बुधवार, 26 अक्टूबर 2011

मैं सि‍मट कर रह गया हूं।

 एक बार एक संन्यासी ऊंचे पहाड़ पर स्थित मंदिर दर्शन के लिए बीच रास्ते में थककर एक छायादार जगह पर खड़े होकर सुस्ताने लगा। तभी उसने देखा कि एक ग्रामीण महिला अपने कंधे पर अपने बच्चे को उठाये सीढ़ी चढ़ती आ रही है। उसके चेहरे से पसीना छल-छला रहा है, पर वह गीत गा रही है। सन्यासी ने उस महिला से कहा आओ थोड़ी देर छांव में आराम कर लो तुमने इतना बोझा भी उठा रखा है। वह महिला बोली महाराज यह बोझ नहीं मेरा बेटा है। यह मेरी जिम्मेदारी है यह भगवान का वरदान है। जब आप अपनी जिम्मेदारी को भगवान का नाम लेकर उठाते है तो वह बोझ नहीं लगता बल्कि आत्मिक खुशी देता है। अपने को जिम्मेदार महसूस करना अपने अस्तित्व का मान बढ़ाना है।
आज दीपावली है, लेकिन मन नहीं लग रहा है। क्‍योंक‍ि मैं अपने घर पर नहीं हूं। यहां अपना मकान भी है और सारी आधुन‍िक सुवि‍धाएं भी, पत्‍नी भी हैं और बच्‍चे भी। लेकि‍न मां नहीं है। वह घर पर हैं। हमें उनसे मि‍लने के लि‍ए टाइम नहीं है। जब मैं बच्‍चा था तो यही सोचता था क‍ि बडे होने के बाद आदमी के पास खुशी के अनेक मौके होते हैं और आदमी मन के मालि‍क होते हैं। अब जब पुरानी बातें सोचता हूं तो दुखी हो जाता हूं। पत्‍नी बहुत अच्‍छी है, खयाल भी रखती है और प्‍यार भी करती है, लेकि‍न वो नहीं मि‍ल पाता है, जो मां देती थी। यह सोचकर कभी कभी बैचेन हो जाता हूं क‍ि आदमी आखिर क्‍या करे। जब पढाई कर रहा था तो सोचता था क‍ि नौकरी के बाद जि‍दगी बेहतर होगी और शादी के बाद झक्‍कास, लेकि‍न मैं गलत था।  जहां मैं रह रहा हूं, सभी अपने होते हुए भी अपने नहीं हैं। क्‍योंक‍ि उनकी संस्‍कत‍ि हमसे नहीं मि‍लती और मेरा रहन सहन उसे नहीं समझ में आता है। क्‍या इसी के लि‍ए इतना पढा और बेहतर नौकरी की। हम इस समय पेंडुलम की तरह हैं। काश आज मैं घर पर परहता,!  जम्‍मेदारि‍यों का बोझ आदमी को अंधा बना देता है। आज जि‍म्मेदारी इतनी बढ गई है क‍ि मैं सि‍मट कर रह गया हूं। खुद को अकेला महसूस कर रहा हूं। शायद यही सत्‍य है।  बर्बादि‍यों का जश्‍न मना रहा हूं। इस डर से क‍ि हो सकता है, अभी जो नसीब है, वह भी आगे न मि‍ल‍े। अक्सर अपनी जिंदगी में हम लोगों से सुनते आये है कि हम जिम्मेदारी के कारण जिंदगी का मजा नही ले पाते है।  यह बात बिल्कुल सही नही है।विश्व में अधिक ऊंचाई में पहुंचने वाले सभी लोग जिम्मेदार होते है या मै कहूंगा कि जो लोग जिम्मेदार होते है वही ऊंचाईयों को छू सकते है। अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर या देश के ऊंचे पदों पर बैठे राजनीतिज्ञ या अधिकारी अपनी जिम्मेदारी से कभी नहीं भागते। किसी जहाज का कप्तान, किसी संयुक्त परिवार का मुख्या या किसी बड़े उद्योग का चेयर मैन बनना जितनी जिम्मेदारी का काम है, उतनी ही उनकी शान है, उनकी इज्जत है। मैने अपनी जिंदगी में कई लोग ऐसे देखे है जो दूसरों के बोझ को हल्का करते है और साथ ही साथ खुश भी रहते है। कम उम्र में उनकी इन आदतों को समझ नही पाया था पर अब उनके व्यक्तित्व को नमन करता हूँ। यही सोचकर आगे  बढ रहा हूं। नमस्‍कार आपको दीपावली की शुभकामनाएं।

शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

लॉ ऑफ डिमिनिशिंग यूटिलिटी

सही नाप के जूते


लता शर्मा
उर्मि से उर्वशी बना दी गई इस उपन्यास की नायिका की कथा, सिर्फ इसी की गाथा नहीं है। यह उन सब महत्वाकांक्षी सुंदरियों की गाथा है जो दरअसल, सावित्री, नेहा या निकिता नहीं, उर्वशी बनने के लिए सब कुछ दांव पर लगा देती हैं। जिन्हें समझाया जाता है कि ‘तुम्हारी देह, तुम्हारा मस्तिष्क, तुम्हारी अपनी पूंजी है। अंततः उसका निवेश होना ही है, तो तुम स्वयं करो। कम से कम अस्सी प्रतिशत लाभांश तो मिलेगा।’ उन्हें बाकायदा तैयार किया जाता है, चाहे घरेलू परिस्थितियां कितनी भी गई-गुजरी क्यों न हों! करियर सबसे जरूरी है, तो फिर बेहतरीन को ही क्यों न चुना जाए! क्या करना है डॉक्टर या इंजीनियर बनकर जब मिस इंडिया बनने के लिए सिर्फ ग्रेजुएट होना अनिवार्य है! तो फिर चलो फिनिशिंग स्कूल, सीखो कैट वॉक और मोहक अंदाज। जॉइन करो एक्वेटिक क्लब। भरो मिस इंडिया बनने का फार्म। और फिर आगे ही आगे चलते चलो उर्वशी की तरह, पीछे मुड़कर देखना मना है। कामयाबी आगे खड़ी इंतजार कर रही है। बनो करोड़ों दिलों की मलिका और अंततः बदल जाओ खुद एक कमोडिटी में। खरीदो भी और बिकती भी जाओ।

बाजार देखते-देखते, बाजार हो जाने की यह गाथा सिर्फ मनोरंजन भर नहीं है। लता शर्मा का स्त्री-विमर्शकार यहां कथाकार में बखूबी प्रवेश करता है। बताता है कि अस्सी प्रतिशत लाभांश पाने की महत्त्वाकांक्षा का अर्थ क्या है यदि विवेक को ताक पर रख दिया जाए। आप इस उपन्यास को पढ़ना शुरू करेंगे, तो फिर पूरा पढ़े बगैर नहीं छोड़ सकते। रोशनी की रंगीन चमक में चहकते चेहरे की दास्तान भर नहीं है यह, यहां अकेली उदासी में टूटती सांसों की गमजदा आवाज भी सुनी जा सकती है।

उपयोगिता ह्वास नियम अर्थात्
लॉ ऑफ डिमिनिशिंग यूटिलिटी


इस सदी के बूढ़े महानायक के सामने नाच रही है विश्वसुंदरी।
यह नाच है?
‘नाच कांच है, बात सांच है।’ (सूत्रधार-संजीव)
फिर तो सच है यह सब।
मुक्त अर्थव्यवस्था के सामने नाच रही है अर्धनग्न स्त्री देह।
नाच है यह।

बूढ़े के ढीले जबड़ों, लटके गालों, लरियाते होंठों के पास, ठीक नाक के नीचे अपना उन्नत वक्ष उठा-गिरा रही है सुंदरी।
हर बूढ़े मर्द को तसल्ली मिलती है।
जेब में नोट हो तो ये उन्नत वक्ष ऐन नाक के नीचे, होंठों के पास। युवा नायक पर बूढ़े महानायक को तरजीह देती है सुंदरी।
क्यों?

