मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

वासना से बहुत ऊंचा है प्‍यार

दीपिका पादुकोण। 
भारतीय समाज बदलाव के दौर से गुजर रहा है। वह कई नए अनुभवों का गवाह भी बन रहा है। प्रेम इससे अछूता नहीं है क्योंकि उसकी परिभाषा में भी बदलाव आया है। लेकिन मेरा मानना है कि इन बदलावों के बीच भी कई लोग ऐसे हैं, जो प्यार और रिलेशनशिप में पुराने समय के नियमों पर चलना पसंद करते हैं। दूसरी तरफ ऐसे भी लोग हैं जो शादी और कमिटमेंट में विश्वास नहीं करते। 

उनकी प्यार की परिभाषा नई है। वे पुराने टाइप के रोमांस को ज्यादा प्राथमिकता नहीं देते। मेरे जैसे लोग इस पुराने और नए के बीच में फंसे हुए हैं। पर जल्दी ही यह ट्रांजिशन पूरा हो जाएगा। तब शायद हमारे समाज में प्यार की तस्वीर साफ होगी कि हम प्रेम के कौन से स्वरूप को ग्रहण करते हैं- रोमांस और कमिटमेंट वाला पुरातन प्रेम, या बेपरवाह आधुनिक प्यार। 

बदल रहा है पैमाना 
पहले प्रेम संबंध की खूबसूरती के पैमाने अलग थे, क्योंकि तब एक-दूसरे तक पहुंचना इतना आसान न था। मेरे माता-पिता की सगाई चार साल चली थी। उन दिनों पिता को अक्सर ट्रेवल करना पड़ता था, जबकि मां मुंबई में थी। उन्हें उस दौरान मुश्किल से मिलने का मौका मिला। लेकिन इससे उनके बीच एक-दूसरे के प्रति लगाव कम नहीं हुआ। आज सोशल मीडिया, स्काइप, मोबाइल आदि ने आपसी मेलजोल को इतना आसान बना दिया है कि कम्युनिकेशन ज्यादा होने लगा है। ऐसे में कमिटमेंट के मायने भी अलग होने लगे हैं। आज नौजवान एक-दूसरे से इतना ज्यादा मिलते-जुलते हैं कि अगर एक पार्टनर से ब्रेक अप हो जाए, तो उन्हें दूसरा ढूंढने में देर नहीं लगती। वे पहले के चले जाने पर आंसू नहीं बहाते रहते। 

सौ प्रतिशत कमिटमेंट 
अब सोशल मीडिया उनके दुखों को कम करने वाला साथी बन गया है। लेकिन मुझे लगता है कि अगर सौ प्रतिशत कमिटमेंट नहीं है, तो प्रेम का गहरा अहसास देने वाला संबंध नहीं बन पाता। संबंधों में कमिटमेंट को लेकर आ रहे बदलाव को मैं समाज के लिए अच्छा नहीं मानती। भारत में बिना शर्त एक-दूसरे के प्रति समर्पण ही प्रेम का आधार रहा है। इसमें एक-दूसरे के लिए केयरिंग का भाव बहुत बड़ा है। 

मैं अपने निजी जीवन में ऐसे ही प्रेम को अपनाना चाहूंगी। मेरी यही तमन्ना है कि मैं जब शादी करूं तो अपने माता-पिता की तरह भारतीय परंपराओं का निर्वाह करते हुए वैवाहिक जीवन गुजारूं। हो यह रहा है कि अब लोग रिलेशनशिप में भी अपने लिए सुविधा ज्यादा खोज रहे हैं। करियर, निजी शौक, रहने की जगह आदि को लेकर अब उनके पास ज्यादा विकल्प हैं। वे अपनी प्राथमिकताएं तय करते हैं और उनके अनुकूल संबंध तलाशते हैं। 

