बुधवार, 4 दिसंबर 2013

राजेंद्र यादव

चीनी कम, ज़िंदगी •यादा
राजेंद्र यादव से जयंती रंगनाथन की बातचीत

 किताबघर से गीताश्री के संपादन व संयोजन में शीघ्र प्रकाश्य  राजेंद्र यादव और छब्बीस लेखिकाएं  में यह साक्षात्कार शामिल है. इस किताब में राजेंद्र यादव से संबंधित आलेख, संस्मरण और साक्षात्कार हैं.

 पहली बार कब पढा था राजेंद्र यादव को. .? लगभग तीस साल पहले. उस समय की दूसरी किशोaरियों की तरह साहित्य पढने की शुरु आत में ही दो महत्वपूर्ण उपन्यास से रूबरू हुई धर्मवीर भारती का ‘गुनाहों का देवता’ और राजेंद्र यादव का ‘सारा आकाश’. मैंने हमेशा स्पष्ट कहा है कि स्त्नी विमर्श पर बात करनी है तो मां, बेटी और बहन इन तीन संबंधों पर बात नहीं क8रूंगा. ‘गुनाहों का देवता’ ने मुङो उतना प्रभावित नहीं किया, जितना ‘सारा आकाश’ ने किया था. सुधा और चंदर खास कर सुधा का चिरत्न जरूरत से ज्यादा कमजोर लगा. बीच में चंदर और नर्स का प्रसंग भी मुङो अरु चिकर लगा. लेकिन ‘सारा आकाश’ की नायिका के संघर्ष से मैं अपने को जोड पाई. भाषा, शैली, सब कुछ सहज और सरल.
इसके कुछ सालों बाद जब धर्मयुग से जुडी, तो सारा आकाश और राजेंद्र यादव के जिक्र  पर एक सीनियर कलीग ने टिप्पणी की, ‘‘ उपन्यास अच्छा लगा, तो वहीं तक रखो. कभी लेखक से मिलने की इच्छा मत करना. यादव जी भारती जी नहीं हैं.’’
भारती जी मेरे बॉस थे, संपादक थे. हालांकि जिस समय मैं धर्मयुग से जुड़ी (1985 में), वे दूसरों के हिसाब से काफी बदल चुके थे. हंसते भी थे और अपने स्टाफ को ब्रीदिंग स्पेस भी देते थे. लेकिन कभी मुङो उनके साथ यह नहीं लगा कि मैं सहज हो कर गपियाऊं या उनसे चर्चा करूं. दूरियां थीं, काफी थीं. (मैं कुछ ज्यादा अपरिपक्व थी और वे उम्र और पद के हिसाब से ज्यादा परिपक्व).
सालों बाद मुंबई से दिल्ली आना और बसना हुआ. राजेंद्र यादव के जिक्र  पर कई लोगों से सुनने को मिला, ‘‘रिसया आदमी हैं. अगर आप अपने को बचा सकें, तो जरूर जाइए और मिलिए.’’ हंस की गोष्ठियों में दूर से उन्हें देखा, हमेशा युवा स्त्रियों से घिरे, हंसते-ठहाके लगाते हुए यादव जी. कभी हिम्मत नहीं हुई पास जाने की, बात करने की. 

इस बीच उनसे बिना मिले ही हंस में दो कहानियां छपीं. उसी दौरान धीरेंद्र अस्थाना और उनकी पत्नी ललिता भाभी के साथ पहली बार राजेंद्र यादव से मिलना हुआ. धीरेंद्र जी ने परिचय कराया, तो राजेंद्र जी ने सहजता से कहा, ‘‘तो तुम हो जयंती! ’’
उस दिन एक दीवार टूट गई. मेरे सामने जो था वो एक पारदर्शी व्यक्ति था. सहज और सरल. मेरी कल्पना से परे. लगा कि एक्ट कर रहे हैं. लेकिन सबके साथ वे ऐसे ही थे.
फिर भी एक संकोच था. जो टूटा कुछ सालों बाद, जब मैं गीताश्री, अमृता, कमलेश और असीमा के साथ उनसे मिलने लगी, अकसर उनके घर पर हम सब धमाल मचाने पहुंचने लगे. राजेंद्र जी खुश होते थे, हंसते थे, तमाम विषयों पर खुल कर जिक्र  करते थे. हमें वे कहते गुंडियां- बडी गुंडी, मंझली गुंडी और छोटी गुंडी. अपनी असुरक्षाओं का जिक्र  करते, जिंदगी में अकेलेपन को लेकर अपना पक्ष बताते. लेकिन अधिकतर वे खुश रहते, ठहाके लगाते. इन सबके बीच वो राजेंद्र यादव कहां है, जिनके बारे में सालों पहले मुङो सावधान किया गया था? ये तो एक ऐसा शख्स था, जिसके सामने हम अपनी तरह से रह सकते थे, वो कह सकते थे जो ना जाने कब से हमारे अंदर था और बाहर निकल नहीं पा रहा था. क्या हम स्त्रियां ऐसे पुरु ष को नहीं जानना चाहतीं, जो उनका चेहरा पढ ले, जिनके सामने वे अपना स्त्नी होना भूल जाए और सिर्फ यह याद रखे कि वो एक जीती-जागती मनुष्य भी है आकांक्षाओं और इच्छाओं से लबालब. 
हमारे गैंग के कुछ सदस्यों को राजेंद्र यादव के नॉनवेज जोक्स पर एतराज है. लेकिन एंजाय सभी करते हैं. एसएमएस सभी शेअर करते हैं. हर साल राजेंद्र यादव के जन्मिदन की पार्टी में कई दिलचस्प किरदारों से मुलाकातें, बहस, शेअरिंग, गैंग में शामिल होते नए सदस्य-कडी से कडी जुड रही है. 

मैं हर बार जान रही हूं राजेंद्र यादव के व्यक्तित्व के नए पहलुओं को. वाकई यह व्यक्ति औरों से अलग है. अपने ऊपर उम्र को हावी होने नहीं देता. कभी यह अहसास नहीं होने देता कि वह ‘ द राजेंद्र यादव’ है. हां, इसका नुकसान भी है. जब कोई नया व्यक्ति उनसे मिलता है और उनके आसपास एक खास किस्म के ‘ऑरा’ की अपेक्षा करता है, तो उसे निराश होना पडता है.

उनसे कई बार कई विषयों पर बात हुई. गंभीर और अगंभीर बातें. फिजूल की बहसें भी हुईं. उनकी टिप्पणयिां हर बार आपको अच्छी लगें, यह भी जरूरी नहीं. लेकिन मित्नवत बातचीत के अलावा एक औपचारिक इंटरव्यू लेने की बात जब आई, तो तय हुआ कि हम साहित्य से इतर ही बात करेंगे. ऐसे राजेंद्र यादव के बारे में बात करेंगे, जो अभी भी कुछ स्त्रियों को ‘डराता’ है, एक बौध्दिक वर्ग को ‘छिछोरा’ लगता है और हंस के पाठकों और एक बडे प्रशंसक वर्ग को ‘अभिभूत’ करता है.

 आप कितने अ-साहित्यक व्यक्ति हैं?

जब मैं पढता या लिखता हूं तो पूरी तरह एक साहित्यिक आदमी होता हूं, लेकिन इसके बाद मैं कोशिश करता हूं कि एक आम आदमी की तरह हंसू, बर्ताव करूं. आइ वांट टू बी लाइक ए कॉमन मैन. इसके लिए मुङो किसी तरह की कोशिश नहीं करनी पडती. मुङो यह नेचुरल लगता है. शाम को घर लौटने के बाद या तो दोस्तों से मिलना-जुलना होता है, अकेला होता हूं तो कोई फिल्म देख लेता हूं.

आपका मन नहीं होता कि अलग क्षेत्न के लोगों से मिले-जुलें?

मिलना चाहता हूं. . दिक्कत क्या है कि हमारे सिर्कल में ऐसे लोग नहीं हैं, सारे पढने-लिखने वाले हैं. कभी-कभी इच्छा होती है कि ऐसे लोगों से मिला जाए जिनका साहित्य से कोई लेना देना नहीं है.
अगर सफर में ऐसे व्यक्ति का साथ मिल जाए, जो आपको नहीं जानता, तब आपकी क्या प्रतिक्रि या होती है?
मैं अपनी तरफ से कभी नहीं बताता. अगर पूछे तो सिर्फ इतना बताता हूं कि लिखने-पढने का काम करता हूं. ज्यादा पूछे तो कहता हूं कि मैगजीन निकालता हूं. मैं उनके और अपने बीच डिस्टंस पैदा नहीं करना चाहता.

मुङो यह भी अच्छा नहीं लगता कि कोई मेरे पैर छुए या मुझसे दूरी बना कर चले. हमेशा से यही लगता रहा कि मैं लोगों के करीब रहूं. पैर छुआना, ओरा बना कर चलना--यह सब ड्रामा लगता है. अच्छा लगता है जहां बेतकल्लुफ-सी बातचीत हो, दुराव-छिपाव ना हो, खुल कर हो, गंदी बातें भी कर सकें और अच्छी बातें भी.
एक आम आदमी का जीवन कितना मिस करते हैं आप? उम्र के इस मोड पर पहुंच कर आप एक एिक्टव जिंदगी जी रहे हैं, कभी लगता है कि कहीं प्रोफेसर होते या कोई और काम किया होता?
 कभी नहीं.
 लेकिन यादव जी पैसा तो नहीं है ना इस फील्ड में . .

हां, लेकिन ना मुङो इसका अफसोस है ना कभी इच्छा रही. मेरी इच्छाएं, खासकर अपने लिए बहुत कम हैं, शुरू से.

हाल ही में गीताश्री की पुस्तक के विमोचन समारोह में आप पर खूब फिब्तयां कसी गईं, आपने दो लाइन क्या लिखा करीना कपूर के बारे में कंट्रोवर्सी बन गई. कहा गया कि बुढापे में जवां लिडकयों का ‘ शौक ’ हो जाता है, मनीषा ने भी यह बात कही और मैत्नेयी ने भी.

अच्छा यह बताओ, क्या मुङो एक सुंदर लडकी देख कर एप्रीशिएट कहने का हक नहीं? इस तरह के विवादों का मुझ पर कोई असर नहीं पडता. मैं समझता हूं कि जो कह रहा है, वो बेवकूफ है. अगर इनमें से किसी को मैं इस निगाह से देखता तो शायद उनको खुशी होती.
 अब तो आपकी हर बात कंट्रोवर्सी बन जाती है. पहली कंट्रोवर्सी कौन सी बनी?
 ठीक से याद नहीं. पर मेरे उपन्यास ‘सारा आकाश’ में एक शिरीष नाम का किरदार था, जो धर्म-कर्म किसी पर यकीं नहीं करता था, इसको ले कर विवाद छिडा. बाद में होता ही रहा.उस समय मुङो लगा कि जो मैं कह रहा हूं, सही है और मन से कह रहा हूं और इसे ऐसा ही होना चाहिए. मुङो याद है, बहुत पहले पैंसठ-सत्तर की बात है, मैंने एक लीड लिखा कुछ शास्त्नीय निषेधों के बारे में-प्राध्यापकों के खिलाफ, जो जड होते हैं, जो अपनी दुनिया से बाहर निकलना नहीं चाहते और यह समझते हैं कि साहित्य सिर्फ उतना ही है जितना हम जानते हैं, आधुनिक साहित्य को आने ही नहीं देंगे. मैंने एक लंबा लेख लिखा था, डॉ नरेंद्र और उन जैसे लोगों के खिलाफ बाकायदा खुल कर लिखा था. उसे ले कर बहुत कंट्रोवर्सी हुई. उस समय वह अजंता में छपा था.
 आपकी कितनी उम्र रही होगी उस समय ?
 जिसे मैंने प्यार किया था वो घर में सबसे छोटी थी. मुङो हमेशा लगता था कि इसे मैं प्यार तो बहुत करता हूं, मैं जहां कहूं और अच्छी जगहों पर हम मिलें, हम मिलते भी थे, पर शादी के लिहाज से उसकी पर्सनालिटी बहुत स्ट्राँग थी.
मैं तीस के ऊपर का था. शुरू से ही मैं जो एस्टाब्लिश- स्थापित और स्वीकृत है, उनको विकर्षिक्र त करना चाहता हूं. मुङो लगता है कि चीजों को जैसे का तैसा स्वीकार करना गलत है.
 स्त्नी को जान पाने की पहल सबसे पहले कब हुई?
 बडा मुश्किल है कहना. जाइंट परिवार था. 18 बहनें थीं, कुछ बडी कुछ छोटी. किसी के प्रति ज्यादा अटैचमैंट था. कहना चाहिए कि इमोशनल टाइज वहीं से शुरू हुए. धीरे-धीरे लगा कि हम जिस स्त्नी को जानना चाहते हैं वह कम से कम मेरी बहन नहीं है, बेटी नहीं है, मां नहीं है.
बेटी, मां,बहन आपका चॉइस नहीं, आपको दे दी गई हैं. हमारी चाइस वो स्त्नी है जिसे हमने चुना, हम उस स्त्नी की बात कर रहे हैं. मां, बहन, बेटी के बारे में बात करनी भी नहीं चाहिए. ये महिलाएं किसी और के लिए औरत होंगी, हमारे लिए नहीं हैं. 
मैंने हमेशा स्पष्ट कहा है कि स्त्नी विमर्श पर बात करनी है तो मां, बेटी और बहन इन तीन संबंधों पर बात नहीं करूंगा. घर के अंदर भी स्त्नी को जितनी आजादी चाहिए, बहन-बेटी को जो फ्रीडम चाहिए, एजुकेशन चाहिए, मैंने दी है. बेटी को जिंदगी में एक बार थप्पड मारा, आज तक उसका अफसोस है. बाद में जिंदगी के सारे निर्णय उसने खुद ही लिए. यह फ्रीडम तो देनी ही पडेगी.

‘ अपनी दुनिया की स्त्नी’ से आपका साबका कब हुआ?

