सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

गरुड़जी के सात प्रश्न तथा काकभुशुण्डि के उत्तर


चौपाई :
* पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ॥।
नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी॥1॥ 
भावार्थ:-पक्षीराज गरुड़जी फिर प्रेम सहित बोले- हे कृपालु! यदि मुझ पर आपका प्रेम है, तो हे नाथ! मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नों के उत्तर बखान कर कहिए॥1॥
* प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा॥
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी॥2॥ 
भावार्थ:-हे नाथ! हे धीर बुद्धि! पहले तो यह बताइए कि सबसे दुर्लभ कौन सा शरीर है फिर सबसे बड़ा दुःख कौन है और सबसे बड़ा सुख कौन है, यह भी विचार कर संक्षेप में ही कहिए॥2॥
* संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु॥
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला॥3॥
भावार्थ:-संत और असंत का मर्म (भेद) आप जानते हैं, उनके सहज स्वभाव का वर्णन कीजिए। फिर कहिए कि श्रुतियों में प्रसिद्ध सबसे महान्‌ पुण्य कौन सा है और सबसे महान्‌ भयंकर पाप कौन है॥3॥
* मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई॥
तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती॥4॥
भावार्थ:-फिर मानस रोगों को समझाकर कहिए। आप सर्वज्ञ हैं और मुझ पर आपकी कृपा भी बहुत है। (काकभुशुण्डिजी ने कहा-) हे तात अत्यंत आदर और प्रेम के साथ सुनिए। मैं यह नीति संक्षेप से कहता हूँ॥4॥
*नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥5॥
भावार्थ:-मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है॥5॥
* सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर॥
काँच किरिच बदलें ते लेहीं। कर ते डारि परस मनि देहीं॥6॥ 
भावार्थ:-ऐसे मनुष्य शरीर को धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में काँच के टुकड़े ले लेते हैं॥6॥
* नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया॥7॥
भावार्थ:-जगत्‌ में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत्‌ में सुख नहीं है। और हे पक्षीराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है॥7॥
* संत सहहिं दुख पर हित लागी। पर दुख हेतु असंत अभागी॥
भूर्ज तरू सम संत कृपाला। पर हित निति सह बिपति बिसाला॥8॥
भावार्थ:-संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए। कृपालु संत भोज के वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं (अपनी खाल तक उधड़वा लेते हैं)॥8॥
* सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाई बिपति सहि मरई॥
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी॥9॥
भावार्थ:-किंतु दुष्ट लोग सन की भाँति दूसरों को बाँधते हैं और (उन्हें बाँधने के लिए) अपनी खाल खिंचवाकर विपत्ति सहकर मर जाते हैं। हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! सुनिए, दुष्ट बिना किसी स्वार्थ के साँप और चूहे के समान अकारण ही दूसरों का अपकार करते हैं॥9॥
* पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं॥
दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू॥10॥
भावार्थ:-वे पराई संपत्ति का नाश करके स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जैसे खेती का नाश करके ओले नष्ट हो जाते हैं। दुष्ट का अभ्युदय (उन्नति) प्रसिद्ध अधम ग्रह केतु के उदय की भाँति जगत के दुःख के लिए ही होता है॥10॥
* संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी॥
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा॥11॥
भावार्थ:-और संतों का अभ्युदय सदा ही सुखकर होता है, जैसे चंद्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिए सुखदायक है। वेदों में अहिंसा को परम धर्म माना है और परनिन्दा के समान भारी पाप नहीं है॥11॥
* हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्र पाव तन सोई॥
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि॥12॥
भावार्थ:-शंकरजी और गुरु की निंदा करने वाला मनुष्य (अगले जन्म में) मेंढक होता है और वह हजार जन्म तक वही मेंढक का शरीर पाता है। ब्राह्मणों की निंदा करने वाला व्यक्ति बहुत से नरक भोगकर फिर जगत्‌ में कौए का शरीर धारण करके जन्म लेता है॥12॥
* सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी॥
होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत॥13॥
भावार्थ:-जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों की निंदा करते हैं, वे रौरव नरक में पड़ते हैं। संतों की निंदा में लगे हुए लोग उल्लू होते हैं, जिन्हें मोह रूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञान रूपी सूर्य जिनके लिए बीत गया (अस्त हो गया) रहता है॥13॥
* सब कै निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा॥14॥
भावार्थ:-जो मूर्ख मनुष्य सब की निंदा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं। हे तात! अब मानस रोग सुनिए, जिनसे सब लोग दुःख पाया करते हैं॥14॥
* मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥15॥
भावार्थ:-सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है॥15॥
* प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना॥16॥
भावार्थ:-यदि कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ) प्रीति कर लें (मिल जाएँ), तो दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है। कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होने वाले जो विषयों के मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) हैं, उनके नाम कौन जानता है (अर्थात्‌ वे अपार हैं)॥16॥
चौपाई :
* ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥17॥
भावार्थ:-ममता दाद है, ईर्षा (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले के रोगों की अधिकता है (गलगंड, कण्ठमाला या घेघा आदि रोग हैं), पराए सुख को देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है। दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ़ है॥17॥
* अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी॥18॥
भावार्थ:-अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला डमरू (गाँठ का) रोग है। दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदर वृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं॥18॥
* जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका॥19॥
भावार्थ:-मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं। इस प्रकार अनेकों बुरे रोग हैं, जिन्हें कहाँ तक कहूँ॥19॥
दोहा :
* एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥121 क॥
भावार्थ:-एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत से असाध्य रोग हैं। ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शांति) को कैसे प्राप्त करे?॥121 (क)॥
* नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान॥121 ख॥
भावार्थ:-नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियाँ हैं, परंतु हे गरुड़जी! उनसे ये रोग नहीं जाते॥121 (ख)॥
चौपाई :
* एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी॥
मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥1॥
भावार्थ:-इस प्रकार जगत्‌ में समस्त जीव रोगी हैं, जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग के दुःख से और भी दुःखी हो रहे हैं। मैंने ये थो़ड़े से मानस रोग कहे हैं। ये हैं तो सबको, परंतु इन्हें जान पाए हैं कोई विरले ही॥1॥
* जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी॥
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे॥2॥
भावार्थ:-प्राणियों को जलाने वाले ये पापी (रोग) जान लिए जाने से कुछ क्षीण अवश्य हो जाते हैं, परंतु नाश को नहीं प्राप्त होते। विषय रूप कुपथ्य पाकर ये मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो उठते हैं, तब बेचारे साधारण मनुष्य तो क्या चीज हैं॥2॥
* राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥3॥
भावार्थ:-यदि श्री रामजी की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग नष्ट हो जाएँ। सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो॥3॥

