गुरुवार, 29 जुलाई 2010

गृहस्थ या सन्यास

पत्नी ने प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या की। पति के बेवफाई से तंग आकर पत्नी ने तलाक ली। इस तरह की खबरें आजकल आम हो गए हैं। पहले ये खास लोगों में थी, तो खास खबर बनती थी। अब आम हो गई है। बचपन में एक कहानी पढ़ी थी। उसमें यह था कि एक युवक गृहस्थ और सन्यास को लेकर दुविधा में था। वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि कौन बेहतर है? काफी परेशान होने के बाद वह कबीर दास के पास पहुंचा और अपनी परेशानी बताई। कबीर उन्हें जंगल घास काटने के लिए ले गए। दो घंटे के बाद नब्बे वर्ष के बूढ़े संत के पास ले गए। कबीर ने उनसे पूछा कि बाबा आपका नाम क्या है और कितनी उम्र हो रही है? संत न बताया कि बेटा नाम आत्मा राम है और उम्र 90 वर्ष है। कबीर फिर उसी को दोहराए और संत उसी भाव से उत्तर दिए। इस तरह एक ही प्रश्न कबीर ने उस संत से लगभग पचास बार पूछा, लेकिन संत उसी भाव से सहज उत्तर देते रहे। युवक भी इस बात को सुन रहा था। वह पछता रहा था कि किस पागल के पास मैं आ गया हूं। बाद में कबीर दास ने युवक को अपना घर लाया। उस समय दिन के दो बज रहे थे। बीच आंगन में घास रखकर कबीर ने पत्नी से एक दीया जलाकर लाने को कहा। युवक अब अच्छी तरह समझ गया कि कबीर पागल है, क्योंकि उस समय धूप काफी खिली हुई थी। पत्नी कबीर के आदेशानुसार दीया जलाकर ले आई। अब कबीर ने युवक को बताया कि यदि तुम संत की तरह क्रोध मिटा सकते हो, तो संत बनो। इसके विपरीत यदि विश्वास है, तो गृहस्थ बनो। क्योंकि गृहस्थ जीवन विश्वास पर अवलंबित है। यदि अविश्वास होता तो पत्नी धूप में दीया लाने का प्रयोजन पूछ सकती थी, लेकिन नहीं पूछी। कारण साफ है। यह तो एक कहानी थी, लेकिन आजकल दोनों चीज गायब हैं। आजकल के हाइटेक बाबा काम और क्रोध में लिप्त हैं और अखबार की सुखियरें में रहते हैं, तो अविश्वास के कारण परिवार टूट रहे हैं। शक के कारण एक दूसरे की हत्या की जा रही है। अब मैं खुद परेशान हूं कि कबीर सही थे या हमलोग सही हैं। आखिर हमें भी तो जमाने के साथ कदम बढ़ाकर चलना है। नहीं चलेंगे, तो पीछे रह जाएंगे। चलेंगे तो कहीं के नहीं रहेंगे।