मेरे फादर डॉक्टर थे. छोटे कस्बों में उनका ट्रांसफर होता था. जहां कंपाउंडर, नौकर, कुक, चौकीदार और उनका परिवार होता था. कंपाउंडर की बेटियों से हमारी दोस्ती थी. उनसे छेडछाड चलता रहता था. स्त्नी को वहीं से जानना शुरू किया, उनके शरीर को भी. समझते थे कि हम प्यार कर रहे हैं. वह लस्ट था, आकर्षण था. उस समय बहुत आगे जाने के बारे में मालूम नहीं था.
 सच में जिसके साथ अटैचमेंट हुआ वो उन्नीस-बीस साल में हुआ, जो आज तक चला आ रहा है.ेक्स बहुत बाद में आया. शुरू में यह मानना भी मुश्किल था कि वी लव इच अदर. हमारे बीच प्लेटोनिक लव था. चिट्टियां लिख रहे हैं. दक्षिण भारत गए घूमने, रामविलास शर्मा, मैं अमृतलाल नागर वगैरह, वहां से चिट्ठियां लिख रहे है कि तुम भी होती तो कितना अच्छा था, वगैरह वगैरह. तब तक हमने आपस में आइ लव यू नहीं कहा था. यह बात हम लोगों ने पांच साल बाद मानी.
जब शादी की बात आई, तो वह कलकत्ते आई, बाकायदा मेरे पास तीन-चार दिन रही. शादी की बात पर उसने कहा- मैं प्यार कर सकती हूं, शादी की योजना मेरे दिमाग में नहीं है.

उस लिबरेटेड वूमन को आप पचा पाए? सम्मान के साथ उसे जाने दिया कि मन में खिलश रह गई?

जिसे मैंने प्यार किया था वो घर में सबसे छोटी थी. उसकी जिम्मेदारियां थीं. फादर उसके बीमार रहते थे या संत हो गए थे. जैन लोग थे. सारे घर का इंतजाम, भाइयों के बच्चों को पढाने-लिखाने का काम वही करती थी. बाद में फॉरच्युनेटली या अनफॉरच्युनेटली उसने डबल एम ए किया, पीएचडी किया और प्रोफेसर हो गई. अधिकार की जो चेतना शुरू में थी, वो बाद में बाकायदा एक ऑफिसर की या प्रिंसेस जैसी हो गई.

मुङो हमेशा लगता था कि इसे मैं प्यार तो बहुत करता हूं, मैं जहां कहूं और अच्छी जगहों पर हम मिलें, हम मिलते भी थे, पर शादी के लिहाज से उसकी पर्सनालिटी बहुत स्ट्राँग थी.
क्या आप उसके साथ एक नार्मल जिंदगी जी पाते?
 आज उसे शिकायत है कि तुमने मुङो एक बच्चा भी नहीं दिया.
 उसकी शिकायत को जेनुइन मानते हैं आप?
मुङो अपनी इंडीपेंडेंस के लिए दो रास्तों में एक को चुनना था. या तो विवाह को चुनना था या अपनी आजादी को. नहीं, वह गजब की इगोइस्ट थी. जब पहली बार सेक्स संबंध बने, हम दोनों 10-12 दिन पहाड पर रहे थे, उसकी तबीयत खराब हो गयी. महीने भर तक. मुङो शक है कि उसने एबार्ट करवाया. हालांकि उसने बताया नहीं.
 इतनी इगोइस्ट महिला से आपको प्यार कैसे हो गया?
 हो गया, क्या करें? बल्कि आज भी लडती है मुझसे, सत्तर साल की हो गई है, बल्कि अबव सेवंटी, कहीं एक अख़बार में कुछ आ गया होगा उसके बारे में, कहती है कि मैं बिलकुल नहीं चाहती कि कहीं मेरा नाम आए. शी इज पर्सन ऑफ ए स्ट्रांग कैरेक्टर.
  क्या वो आपको मिल जाती तो आप दोनों के बीच प्यार रहता? औरत का यह तेज रूप बर्दाश्त कर पाते आप?
 मेरे ख्याल से नहीं कर पाता. नई कहानी का सारा दर्द यही है. खास कर मोहन राकेश का-अंधेरे बंद कमरे, आषाढ का एक दिन सबकी थीम यही है. हमने स्त्नी को पर्सनालिटी दी, आत्मनिर्भरता दी, स्वतंत्नता दी, लेकिन हमारी मानिसकता उसे बर्दाश्त नहीं कर पायी.
हमारे संस्कारों में है कि हम रात कहें तो वो रात कहे, दिन कहें तो दिन. ये स्त्रियां अलग थीं. शायद इसलिए हमारी जनरेशन के पुरु ष स्ट्रांग स्त्नी के साथ निबाह नहीं कर पाए.
 आप आज भी अपने भूले बिसरे प्यार को इसीलिए तो याद नहीं कर रहे कि बहुत सारी बातें अनकही रह गईं?
शायद.

 क्या आज भी आप अपने आपको रोमांटिक महसूस करते हैं?

आज से दस साल पहले करता था. अब तो खाली एक नोस्टालिजया है. पिछले दिनों मेरी मुलाकात हुई थी उससे, दो-तीन घंटे साथ थे-पर अब नया कुछ नहीं बन सकता.

आप सत्तर प्लस के जॉनर को बिलांग नहीं करते. क्या कहीं यह तो नहीं लगता है कि वो तो बुढा गई है, लेकिन मैं अभी भी यंग हूं.

हां, लगता है. कम्युनिकेशन का लेवल बदल गया है. चूंकि उसे लगता है कि हमने उसे संरक्षण या साथ नहीं दिया, इसलिए उसे अपने परिवार में अपने भाभियों के साथ ही रहना है. कहती है कि जब मुङो सुविधा होगी, तो आऊंगी. नहीं आई तो बुरा मानने की जरूरत नहीं है.  

आज जबकि आप दोनों अकेले हैं, वो आपके साथ रहने का निर्णय क्यों नहीं ले पातीं?

उस पर बुढापा आ गया है, असुरक्षा महसूस करती है, कि मुङो वहीं रहना है, अपने भाई-भाभी के बच्चों के बीच. वो ही बुढापे में मेरी देखरेख करेंगे.
 जिन लोगों के साथ आपके नाम जुडे, मन्नू भंडारी, मैत्नेयी पुष्पा इनमें असाधारण क्या नजर आया ? क्या ये सब टिपिकल औरतें नहीं थीं?  
 इनकी जो मानिसक बनावट है, जो गुण हैं, उनसे मैं प्रभावित हुआ. प्रभा खेतान मेरी बहुत इंटीमेट फ्रेंड रही हैं.
 मन्नू को आप प्रेमिका क्यों नहीं बना पाए?  
 बाद में हमने डिस्कवर किया कि जिंदगी सिर्फ लेखन नहीं है. मन्नू का पालन पोषण जिन लोगों के साथ हुआ, वे बहुत भले लोग थे. सुबह नौ बजे दफ्तर जाना, शाम समय पर घर लौट कर बच्चों के साथ समय बिताना. सब उतने ही आत्मीय थे. हमारी लाइफ स्टाइल बिलकुल अलग थी. वो पांच बजे घर आ जाएं और चार बजे हमारे निकलने का टाइम था. ऐसा नहीं है, कई बार वे मेरे साथ आईं, कोलकता में जब तक रहे उसने मेरा साथ दिया. काफी हाउस में देर तक रहना, दोस्तों से मिलना आदि. दिक्कत थी एक पति की जिम्मेदारियां-जो मैं नहीं निभा पाया. साथ रहना और पति-पत्नी बन कर रहना दो अलग बातें हैं. बीस साल एक आदमी-औरत साथ रहे. एक दिन उनके मन में आया कि क्यों ना हम शादी कर लें. अगले दिन पुरु ष ने कहा, सुबह उठ कर कि तुम चाय बनाओ. पत्नी ने जवाब दिया, मैं क्यों बनाऊं, तुम बनाओ जैसा पहले बनाते थे. बात यह है कि शादी दो चीजें मांगता है स्वतंत्नता, नैतिक और दैहिक आचरण. उससे बाहर जाते ही खटखट होनी शुरू हो गई.
बाहर आप खुदा होंगे, घर में आप औरत और आदमी हैं. मन्नू को ऐसा पति चाहिए था, जो उसकी शिकायतें सुनता. उसने अपनी शिकायतें एक्साजिरेट करना शुरू कर दिया. हमारे बाहर भी संबंध थे. शारीरिक नहीं, पर हां अच्छे संबंध तो थे ही. जैसे मृदुला गर्ग से. उसकी पहली कहानी ‘हंस’ में रीराइट करके छापा. उसकी पहली कहानी ‘केअर ऑफ’ अक्षर प्रकाशन छपी थी. उसके उपन्यास को भी रीराइट करना, ठीक करना-हमने ही करवाया. मृदुला के साथ बहुत अच्छे संबंध थे. मन्नू को यह बात पसंद नहीं थी कि बाहर लिडकयों से संबंध रखूं, मिलूं, फोन पर बात करूं.

पीछे मुड कर देखते हैं तो क्या अफसोस होता है कि आप टिपिकल हसबैंड नहीं बन पाए?  

मुङो शिकायत नहीं. पर मन्नू की तरफ से सोचता हूं तो लगता है कि मैं असमर्थ था. मुङो अपनी इंडीपेंडेंस के लिए दो रास्तों में एक को चुनना था. या तो विवाह को चुनना था या अपनी आजादी को.
 विवाहित जीवन में सुविधाएं भी तो थीं? फिर अलग होने की क्या सोची?
हां. जब खटखट बढी तो सोचा कि अलग रह कर देखा जाए. महीनों बाहर रहा. कई दिनों तक गाजियाबाद मित्न के घर रहा, कि दोनों एक दूसरे की कमी महसूस कर सकें. छह महीने मैं आईआईटी कानपुर में रहा, युनिविरसटी का गेस्ट बन कर. मन्नू दो साल के लिए चली गई. हमने ये प्रयोग किये कि डे टू डे की क्लेश खत्म हो.
क्या आप विवाह संस्था में यकीन करते हैं?   

मैं नहीं करता, लेकिन मन्नू करती है. शादी एक बंधन हो, वहां तक तो ठीक है. लेकिन उसके साथ एक आचरण की जो आचार संहिता है, उसमें मेरा दम घुटता है, मैं वहां एडजस्ट नहीं कर पाता.
 मन्नू से अलग होने के बाद में कभी सेटल होने का मन नहीं आया?   
 नहीं. लेकिन मेरा परिचय कई खूबसूरत महिलाओं से रहा. एक थी शोभना भुटानी, एनएसडी से थी, एक्टर थी. मेरे बहुत क्लोज थी. एक संयुक्ता थी, बहुत खूबसूरत. उन दिनों ‘सारा आकाश’ पर फिल्म बन रही थी आगरा में. मेरे बुलाने पर वह मेरे साथ आगरा आई. स्टेशन पर जैसे ही वह उतरी, सबने कहा कि हीरोइन आ गई. बाद में उसके मन्नू से बहुत अच्छे संबंध बन गए. पता नहीं वो मन्नू को घुमाने कहां-कहां ले गई. लेह-लद्दाख. पहले तो बहुत ईष्या थी मन्नू को उससे लेकिन बाद में वह मन्नू की आलमोस्ट बेटी बन गई.
 क्या देख कर आप स्त्नी की तरफ आकर्षित होते हैं?
पहले तो रंग रूप आता है. उसके बाद एक कॉमन कैमिस्ट्री बनती है. मुङो ऐसी महिलाएं पसंद आती हैं जिनसे संवाद बना सकूं, बाकायदा बात कर सकूं, किसी भी विषय पर. हमारे कुछ मित्न रहे हैं, स्त्नी के नाम पर जो मिले झाडू लगाने वाली हो या चौका बरतन करने वाली हो, मौका मिला तो दबोच लिया. दिस, आई कांट डू. जिस स्त्नी के साथ मैं मन से एक इंटीमेट संबंध ना बना सकूं, उनसे मेरा रिश्ता नहीं बन सकता.
 ऐसी कोई महिला आई है, जिसके साथ आपके अच्छे संबंध रहे हों, आपने उनसे संबंध बनाना चाहा हो, लेकिन उन्होंने मना कर दिया.  

हां. एक्चुअली सेक्स के स्तर पर मेरा रिश्ता तीन ही महिलाओं के साथ रहा है. मन्नू, दूसरी जिस प्रेमिका का मैंने जिक्र  किया और एक और के साथ. बाकि स्त्रियों के साथ सेक्स नहीं हुआ. ऐसा नहीं है कि मैं सेक्सुअली कमजोर हूं, पर उस स्टेज तक आई नहीं बात. आने भी नहीं दिया. हरेक से सेक्स नहीं कर सकता.
 लेकिन आप जो ‘ऑरा’ बना कर चलते हैं, उससे तो यही बात सामने आती है कि आपके कई स्त्रियों के साथ दैहिक संबंध रहे हैं. पिछले दिनों अजय नाविरया आपके ही सामने जिक्र  करे थे सोनी का, जिसे दीवाली की सुबह उसने आपके घर में नाइट सूट में देखा था. इससे बाहर यही संदेश जाता है कि वो रात को सोई हैं.  

नहीं. मेरे उससे इंटीमेट संबंध हैं. मैं चाहता हूं कि मेरे पास जो भी रहे, वो फ्रीली अपना घर समझ कर रहे. मैं यहां आदमी-औरत की बात नहीं करता. अगर वो यहां रहती है, तो उसे पूरी स्वतंत्नता के साथ रहना चाहिए. सोनी जब मुझसे पहली बार मिली थी, तो इक्कीस या बाईस साल की थी. और दूसरे साल ही मेरी जान को लग गई कि मैं आपका इंटरव्यू करूंगी और आपसे सेक्स संबंधों के बारे में सवाल करूंगी. इक्कीस साल की लडकी मेरे सामने खुल कर पूछ रही है मेरे संबंधों के बारे में. बिंदास. मुङो ऐसी लिडकयां पसंद हैं.सेक्स की जरूरत महसूस होती है. लेकिन मैं अपने को जब्त करता हूं. मैं नहीं चाहता कि जो स्त्रियां मुझसे मिलने आती हैं, जो मुङो ऊर्जा देती हैं, वो मुझसे मिलना छोड दें. अब तो तसवीरों में करीना कपूर को देख कर संतुष्ट हो जाता हूं.
जितनी भी महिलाएं आती हैं, आपसे मिलने, उन सबके साथ आपका नाम जुडता है. माना जाता है कि आपके साथ सोती हैं ?  

