शनिवार, 30 जनवरी 2010

मैं और मेरा जीवन 1

जब तीसरे वर्ग में था
पहले की अपेक्षा काफी कुछ समझने लगा था। मेरा रोल नंबर 21 था। घर का माहौल ऐसा था कि रोज स्कूल जाने की आदत पड़ गई। किताब और बोरा लेकर नियमित आने लगा। उस समय स्कूल में नीचे में ही बैठना पड़ता था। इस कारण सभी लोग बैठने के लिए बोरा या पन्नी लाते थे। जो अमीर थे, वे पन्नी लाते थे और शेष बोरा लाते थे। उस समय अनुभव यह हुआ कि क्लास में बिना पढ़े प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण नहीं हुआ जा सकता है। यह बात मैं अच्छी तरह समझ लिया था। लेकिन न जाने चाहकर भी पढ़ाई में मन नहीं लगता था। स्कूल से रोज यही सोचकर निकलता कि कल से खूब पढ़ूंगा, लेकिन घर जाते ही स्कूल की बातें भूल जाता था। आर्थिक स्थिति खराब होने की वजह से कपड़े भी ढंग के नहीं थे। पहनने के लिए एक पेंट और एक शर्ट था। उस समय गंजी भी नहीं था। स्कूल और घर में उसी को पहनता रहता था। इस कारण वह काफी गंदा हो जाता था। नंगा ही नहाता था उस समय। शर्म शब्द पता नहीं था और न ही इसकी अनुभूति ही हो रही थी। शारीरिक रूप से अक्षम आग में घी का काम कर रहा था। नाक से नेटा और मुंह से लार टपकना रोज की आदत बन गई थी। इन सब विशेषताओं के कारण मेरे पास कोई भी स्टूडेंट्स नहीं बैठता था। मैं भी स्वयं को उससे अलग समझ अकेला ही बैठता था। साथ में मेरे गांव के दो स्टूडेंट्स संतोष और पप्पू थे। वे लोग कभी मेरे पास तो कभी उन लोगों के पास बैठते थे। यही दोनों वास्तव में मेरे स्कूल और घर के दोस्त थे। घर में पप्पू का छोटा भाई पिंटू भी मिल जाता था। पढऩे में कोई भी तेज नहीं था। पारिवारिक माहौल की वजह से मैं ही इनमें से बीस था। लेकिन इस तरह का अनुभव उस समय नहीं हुआ था। पप्पू उम्र में काफी बड़ा था। इस कारण वह हम दोनों को बेवकूफ बनाता रहता था और हमलोग अनजाने में बनते रहते थे। उस समय किताब की कुंजी रखना घर में जरूरी नहीं समझा जाता था। इस कारण मेरे पास किताब ही थे। उस किताब की हालत आज के फुटपाथ बच्चे की कपड़े से की जा सकती है। कहने का आशय यह है कि दो महीने में में ही किताब के एक-एक पन्ने गायब हो रहे थे और शुरू और अंत के दो तीन अध्याय नहीं रहते थे। कुछ तो अपनी लापरवाही और कुछ शुरू से पुरानी किताब मिलने की वजह से यह स्थिति हो जाती थी। उस समय हमसे जो सीनियर स्टूडेंट्स थे, वे अपनी किताब आधी दाम में बेचते थे और हमलोग खरीदते थे। यदि संयोग से नई किताब मिल जाती थी, तो उसका पन्ना अधिक रहता था। लेकिन जब पापा पढ़ाते थे और बीच से पेज गायब रहता था, तो मार भी खानी पड़ती थी। पुरानी किताब पर तो बहाना चल जाता था, लेकिन नई किताब में बचने का कोई विकल्प नहीं रहता था।
दाय की विदाई