महिलाएं भी इस मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं क्योंकि अब उन्हें भी पुरुषों जितने ही विकल्प मिलने लगे हैं। महिलाओं को सामाजिक फ्रीडम मिली है और वे आर्थिक रूप से भी मजबूत हुई हैं। ऐसे में वे भी रिलेशनशिप में कंपेटिबिलटी को तरजीह देती हैं। उन्हें अगर लगता है कि किसी खास शहर में रहते हुए वह अपने करियर को बेहतर बना सकती हैं, तो वे उसी शहर में अपना प्यार तलाशती हैं। गांव और कस्बे के प्रेम से बाहर निकलने में देर नहीं लगातीं। हालांकि मैं अपने निजी जीवन में ऐसा होते नहीं देख सकती। 

मैं पहली नजर में प्रेम पर भरोसा नहीं करती, क्योंकि उसका आधार सिर्फ शारीरिक आकर्षण होता है। वह इस हद तक ही जरूरी है कि उससे आगे की संभावनाएं खुलती हैं। असली संबंध तब बनता है जब पहली नजर के आकर्षण के बाद मेलजोल बढ़ता है और लंबे समय बना रहता है। मैंने इधर लड़कियों को भी 'तू नहीं तो कोई और सही' के कॉन्सेप्ट पर चलते देखा है। लेकिन मैं अगर किसी को प्यार करती हूं तो किसी दूसरे को अपनाना तो दूर, उसके बिना रहने तक के बारे में नहीं सोच सकती। 

इन दिनों मल्टिपल पार्टनर, लिव इन पार्टनर, लव आफ्टर मैरिज जैसे कई टर्म्स हैं, जो संबंधों के बारे में बताते हैं। मुझे लगता है कि ये सब पहले भी थे पर तब इन्हें कोई नाम नहीं दिया गया था। भारत की सबसे बड़ी खूबसूरती यह है कि वह आधुनिक होते हुए भी एक कंजरवेटिव देश है। यहां आप अगर किसी को प्यार करते हैं तो अपनी पूरी जिंदगी उसके साथ जीने की कसम खाते हैं और ताजिंदगी उसका साथ देते हैं। शायद इसी ने हमारे समाज को एक सूत्र में बांधे रखा है। 

बॉलिवुड में अपने काम को देखती हूं तो कुछ बदलावों को देख अच्छा लगता है। यहां अब विवाह के बाद भी काम करने की गुंजाइश दिखने लगी है। मैं करियर को लेकर बहुत ऐंबिशस हूं और नहीं चाहती कि शादी करूं तो करियर को छोड़ दूं। यह देखकर अच्छा लगता है कि लेखक अब सिर्फ कॉलेज प्रेम पर ही कहानियां नहीं लिख रहे, वे परिपक्व प्रेम को भी अपना विषय बना रहे हैं। यहां विवाहित स्त्रियों का प्रेम भी दिख रहा है। यही वजह है कि पुरानी अभिनेत्रियां भी वापस परदे पर दिख रही हैं। 

वासना से बहुत ऊंचा 
लव की परिभाषा में कोई फर्क नहीं आया है - प्यार में दोनों पक्ष एक-दूसरे से सीखते हैं और एक-दूसरे को अपनी ओर से कुछ ऐसा देते हैं कि दोनों की जिंदगी के मायने बदल जाते हैं। दोनों एक-दूसरे को जगह देते हुए साथ-साथ आगे बढ़ते हैं। प्रेम के बहुत शुरुआती दौर में लस्ट की भूमिका भी दिखती है, उसे गलत भी नहीं समझा जाना चाहिए। लेकिन प्रेम उससे बहुत बढ़कर और बहुत ऊंचाई पर है। यह लस्ट ही है, जो कई बार प्रतिशोध को उकसाता है। कोई प्रेमी प्रेमिका के चेहरे पर तेजाब फेंक देता है या कोई औरत प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या करवा देती है - इसकी वजह यही लस्ट है। लस्ट रिजेक्शन और फ्रस्ट्रेशन पैदा करता है, जबकि लव घावों को भरता है, इंसान को भीतर से संपन्न बनाता है। 
नवभारत से साभार

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