सोनी जब मुझसे आई तो काफी समय बात उसने मुङो बताया कि उसे कहा गया था यादव जी के यहां मत जाओ, खतरनाक आदमी हैं, उनके चंगुल से बच नहीं पाओगी. जो भी है. . साल भर हो गया, आपने तो ऐसा कुछ नहीं किया. मैंने हंस कर पूछा कि क्या तुम चाहती हो कि मैं ऐसा कुछ करूं? छूना-छाना, लपक-झपक मौका मिले तो किस करना यह सब तो चलता है, इससे किसी को आपित्त भी नहीं होती. मुङो कई स्त्रियों ने बताया है कि उन्हें यह बता कर भेजा जाता था कि यादव जी से मिलने जा रही हो तो पर्स में एक छुरा रखना मत भूलना.
 सेक्स की जरूरत महसूस नहीं होती आपको?  
 होती है. . लेकिन मैं अपने को जब्त करता हूं. मैं नहीं चाहता कि जो स्त्रियां मुझसे मिलने आती हैं, जो मुङो ऊर्जा देती हैं, वो मुझसे मिलना छोड दें. अब तो तस्वीरों में करीना कपूर को देख कर संतुष्ट हो जाता हूं.
 करीना का कौन सा रूप आकर्षित कर गया आपको? ‘टशन’ में स्विम सूट वाला या.?  
 ‘जब वी मेट’ में मुङो वो अच्छी लगी, हम ब्यूटी के साथ एक इनोसेंस, एक डिविनिटी लगा कर देखते हैं. इसलिए ‘टशन’ देखने का मेरा मन नहीं है. एक जमाने में मुङो स्मिता पाटिल बहुत अच्छी लगती थी, बहुत सेक्सी. रमोला भी.
 कुछ समय पहले जब मैंने आपसे कहा था कि मैं मुंबई जा रही हूं लेस्बियंस पर एक स्टोरी करने तो आपने हँस कर यह कह कर बात उडा दी कि दो औरतें कैसे करती हैं सेक्स? आप गे रिश्तों के बारे में क्या सोचते हैं?  
 हालांकि सन साठ में मैंने ‘प्रतीक्षा’ नाम से कहानी लिखी थी गे सबंधों के बारे में. पता नहीं कितने ट्रांसलेशन हुए, एक अमरीकी आदमी ने अंग्रेजी में ट्रांसलेट किया और इंप्रिंट मैगजीन में छपा. लेस्बियन महिलाओं की बात तो दूर, मुङो सोडोमी एस्थेटिकली नहीं जंचता. संस्कार किहए या जो भी, मैं इन रिश्तों को समर्थ नहीं देता. मुङो चालीस साल नॉन वेज खाते हो गए. पिछले पांच-छह सालों से शोरबा खा पाता हूं, पीस नहीं. अब इसे चाहे जो कहो. मुङो एस्थेटिकली ये संबंध गंदे लगते हैं.
 लेकिन आंकडे तो कहते हैं कि हर दस में से एक पुरु ष गे संबंधों के प्रति आकृष्ट होता है.
 अधिकांश लडके बचपन में शिकार बनते हैं. इन बॉर्न का नहीं पता. जब हम स्कूल में थे, तो हमसे बडी उम्र का एक लडका स्साला हमें बैठा देता था कि मास्टरबेशन करो. इस तरह के संबंध होते हैं. टीचर लोग पढाने के लिए बच्चों को बुलाते हैं और फिर करवाते हैं. हां. मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ, लेकिन मैंने देखा है.
औरतों की एक जमात जो आपको सठिया और बुढऊ कहती है, आप कैसे रिएक्ट करते हैं.
 मुङो सच में महसूस नहीं होता कि मैं बूढा हूं. यह बात भीतर से ही नहीं आती कि मैं उम्र दराज हो गया हूं. मैं मानता हूं अपने से यंग छोटी उम्र की स्त्रियों के साथ दोस्तियां बनी रहे, यह आपको युवा रखता है.

क्या आप सेवंटी में पहुंची महिला से इसी तरह बेतकल्लुफी से बात कर पाते हैं?
 जहां बीच में संस्कार, सीमाएं वगैरह हों, वहां बराबरी की दोस्ती नहीं बन सकती. मैं चाहता हूं जिन स्त्रियों से मेरी दोस्ती हो एक पुरु ष की तरह दोस्ती हो. उतनी ही बेतकल्लुफ, संकोचहीन. ये जो महिलाएं आपके साथ चली आती हैं, दोस्ती करती हैं यह बात सिर्फ वहीं तक नहीं रहती. उन्हें अपने परिवार को जवाब देना पडता है. 
मान लीजिए मैं किसी लडकी से प्यार करता हूं, उसका नाम ले कर लिख देता हूं. आज वो कहीं किसी की मां है, पत्नी है, वो क्या जवाब देगी? मेरे प्यार का तकाजा यह है कि मैं उसे ऐसी स्थिति में ना डालूं, जहां वो अपने आपको छोटा महसूस कर सके.
 अगर कोई महिला ऑटोबायोग्राफी लिखे, आपका जिक्र  करे तो आपको फर्क पडेगा कि नहीं?
 नहीं. . मेरे बारे में बहुत कुछ लिखा जाता है. औरतें लिखती रही हैं. एक आई थी, मुङो याद भी नहीं कि वह मुझसे मिली था या नहीं, लेकिन उसने जो मेरे बारे में लिखा वो कोरी बातें थीं, बिलकुल काल्पनिक कि उन्होंने ऐसे देखा जैसे मुङो खा जाएंगे. वगैरह वगैरह. मेरे और मेरे लेखन के ऊपर एक बहुत बडा सेंसर है वीना का. वीना मेरे क्लोज है, मुझसे बहुत फ्री है. लेकिन वह कहती रहती है कि ‘हंस’ में यह छपेगा और यह नहीं छपेगा. जब मैंने ‘हासिल’ नाम की कहानी लिखी, तो उसने कहा- नहीं छापेंगे, मैं अड गया. मोस्ट मशहूर लेख ‘होना सोना’ पर अड गई कि नहीं छापेंगे, ‘हंस’ के लायक नहीं, उससे लड कर मुङो अपना लेख छापना पडा.
 जो स्त्रियां नारी मुक्ति का झंडा उठा कर चलती हैं, जो गाहे बगाहे आपके खिलाफ बोलती हैं, उनके बारे में कुछ सुनहरे शब्द हो जाएं?

वे महिलाएं मानिसकता से या उम्र से साठ के ऊपर की हैं, जो नारी मुक्ति को नहीं मानती. जो गोलमोल वक्तव्य में विश्वास रखती हैं कि मनुष्य तो सब एक ही है. अच्छा, जो पुरु ष की मानिसकता से लिखा गया है और जो स्त्नी की मानिसकता से लिखा गया है, बेसिक अंतर है. दो अलग अप्रोच हैं. उस चीज को तो हमें मानना होगा. क्योंकि उनकी शिक्षा-दीक्षा जिन परंपराओं में हुई, वहां तो लेखक पुरु ष ही थे, जो लिखते थे, एकाध थीं, महादेवी वगैरह, जो गोल-गोल बातें लिखती थीं मधुर-मधुर मेरे दीपक जल, उसमें किसको आपित्त हो सकती थी? फिर महिलाओं ने जो लिखना शुरू किया, इतनी वेरायटी के साथ आईं, निर्मला जैन, मृदुला, मृणाल- वे फेमिनिस्ट विरोधी हैं. झंडा बुलंद करके चलने वाली स्त्रियां हमें गालियां देती हैं कि हमने उन लेखिकाओं को बिगाड दिया.
यहां मैं कोट करना चाहूंगा, पिछले साल किसी भी चैनल या न्यूज पेपर ने उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले मायावती के आने की घोषणा नहीं की. वे बस गोल-गोल घूमते रहे. लेकिन जब रजिल्ट आए तो सब चौंक गए. मायावती जीत गईं. कोई तो सचाई थी, जो उसके साथ थी, जिससे बिना शोर मचाए, बिना कहे लोग उसके साथ जुडे हुए थे.
तो स्त्नी विमर्श और दलित विमर्श में कोई तो बात, चीज थी कि आज कोई संवाद, कोई बहस इसके बिना पूरी नहीं होती. यूनिविरसटी में दलितों का अलग सेक्शन है. यह जो उनके अनचाहे बढ रही है, यह बौखलाहट है उनके मन में (झंडा उठा कर चलने वालों के). इनमें सिर्फ मैत्नेयी है, जो मानती है कि वो स्त्नी वादी है. प्रभा तो बकायदा इतनी पढी लिखी है कि अपने तर्कों से वह सबका मुंह बंद कर देती है. यह श्रेय तो हमें मिलना चाहिए कि पिछले बीस सालों में हमने इसे साहित्य का एक सेंटर और करेंट बना दिया.

आप पर जो अश्लीलता का आरोप लगता है, कितना जेनुइन है, कैसी प्रतिक्रि या करते हैं?

बहुत पहले हम शिक्त नगर में रहते थे, तो बस से आते-जाते थे. बस में एक औरत सफर किया करती थी, मेरा ख्याल है वही तीस-पैंतीस की होगी. जब कभी वो किसी पुरु ष की बगल में बैठती, तो झगडा मोल लेती कि मुङो क्यों छेड रहा है? लडती हुई जाती थी. सब हंसते हुए जाते थे. यह एक किस्म की कुंठा है कि सब मुङो छेडते हैं. तीस पैंतीस साल की स्त्नी मैच्योर होती हैं. उनसे बात करने में यह भी होता है कि आप कोई नई चीज जान लें. वो उनके अंतरमन में झांकने का एक मौका देती हैं.
 क्या आपको अफसोस होता है कि आपको तीन चार जनरेशन बाद पैदा होना था? इस जनरेशन के पास जो है पहले नहीं था, इतनी आजादी, विचारों में इतना खुलापन.

ठीक है, हां यह तो सही है कि आज के जनरेशन के पास आजादी है. पर जो है सो है. अब होता है कि बेकार में अपनी जिंदगी खराब की. रोंमाटिसिस्म में और इन सबमें कई खूबसूरत चीजें अनदेखी कर दी. अफसोस तो होता है.
 किसी चीज की शिकायत रह गई? पावर, पैसा या और कुछ?
 उस मामले में जो मैंने चाहा मुङो मिला. इस तरह की कोई शिकायत नहीं है. हां, अकेलापन कभी-कभी खलता है.
 जो भी औरत आपके पास, आपसे मिलने आती है, आपसे क्या चाहती है?
शुरू में जो भी आती है एक दूरी बना कर आती है. जब इंटीमेट हो जाती है तो फिर आदमी-औरत वाली बात नहीं रहती. उससे ऐसा रिश्ता बन जाता है जिसमें वो लड भी सकती है गाली भी दे सकती है.
  ऐसे संबंध आपको ज्यादा प्रिय हैं?
 बिलकुल. इंटीमेट, बेतकल्लुफी भरे संबंध मुङो अच्छे लगते हैं.
 आप अपनी फेंटेसीज किसके साथ शेअर करते हैं?
 किसी से नहीं. कभी डायरी में लिख दिया, तो लिख दिया. हां मिस तो करता हूं कि किसी से कह नहीं पाता. यहां मैं चीनी कम फिल्म का जिक्र  करूंगा. यह फिल्म मुङो बहुत अच्छी लगी. उसमें नायक-नायिका (अमतिाभ बच्चन-तब्बू) के बीच जो एज डिफरेंस और अंडरस्टैडिंग है, बहुत सही है. मैं मानता हूं अपने से यंग छोटी उम्र की स्त्रियों के साथ दोस्तियां बनी रहे, यह आपको युवा रखता है.

चीनी कम, ज़िंदगी •यादा
राजेंद्र यादव से जयंती रंगनाथन की बातचीत

 किताबघर से गीताश्री के संपादन व संयोजन में शीघ्र प्रकाश्य  राजेंद्र यादव और छब्बीस लेखिकाएं  में यह साक्षात्कार शामिल है. इस किताब में राजेंद्र यादव से संबंधित आलेख, संस्मरण और साक्षात्कार हैं.

 पहली बार कब पढा था राजेंद्र यादव को. .? लगभग तीस साल पहले. उस समय की दूसरी किशोaरियों की तरह साहित्य पढने की शुरु आत में ही दो महत्वपूर्ण उपन्यास से रूबरू हुई धर्मवीर भारती का ‘गुनाहों का देवता’ और राजेंद्र यादव का ‘सारा आकाश’. मैंने हमेशा स्पष्ट कहा है कि स्त्नी विमर्श पर बात करनी है तो मां, बेटी और बहन इन तीन संबंधों पर बात नहीं क8रूंगा. ‘गुनाहों का देवता’ ने मुङो उतना प्रभावित नहीं किया, जितना ‘सारा आकाश’ ने किया था. सुधा और चंदर खास कर सुधा का चिरत्न जरूरत से ज्यादा कमजोर लगा. बीच में चंदर और नर्स का प्रसंग भी मुङो अरु चिकर लगा. लेकिन ‘सारा आकाश’ की नायिका के संघर्ष से मैं अपने को जोड पाई. भाषा, शैली, सब कुछ सहज और सरल.
इसके कुछ सालों बाद जब धर्मयुग से जुडी, तो सारा आकाश और राजेंद्र यादव के जिक्र  पर एक सीनियर कलीग ने टिप्पणी की, ‘‘ उपन्यास अच्छा लगा, तो वहीं तक रखो. कभी लेखक से मिलने की इच्छा मत करना. यादव जी भारती जी नहीं हैं.’’
भारती जी मेरे बॉस थे, संपादक थे. हालांकि जिस समय मैं धर्मयुग से जुड़ी (1985 में), वे दूसरों के हिसाब से काफी बदल चुके थे. हंसते भी थे और अपने स्टाफ को ब्रीदिंग स्पेस भी देते थे. लेकिन कभी मुङो उनके साथ यह नहीं लगा कि मैं सहज हो कर गपियाऊं या उनसे चर्चा करूं. दूरियां थीं, काफी थीं. (मैं कुछ ज्यादा अपरिपक्व थी और वे उम्र और पद के हिसाब से ज्यादा परिपक्व).
सालों बाद मुंबई से दिल्ली आना और बसना हुआ. राजेंद्र यादव के जिक्र  पर कई लोगों से सुनने को मिला, ‘‘रिसया आदमी हैं. अगर आप अपने को बचा सकें, तो जरूर जाइए और मिलिए.’’ हंस की गोष्ठियों में दूर से उन्हें देखा, हमेशा युवा स्त्रियों से घिरे, हंसते-ठहाके लगाते हुए यादव जी. कभी हिम्मत नहीं हुई पास जाने की, बात करने की. 