उस समय मां को बहुत अधिक नहीं जानता था और उनसे प्रेम भी कम ही करता था। कारण यह था कि मैं हमेशा अपनी बड़ी बहन यानी कि दाय के पास ही सोता, उठता और बैठता था। मैं उस पर पूरा अधिकार रखता था। यदि वह बिना कहे कहीं चली जाती थी, तो उनके बगैर खूब रोता था। यही कारण था कि हम दोनों हमेशा साथ-साथ रहते थे। कब से उनके साथ मैं रह रहा था, यह तो मैं नहीं जानता। लेकिन मां बोल रही थी कि बेहतर केयर की वजह से बचपन से ही मैं उनके साथ रह रहा था। मां के अनुसार दाय को काम में मन नहीं लगने की वजह से हमें सौंप दिया गया था। लेकिन अनजाने में ही हम दोनों का प्रेम इतना बढ़ गया कि एक दूसरे के बिना एक पल भी रहना मुश्किल हो रहा था। उस समय दाय को छोड़कर मैं किसी के साथ नहीं रहना चाहता था। वह हमेशा ही मेरा केयर करती रहती थी। मैं उन्हें काफी परेशान करता था, लेकिन वह हमें कभी-कभी मारती थी। उनके साथ गांव घूमता रहता था। उस समय तक मैं पति और पत्नी का मतलब नहीं जानता था। यही कारण था कि जब दाय के पति यानी आचार्य जी आते थे, तो मैं उनके साथ ही सोने की जिद करता और घरवाले उनसे अलग सोने के लिए दबाव डालते थे। इस मामले में हमेशा मेरी ही जीत होती थी। उस समय मैं काफी जिद्दी था। यह मुझे आभास हो गया था। इस कारण बाद में इसका काफी फायदा उठाया। घरवाले लाचार होकर मेरी बात मानते गए और मैं जिद्दी बनता गया। इससे मेरा दुस्साहस बढ़ता गया और घर में जो चाहता था, वही करता था। यदि कभी मेरा पहला औजार काम नहीं करता था, तो दूसरा औजार यानी कि भूख हड़ताल पर उतर जाता था। सभी को दया आ जाती थी और मेरी बात मान ली जाती थी। स्वयं को विजयी देखकर इस मामले में और भी दृढ़ होता गया। मेरी हिम्मत बढ़ती गई और घरवाले की परेशानी भी।
जब मैं बेहोश हो गया
मुझे ठीक तरह से याद नहीं है कि मैं क्यों घरवाले से खफा था। लेकिन यह याद जरूर है कि मैं दो दिनों तक घरवाले के लाख समझाने के बावजूद खाना नहीं खाया था। उस समय पास में पैसे भी नहीं रहते थे। मॉर्निंग स्कूल था। इस कारण सुबह उठकर स्कूल चला गया। सोचा कि ग्यारह बजे तक तो भूखा रह ही जाऊंगा। आठ बजे के लगभग एकाएक जोरों से नींद आने लगी। धीरे-धीरे आंख को बंद करने लगा और भूख से बेहोश हो गया। कब हम घर आए, पता नहीं चला। जब मेरी आंखें खुली, तो मां के गोद में था और मां कुछ खिला रही थी। उस समय यह जाना कि बिना खाना खाए बेहोश भी हुआ जा सकता है। उस दिन से रूठा तो बहुत, लेकिन न खाने की वजह से बेहोश नहीं हुआ।
दाय रात को अंधेरे में रो रही है। इस तरह की घटना दो चार दिनों से रोज देखता था। घर में काफी चहल-पहल थी। मां दाय को विदाई करने के लिए व्यवस्था कर रही थी। परसों दाय का द्विरागमन यानी कि गौना था। इस कारण वह रो रही थी। मुझे कोई भी कुछ भी बताने के लिए तैयार नहीं था। अंत में मुझे पता चला कि दाय परसों के बाद यहां नहीं रहेगी। यह सुनते ही मैं परेशान हो गया और रोने लगा। अंत में घरवाले दाय के साथ मुझे उनके ससुराल भेज दिए। वहां मैं एक महीने रहा और खूब मजे किया। आते वक्त दाय रो रही थी और मैं काफी खुश था। खुशी का कारण यह था कि मुझे नया कपड़ा मिलनेवाला था। कपड़े की खुशी में मैं दाय को भूल गया। वैसे भी एक महीने रहने के बाद मुझे उनसे दूरी बढ़ती गई और मैं पहले की अपेक्षा अधिक परिपक्व हो गया था। अपने घर आया और जहां तक मुझे याद है कि मैं उनके लिए कभी नहीं रोया। यह कैसे हुआ। अभी तक इसका उत्तर नहीं मिल पाया है। अभी भी यह मेरे लिए पहेली बनी हुई है।
