प्रेस वाले की बच्ची ….
बहुत अच्छी कहानी है। इसे मैंने जागरण जंक्शन से लिया है। इस कहानी में बताया गया है कि जो वस्तु हमें प्राप्य होती है, उस की महत्ता हमारे पास कम होती है, लेकिन वह दूसरों के लिए अनमोल होती है। इस कारण यदि कोई वस्तु आपको अच्छी नहीं लग रही है, तो कोई कारण नहीं कि वह दूसरों के लिए प्रिय न हो।
अभी कुछ दिनों पहले हम अपने पुराने घर से नए घर में आये है ……….जब तक अपना घर न ले लो तब तक किराए के घर में रहने की वजह से ये उठा-पटक तो करनी ही पड़ती है ……….खैर मुझे कोई ख़ास ज्यादा दिक्कत नहीं हुई क्योंकि शादी के पहले डैडी के स्थानान्तरण की वजह से घर बदलने की आदत हो चुकी है ………और दिल्ली जसी बड़े महानगर में तो हर किसी को इसकी आदत है क्योंकि यहाँ हर कोई हमारी तरह अपना फ्लैट बुक कर देता है और फिर उसके मिलने के इंतज़ार में किराये के घर का किराया भी देता है और बुक किये हुए घर की इ.ऍम. आई. भी भरता रहता है ……….और जब तक अपना घर ना मिले एक घर से दुसरे घरो के मज़े लेता रहता है ……फिर वो किराये के ही क्यों ना हो ……. पर इस घर की सबसे ख़ास बात ये है की इस घर के सामने हरा भर पार्क है ……शाम को इस पार्क में ढेर सारे बच्चे अपनी माँ या दादी दादा के साथ खेलने आते है …….मै भी अपने नन्हे-मुन्ने को लेकर यहाँ चली जाती हूँ………इस बहाने थोड़ी देर वो मुझे परेशान नहीं करता है क्योंकि जबसे चलने लगा है तबसे तो पूछिए मत की क्या क्या करता है ये ब्लॉग भी छोटा पड़ जाएगा लेकिन उसकी बदमाशियों की लिस्ट नहीं ख़त्म होगी …….पार्क में जब सारे बच्चे उछल कूद मचाना शुरू करते है तो वो नज़ारा देखने लायक होता है, सारे बच्चो को अपने खिलोनो से नहीं दुसरे बच्चे के खिलोनो से ही खेलना है ……… इसी पार्क के सामने एक प्रेस वाला प्रेस करता है और वही अपने परिवार के साथ रहता भी है ……….उसकी ७-८ साल की एक लड़की है जो मुझे पूरे समय पार्क में ही नज़र आती है ………. जैसे ही वो किसी भी छोटे बच्चे को देखती है , मेरा प्यारा बाबु कहते हुए उसे गोद में उठा लेती है और फिर उसके साथ खेलने लगती है , वो बच्चा अपने साथ कोई न कोई खिलोना लिया ही होता है जैसे बेट बाल या कोई और ……….. और वो प्रेस वाले की बच्ची दौड़ दौड़ कर उसके साथ बेट बाल खेलने लग जाती है और फिर जैसे ही कोई और बच्चा दूसरी नयी बड़ी बाल लेके आता है वो दौड़ कर उसके पास भाग कर चली जाती है ……और अगर वो बच्चा उसे बाल नहीं देता है तो बैठे बैठे बड़ी हसरत भरी निगाहों से उसे बाल के साथ खेलते हुए देखने लगती है कोई जिद नहीं कोई गुस्सा नहीं ……………. गरीबो के बच्चे समय से पहले ही बड़े हो जाते है लेकिन दबे छुपे उनमे कहीं कहीं उनका बचपना छुपा ही रहता है जो कभी कभी नज़र आ जाता है,………लेकिन अक्सर बच्चो की माये उसे खिलोनो के साथ खेलने देती है क्योंकि खिलोनो के खेलने के साथ साथ वो उनके बच्चो को भी देखती रहती है और माँ लोग आराम से पार्क में बैठ कर थोडा बतिया लेती है…. छोटे बच्चो को खिलाने के बहाने वो भी उनके साथ खिलोनो को खेलने का शौक पूरा कर लेती है, वो खिलोने जो उसे उसके माँ बाप नहीं दिला पाते है….इए तरह वो खिलोने उसके लिए किराए के खिलोने ही हो जाते है ………………कैसी विडम्बना है जिसके पास जो चीज़ होती है उसे उसकी अहमियत नहीं होती है, मेरे बच्चे के पास खिलोने है तो वो पार्क में जाते ही उन्हें छुता तक नहीं है वो पेड़ पौधो मिटटी घास के साथ खेलना चाहता है और बेट बाल से वो प्रेस वाले की बच्ची खेलती है …….इस तरह वो थोड़ी देर के लिए अपने बचपन को जी लेती है नहीं तो आधे समय तो वो अपने छोटे भाई को संभालती है और आधे समय लोगो के घर प्रेस किये हुए कपडे या तो पहुंचाने जाती है या प्रेस के लिए कपडे लेने जाती है ………….लेकिन पार्क में बच्चो के आते ही दौड़ कर आ जाती है और थोड़ी देर के लिए उन्हें बेट बाल के साथ खिलाते हुए अपना बचपन भी जी लेती है ……..उसे और उस जैसे कई बच्चो को देखते ही मन में पीड़ा के साथ साथ टीस भी उठती है , टीस कुछ न कर पाने की …………हमारी ज़िन्दगी में ऐसे कई काम है जिन्हें हम करना चाहते है पर कर नहीं पाते है कभी कोई मजबूरी होती है और कभी ये की आखिर वो काम कैसे किया जाए …………….. लेकिन कुछ पल ही सही उन किराये के खिलोनो से खेल कर वो बच्ची खुश हो लेती है ……………ठीक उसी तरह जिस तरह हम किराए के घरो में रह कर अपने घर का सुख पा लेते है ……………….
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