इस बीच उनसे बिना मिले ही हंस में दो कहानियां छपीं. उसी दौरान धीरेंद्र अस्थाना और उनकी पत्नी ललिता भाभी के साथ पहली बार राजेंद्र यादव से मिलना हुआ. धीरेंद्र जी ने परिचय कराया, तो राजेंद्र जी ने सहजता से कहा, ‘‘तो तुम हो जयंती! ’’
उस दिन एक दीवार टूट गई. मेरे सामने जो था वो एक पारदर्शी व्यक्ति था. सहज और सरल. मेरी कल्पना से परे. लगा कि एक्ट कर रहे हैं. लेकिन सबके साथ वे ऐसे ही थे.
फिर भी एक संकोच था. जो टूटा कुछ सालों बाद, जब मैं गीताश्री, अमृता, कमलेश और असीमा के साथ उनसे मिलने लगी, अकसर उनके घर पर हम सब धमाल मचाने पहुंचने लगे. राजेंद्र जी खुश होते थे, हंसते थे, तमाम विषयों पर खुल कर जिक्र  करते थे. हमें वे कहते गुंडियां- बडी गुंडी, मंझली गुंडी और छोटी गुंडी. अपनी असुरक्षाओं का जिक्र  करते, जिंदगी में अकेलेपन को लेकर अपना पक्ष बताते. लेकिन अधिकतर वे खुश रहते, ठहाके लगाते. इन सबके बीच वो राजेंद्र यादव कहां है, जिनके बारे में सालों पहले मुङो सावधान किया गया था? ये तो एक ऐसा शख्स था, जिसके सामने हम अपनी तरह से रह सकते थे, वो कह सकते थे जो ना जाने कब से हमारे अंदर था और बाहर निकल नहीं पा रहा था. क्या हम स्त्रियां ऐसे पुरु ष को नहीं जानना चाहतीं, जो उनका चेहरा पढ ले, जिनके सामने वे अपना स्त्नी होना भूल जाए और सिर्फ यह याद रखे कि वो एक जीती-जागती मनुष्य भी है आकांक्षाओं और इच्छाओं से लबालब. 
हमारे गैंग के कुछ सदस्यों को राजेंद्र यादव के नॉनवेज जोक्स पर एतराज है. लेकिन एंजाय सभी करते हैं. एसएमएस सभी शेअर करते हैं. हर साल राजेंद्र यादव के जन्मिदन की पार्टी में कई दिलचस्प किरदारों से मुलाकातें, बहस, शेअरिंग, गैंग में शामिल होते नए सदस्य-कडी से कडी जुड रही है. 

मैं हर बार जान रही हूं राजेंद्र यादव के व्यक्तित्व के नए पहलुओं को. वाकई यह व्यक्ति औरों से अलग है. अपने ऊपर उम्र को हावी होने नहीं देता. कभी यह अहसास नहीं होने देता कि वह ‘ द राजेंद्र यादव’ है. हां, इसका नुकसान भी है. जब कोई नया व्यक्ति उनसे मिलता है और उनके आसपास एक खास किस्म के ‘ऑरा’ की अपेक्षा करता है, तो उसे निराश होना पडता है.

उनसे कई बार कई विषयों पर बात हुई. गंभीर और अगंभीर बातें. फिजूल की बहसें भी हुईं. उनकी टिप्पणयिां हर बार आपको अच्छी लगें, यह भी जरूरी नहीं. लेकिन मित्नवत बातचीत के अलावा एक औपचारिक इंटरव्यू लेने की बात जब आई, तो तय हुआ कि हम साहित्य से इतर ही बात करेंगे. ऐसे राजेंद्र यादव के बारे में बात करेंगे, जो अभी भी कुछ स्त्रियों को ‘डराता’ है, एक बौध्दिक वर्ग को ‘छिछोरा’ लगता है और हंस के पाठकों और एक बडे प्रशंसक वर्ग को ‘अभिभूत’ करता है.

 आप कितने अ-साहित्यक व्यक्ति हैं?

जब मैं पढता या लिखता हूं तो पूरी तरह एक साहित्यिक आदमी होता हूं, लेकिन इसके बाद मैं कोशिश करता हूं कि एक आम आदमी की तरह हंसू, बर्ताव करूं. आइ वांट टू बी लाइक ए कॉमन मैन. इसके लिए मुङो किसी तरह की कोशिश नहीं करनी पडती. मुङो यह नेचुरल लगता है. शाम को घर लौटने के बाद या तो दोस्तों से मिलना-जुलना होता है, अकेला होता हूं तो कोई फिल्म देख लेता हूं.

आपका मन नहीं होता कि अलग क्षेत्न के लोगों से मिले-जुलें?

मिलना चाहता हूं. . दिक्कत क्या है कि हमारे सिर्कल में ऐसे लोग नहीं हैं, सारे पढने-लिखने वाले हैं. कभी-कभी इच्छा होती है कि ऐसे लोगों से मिला जाए जिनका साहित्य से कोई लेना देना नहीं है.
अगर सफर में ऐसे व्यक्ति का साथ मिल जाए, जो आपको नहीं जानता, तब आपकी क्या प्रतिक्रि या होती है?
मैं अपनी तरफ से कभी नहीं बताता. अगर पूछे तो सिर्फ इतना बताता हूं कि लिखने-पढने का काम करता हूं. ज्यादा पूछे तो कहता हूं कि मैगजीन निकालता हूं. मैं उनके और अपने बीच डिस्टंस पैदा नहीं करना चाहता.

मुङो यह भी अच्छा नहीं लगता कि कोई मेरे पैर छुए या मुझसे दूरी बना कर चले. हमेशा से यही लगता रहा कि मैं लोगों के करीब रहूं. पैर छुआना, ओरा बना कर चलना--यह सब ड्रामा लगता है. अच्छा लगता है जहां बेतकल्लुफ-सी बातचीत हो, दुराव-छिपाव ना हो, खुल कर हो, गंदी बातें भी कर सकें और अच्छी बातें भी.
एक आम आदमी का जीवन कितना मिस करते हैं आप? उम्र के इस मोड पर पहुंच कर आप एक एिक्टव जिंदगी जी रहे हैं, कभी लगता है कि कहीं प्रोफेसर होते या कोई और काम किया होता?
 कभी नहीं.
 लेकिन यादव जी पैसा तो नहीं है ना इस फील्ड में . .

हां, लेकिन ना मुङो इसका अफसोस है ना कभी इच्छा रही. मेरी इच्छाएं, खासकर अपने लिए बहुत कम हैं, शुरू से.

हाल ही में गीताश्री की पुस्तक के विमोचन समारोह में आप पर खूब फिब्तयां कसी गईं, आपने दो लाइन क्या लिखा करीना कपूर के बारे में कंट्रोवर्सी बन गई. कहा गया कि बुढापे में जवां लिडकयों का ‘ शौक ’ हो जाता है, मनीषा ने भी यह बात कही और मैत्नेयी ने भी.

अच्छा यह बताओ, क्या मुङो एक सुंदर लडकी देख कर एप्रीशिएट कहने का हक नहीं? इस तरह के विवादों का मुझ पर कोई असर नहीं पडता. मैं समझता हूं कि जो कह रहा है, वो बेवकूफ है. अगर इनमें से किसी को मैं इस निगाह से देखता तो शायद उनको खुशी होती.
 अब तो आपकी हर बात कंट्रोवर्सी बन जाती है. पहली कंट्रोवर्सी कौन सी बनी?
 ठीक से याद नहीं. पर मेरे उपन्यास ‘सारा आकाश’ में एक शिरीष नाम का किरदार था, जो धर्म-कर्म किसी पर यकीं नहीं करता था, इसको ले कर विवाद छिडा. बाद में होता ही रहा.उस समय मुङो लगा कि जो मैं कह रहा हूं, सही है और मन से कह रहा हूं और इसे ऐसा ही होना चाहिए. मुङो याद है, बहुत पहले पैंसठ-सत्तर की बात है, मैंने एक लीड लिखा कुछ शास्त्नीय निषेधों के बारे में-प्राध्यापकों के खिलाफ, जो जड होते हैं, जो अपनी दुनिया से बाहर निकलना नहीं चाहते और यह समझते हैं कि साहित्य सिर्फ उतना ही है जितना हम जानते हैं, आधुनिक साहित्य को आने ही नहीं देंगे. मैंने एक लंबा लेख लिखा था, डॉ नरेंद्र और उन जैसे लोगों के खिलाफ बाकायदा खुल कर लिखा था. उसे ले कर बहुत कंट्रोवर्सी हुई. उस समय वह अजंता में छपा था.
 आपकी कितनी उम्र रही होगी उस समय ?
 जिसे मैंने प्यार किया था वो घर में सबसे छोटी थी. मुङो हमेशा लगता था कि इसे मैं प्यार तो बहुत करता हूं, मैं जहां कहूं और अच्छी जगहों पर हम मिलें, हम मिलते भी थे, पर शादी के लिहाज से उसकी पर्सनालिटी बहुत स्ट्राँग थी.
मैं तीस के ऊपर का था. शुरू से ही मैं जो एस्टाब्लिश- स्थापित और स्वीकृत है, उनको विकर्षिक्र त करना चाहता हूं. मुङो लगता है कि चीजों को जैसे का तैसा स्वीकार करना गलत है.
 स्त्नी को जान पाने की पहल सबसे पहले कब हुई?
 बडा मुश्किल है कहना. जाइंट परिवार था. 18 बहनें थीं, कुछ बडी कुछ छोटी. किसी के प्रति ज्यादा अटैचमैंट था. कहना चाहिए कि इमोशनल टाइज वहीं से शुरू हुए. धीरे-धीरे लगा कि हम जिस स्त्नी को जानना चाहते हैं वह कम से कम मेरी बहन नहीं है, बेटी नहीं है, मां नहीं है.
बेटी, मां,बहन आपका चॉइस नहीं, आपको दे दी गई हैं. हमारी चाइस वो स्त्नी है जिसे हमने चुना, हम उस स्त्नी की बात कर रहे हैं. मां, बहन, बेटी के बारे में बात करनी भी नहीं चाहिए. ये महिलाएं किसी और के लिए औरत होंगी, हमारे लिए नहीं हैं. 
मैंने हमेशा स्पष्ट कहा है कि स्त्नी विमर्श पर बात करनी है तो मां, बेटी और बहन इन तीन संबंधों पर बात नहीं करूंगा. घर के अंदर भी स्त्नी को जितनी आजादी चाहिए, बहन-बेटी को जो फ्रीडम चाहिए, एजुकेशन चाहिए, मैंने दी है. बेटी को जिंदगी में एक बार थप्पड मारा, आज तक उसका अफसोस है. बाद में जिंदगी के सारे निर्णय उसने खुद ही लिए. यह फ्रीडम तो देनी ही पडेगी.

‘ अपनी दुनिया की स्त्नी’ से आपका साबका कब हुआ?

मेरे फादर डॉक्टर थे. छोटे कस्बों में उनका ट्रांसफर होता था. जहां कंपाउंडर, नौकर, कुक, चौकीदार और उनका परिवार होता था. कंपाउंडर की बेटियों से हमारी दोस्ती थी. उनसे छेडछाड चलता रहता था. स्त्नी को वहीं से जानना शुरू किया, उनके शरीर को भी. समझते थे कि हम प्यार कर रहे हैं. वह लस्ट था, आकर्षण था. उस समय बहुत आगे जाने के बारे में मालूम नहीं था.
 सच में जिसके साथ अटैचमेंट हुआ वो उन्नीस-बीस साल में हुआ, जो आज तक चला आ रहा है.ेक्स बहुत बाद में आया. शुरू में यह मानना भी मुश्किल था कि वी लव इच अदर. हमारे बीच प्लेटोनिक लव था. चिट्टियां लिख रहे हैं. दक्षिण भारत गए घूमने, रामविलास शर्मा, मैं अमृतलाल नागर वगैरह, वहां से चिट्ठियां लिख रहे है कि तुम भी होती तो कितना अच्छा था, वगैरह वगैरह. तब तक हमने आपस में आइ लव यू नहीं कहा था. यह बात हम लोगों ने पांच साल बाद मानी.
जब शादी की बात आई, तो वह कलकत्ते आई, बाकायदा मेरे पास तीन-चार दिन रही. शादी की बात पर उसने कहा- मैं प्यार कर सकती हूं, शादी की योजना मेरे दिमाग में नहीं है.

उस लिबरेटेड वूमन को आप पचा पाए? सम्मान के साथ उसे जाने दिया कि मन में खिलश रह गई?

जिसे मैंने प्यार किया था वो घर में सबसे छोटी थी. उसकी जिम्मेदारियां थीं. फादर उसके बीमार रहते थे या संत हो गए थे. जैन लोग थे. सारे घर का इंतजाम, भाइयों के बच्चों को पढाने-लिखाने का काम वही करती थी. बाद में फॉरच्युनेटली या अनफॉरच्युनेटली उसने डबल एम ए किया, पीएचडी किया और प्रोफेसर हो गई. अधिकार की जो चेतना शुरू में थी, वो बाद में बाकायदा एक ऑफिसर की या प्रिंसेस जैसी हो गई.