जब मैं बन गया शाकाहारी
यह घटना भी इन्हीं वर्षों के दौरान घटी। घर में नुनू काका के अलावा बिनोद भैया ही वैष्णव थे। उस समय वैष्णव का कुछ अर्थ भी नहीं जानता था। पहले मैं रोज मछली खाता था। ऐसा मां कहती है। दिमाग पर जोर देने के बाद मुझे भी याद पड़ रहा है कि यदि गांव में कहीं भी मछली या मांस देख लेता, तो उसे खाने के बाद ही दम लेता था। कभी-कभी मां करछूल में मछली तलकर खिलाती थी। उस समय मछली के अलावा किसी और व्यंजन में स्वाद का दीवाना नहीं था। रात के आठ बजे आंगन में सोए हुए थे और नुनू काका रामायण पढ़ रहे थे। रामायण सुनाते हुए बोले कि जो मांस-मछली खाएगा, उसे चौसठ जन्मों तक गिद्ध ही रहना पड़ेगा। उस समय जीवन के प्रति सकारात्मक सोच था। मरने के नाम से ही परेशान हो जाता था। याद है मुझे कि सोते वक्त मैं और मेरी छोटी बहन यह कल्पना कर रहे थे कि यदि भगवान आते हैं और एक वरदान मांगने के लिए कहते हैं, तो क्या मांगोगी? उसका उत्तर तो याद नहीं है, लेकिन मुझे यह अच्छी तरह से पता है कि मैंने भगवान से यह मांगा था कि मैं जिंदगी भर अमर रहूं। भले ही अब इस बात पर हंसी आती है, लेकिन हकीकत यही थी। गिद्ध वाली बात मेरे मन में बैठ गई और निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी। उसी समय निश्चय किया कि आज से मांस नहीं खाऊंगा। बचपन से ही वचन के प्रति ईमानदार था और जो वचन के पक्के थे, उन्हें काफी आदर भी करता था। यह अभी तक जारी है। यही कारण है कि इसमें ढिलाई बरतनेवाले लोगों से मैं काफी दूर रहता हूं। चाहे वह सगा-संबंधी ही क्यों न हो। एक बार वैष्णव बनने के बाद कभी भी मांस-मछली नहीं खाया। घरवाले काफी दबाव दिए, लेकिन निर्णय पर अडिग रहा। जब मछली देखकर खाने की हुईएक दिन घर में मछली बना था। देखने के साथ ही लार टपकने लगा। निश्चय किया कि रात को चुराकर अवश्य खाऊंगा। आधी रात को उठकर जैसे ही खाने की कोशिश करने लगा कि रात के अंधेरे में दिल से आवाज आई कि तुम अपने मां-बाप से छिपकर खा सकते हो, लेकिन भगवान देख रहा है। मैंने मछली जहां से उठाया, वहीं रख दिया। उस दिन से कभी भी प्रयास नहीं किया। धीरे-धीरे स्वाद भी भूल गया हूं। अब जब बड़ा हुआ हूं, तो उसे देखकर दया आती है। इस कारण खाने की इच्छा नहीं हो रही है। लाचारी बनी ताकत