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

जिंदगी अपनी शर्तों पर जिएं


आज सभी लोग परेशान हैं, क्‍योंकि लोगों के पास पर्याप्‍त सुविधाएं नहीं हैं। किसी पास पैसे नहीं हैं, तो किसी के पास समय नहीं है। तभी तो किसी गीतकार ने लिखा है कि कभी किसी को मुकद़र जहां नहीं मिलता, किसी को जमीं तो किसी को आसमा नहीं मिलता। यह सब जानते हुए भी हम विवेकशील प्राणी इन दोनों को एक साथ पाना चाहते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि हम परेशान हो जाते हैं। कानपुर में मरे एक काबिल दोस्‍त समय का रोना लेकर रोज आते हैं ऑपिफस और अपना गुस्‍सा सहयोगियों पर उतारते हैं। उनके पास अतिरिक्‍त काम करने के लिए समय नहीं है, लेकिन अगर दूसरे को कुछ अतिरिक्‍त जिम्‍म्‍ेदारी मिल जाए तो परेशान हो जाते हैं। समझ में नहीं आता उनकी परेशानी को। मैं जब भी देखता हूं वह फेसबुक पर बैठकर तीन चार घंटे यूं ही जाया कर देते हैं, लेकिन काम करने के लिए समय नहीं है उनके पास। सिर्फ परेशान होने के लिए उनके पास काफी समय है। यह तो एक उदाहरण भर है। सच्‍चाई तो यह है कि सृष्टि बनाने वाले ने जीवन को कुछ ऐसा बनाया था कि वह अपनी राह खुद आगे बनाता जाए। यही वजह है कि तमाम युद्धोंमहामारियों,प्राकृतिक आपदाओं के बावजूद मनुष्य ने अपने समाज को और अधिक संपन्न और व्यापक किया है। मगर कुछ हैजो सृष्टिकर्ता की मंशा को भी पराजित कर दे रहा है। इनमें से एक है शहरी जीवन का तनाव। मुंबईदिल्लीचेन्नै और बेंगलुरु जैसे शहरों में तनाव इस कदर बढ़ गया है कि वहां रोज आत्महत्याएं हो रही हैं। नैशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े कहते हैं कि अकेले इन चारों शहरों में 35 बड़े शहरों की कुल आत्महत्याओं में से 43 पर्सेंट आत्महत्याएं होती हैं। यह बहुत अजीब है। सिर्फ शहर में ही क्योंखुदकुशी का कहीं भी आत्महत्या होना असंतुलन को दिखाता है। बाहरी असंतुलन पर हमारा कोई जोर नहींमगर सवाल यह है कि हम भीतरी संतुलन को क्यों गड़बड़ाने देते हैं। एक दोस्‍त मेरे पास आए और बोले कि मैं जिंदगी से परेशान हो गया हूं। इस कारण आत्‍महत्‍या करने जा रहा हूं। मैने कुछ नहीं कहा तो वे गुस्‍सा गए और बोले तुम भी उन्‍ळीं लोगों के साथ हो। मैंने उन्‍हें समझाया कि सिर्फ मरने से यदि समस्‍या का समाधान हो जाता तो रोज लाखों में लोग मरते। परेशानी आदमी खुद लाता है। अगर अपेक्षा कम कर दी जाए तो परेशानी अपने आप भाग जाती है। किसी ने सही ही कहा कि अब तो ये घबरा के कहते हैं कि मर जाएंगे। मरकर भी चैन नहीं पाया तो कहां जाएंगे। यदि बैचैन आत्‍मा है, तो उसे शांति कहीं नहीं मिल सकती है। अगर आप गांव में रहे होंगे तो आप भी मेरी बातों को सही मानेंगे। वहां तो मैं अक्‍सर सुनता था कि फलां जीवित भी काफी बदमाश था और मरने के बाद भी भूत बनकर काफी परेशान कर रहा है। उस समय मैं इन बातों पर अधिक ध्‍यान न देता था, क्‍यों कि ये बात  हमें पच नहीं पा रही थी। लेकिन अब उन बातों से सीख लेकर अपनी जिंदगी को पटरी पर दौडा रहा हूं। एक घर खरीदा हूं। छोटी है, लेकिन काफी खुश हूं। लेकिन पत्‍नी दुखी रहती है। अब उनकी बात है। मैं क्‍या कर सकता हूं। लेकिन मेरे पास इस समय काफी समय है। इस कारण ब्‍लॉग लिख रहा हूं और काफी दिनों तक जिंदा रहने के लिए कुछ पैसे जमा कर रहा हूं। 