मुङो हमेशा लगता था कि इसे मैं प्यार तो बहुत करता हूं, मैं जहां कहूं और अच्छी जगहों पर हम मिलें, हम मिलते भी थे, पर शादी के लिहाज से उसकी पर्सनालिटी बहुत स्ट्राँग थी.
क्या आप उसके साथ एक नार्मल जिंदगी जी पाते?
 आज उसे शिकायत है कि तुमने मुङो एक बच्चा भी नहीं दिया.
 उसकी शिकायत को जेनुइन मानते हैं आप?
मुङो अपनी इंडीपेंडेंस के लिए दो रास्तों में एक को चुनना था. या तो विवाह को चुनना था या अपनी आजादी को. नहीं, वह गजब की इगोइस्ट थी. जब पहली बार सेक्स संबंध बने, हम दोनों 10-12 दिन पहाड पर रहे थे, उसकी तबीयत खराब हो गयी. महीने भर तक. मुङो शक है कि उसने एबार्ट करवाया. हालांकि उसने बताया नहीं.
 इतनी इगोइस्ट महिला से आपको प्यार कैसे हो गया?
 हो गया, क्या करें? बल्कि आज भी लडती है मुझसे, सत्तर साल की हो गई है, बल्कि अबव सेवंटी, कहीं एक अख़बार में कुछ आ गया होगा उसके बारे में, कहती है कि मैं बिलकुल नहीं चाहती कि कहीं मेरा नाम आए. शी इज पर्सन ऑफ ए स्ट्रांग कैरेक्टर.
  क्या वो आपको मिल जाती तो आप दोनों के बीच प्यार रहता? औरत का यह तेज रूप बर्दाश्त कर पाते आप?
 मेरे ख्याल से नहीं कर पाता. नई कहानी का सारा दर्द यही है. खास कर मोहन राकेश का-अंधेरे बंद कमरे, आषाढ का एक दिन सबकी थीम यही है. हमने स्त्नी को पर्सनालिटी दी, आत्मनिर्भरता दी, स्वतंत्नता दी, लेकिन हमारी मानिसकता उसे बर्दाश्त नहीं कर पायी.
हमारे संस्कारों में है कि हम रात कहें तो वो रात कहे, दिन कहें तो दिन. ये स्त्रियां अलग थीं. शायद इसलिए हमारी जनरेशन के पुरु ष स्ट्रांग स्त्नी के साथ निबाह नहीं कर पाए.
 आप आज भी अपने भूले बिसरे प्यार को इसीलिए तो याद नहीं कर रहे कि बहुत सारी बातें अनकही रह गईं?
शायद.

 क्या आज भी आप अपने आपको रोमांटिक महसूस करते हैं?

आज से दस साल पहले करता था. अब तो खाली एक नोस्टालिजया है. पिछले दिनों मेरी मुलाकात हुई थी उससे, दो-तीन घंटे साथ थे-पर अब नया कुछ नहीं बन सकता.

आप सत्तर प्लस के जॉनर को बिलांग नहीं करते. क्या कहीं यह तो नहीं लगता है कि वो तो बुढा गई है, लेकिन मैं अभी भी यंग हूं.

हां, लगता है. कम्युनिकेशन का लेवल बदल गया है. चूंकि उसे लगता है कि हमने उसे संरक्षण या साथ नहीं दिया, इसलिए उसे अपने परिवार में अपने भाभियों के साथ ही रहना है. कहती है कि जब मुङो सुविधा होगी, तो आऊंगी. नहीं आई तो बुरा मानने की जरूरत नहीं है.  

आज जबकि आप दोनों अकेले हैं, वो आपके साथ रहने का निर्णय क्यों नहीं ले पातीं?

उस पर बुढापा आ गया है, असुरक्षा महसूस करती है, कि मुङो वहीं रहना है, अपने भाई-भाभी के बच्चों के बीच. वो ही बुढापे में मेरी देखरेख करेंगे.
 जिन लोगों के साथ आपके नाम जुडे, मन्नू भंडारी, मैत्नेयी पुष्पा इनमें असाधारण क्या नजर आया ? क्या ये सब टिपिकल औरतें नहीं थीं?  
 इनकी जो मानिसक बनावट है, जो गुण हैं, उनसे मैं प्रभावित हुआ. प्रभा खेतान मेरी बहुत इंटीमेट फ्रेंड रही हैं.
 मन्नू को आप प्रेमिका क्यों नहीं बना पाए?  
 बाद में हमने डिस्कवर किया कि जिंदगी सिर्फ लेखन नहीं है. मन्नू का पालन पोषण जिन लोगों के साथ हुआ, वे बहुत भले लोग थे. सुबह नौ बजे दफ्तर जाना, शाम समय पर घर लौट कर बच्चों के साथ समय बिताना. सब उतने ही आत्मीय थे. हमारी लाइफ स्टाइल बिलकुल अलग थी. वो पांच बजे घर आ जाएं और चार बजे हमारे निकलने का टाइम था. ऐसा नहीं है, कई बार वे मेरे साथ आईं, कोलकता में जब तक रहे उसने मेरा साथ दिया. काफी हाउस में देर तक रहना, दोस्तों से मिलना आदि. दिक्कत थी एक पति की जिम्मेदारियां-जो मैं नहीं निभा पाया. साथ रहना और पति-पत्नी बन कर रहना दो अलग बातें हैं. बीस साल एक आदमी-औरत साथ रहे. एक दिन उनके मन में आया कि क्यों ना हम शादी कर लें. अगले दिन पुरु ष ने कहा, सुबह उठ कर कि तुम चाय बनाओ. पत्नी ने जवाब दिया, मैं क्यों बनाऊं, तुम बनाओ जैसा पहले बनाते थे. बात यह है कि शादी दो चीजें मांगता है स्वतंत्नता, नैतिक और दैहिक आचरण. उससे बाहर जाते ही खटखट होनी शुरू हो गई.
बाहर आप खुदा होंगे, घर में आप औरत और आदमी हैं. मन्नू को ऐसा पति चाहिए था, जो उसकी शिकायतें सुनता. उसने अपनी शिकायतें एक्साजिरेट करना शुरू कर दिया. हमारे बाहर भी संबंध थे. शारीरिक नहीं, पर हां अच्छे संबंध तो थे ही. जैसे मृदुला गर्ग से. उसकी पहली कहानी ‘हंस’ में रीराइट करके छापा. उसकी पहली कहानी ‘केअर ऑफ’ अक्षर प्रकाशन छपी थी. उसके उपन्यास को भी रीराइट करना, ठीक करना-हमने ही करवाया. मृदुला के साथ बहुत अच्छे संबंध थे. मन्नू को यह बात पसंद नहीं थी कि बाहर लिडकयों से संबंध रखूं, मिलूं, फोन पर बात करूं.

पीछे मुड कर देखते हैं तो क्या अफसोस होता है कि आप टिपिकल हसबैंड नहीं बन पाए?  

मुङो शिकायत नहीं. पर मन्नू की तरफ से सोचता हूं तो लगता है कि मैं असमर्थ था. मुङो अपनी इंडीपेंडेंस के लिए दो रास्तों में एक को चुनना था. या तो विवाह को चुनना था या अपनी आजादी को.
 विवाहित जीवन में सुविधाएं भी तो थीं? फिर अलग होने की क्या सोची?
हां. जब खटखट बढी तो सोचा कि अलग रह कर देखा जाए. महीनों बाहर रहा. कई दिनों तक गाजियाबाद मित्न के घर रहा, कि दोनों एक दूसरे की कमी महसूस कर सकें. छह महीने मैं आईआईटी कानपुर में रहा, युनिविरसटी का गेस्ट बन कर. मन्नू दो साल के लिए चली गई. हमने ये प्रयोग किये कि डे टू डे की क्लेश खत्म हो.
क्या आप विवाह संस्था में यकीन करते हैं?   

मैं नहीं करता, लेकिन मन्नू करती है. शादी एक बंधन हो, वहां तक तो ठीक है. लेकिन उसके साथ एक आचरण की जो आचार संहिता है, उसमें मेरा दम घुटता है, मैं वहां एडजस्ट नहीं कर पाता.
 मन्नू से अलग होने के बाद में कभी सेटल होने का मन नहीं आया?   
 नहीं. लेकिन मेरा परिचय कई खूबसूरत महिलाओं से रहा. एक थी शोभना भुटानी, एनएसडी से थी, एक्टर थी. मेरे बहुत क्लोज थी. एक संयुक्ता थी, बहुत खूबसूरत. उन दिनों ‘सारा आकाश’ पर फिल्म बन रही थी आगरा में. मेरे बुलाने पर वह मेरे साथ आगरा आई. स्टेशन पर जैसे ही वह उतरी, सबने कहा कि हीरोइन आ गई. बाद में उसके मन्नू से बहुत अच्छे संबंध बन गए. पता नहीं वो मन्नू को घुमाने कहां-कहां ले गई. लेह-लद्दाख. पहले तो बहुत ईष्या थी मन्नू को उससे लेकिन बाद में वह मन्नू की आलमोस्ट बेटी बन गई.
 क्या देख कर आप स्त्नी की तरफ आकर्षित होते हैं?
पहले तो रंग रूप आता है. उसके बाद एक कॉमन कैमिस्ट्री बनती है. मुङो ऐसी महिलाएं पसंद आती हैं जिनसे संवाद बना सकूं, बाकायदा बात कर सकूं, किसी भी विषय पर. हमारे कुछ मित्न रहे हैं, स्त्नी के नाम पर जो मिले झाडू लगाने वाली हो या चौका बरतन करने वाली हो, मौका मिला तो दबोच लिया. दिस, आई कांट डू. जिस स्त्नी के साथ मैं मन से एक इंटीमेट संबंध ना बना सकूं, उनसे मेरा रिश्ता नहीं बन सकता.
 ऐसी कोई महिला आई है, जिसके साथ आपके अच्छे संबंध रहे हों, आपने उनसे संबंध बनाना चाहा हो, लेकिन उन्होंने मना कर दिया.  

हां. एक्चुअली सेक्स के स्तर पर मेरा रिश्ता तीन ही महिलाओं के साथ रहा है. मन्नू, दूसरी जिस प्रेमिका का मैंने जिक्र  किया और एक और के साथ. बाकि स्त्रियों के साथ सेक्स नहीं हुआ. ऐसा नहीं है कि मैं सेक्सुअली कमजोर हूं, पर उस स्टेज तक आई नहीं बात. आने भी नहीं दिया. हरेक से सेक्स नहीं कर सकता.
 लेकिन आप जो ‘ऑरा’ बना कर चलते हैं, उससे तो यही बात सामने आती है कि आपके कई स्त्रियों के साथ दैहिक संबंध रहे हैं. पिछले दिनों अजय नाविरया आपके ही सामने जिक्र  करे थे सोनी का, जिसे दीवाली की सुबह उसने आपके घर में नाइट सूट में देखा था. इससे बाहर यही संदेश जाता है कि वो रात को सोई हैं.  

नहीं. मेरे उससे इंटीमेट संबंध हैं. मैं चाहता हूं कि मेरे पास जो भी रहे, वो फ्रीली अपना घर समझ कर रहे. मैं यहां आदमी-औरत की बात नहीं करता. अगर वो यहां रहती है, तो उसे पूरी स्वतंत्नता के साथ रहना चाहिए. सोनी जब मुझसे पहली बार मिली थी, तो इक्कीस या बाईस साल की थी. और दूसरे साल ही मेरी जान को लग गई कि मैं आपका इंटरव्यू करूंगी और आपसे सेक्स संबंधों के बारे में सवाल करूंगी. इक्कीस साल की लडकी मेरे सामने खुल कर पूछ रही है मेरे संबंधों के बारे में. बिंदास. मुङो ऐसी लिडकयां पसंद हैं.सेक्स की जरूरत महसूस होती है. लेकिन मैं अपने को जब्त करता हूं. मैं नहीं चाहता कि जो स्त्रियां मुझसे मिलने आती हैं, जो मुङो ऊर्जा देती हैं, वो मुझसे मिलना छोड दें. अब तो तसवीरों में करीना कपूर को देख कर संतुष्ट हो जाता हूं.
जितनी भी महिलाएं आती हैं, आपसे मिलने, उन सबके साथ आपका नाम जुडता है. माना जाता है कि आपके साथ सोती हैं ?  

