी ले रहा था। सभी तरह के खेल खेलते थे उस समय। खेलते देखकर लोग हमें आश्चर्य से देखते थे, लेकिन हमें कुछ भी अनुभव नहीं हो रहा था। पैर खराब होने के बावजूद हमारी एक अलग स्टाइल थी खेलने की, जिस कारण सभी लोग अपनी टीम में रखना चाहते थे। अलग स्टाइल इसलिए बन जाती थी कि उस समय मुझे विकलांग होने का अहसास कम था और मैं औरों की तरह ही सभी में पूरी आत्मविश्वास के साथ भाग लेता था। इस तरह की फीलिंग बड़े होने तक बनी रही। कोई खेल हमने नहीं छोड़ा। अब सोचता हूं, तो आश्चर्य में पड़ जाता हूं। आम के बगीचे में आम भी चुनने के लिए दादी केसाथ जाता था। उस समय कोई भी आम नमक साथ आसानी से खा जाता था। दांत खट्टे नहीं होते थे, लेकिन अब खाने के नाम से ही सिहर जाता हूं। उस समय लोक लाज का भी ख्याल रखा जाता था। आजकल की तरह उस समय के लोग नहीं थे। तभी तो बाबा के मरने के बाद दादी छिपकर रो रही थी। मैं जब उनसे रोने का कारण पूछा, तो वह हंसने का बहाना करने लगी। क्या आजकल की पत्नी इस तरह कर सकती है?
भैया
बचपन से ही उन्हें भैया न समझकर कुछ और समझते थे। सही अर्थों में वे बड़े होने का सभी दायित्व निभाते थे। गांव वाले भी उन्हें आदर्श मानते थे। हम भाई-बहनों को भी खूब मानते थे। वे पढ़ते हुए भी घर की जिम्मेदारी से कभी नहीं मुंह मोड़े। उस समय हमारी बाहर की जरूरत वही पूरी करते थे। उन्हीं की बदौलत आज मैं यहां तक पहुंच पाया हूं। पढ़े-लिखे थे, इस कारण हमेशा मेरे लिए बेहतर की तलाश में रहते थे। वे नहीं पढऩे के लिए कहते थे और नहीं मारते थे। इस कारण उनके साथ रहने में अच्छा लगता था। उस समय वे कॉलेज में पढ़ रहे थे। किस स्ट्रीम में थे। मुझे पता नहीं था। एक दिन मां के साथ हम अपनी बहन के पास बनमनखी गए थे। जीजा जी यहीं सर्विस करते थे। कुछ दिन रहने के बाद भैया साइकिल से हमें घर ले जा रहे थे। रास्ते में कोसी नदी को नाव के सहारे पार करना पड़ता था। हमलोग नाव से उस पार हो गए। उसके बाद साइकिल से हमलोग जा रहे थे। लगभग दो किलोमीटर तक बालू ही बालू था। इस कारण उनकी सारी ऊर्जा और दिमाग साइकिल खींचने में में ही लग रहा था। जहां तक मुझे याद है कि मुझे जोर से नींद आने लगी। मैं नींद तोडऩे के लिए हर संभव कोशिश किया। लेकिन अंत में नींद की जीत हुई और मैं निश्चिंत होकर सो गया। उसके बाद मुझे कुछ भी पता नहीं है। जब नींद खुली, तो भैया हमें उठा रहे थे। मैं बालू पर गिर गया था और भैया को पता ही नहीं चला। उस समय साइकिल के पीछे की सीट पर बैठा था। भैया के अनुसार वे एक किलोमीटर आगे तक निकल चुके थे। अंत साइकिल हल्का देख जब वे पीछे मुड़े, तो उनके होश ठिकाने लग गए। निराश होकर वे पीछे की ओर तेजी से दौड़े जा रहे थे और मैं बालू पर चैन की नींद ले रहा था। अभी भी भैया को आश्चर्य हो रहा है कि मुझे थोड़ी भी चोट नहीं लगी थी। कहते हैं न कि जाको राखे साइयां, मार सके न कोय। वही बात मुझ पर लागू हो गई।
लाल भैया
उस समय इनके नाम से ही रूह कांप उठती थी। कारण यह था कि जिंदगी में सबसे अधिक मार उन्हीं से पड़ी है। वह पढ़ाकू थे और हम सभी भाई-बहनों को भी पढ़ाते रहते थे। स्कूल नहीं जाने पर बहुत पीटते थे। उस समय यह स्थिति थी कि यदि सर्प और लाल भैया दोनों दो जगह पर होते, तो मैं सर्प के पास जाना ज्यादा फायदेमंद समझता। यदि वह नहीं रहते तो शायद मैं बचपन में पढ़ भी नहीं पाता। यदि वह दो दिनों के लिए बाहर चले जाते, तो किताब छूने का नाम ही नहीं लेता। मैं उन्हें दुश्मन समझता था। इस तरह की सोच मैट्रिक तक बनी रही।