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

वासना से बहुत ऊंचा है प्‍यार

दीपिका पादुकोण। 
भारतीय समाज बदलाव के दौर से गुजर रहा है। वह कई नए अनुभवों का गवाह भी बन रहा है। प्रेम इससे अछूता नहीं है क्योंकि उसकी परिभाषा में भी बदलाव आया है। लेकिन मेरा मानना है कि इन बदलावों के बीच भी कई लोग ऐसे हैं, जो प्यार और रिलेशनशिप में पुराने समय के नियमों पर चलना पसंद करते हैं। दूसरी तरफ ऐसे भी लोग हैं जो शादी और कमिटमेंट में विश्वास नहीं करते। 

उनकी प्यार की परिभाषा नई है। वे पुराने टाइप के रोमांस को ज्यादा प्राथमिकता नहीं देते। मेरे जैसे लोग इस पुराने और नए के बीच में फंसे हुए हैं। पर जल्दी ही यह ट्रांजिशन पूरा हो जाएगा। तब शायद हमारे समाज में प्यार की तस्वीर साफ होगी कि हम प्रेम के कौन से स्वरूप को ग्रहण करते हैं- रोमांस और कमिटमेंट वाला पुरातन प्रेम, या बेपरवाह आधुनिक प्यार। 

बदल रहा है पैमाना 
पहले प्रेम संबंध की खूबसूरती के पैमाने अलग थे, क्योंकि तब एक-दूसरे तक पहुंचना इतना आसान न था। मेरे माता-पिता की सगाई चार साल चली थी। उन दिनों पिता को अक्सर ट्रेवल करना पड़ता था, जबकि मां मुंबई में थी। उन्हें उस दौरान मुश्किल से मिलने का मौका मिला। लेकिन इससे उनके बीच एक-दूसरे के प्रति लगाव कम नहीं हुआ। आज सोशल मीडिया, स्काइप, मोबाइल आदि ने आपसी मेलजोल को इतना आसान बना दिया है कि कम्युनिकेशन ज्यादा होने लगा है। ऐसे में कमिटमेंट के मायने भी अलग होने लगे हैं। आज नौजवान एक-दूसरे से इतना ज्यादा मिलते-जुलते हैं कि अगर एक पार्टनर से ब्रेक अप हो जाए, तो उन्हें दूसरा ढूंढने में देर नहीं लगती। वे पहले के चले जाने पर आंसू नहीं बहाते रहते। 

सौ प्रतिशत कमिटमेंट 
अब सोशल मीडिया उनके दुखों को कम करने वाला साथी बन गया है। लेकिन मुझे लगता है कि अगर सौ प्रतिशत कमिटमेंट नहीं है, तो प्रेम का गहरा अहसास देने वाला संबंध नहीं बन पाता। संबंधों में कमिटमेंट को लेकर आ रहे बदलाव को मैं समाज के लिए अच्छा नहीं मानती। भारत में बिना शर्त एक-दूसरे के प्रति समर्पण ही प्रेम का आधार रहा है। इसमें एक-दूसरे के लिए केयरिंग का भाव बहुत बड़ा है। 