सोनी जब मुझसे आई तो काफी समय बात उसने मुङो बताया कि उसे कहा गया था यादव जी के यहां मत जाओ, खतरनाक आदमी हैं, उनके चंगुल से बच नहीं पाओगी. जो भी है. . साल भर हो गया, आपने तो ऐसा कुछ नहीं किया. मैंने हंस कर पूछा कि क्या तुम चाहती हो कि मैं ऐसा कुछ करूं? छूना-छाना, लपक-झपक मौका मिले तो किस करना यह सब तो चलता है, इससे किसी को आपित्त भी नहीं होती. मुङो कई स्त्रियों ने बताया है कि उन्हें यह बता कर भेजा जाता था कि यादव जी से मिलने जा रही हो तो पर्स में एक छुरा रखना मत भूलना.
 सेक्स की जरूरत महसूस नहीं होती आपको?  
 होती है. . लेकिन मैं अपने को जब्त करता हूं. मैं नहीं चाहता कि जो स्त्रियां मुझसे मिलने आती हैं, जो मुङो ऊर्जा देती हैं, वो मुझसे मिलना छोड दें. अब तो तस्वीरों में करीना कपूर को देख कर संतुष्ट हो जाता हूं.
 करीना का कौन सा रूप आकर्षित कर गया आपको? ‘टशन’ में स्विम सूट वाला या.?  
 ‘जब वी मेट’ में मुङो वो अच्छी लगी, हम ब्यूटी के साथ एक इनोसेंस, एक डिविनिटी लगा कर देखते हैं. इसलिए ‘टशन’ देखने का मेरा मन नहीं है. एक जमाने में मुङो स्मिता पाटिल बहुत अच्छी लगती थी, बहुत सेक्सी. रमोला भी.
 कुछ समय पहले जब मैंने आपसे कहा था कि मैं मुंबई जा रही हूं लेस्बियंस पर एक स्टोरी करने तो आपने हँस कर यह कह कर बात उडा दी कि दो औरतें कैसे करती हैं सेक्स? आप गे रिश्तों के बारे में क्या सोचते हैं?  
 हालांकि सन साठ में मैंने ‘प्रतीक्षा’ नाम से कहानी लिखी थी गे सबंधों के बारे में. पता नहीं कितने ट्रांसलेशन हुए, एक अमरीकी आदमी ने अंग्रेजी में ट्रांसलेट किया और इंप्रिंट मैगजीन में छपा. लेस्बियन महिलाओं की बात तो दूर, मुङो सोडोमी एस्थेटिकली नहीं जंचता. संस्कार किहए या जो भी, मैं इन रिश्तों को समर्थ नहीं देता. मुङो चालीस साल नॉन वेज खाते हो गए. पिछले पांच-छह सालों से शोरबा खा पाता हूं, पीस नहीं. अब इसे चाहे जो कहो. मुङो एस्थेटिकली ये संबंध गंदे लगते हैं.
 लेकिन आंकडे तो कहते हैं कि हर दस में से एक पुरु ष गे संबंधों के प्रति आकृष्ट होता है.
 अधिकांश लडके बचपन में शिकार बनते हैं. इन बॉर्न का नहीं पता. जब हम स्कूल में थे, तो हमसे बडी उम्र का एक लडका स्साला हमें बैठा देता था कि मास्टरबेशन करो. इस तरह के संबंध होते हैं. टीचर लोग पढाने के लिए बच्चों को बुलाते हैं और फिर करवाते हैं. हां. मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ, लेकिन मैंने देखा है.
औरतों की एक जमात जो आपको सठिया और बुढऊ कहती है, आप कैसे रिएक्ट करते हैं.
 मुङो सच में महसूस नहीं होता कि मैं बूढा हूं. यह बात भीतर से ही नहीं आती कि मैं उम्र दराज हो गया हूं. मैं मानता हूं अपने से यंग छोटी उम्र की स्त्रियों के साथ दोस्तियां बनी रहे, यह आपको युवा रखता है.

क्या आप सेवंटी में पहुंची महिला से इसी तरह बेतकल्लुफी से बात कर पाते हैं?
 जहां बीच में संस्कार, सीमाएं वगैरह हों, वहां बराबरी की दोस्ती नहीं बन सकती. मैं चाहता हूं जिन स्त्रियों से मेरी दोस्ती हो एक पुरु ष की तरह दोस्ती हो. उतनी ही बेतकल्लुफ, संकोचहीन. ये जो महिलाएं आपके साथ चली आती हैं, दोस्ती करती हैं यह बात सिर्फ वहीं तक नहीं रहती. उन्हें अपने परिवार को जवाब देना पडता है. 
मान लीजिए मैं किसी लडकी से प्यार करता हूं, उसका नाम ले कर लिख देता हूं. आज वो कहीं किसी की मां है, पत्नी है, वो क्या जवाब देगी? मेरे प्यार का तकाजा यह है कि मैं उसे ऐसी स्थिति में ना डालूं, जहां वो अपने आपको छोटा महसूस कर सके.
 अगर कोई महिला ऑटोबायोग्राफी लिखे, आपका जिक्र  करे तो आपको फर्क पडेगा कि नहीं?
 नहीं. . मेरे बारे में बहुत कुछ लिखा जाता है. औरतें लिखती रही हैं. एक आई थी, मुङो याद भी नहीं कि वह मुझसे मिली था या नहीं, लेकिन उसने जो मेरे बारे में लिखा वो कोरी बातें थीं, बिलकुल काल्पनिक कि उन्होंने ऐसे देखा जैसे मुङो खा जाएंगे. वगैरह वगैरह. मेरे और मेरे लेखन के ऊपर एक बहुत बडा सेंसर है वीना का. वीना मेरे क्लोज है, मुझसे बहुत फ्री है. लेकिन वह कहती रहती है कि ‘हंस’ में यह छपेगा और यह नहीं छपेगा. जब मैंने ‘हासिल’ नाम की कहानी लिखी, तो उसने कहा- नहीं छापेंगे, मैं अड गया. मोस्ट मशहूर लेख ‘होना सोना’ पर अड गई कि नहीं छापेंगे, ‘हंस’ के लायक नहीं, उससे लड कर मुङो अपना लेख छापना पडा.
 जो स्त्रियां नारी मुक्ति का झंडा उठा कर चलती हैं, जो गाहे बगाहे आपके खिलाफ बोलती हैं, उनके बारे में कुछ सुनहरे शब्द हो जाएं?

वे महिलाएं मानिसकता से या उम्र से साठ के ऊपर की हैं, जो नारी मुक्ति को नहीं मानती. जो गोलमोल वक्तव्य में विश्वास रखती हैं कि मनुष्य तो सब एक ही है. अच्छा, जो पुरु ष की मानिसकता से लिखा गया है और जो स्त्नी की मानिसकता से लिखा गया है, बेसिक अंतर है. दो अलग अप्रोच हैं. उस चीज को तो हमें मानना होगा. क्योंकि उनकी शिक्षा-दीक्षा जिन परंपराओं में हुई, वहां तो लेखक पुरु ष ही थे, जो लिखते थे, एकाध थीं, महादेवी वगैरह, जो गोल-गोल बातें लिखती थीं मधुर-मधुर मेरे दीपक जल, उसमें किसको आपित्त हो सकती थी? फिर महिलाओं ने जो लिखना शुरू किया, इतनी वेरायटी के साथ आईं, निर्मला जैन, मृदुला, मृणाल- वे फेमिनिस्ट विरोधी हैं. झंडा बुलंद करके चलने वाली स्त्रियां हमें गालियां देती हैं कि हमने उन लेखिकाओं को बिगाड दिया.
यहां मैं कोट करना चाहूंगा, पिछले साल किसी भी चैनल या न्यूज पेपर ने उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले मायावती के आने की घोषणा नहीं की. वे बस गोल-गोल घूमते रहे. लेकिन जब रजिल्ट आए तो सब चौंक गए. मायावती जीत गईं. कोई तो सचाई थी, जो उसके साथ थी, जिससे बिना शोर मचाए, बिना कहे लोग उसके साथ जुडे हुए थे.
तो स्त्नी विमर्श और दलित विमर्श में कोई तो बात, चीज थी कि आज कोई संवाद, कोई बहस इसके बिना पूरी नहीं होती. यूनिविरसटी में दलितों का अलग सेक्शन है. यह जो उनके अनचाहे बढ रही है, यह बौखलाहट है उनके मन में (झंडा उठा कर चलने वालों के). इनमें सिर्फ मैत्नेयी है, जो मानती है कि वो स्त्नी वादी है. प्रभा तो बकायदा इतनी पढी लिखी है कि अपने तर्कों से वह सबका मुंह बंद कर देती है. यह श्रेय तो हमें मिलना चाहिए कि पिछले बीस सालों में हमने इसे साहित्य का एक सेंटर और करेंट बना दिया.

आप पर जो अश्लीलता का आरोप लगता है, कितना जेनुइन है, कैसी प्रतिक्रि या करते हैं?

बहुत पहले हम शिक्त नगर में रहते थे, तो बस से आते-जाते थे. बस में एक औरत सफर किया करती थी, मेरा ख्याल है वही तीस-पैंतीस की होगी. जब कभी वो किसी पुरु ष की बगल में बैठती, तो झगडा मोल लेती कि मुङो क्यों छेड रहा है? लडती हुई जाती थी. सब हंसते हुए जाते थे. यह एक किस्म की कुंठा है कि सब मुङो छेडते हैं. तीस पैंतीस साल की स्त्नी मैच्योर होती हैं. उनसे बात करने में यह भी होता है कि आप कोई नई चीज जान लें. वो उनके अंतरमन में झांकने का एक मौका देती हैं.
 क्या आपको अफसोस होता है कि आपको तीन चार जनरेशन बाद पैदा होना था? इस जनरेशन के पास जो है पहले नहीं था, इतनी आजादी, विचारों में इतना खुलापन.

ठीक है, हां यह तो सही है कि आज के जनरेशन के पास आजादी है. पर जो है सो है. अब होता है कि बेकार में अपनी जिंदगी खराब की. रोंमाटिसिस्म में और इन सबमें कई खूबसूरत चीजें अनदेखी कर दी. अफसोस तो होता है.
 किसी चीज की शिकायत रह गई? पावर, पैसा या और कुछ?
 उस मामले में जो मैंने चाहा मुङो मिला. इस तरह की कोई शिकायत नहीं है. हां, अकेलापन कभी-कभी खलता है.
 जो भी औरत आपके पास, आपसे मिलने आती है, आपसे क्या चाहती है?
शुरू में जो भी आती है एक दूरी बना कर आती है. जब इंटीमेट हो जाती है तो फिर आदमी-औरत वाली बात नहीं रहती. उससे ऐसा रिश्ता बन जाता है जिसमें वो लड भी सकती है गाली भी दे सकती है.
  ऐसे संबंध आपको ज्यादा प्रिय हैं?
 बिलकुल. इंटीमेट, बेतकल्लुफी भरे संबंध मुङो अच्छे लगते हैं.
 आप अपनी फेंटेसीज किसके साथ शेअर करते हैं?
 किसी से नहीं. कभी डायरी में लिख दिया, तो लिख दिया. हां मिस तो करता हूं कि किसी से कह नहीं पाता. यहां मैं चीनी कम फिल्म का जिक्र  करूंगा. यह फिल्म मुङो बहुत अच्छी लगी. उसमें नायक-नायिका (अमतिाभ बच्चन-तब्बू) के बीच जो एज डिफरेंस और अंडरस्टैडिंग है, बहुत सही है. मैं मानता हूं अपने से यंग छोटी उम्र की स्त्रियों के साथ दोस्तियां बनी रहे, यह आपको युवा रखता है.

मंगलयान में नारायण साईं


जब से मंगलयान आकाश में छोड़ा गया है, तभी से मैं भी सच्चे देशभक्तों की तरह सपने पालने लगा हूं. मंगलयान से करोड़ों देशवासियों की कुछ-न-कुछ अपेक्षायें जुड़ी हुई हैं. आखिर अपेक्षा क्यों न हो, पैसा भी तो काफी लगा है इसे बनाने में. कितनी मेहनत से तो साइंस रिसर्च के लिए सरकार से पैसे मिलते हैं, वह भी एक बार बर्बाद हो जाये, तो सरकार पैसा भी नहीं देगी. भले ही सरकार मध्यावधि चुनाव या भ्रष्टाचार को बचाने के नाम पर करोड़ों रुपये खुशी-खुशी खर्च कर दे, लेकिन साइंस रिसर्च में थोड़ी चूक उसे बर्दाश्त नहीं है.  हमें तो यही अपेक्षा है कि जो कुछ हमारी पुलिस और सरकार नहीं ढूंढ़ पा रही है, कम-से-कम वह काम मंगलयान कर दे. मंगलयान यदि समझदारी दिखाये, तो नारायण साईं का फोटो धरती पर भेज सकते हैं. इससे फायदा यह होगा कि मंगलयान को सरकार की तरफ से पांच लाख रुपये  का इनाम भी मिल जायेगा और नाम भी हो जायेगा. मुङो, तो सौ फीसदी लग रहा है कि नारायण साईं पृथ्वी पर नहीं होगा. यदि वह पृथ्वी पर होता, तो हमारी पुलिस अवश्य पता कर लेती, लेकिन कभी-कभी अखबार और टीवी न्यूज चैनल पर भी गुस्सा आता है कि अगर उसे पकड़ना ही है, तो हाय-तौबा मचाने की जरूरत ही क्या है? आप ही बताइये जरा कि इतने हो-हल्ला के बाद आदमी छिपेगा नहीं, तो पुलिस के आने का इंतजार करेगा? नहीं न. वैसे भी नारायण साईं योग्य पिता के योग्य पुत्र हैं. हमारा भारत महान इसलिए है कि अगर पुत्र योग्य न भी हो, तो उसे धकिया करयोग्य बना दिया जाता है. यह अलग बात है कि भगवान राम का बेटा भगवान नहीं बन पाया और श्रीकृष्ण जी के बेटा के बारे में कुछ पता ही नहीं है. हां, हमारे गांव में लखन राम चप्पल सीते थे और उनके बेटे ने चप्पल रिपेयरिंग का करोबार खड़ा कर रखा है. लोग उनके पिता के कारण ही अब तक उनकी दुकान में जाते हैं. भले ही देश में वंशवाद और शहजादा नेता लोगों के हॉट टॉपिक्स हों, लेकिन वही लोग इनके कर्णधार हैं. आसाराम बापू के भक्तों से सुना है कि वे एक तरह से भगवान की तरह हैं. अपनी योग साधना से वे कुछ भी कर सकते हैं, लेकिन मंगलयान से जो भी तसवीरें भेजी गयी हैं, उनमें नारायण साईं कहीं नहीं हैं. समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर वह वहां नहीं हैं, तो आखिर कहां गये होंगे? उसी समय सोचा कि हो सकता है कि जब मंगलयान उड़ने के लिए तैयार होगा, उसी समय वे उसी के अंदर नारायण की तरह सवार हो गये होंगे और वहां साईं बाबा बनकर राज कर रहे होंगे. शक तब और मजबूत हो गया, जब बताया गया कि मंगलयान ठीक से काम नहीं कर रहा है. थोड़ी देर के लिए डर गया कि कहीं उन्होंने मंगलयान को हाइजेक, तो नहीं कर लिया और बदले में अपने बापू को मुक्त करने का शर्त न रख दे. सोच कर ही कलेजा मुंह को आ गया. जान में जान तब आयी, जब मंगलयान ने कुछ फोटो धरती पर भेजे. यदि आपने कभी कैमरे से फोटो खीचे होंगे, तो पता चल जायेगा कि फोटो हमेशा कैमरे के आगे का आता है. कभी भी पीछे का फोटू नहीं आता. हो सकता है कि नारायण साईं कैमरे के पीछे बैठा होगा और मजे ले रहा होगा. इस स्थिति में बेचारा मंगलयान कैसे फोटो भेजेगा? आखिर मंगलयान, तो मंगलयान के बाहर की ही फोटो खींचेगा न, उसके अंदर बैठा आदमी का कैसे भेज सकता है? सोचने की बात है. 

