रविवार, 7 फ़रवरी 2010

मैं और मेरा जीवन दो

जब डूबने लगा
घर के बगल में पोखर था। उसमें गांव के सभी बच्चे नहाते थे। मैं भी उनमें से एक था। जब मॉर्निंग स्कूल होता था, तो स्कूल से आने के बाद घर न जाकर पोखर में ही कूदते थे और खूब नहाते थे। उस समय लड़का-लड़की दोनों साथ-साथ नहाते थे। हमलोग नहाने में इतने मस्त हो जाते थे कि समय का ज्ञान ही नहीं रहता था। घर से सभी के मां-पिताजी आते थे, तभी हमलोग बाहर निकलते थे। हजार बार नहाने के लिए मना किया जाता था, लेकिन हमलोग कभी नहीं माने। उस समय बीमार भी नहीं पड़ते थे। अब तो बारिश में नहाने के बाद बुखार आ जाता है। समझ में नहीं आता कि इसी शरीर को अब क्या हो गया है? खैर, मुझे इस पचड़े में नहीं पडऩा है। जो तैरने जानते थे, वे खूब तैर रहे थे। जो नहीं जानते थे, वे सभी सीख रहे थे। हालांकि मुझे बताया गया कि तुम्हारे पैर खराब हैं, इस कारण तुम नहीं तैर सकते। लेकिन फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी और तैरने की कोशिश करता रहा। इस सिलसिले में एक दिन नहाते वक्त डूब गया। बहुत पानी पी लिया था। उस समय डूबने का एक गजब का अनुभव हुआ। बल्कि यूं कहिए कि मौत को सामने देखकर जिंदा हुआ। मैं पानी के अंदर चिल्ला रहा था, लेकिन मेरी आवाज वहां नहानेवालों तक नहीं पहुंच रही थी। हारकर भगवान का नाम लेने लगा। उस समय यह पता था कि मरते वक्त भगवान का नाम लेने से स्वर्ग जाता था। भगवान का नाम ले ही रहा था कि एकाएक पप्पू से टकराया। उन्होंने मुझे बाहर निकाला और मेरी जान किसी तरह बची। अपने आप उल्टी होने लगी और फिर नहाने लगा। लेकिन उस दिन से एक डर समा गया। कहते हैं न कि करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान, वही मेरे साथ हुआ। न जाने कब मैं तैरने के लिए सीख गया। खुद मुझे भी पता नहीं चला। नदी में दोस्तों के साथ खूब तैरने लगा। उस समय लगा कि अभ्यास से कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है। सभी लोग नंगे ही नहाते थे। स्कूल से आने के बाद सभी लोग कपड़े खोलते थे और नंगा नहाना शुरू कर देते थे। उस समय शर्म शब्द पता नहीं था। लड़का-लड़की में अंतर समझने लगा था, लेकिन सेक्स शब्द से अनजान था। उस समय मेरे पास चप्पल या जूता कुछ नहीं था। इसके बिना ही रोड पर चलते था। कभी इसकी जरूरत भी नहीं पड़ी। वैसे भी उस समय चप्पल या जूते का प्रयोग हॉस्टल के लड़के ही करते थे। गांव में तकरीबन सभी का यही हाल था। इस समय पढऩे में काफी मन लगने लगा। स्कूल में अच्छे स्टूडेंट्स के रूप में गिनती होने लगी। लेकिन घरवाले की नजर में बेवकूफ ही था। इस कारण काफी दुखी रहता था। उस समय विद्यानंद यादव क्लास टीचर थे। सभी उन्हें विद्या बाबु कहते थे। बहुत बढिय़ा टीचर थे। मैथ पर उनकी पकड़ अच्छी थी। एक दिन मेरा भांजा मीठू मेरे साथ पढऩे गया। हम दोनों एक ही वर्ग में पढ़ते थे। वह बढिय़ा कपड़ा पहनता था और स्मार्ट भी