दरवाजे पर सोया हुआ था। दोपहर का समय था। एकाएक मां मुझे डांट रही थी और मैं जागकर कुछ समझने की कोशिश कर रहा था। बात समझने में देर नहीं लगी। हुआ यूं कि जब मैं सोया था, तो छोटा काका मेरी बैसाखी लेकर उसे काट दिए। यह मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि उन्होंने जानकर नहीं काटा। खैर मेरी एक बैसाखी के दो टुकड़े हो गए। किसी तरह उससे चल रहा था। अंत में वह भी टूट गई। घर में इतने पैसे नहीं थे कि तुरंत बैसाखी खरीदा जाए। इस कारण एक बैसाखी से ही चलने की कोशिश करने लगा। स्कूल जाते समय एक छोर से छोटी बहन का हाथ पकड़ लेता था और दूसरी तरफ बैसाखी रहती थी। यह सिलसिला लगभग एक वर्ष तक चला। बाद में ऐसा हुआ कि दो बैसाखी रहने के बावजूद मैं एक ही बैसाखी पर चलने लगा और आज तक जारी है। परोक्ष रूप से चाचा ने मेरा उपकार ही किया। यदि वे इस तरह की नादानी नहीं करते,तो आज मैं यह सब लिखने के काबिल नहीं होता। एक बैसाखी से मुझे यह फायदा हुआ कि मैं औरों की तरह किताब और कॉपी लेकर चल सकता था। पहले पीठ पर किताब लेने पड़ते थे। क्योंकि दोनों हाथ में बैसाखी था। जिस तरह दशरथ राम को वनवास भेजकर राम को भगवान बना दिए, उसी तरह मेरे चाचा ने बैसाखी काटकर अनजाने में ही मेरा बहुत बड़ा उपकार कर गए। उसी समय मुझे यह भी विश्वास हुआ कि अभ्यास से कुछ भी हासिल किया जा सकता है। यदि दो बैसाीखी से चलता, तो... इस कल्पना से ही रूह कांप उठती है।
बदला नजारा, बदली हवा
उस समय मैं हीन भावना से ग्रस्त हो गया था और यह समझ बैठा था कि जिंदगी की गाड़ी इसी तरह से चलती रहेगी। चुनापुर के संतोष झा क्लास में फस्र्ट करता था। उस समय उससे आंख मिलाने की ताकत मुझमें नहीं थी। वह आया और मुझे समझाया कि तुम मेरी तरह बन सकते हो, मैंने हंसते हुए कहा कि यह संभव नहीं है। यदि तुम साफ-सुथरे कपड़े और पढ़ाई में बेहतर करते हो, तो तुम्हारे पास भी लोग बैठने लगेंगे। एक ही कपड़ा होने की वजह से साफ-सुथरा कपड़ा तो नहीं, लेकिन उस दिन से पढऩे में एक गजब का जुनून सवार हो गया। मैं खूब मेहनत करने लगा। जब परीक्षा के दिन आए, तो काफी परेशान थे। मुझे खुद पर विश्वास नहीं था। इस कारण परीक्षा हॉल में गांव के संतोष, पप्पू और मैं एक साथ बैठा। पप्पू उम्र में हमलोगों से बड़ा था। इस कारण वह हमें एक कुंजिका दिया और बोला कि इसे छिपाकर रख दो। मैंने वैसा ही किया। प्रश्नपत्र देने से पहले टीचर ने सभी स्टूडेंट्स को धमकाया कि यदि किसी के पास कुछ भी है, तो दे दो, वरना पकड़े जाने पर परीक्षा हॉल से बाहर निकाल दिए जाओगे। कभी भी परीक्षा में नकल नहीं किया था। इस कारण काफी डर गया और उसकी किताब निकालकर टीचर को दे दिया। संतोष भी कुछ रखा था, लेकिन वह नहीं दिया। गुस्से से वे दोनों हमारे पास से अलग बैठ गए और हमें अपनी हाल पर छोड़ दिया। मैं अंदर ही अंदर काफी डर गया। अंत में किसी तरह की सहायता मिलते न देखकर स्वयं को विश्वास में लिया और परीक्षा में लिखने लगा। एक भी नकल नहीं किया और मेरे रोल नंबर छलांग लगाते हुए तीन पर आ गया। यह आपको फिल्म की तरह लग रहा हो, लेकिन हकीकत यही था। इससे मेरा आत्मविश्वास काफी बढ़ गया और मैं भी आगे में सभी दोस्तों के साथ बैठने लगा। मेरे न चाहते हुए भी आगे की सीट पर मेरे सिवा किसी की हिम्मत नहीं होती थी बैठने की।

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