शनिवार, 30 नवंबर 2013

भूगोल पढ़िये, प्रधानमंत्री बनिये


इन दिनों भूगोल की पढ़ाई नेता लोग बहुते अधिक कर रहे हैं. यदि नेता लोग इस तरह बतियाते रहेंगे, तो वह दिन दूर नहीं, जब देश के सभी नेताओं को राजनीतिशास्त्र के बदले भूगोल पढ़ना अनिवार्य कर दिया जायेगा. आजकल जहां भी देखिये, नेता लोग भूगोल की ही बातें करते रहते हैं. वैसे भी राजनीतिशास्त्र में रखा ही क्या है कि नेता लोग इसे पढ़ें. आजकल भ्रष्टाचार नेताओं और जनता के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द है, लेकिन इसका कोई समाधान इन किताबों में नहीं है. इसमें वही सब ज्ञान है, जो आज के नेता को मतलब नहीं है. जिन नेताओं को राजनीतिशास्त्र का थोड़ा बहुत भी ज्ञान है, वे सिर्फ नेतागिरी कर रहे हैं. इससे न तो वे अपने परिवार की भलाई कर पा रहे हैं और न ही देश की. हालात तो इतनी खराब हो गयी है कि इस तरह के नेताओं के आने से टीवी चैनल्स की टीआरपी भी नहीं बढ़ रही है. एक समय अन्ना आंदोलन के समय ईमानदार लोगों की किल्लत भी इसी तरह की हो गयी थी. उस समय ईमानदार न होने बावजूद जो भ्रष्टाचार और ईमानदारी के बारे में अच्छी स्पीच दे सकते थे, उन्हें हर टीवी चैनल्स बुलाते थे. अपनी वाकपटुता से आज वे राजनीति के अर्श पर हैं. वही हालात इस समय भूगोल विशेषज्ञ के बनते जा रहे हैं. इन दिनों उन नेताओं और एक्सपर्ट की बल्ले-बल्ले हो रही है, जिसे भूगोल का थोड़ा बहुत भी ज्ञान है. यदि भूगोल का ज्ञान नहीं भी है, लेकिन रट कर आ रहे हैं, उन्हें भी टीवी पर फोटू सहित दिखाया जा रहा है. चूंकि भूगोल नेताओं का कभी भी पसंदीदा विषय नहीं रहा था, इस कारण कुछ प्रधानमंत्री मैटेरियल्स वाले नेता ही भूगोल के बारे में जानते हैं और वे भूगोल को अपने हिसाब से बदलने की क्षमता भी रखते हैं. लोकसभा चुनाव नजदीक है और जिस तरह के चुनावी सर्वे आ रहे हैं, उससे हर एक पार्टी के नेताओं को प्रधानमंत्री बनने का सपना आ रहा है. इस कारण सभी नेता न केवल भूगोल पढ़ रहे हैं, बल्कि भूगोल पढ़ कर टीवी पर एक्सपर्ट कमेंट भी दे रहे हैं, ताकि जनता को ये न लगे कि उनमें प्रधानमंत्री बनने की क्वालिटी नहीं है. नेताओं के भूगोल पढ़ने का ही कमाल है कि सिर्फ भूगोल पढ़े ही नहीं जा रहे हैं, बल्कि भूगोल बदले भी जा रहे हैं. जिसे भूगोल का जितना अधिक ज्ञान है, वे उसी तरह उनकी व्याख्या कर रहे हैं. वैसे भी आदर्श नेता वही होते हैं, जो भूगोल बदलने की क्षमता रखते हैं. पुराने जमाने में उन्हें बेहतर नेता माना जाता था, जो इतिहास बदलने की क्षमता रखते थे. बेचारा भूगोल सोशल साइंस का फेवरेट सब्जेक्ट होने के बावजूद दलित की तरह उपेक्षित ही बना रहा.  वे सोशल साइंस का फेवरेट हिस्सेदार होने के बावजूद हमेशा इतिहास और राजनीतिशास्त्र से पिछड़ जाते थे. लेकिन देर ही सही, भूगोल ने अपनी एंट्री रितिक रोशन की कहो न प्यार है फिल्म की तरह जबरदस्त की है. कहो न प्यार है के बाद रितिक एकाएक तीनों खान का विकल्प बन गये थे और उनके बारे में बहुत सारे फिल्मी विशेषज्ञ उभर आये थे. एकाएक सभी टीवी चैनल्स के साथ ही नेताओं और इससे जुड़े लोगों के लिए हॉट विषय बन गया है भूगोल. खुद को इतनी महत्ता पा कर वह फूला नहीं समा रहा है. खुशी में वह अपना स्थान ही भूल गया है, जिसका लाभ आज के नेता लोग उठा रहे हैं. भूगोल को कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि उसका स्थान कहां है. वे दल-बदलू की तरह अपनी सीट लगातार बदल रहे हैं और नेता लोग आपस में लड़ रहे हैं कि उन्होंने भूगोल बदला है. आप ही बताइये कि जब उन्हें पढ़ने तक का टाइम नहीं है, तो वह भूगोल कैसे बदल सकता है? वैसे भी कहा गया है कि जब तक आप नहीं बदलेंगे, आपको कोई नहीं बदल सकता है. भूगोल भी अपवाद नहीं है.  

रविवार, 27 अक्टूबर 2013

आखिर गलती कहां हुई


यदि तुम नहीं बदलोगे, तो पीछे रह जाओगे. क्योंकि हर कोई उसी के साथ चलना चाहता है, जो खुद दौड़ना चाहता है. यह शब्द आचार्य जी के थे. वे पहले भी गांव में रहते थे और अब भी रह रहे हैं. स्कूल में हमलोंगों को गणित पढ़ाते थे. उन्हें दो बेटा और एक बेटी है. रिटायर्ड कर चुके हैं और अब उनके पास समय ही समय है बतियाने के लिए. इस बार घर गया था तो उनसे बात करने का अवसर मिला. मिलकर काफी खुश हुए. जब वे अपनी बारे में बताने लगो तो मेरा कलेजा मुंह को आ गया. मैं परेशान हो गया उनकी बातों पर. समझ में नहीं आ रहा था कि इतने प्रगतिशील और आधुनिक विचार रखनेवाले आचार्य जी की हाल भी ऐसी हो सकती है. सच कहूं तो इलाके भर में उनकी तूती बोलती है. उन्होंने अपनी गाढ़ी कमाई बच्चे को पढ़ाने में लगा दिये. बच्चे को पढ़ाने के लिये वे सभी से रिश्ता तोड़ लिये. वे हमेशा अपने बच्चे को यही शिक्षा देते थे कि तुम तीनों तभी एक साथ चल सकते हो, जब तीनो एक दूसरे को आगे बढ़ाने में सहयोग करोगे. उनकी इस बात को तीनों बच्चे गांठ बांध लिये और पढ़ाई में हमेशा अच्छा रहे. सामाजिक रिश्ता उनके लिये महत्वपूर्ण नहीं था. पढ़ाई ही महत्वपूर्ण थे. कहते हैं न कि खुदा देता है, तो छप्पड़ फाड़के देता है, वही आचार्य जी के साथ हुआ. उनका तीनों बच्च सेटल हो गया और दो बच्चा इंजीनियर और एक बेटी डॉक्टर बन गयी. समाज में आचार्य जी का रुतबा और हैसियत एकाएक बढ़ गया. अब उनके तीनों बच्चे विदेश में रह रहे हैं. रिटायर्ड के बाद वे भी बच्चे के साथ रहनेवाले थे. लेकिन एकाएक दो महीने में ही गांव आ गये और कभी भी विदेश नहीं जाने का मन भी बना लिये हैं. अब उन्हें पछतावा हो रहा है अपने किए पर. उन्हें यह दुख है कि वे अपने बच्चे के भविष्य के लिये सबको छोड़ दिये और उन्हें काबिल भी बनाया. लेकिन दुख है कि उनका बच्च उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा. आचार्य जी बोले कि जब मैं अमेरिका अपने बेटा के पास गया तो वहां रहने लगा. वहां का लाइफस्टाइल अलग है और वहां लोग भी.  मेरी पत्नी की तबियत खराब हो गयी. उसे डॉक्टर के पास दिखाना था. एक दिन वह डॉक्टर के पास ले गया. सुधार न होने पर मैं उसे किसी और डॉक्टर के पास दिखाने की सलाह दे डाली. इस पर वह काफी गुस्सा हो गया और बोला कि आप अपना केयर खुद करिये. आप लोगों को कोई उंगली पकड़कर नहीं चला सकता है. आपने ही कहा था कि यदि कोई साथ चल सकता है, तो चले अन्यथा उसे छोड़कर आगे बढ़ना ही समझदारी है. आप हमारे साथ नहीं चल सकते हैं. इस कारण बेहतर होगा कि आप यहां से चले जाएं और मुङो आगे बढ़ने में सहयोग करें. कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरा डॉयलॉग मेरे बच्चे मुझ पर इस तरह प्रयोग करेंगे. बच्चों को पढ़ाने के सिलसिले में मैं सभी रिश्ते तोड़ दिये. अब उन लोगों के साथ कोई संबध नहीं रहा. अब कोशिश कर रहा हूं तो वे लोग अवसरवादी कहकर संबंध तोड़ रहे हैं. वे अपनी जगह सही है, लेकिन मैं खुद को समझा नहीं पा रहा हूं कि मेरी गलती कहां हुई.

ब्रेकिंग न्यूज है

दस वर्ष दिल्ली में नौकरी करने के बाद पटना नौकरी करने के लिए आया. संयोग से दुर्गा पूजा में दो दिनों के लिए छुट्टी मिली. सुबह से फैलिन का कहर जारी था. इस कारण बीवी का बीपी लो था. ऐसा बहुत कम ही देखने को मिलता है कि उसका बीपी नॉर्मल हो. बहुत खुश था कि इस बार मेले में जो पैसा चूना लगना था, वह बच गया. अभी तक कमरा भी नहीं मिला है. साले के यहां सभी फैमिली एक महीने से डेरा जमाए हुए हैं. डर लग रहा है कि वे गेट पर यह बोर्ड न लगा दे कि अतिथि कब भागोगे. बगल में प्रोफेसर कॉलोनी हैं, जहां किसी न किसी बात पर हर दिन वाद-विवाद होता रहता है. सोचा कि वहां बात भी हो जायेगी और रूम भी मिल जाएगा. वे सभी रिटायर्ड कर चुके हैं. इस कारण करेंट न्यूज पर पकड़ हमसे ज्यादा उनको रहता है. अखबार का एक कोना भी वे पढ़ने से नहीं छोड़ते हैं. टीवी इसलिए नहीं देख पाते हैं कि बीवी और पतौहू सीरियल देखने के लिए कहती है तो पोता काटरून देखने की जिद करने लगता है. न्यूज सुनने की आदत किसी को नहीं है. वे उसे बकवास समझते हैं. इस कारण वे लोग अखबार पढ़ते हैं. संयोग से उस दिन मैं भी उनके पास पहुंच गया. वे लोग मजाक के मूड में थे. समझ सकते हें कि अगर रिटायर्ड  प्रोफेसर मजाक मूड में हो, तो कितने घातक होते हैं. मुङो देखकर सभी काफी खुश हुए. मुङो लगा कि जैसे मां दुर्गा का चढ़ावा मैं ही हूं. मुङो अंदर से अहसास हो गया कि आज दुर्गा मां के लिए बलि मैं ही चढ़नेवाला हूं. आओ पत्रकार साब आओ. आपकी कमी थी. क्या हाल है तुम्हारे फैलिन का. ब्रेकिंग न्यूज तो उड़ीसा में आने की थी, कई रिपोर्टर दस दिन पहले से वहां भौंक रहे हैं.  लेकिन बिहार में किसी का पता नहीं है. कम से कम उड़ीसा वाले तो दो दिन पहले ही दशहरा मना लिए. लेकिन हम बिहारवाले तो कहीं के नहीं रहे. न खुदा ही मिला और न बिसाले सनम. लगता है कि यहां आने की खबर तूफान ने नहीं दिया होगा. यह कहकर सभी ठहाका लगाने लगे. खराब लगा, गुस्सा भी आया लेकिन फिर अपने को ऑल इज वेल कहकर कंट्रोल किया. एक प्रोफेसर ने पूछा कि ये बताओ पत्रकार क्या है, उसका शाब्दिक अर्थ क्या है. मैं बोला कि ये क्या बेहूदा सवाल है. ये भी कोई बताने की बात है. यह तो गली मुहल्ला का कुत्ता भी जानता है. मैं तैश में आकर कहा.  वे बोले कि गुस्सा मत होओ. तुमने सही कहा कि आधी रात को जब तुम आते हो, तो गली मुहल्ले के कुत्ते ही जगे रहते हैं. इस कारण वे तुम्हारे बारे में अच्छी तरह से जानते हैं. और तुमलोगों  को मास कम्युनिकेशन की पढ़ाई में यह बताया जाता है कि अगर कुत्ता आदमी  को काट ले, तो कोई खबर नहीं है, लेकिन अगर आदमी कुत्ता को काट ले, तो बहुत बड़ी खबर होती है. सही कहा न पत्रकार साब. मैं उनकी बातों पर कुछ भी नहीं बोल सका.  वे बोले कि हमलोग सिर्फ अपनी जानकारी बढ़ाना चाहते हैं. एक हिंदी के प्रोफेसर थे. वे बोले कि भाई हिंदी में इसका अर्थ तो कहीं से भी लिखने पढ़ने से नहीं लगता है. पत्रकार का यदि अर्थ निकालें तो पत्र का मतलब चिट्रठी है, जो अब टेलीग्राम के बाद इतिहास बननेवाला है. अब कोई भी लेटर वेटर नहीं लिखता है. एक समय था कि पत्र में प्रेमिका अपनी वह बात भी लिख देती थी, जो वह अपने प्रेमी के सामने नहीं बोल पाती थी. प्रेमी एक पत्र को प्रमाण मानकर आजीवन कुंवारा रह जाता था. अपना सबकुछ उसे दे देता था. लेकिन अब ईमेल का जमाना है, फेसबुक है. एक सेंकेंड में दोस्ती होती है और टूट भी जाती है. शक्ल भी नहीं देखा गया होता है. सरकारी कार्यालय में भी अब इंटरनेट से सब कुछ हो रहा है. आज यदि इंटरनेट नहीं होता तो प्रधानमंत्री पर जो कोयला घोटाले के स्टेटस रिपोर्ट पर छेड़छाड़ की बात सामने आई है, वो कभी नहीं आती. लेटर ही गुम कर दिए जाते. लेकिन अब कंप्यूटर पर दूसरी जगह भी सेव रहता है. पत्र के बाद आता है कार. कार भी नहीं है तुम्हारे पास. अगर तुम्हारे पास कार हो, तो आधा पत्रकार कहा जा सकता है. इसलिए भाई हम अपने किरायेदारों से सबसे पहले पूछते हैं कि तुम पत्रकार तो  नहीं हो. यदि वह पत्रकार होता है, तो उसे मकान किराया पर नहीं देता हूं. एक तो निशाचर की तरह रात में काम करता है और दिन भर सोया रहता है. दस मिनट बात करने भी जाओ या कुछ काम हो, तो घर से जवाब मिलता है कि चार बजे रात को सोए हैं, उठेंगे तो बता दूंगी.  अगर कहीं जाने की इच्छा भी होती है तो न उनके पास बहुत सारे पैसे होते हैं और नहीं कार होता है कि कहीं जा भी सकूं. ऐसे किरायादार रखने से क्या फायदा.  तुम किस टाइप के पत्रकार हो भाई. यह सुनकार सभी जोर से हंसने लगे और मैं उनकी तरफ सिर्फ देखता रहा. सोचा कि रिटायरमेंट के बाद लोग ऐसे ही सठियाता है. इसके साथ ही यह भी समझ में आया कि पटना में पत्रकार को क्यों नहीं रूम दिया जाता है.    