पेरेंट्स
क्या बताऊं इनके बारे में। पापा को भायजी कहता था। उनके बारे में क्या सोच थी। ठीक से हमें पता नहीं है। लेकिन होली के समय हमें रंग डालते थे और कभी कभी भांग भी खिलाते थे। उनके कंधे पर बैठकर गांव भी घूमा करते थे। उस समय वे कम ही मारते थे। दाय के जाने के बाद मां पर ही अवलंबित हो गया। बहुत प्यार करती थी और बदमाशी करने पर मारती भी थी। जो भी मांगता था, हर संभव देती थी। पैसे की काफी कमी थी, लेकिन फिर भी हमेशा खुश रहती थी। उस समय एक ही घर और एक ही रजाई था। उसी में हम सभी भाई-बहन सोते थे। घर कच्ची मिट्टी का बना था। बारिश के समय में छत के ऊपर से पानी टपकता रहता था। उस समय हमें यही डर सताता रहता था कि घर आंधी में गिर न जाए। दादा के समय का घर था। इस कारण काफी मजबूत था। अभाव के बावजूद उन्हें लोग काफी आदर करते थे। वे हम सभी भाई-बहनों को पढ़ाने के साथ ही संस्कृत के श्लोक सुनाती थी। उस समय मां से कोई शिकायत नहीं थी। जितने भी खेत थे, सभी दूसरे के पास गिरबी था। एक वेतन ही सहारा था। उस समय असुविधाओं के बावजूद हम सभी को पढ़ते देख लोग हंसते थे, लेकिन अभी हालात ये हैं कि वे लोग हम पांचों भाइयों को देखकर अपने बेटे को कोसते हैं।

परिवार के अन्य सदस्य
बिनोद भैया पढऩे में काफी तेज थे। यह हमें पता नहीं था, लेकिन घरवाले यही कह रहे थे। उन्हें सरकार की तरफ से छात्रवृत्ति मिली हुई थी। इस कारण वे रानीगंज स्कूल में पढ़ते थे। अच्छे थे। वे भी बहुत प्यार करते थे। उस समय उनसे जुड़ी एक घटना मुझे अभी तक याद है। हुआ यूं कि छात्रवृत्ति में पास होने के बाद बिनोद भैया को हॉस्टल भेजने की तैयारी होने लगी। हॉस्टल में एक चौकी भी जरूरी थी। घर में एक ही चौकी थी, जिस पर घर की इज्जत टिकी हुई थी। कहने का आशय यह कि जो भी गेस्ट आते थे, उन्हीं पर सोते थे। हमलोग उस समय नीचे में ही सोते थे। भयजी को घर से कोई मतलब नहीं था। मां ही सब कुछ थी। मां के पास कुछ तख्ता था। उसे लेकर वह लताम बाबा के पास गई और उसे बनाने के लिए कही। पेशे से वे मिस्त्री नहीं थे। घर में मिस्त्री को देने के लिए पैसे नहीं थे, इस कारण वे ही किसी तरह बना रहे थे। उनसे घर के संबंध अच्छे थे। जब वे दरवाजे पर बना रहे थे, तो मैं भी वहीं था। मेरे साथ और कौन-कौन थे, याद नहीं है। लेकिन इतना याद है कि जब उसे बस के ऊपर चढ़ाया जा रहा था, तो उसी समय उसके कुछ भाग टूट चुके थे। बाद में बिनोद भैया ने बताया कि उतारते वक्त वह पूरी तरह से टूट चुका था। रात को वे बेंच लगाकर हॉस्टल में सोते थे। प्रमोद भैया मेरे साथ ही रहते थे। जब हमलोग साथ रहते तो लड़ाई करते रहते थे और उनसे अलग रहने की कल्पना से ही रोने लगते थे। वे पढऩे में तेज थे। चुन्नू छोटी बहन थी। प्यारी थी। उसे हमेशा परेशान करता रहता था। बैसाखी टूटने के बाद उसी के कंधे को पकड़कर एक वर्ष तक चला। रास्ते में उसे खूब रुलाता था। याद है मुझे बचपन की वह घटना, जब रास्ते में स्कूल जाते वक्त शरारत करने को सूझी। उस समय चारो ओर पानी ही पानी था। मैं चुन्नू को डराया कि मैं यही डूब जाता हूं। वह मुझे रोक रही थी और मैं आगे बढ़ता जा रहा था। अंत में वह जोर-जोर से चिल्लाने लगी, तभी मैं रुका और प्रथम बार उसके प्यार का अहसास हुआ। उसके बाद से उसे इस मामले में कभी भी परेशान नहीं किया।

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