मैं अपने निजी जीवन में ऐसे ही प्रेम को अपनाना चाहूंगी। मेरी यही तमन्ना है कि मैं जब शादी करूं तो अपने माता-पिता की तरह भारतीय परंपराओं का निर्वाह करते हुए वैवाहिक जीवन गुजारूं। हो यह रहा है कि अब लोग रिलेशनशिप में भी अपने लिए सुविधा ज्यादा खोज रहे हैं। करियर, निजी शौक, रहने की जगह आदि को लेकर अब उनके पास ज्यादा विकल्प हैं। वे अपनी प्राथमिकताएं तय करते हैं और उनके अनुकूल संबंध तलाशते हैं। 

महिलाएं भी इस मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं क्योंकि अब उन्हें भी पुरुषों जितने ही विकल्प मिलने लगे हैं। महिलाओं को सामाजिक फ्रीडम मिली है और वे आर्थिक रूप से भी मजबूत हुई हैं। ऐसे में वे भी रिलेशनशिप में कंपेटिबिलटी को तरजीह देती हैं। उन्हें अगर लगता है कि किसी खास शहर में रहते हुए वह अपने करियर को बेहतर बना सकती हैं, तो वे उसी शहर में अपना प्यार तलाशती हैं। गांव और कस्बे के प्रेम से बाहर निकलने में देर नहीं लगातीं। हालांकि मैं अपने निजी जीवन में ऐसा होते नहीं देख सकती। 

मैं पहली नजर में प्रेम पर भरोसा नहीं करती, क्योंकि उसका आधार सिर्फ शारीरिक आकर्षण होता है। वह इस हद तक ही जरूरी है कि उससे आगे की संभावनाएं खुलती हैं। असली संबंध तब बनता है जब पहली नजर के आकर्षण के बाद मेलजोल बढ़ता है और लंबे समय बना रहता है। मैंने इधर लड़कियों को भी 'तू नहीं तो कोई और सही' के कॉन्सेप्ट पर चलते देखा है। लेकिन मैं अगर किसी को प्यार करती हूं तो किसी दूसरे को अपनाना तो दूर, उसके बिना रहने तक के बारे में नहीं सोच सकती। 

इन दिनों मल्टिपल पार्टनर, लिव इन पार्टनर, लव आफ्टर मैरिज जैसे कई टर्म्स हैं, जो संबंधों के बारे में बताते हैं। मुझे लगता है कि ये सब पहले भी थे पर तब इन्हें कोई नाम नहीं दिया गया था। भारत की सबसे बड़ी खूबसूरती यह है कि वह आधुनिक होते हुए भी एक कंजरवेटिव देश है। यहां आप अगर किसी को प्यार करते हैं तो अपनी पूरी जिंदगी उसके साथ जीने की कसम खाते हैं और ताजिंदगी उसका साथ देते हैं। शायद इसी ने हमारे समाज को एक सूत्र में बांधे रखा है। 

बॉलिवुड में अपने काम को देखती हूं तो कुछ बदलावों को देख अच्छा लगता है। यहां अब विवाह के बाद भी काम करने की गुंजाइश दिखने लगी है। मैं करियर को लेकर बहुत ऐंबिशस हूं और नहीं चाहती कि शादी करूं तो करियर को छोड़ दूं। यह देखकर अच्छा लगता है कि लेखक अब सिर्फ कॉलेज प्रेम पर ही कहानियां नहीं लिख रहे, वे परिपक्व प्रेम को भी अपना विषय बना रहे हैं। यहां विवाहित स्त्रियों का प्रेम भी दिख रहा है। यही वजह है कि पुरानी अभिनेत्रियां भी वापस परदे पर दिख रही हैं। 

वासना से बहुत ऊंचा 
लव की परिभाषा में कोई फर्क नहीं आया है - प्यार में दोनों पक्ष एक-दूसरे से सीखते हैं और एक-दूसरे को अपनी ओर से कुछ ऐसा देते हैं कि दोनों की जिंदगी के मायने बदल जाते हैं। दोनों एक-दूसरे को जगह देते हुए साथ-साथ आगे बढ़ते हैं। प्रेम के बहुत शुरुआती दौर में लस्ट की भूमिका भी दिखती है, उसे गलत भी नहीं समझा जाना चाहिए। लेकिन प्रेम उससे बहुत बढ़कर और बहुत ऊंचाई पर है। यह लस्ट ही है, जो कई बार प्रतिशोध को उकसाता है। कोई प्रेमी प्रेमिका के चेहरे पर तेजाब फेंक देता है या कोई औरत प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या करवा देती है - इसकी वजह यही लस्ट है। लस्ट रिजेक्शन और फ्रस्ट्रेशन पैदा करता है, जबकि लव घावों को भरता है, इंसान को भीतर से संपन्न बनाता है। 
नवभारत से साभार