सोने से सोना मिलता है

जब से शोभन सरकार को सोने का सपना आया है, उस दिन से हम काफी परेशान चल रहे हैं. कई सपने देख रहे हैं लेकिन सोने का सपना नहीं देख रहे हैं. दस साल की नौकरी करने के बाद भी एक किलो सोना तक नहीं खरीद पाया हूं. बचपन से एमए तक अमीर बनने के लिए कई किताबें पढ़ीं, लेकिन कमबख्त एक किताब में भी ऐसी तरकीब नही थी, जिससे अमीर बन सकें. जब किताब पढ़कर सो जाते थे, तो रात को सपने में कई बार अमीर बने लेकिन नींद खुलते ही मार पड़ने लगती थी. उस समय पटना कॅलेजिएट के हॉस्टल में रहता था. हॉस्टल का वार्डन काफी खरूस था, वे हमेशा पढ़ने के लिए कहते थे. सोए हुए स्टूडेंट्स का शिकार करना उनकी आदत में शुमार था. वे हमेशा कहा करते थे कि सोने से कोई फायदा नहीं है. मूर्ख लोग सोते हैं और विद्वान लोग पढाई करते हैं. मैं उनकी बातों में आ गया और सोना छोड़कर पढाई करने लगा. सोचा कि सोने के लिए तो जिंदगी है. एक बार सफल आदमी बन जाउं, जिंदगी भर सोता रहूंगा. जब से शोभन सरकार के बारे में सुना हूं, तब से वार्डन के साथ ही उन लोगों पर गुस्सा आ रहा है, जिन्होंने हमें सोने नहीं दिया. गलती से पत्रकार बन गया हूं, जिसे रात को सोना नसीब नहीं है और दिन को इतना उजाला रहता है कि ठीक से सो नहीं पाता हूं. आखिर सोने में भी तो डिवोशन चाहिए, तभी सोना मिलेगा न. यानी कि सौ फीसदी प्रदर्शन के बल पर ही कामयाब बन सकते हैं. वैसे भी पत्रकार का काम सपना देखना नहीं, सपना बेचना होता है. लोगों का डेली कैरियर बनाता हूं, लेकिन अपना नहीं.  हर एग्जाम  की तैयारी के बारे में जानकारी है. लेकिन एक भी परीक्षा पास नहीं कर पाया हूं. अंत में गृहस्थी की परीक्षा भी पास नहीं कर पा रहा हूं. किसी तरह घर की जमीन बेचकर बेटे को इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ा रहा हूं.  जो कुछ भी पढ़ाई के दौरान हमने नहीं पढ़ी, वे सभी बुक हमने बच्चे को पढ़ा दिया है. इतने कष्ट के बाद भी संतोष इसलिए कर रहा था कि वृक्ष कभी नहीं फल खाता है, नदी नहीं पानी पीती है और साधु कभी भी अपनी भलाई नहीं सोचता है. लेकिन जब से आशाराम बापू और निर्मल बाबा, बाबा रामदेव की संपत्ति के बारे में पता चला है, तब से  बैचेन हो गया और पटना में एक साधु के पास पहुंच गया. वे काफी बिजी चल रहे थे. हालांकि आज से दस वर्ष पहले जब मैं पटना आया था, तो वे मक्खी मारते थे. अब उनका पेशा बदल गया है, अब वे कई तरह के शिकार समय समय पर करने लगे हैं. उन्होंने बताया कि आज वही आगे रह सकता है, जो साम, दाम, दंड, भेद अपनाता  है. अपनी सफलता के बारे में वे बोले कि मैं कभी आंखों से शिकार करता हूं, तो कभी बातों से, कभी लातों से. साधु और संत को जब तक देश में पूजनीय माना जाएगा, तब तक आशाराम बापू और निर्मल बाबा धरती पर आते रहेंगे और सभी युवक- युवतियों पर कृपा करते रहेंगे. भले ही मीडिया इसे यौन शोषण कहे लेकिन बीजेपी की शाइनिंग इंडिया की तरह यह शोषण शब्द भी भविष्य में इतिहास बन जाएगा. ऐसा हम साधु का श्रप है. वैसे भी आजकल बाबा को बदनाम मीडिया कर रहा है, जबकि खुद वह बेइमान है.  हाल ही में जी मीडिया के संपादक के बारे में सुना था, उसका कैरियर खत्म हो गया है, लेकिन वह मालिक का आदमी था. इस कारण फिर से नौकरी कर रहा है. नाम अलग से कमाया है. आज मीडिया इंडस्ट्री में उन्हें सब रखना चाहता है. लेकिन तुम जैसे पत्रकार को आईबीएन 7 ने एक साथ निकाल दिया. सभी खुद को अपडेट नहीं कर पाए. उन्हें इससे भी कम वेतन पर किसी तरह नौकरी मिली है. अगर वे कुछ काम नहीं करके सिर्फ सोते तो हो सकता था कि जो सपना शोभन सरकार को सोने का आया, वह उन्हें भी आता. मैने टोकते हुए कहा कि सभी को सोना का सपना कैसे आ सकता है? बाबा गुस्सा गए और बोले कि तुम्हें भारतीय इतिहास की जानकारी नहीं है, नहीं तो तुम ऐसी बातें नहीं बोलते. अरे तुमने नहीं सुना है कि प्राचीन काल में भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था. अब ग्लोबल वार्मिग के कारण चिड़िया तो खत्म हो गए हैं, लेकिन उनकी अस्थी जमीन के अंदर सोना उगल रहा है. इस कारण भारत भर में सोने की खान मौजूद  है. वैसे भी अंग्रेजी में कहावत है कि पैसा से पैसा बनता है, उसी तरह उसी तरह अब हिंदी कहावत बनेगी कि सोने से सोना मिलता है. जिस तरह अभी सुन रहे हैं कि आसाराम बापू का भविष्य खत्म हो गया, लालू का राजनीतिक जीवन खत्म हो गया, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं होनेवाला है. ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि उन्होंने खुद को जमाने के अनुरूप ढाला है और लोगों के पैसे से अपना पैसा स्विस बैंक में जमा किया है. उसके पास इतने पैसे हैं कि उसका सात खानदान बैठकर खाएगा. भारत में यह प्राचीन काल से चला आ रहा है कि एक की कुर्बानी से उसका परिवार ऐश करता है. यदि ऐसा नहीं होता तो गांधी परिवार अभी तक राज नहीं करता. अगर आसाराम बापू को जेल हो ही गया तो वे कृष्ण की तरह अमर हो जाएंगे. अंतर सिर्फ यह होगा कि कृष्ण का जन्म जेल में हुआ था और आसाराम बापू अब जेल गए हैं. कृष्ण भगवान खुद को अपडेट नहीं कर पाए  लेकिन उनका नेक्स्ट जेनरेशन आसाराम उनसे आगे निकला और उसका बेटा उससे भी आगे यानी देश से बाहर. तुम्हें भी सही में पत्रकार बनना है, तो जी मीडिया वाले पत्रकार की तरह सोचो. अगर यह नहीं कर सकते तो सिर्फ सोओ. हो सकता है कि सपने में सोना आ जाए.

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

ऐ दिल मांग ले तू भी मुराद कोई


टूटे हुए तारे को देख कर मैं ने कहा

ऐ दिल मांग ले तू भी मुराद कोई 

फिर दिल से आवाज़ आई की,जो खुद टूट रहा हो 

कैसे पूरी करेगा वोह फरयाद कोई

उसे पता था मुझे दर्द मे मुस्कुराने की आदत है 

इस लिए वो रोज नया गम देता है मेरी खुशी 

के लिए

इक खाब सुहाना टूट गया, एक ज़ख्म अभी तक बाकी है,
जो अरमा थे सब ख़ाक हुए, बस राख अभी तक बाकी है

फूलो का हश्र वो समझ न सका " फराज "

मुझे तोड़ के कहता है की सम्भाल कर रखूंगा |

ना जाया करो कही भी कश्ती लेकर 

तुम्हारे नसीब में कोइ किनारा नही

ना मांग मुजसे और ज्यादा
तनहाइआ को में एकलोता वारिश हुं

मसला जब भी चला है खूबसूरती का,
फैसला सिर्फ आपके चहेरेने कियां है.


मसला जब भी चला है गुलाबो का,
फैसला सिर्फ आपके होठोने किया है.

मसला जब भी चला है नशेके तोड का,
फैसला सिर्फ आपकी आंखोने कियां है.

मसला जब भी चला है रोशनाय जहां का,
फैसला सिर्फ आपके चहेरेकी रोशनीने कियां है.

मसला जब भी चला है कालि घटा का,
फैसला सिर्फ आपके उडते बालोने कियां है

मसला जब भी चला है एक पनाह्गाह का,
फैसला सिर्फ आपकी नर्म बाहोने कियां है.

मसला जब भी चला है दिवानगीक़ी हद का,
फैसला सिर्फ हमारी दिवानगीने किया है
ग़ालिब : 
शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर ... 
या वो जगह बता जहाँ पर खुदा नहीं ...!! 

इकबाल : 
मस्जिद खुदा का घर है पीने की जगह नहीं ... 
काफ़िर के दिल में जा वहां खुदा नहीं .....!! 

फैज़ : 
काफ़िर के दिल से आया हूँ ये देख कर ... 
खुदा वहां मौजूद है लेकिन उसे पता नहीं ..!!

सोच को बदलो सितारे बदल जायेंगे !
नज़र को बदलो नज़ारे बदल जायेंगे !!

कश्तियाँ बदलने की जरुरत नहीं !

दिशाओं को बदलो किनारे बदल जायेंगे !!

"ठिकाना कब्र है तेरा , इबादत कुछ तो कर गाफिल ,

दस्तूर है के खाली हाथ किसी के घर नहीं जाते !"

"ना रखना हक किसी का मार कर अपने खजानो में ,

यह कर्जे वो हैं जो दोजखों में भी चुकाए नहीं चुकते !"

राहे वफ़ा है ,इसमें न यूँ मुंह बना के चल 

काँटों को रोंद रोंद के मुस्करा के चल |

है किस्से बड़े मशहूर तेरी अय्यारियोँ के

अपनी भी हकीकत तुझसे जुदा नही है |


अगर हमें मोहब्बत तेरे जिस्म से होती तो 

दुनिया से छीन लेते 

हमें इश्क तेरी रूह से है इसलिए तुझे खुदा से 

मांगते है

वो क्यों खुद पे इतना गुरुर न करती "फरेज"
मैंने उस को चाहा जिसके चाहने वाले हजारों थे

वो लिखते हैं हमारा नाम मिटटी में , और मिटा देते हैं ,
उनके लिए तो ये खेल होगा मगर ,हमें तो वो मिटटी में मिला देते हैं !!

जिंदगी गुजरने के दो ही रस्ते है "ग़ालिब" ..
एक तुजे नहीं आता एक मुझे नहीं आता..

वो आये सहरे खामोशां में बड़े नाज़ से , कब्र देखि मेरी तो कहने लगे ;

चलो इतनी तरक्की तो इसकी , एक बेघर ने अच्छा सा घर ले लिया

ना कर कोई वादा फिर से नया
पहले वादे पुराने निभा तो सही

आप खुद ही अपनी अदाओं में ज़रा ग़ौर कीजिये
हम अर्ज़ करेंगे तो शिकायत होगी

दर्द से होगई है दोस्ती कुछ इस क़दर 

के अब दर्द सा होता है दर्द ना मिलने पर ...
..
कुछ जियादा ही गहरी बातें करने लगा हूँ मैं..

के उसने समजना ही छोड़ दिया डूबने के डर से..

कही छत थी दीवार ओ दर थे कही 

मिला मुझको घर का पता देर से 

दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे 
मगर जो दिया वो दिया देर से

अब से पहले के जो क़ातिल थे बहुत अच्छे थे
कत्ल से पहले वो पानी तो पिला देते थे