बना रहता था। इस कारण स्वयं को उसके सामने हीन अनुभव करता था। विद्या बाबु ने एक प्रॉब्लम क्लास के सभी स्टूडेंट्स को बनाने के लिए कहा। संयोग से दो तीन मिनट पहले वह बनाकर दिखा दिया और मैं बना ही रहा था। समय को भांपते हुए विद्या बाबु बोले कि वाह भांजा तो तुम्हें हरा दिया। सभी लोग हंस पड़े। मैं भी उनमें से एक था। बात आई और गई हो गई। वह फिर घर चला गया। मैं जब चार बजे घर गया तो यह बात पूरी तरह फैल चुकी थी। उस समय बात को बतंगर बनाने पर मुझे बहुत गुस्सा आया, लेकिन लाचार था।
गार्जियन
बाबा मेरी नजर में अपने बाबा के बारे में अधिक याद नहीं है, लेकिन वे अच्छे थे और पढ़े-लिखे भी थे। नियमित पूजा करते थे। यदि कभी मेला लगता था, तो मीठाई खिलाते थे। एक दिन की बात है। मैं और प्रमोद भैया पांडे बाबा के यहां गए थे। वहां कोई उत्सव हो रहा था। क्या था, हमें ठीक से पता नहीं है। हमलोग आने के बाद बाबा के पास ही सोए थे। मैं, प्रमोद भैया और बहनें थीं। जहां तक मुझे याद है कि बाबा हमलोगों को शांत रहने के लिए कह रहे थे, और हमलोग गाना गा रहे थे। गाना का बोल था कि समधि ---ताल ठोकै दै, कियो नै लै छै मोल----। यह सिलसिला लगभग एक घंटा से चल रहा था। अंत में उनका धैर्य जवाब दे गया और वे गुस्सा से मारने के लिए उठे। सभी लोग भाग गए। मैं नहीं भाग सका और पकड़ लिए गए। सभी का गुस्सा मुझ पर ही उतारा गया और खूब मारे। वह मार अभी तक याद है और इसकी कसक अभी भी जिंदा है कि सबसे पहले भागने के बवाजूद पैर खराब होने की वजह से पीटा गया, अन्यथा औरों की तरह मैं भी भाग गया होता। इसके बाद उनके हाथ से मार नहीं खाया। मरते वक्त मैं वहीं था। उनके मरने से मुझे किसी तरह की फीलिंग नहीं हुई। वे बीमार थे, तो इस कारण खुश था कि इसी बहाने पढ़ाई नहीं करनी पड़ती थी। उस समय हमेशा पढ़ाई न करने का बहाना ढूंढा करता था।
पापा को हमलोग इसी नाम से पुकारते थे। उस समय तक उनके बारे में बहुत अधिक नहीं जानते थे। जब उन्हें वेतन मिलता था, तो बहुत सारे फल, बढिय़ा सब्जी और भात खाने को मिलता था। उस समय भात सबसे प्रिय था। मुझे याद है कि पंद्रह दिनों तक रोज रोटी ही खानी पड़ती थी। नुनु काका के यहां सप्ताह में एक दिन भात बन जाता था। जब भी भात बनता था, हमें जरूर मिलता था। यह काकी की महानता थी। सभी लोग उसे लड़ाकू कहते थे, लेकिन दिल की बूरी नहीं थी। वह भले ही भूखी रह जाए, लेकिन हमें जरूर देती थी। नुनू काका ट्विशन पढ़ाते थे। इस कारण उनके यहां लेट से खाना बनता था। वैसे तो जब भी भात बनता, मैं जगा रहता था। लेकिन एक रात सो गया। जब नींद खुली, तो सभी लोग खा चुके थे। स्वयं कोई विकल्प न देखकर राम-राम करने लगा, काकी और मां समझ गई। भात खाकर ही सोया। उस समय की घटना पर हंसी भी आ रही है और आश्चर्य भी। उस समय की घटना पर यही लगता है कि बचपन में किस तरह के दिमाग थे।

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