बूढ़ा सत्ता है, धन है–इसीलिए अथाह ऊर्जा है।
अधेड़-बूढ़ों के सामने मेला लगा है। सोलह से अठारह, बीस से बाइस वर्ष तक की आतुर नवयौवनाओं का…
…क्या है,…कौन है जो इन्हें इसे नग्न नृत्य के लिए विवश कर रहा है? अभिभावक?…उनकी अपनी महत्त्वाकांक्षा?
या उपभोक्ता संस्कृति और मुक्त बाजार के शाश्वत नियम।

लज्जा

लज्जा’ बांग्लादेश की बहुचर्चित लेखिका तसलीमा नसरीन का पाँचवाँ उपन्यास है। इस उपन्यास ने न केवल बांग्लादेश में हलचल मचा दी है, बल्कि भारत में भी व्यापक उत्ताप की सृष्टि की है। यही वह उत्तेजक कृति है, जिसके लिए लेखिका को बांग्लादेश की कट्टरवादी साम्प्रदायिक ताकतों से सजा-ए-मौत की घोषणा की है। दिलचस्प यही है की सीमा के इस पार की साम्प्रादयिक ताकतों ने इसे ही सिर माथे लगाया। कारण ? क्योंकि यह उपन्यास बहुत ही शक्तिशाली ढंग से बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करता है और उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण करता है जो एक लंबे अरसे से बांग्लादेशी हिन्दुओं की नियति बन चुका है। हमारे देश की हिन्दूवादी शक्तियों ने ‘लज्जा’ को मुस्लिम आक्रमकता के प्रमाण के रूप में पेश करना चाहा है, लेकिन वस्तुतः ‘लज्जा’ दुधारी तलवार है। यह मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर जितनी तल्खी से आक्रमण करता है, उतनी ही तीव्रता से हिन्दू साम्प्रदायिकता की परतें भी उघाड़ता है। वस्तुतः यह पुस्तक साम्प्रदायिकता मात्र के विरुद्ध है और यही उसकी खूबसूरती है।

‘लज्जा’ की शुरुआत होती है 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़े जाने पर बांग्लादेश के मुसलमानों की आक्रमक प्रतिक्रिया से। वे अपने हिन्दू भाई-बहनों पर टूट पड़ते हैं और उनके सैकड़ों धर्मस्थलों को नष्ट कर देते हैं। लेकिन इस अत्याचार, लूट, बलात्कार और मन्दिर ध्वंस के लिए वस्तुतः जिम्मेदार कौन है ? कहना न होगा कि भारत के वे हिन्दूवादी संगठन जिन्होंने बाबरी मस्जिद ध्वंस का प्रतिशोध की राजनीति का खूँखार चेहरा दुनिया के सामने रखा। वे भूल गये कि जिस तरह भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं, उसी तरह पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं। लेखिका ने ठीक ही पहचाना है कि ‘भारत कोई विच्छिन्न ‘जम्बूद्वीप’ नहीं है। भारत में यदि विष फोड़े का जन्म होता है, तो उसका दर्द सिर्फ भारत को ही नहीं भोगना पड़ेगा, बल्कि वह दर्द समूची दुनिया में, कम-से-कम पड़ोसी देशों में तो सबसे पहले ही फैल जाएगा।’ क्यों ? क्योंकि इस पूरे उपमहादेश की आत्मा एक है, यहाँ के नागरिकों का साझा इतिहास और एक साझा भविष्य है। अतः एक जगह की घटनाओं का असर दूसरी जगह पड़ेगा ही। अतः हम सभी को एक-दूसरे की संवेदनशीलता का खयाल रखना चाहिए और एक प्रेम तथा सौहार्दपूर्ण समाज की रचनी करनी चाहिए। ऐसे समाज में ही हिन्दू, मुसलमान तथा अन्य समुदायों के लोग सुख और शान्ति से रह सकते हैं। प्रेम घृणा से अधिक संक्रामक होता है।

लेकिन बांग्लादेश का यह ताजा उन्माद सिर्फ बाबरी मस्जिद टूटने की प्रतिक्रिया भर थी ? नहीं। तसलीमा की विवेक दृष्टि और दूर तक जाती है। वे यह दिखाने की कोशिश करती हैं कि इसका संबंधमूलतः धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल से है। यद्यपि पाकिस्तान का निर्माण होने के बाद कायदे-आजम मुहम्मद अली जिन्ना ने घोषणा की थी कि धर्म नहीं, जातीयता ही किसी समुदाय को एक रख सकती है, लेकिन पाकिस्तान के दृष्टिहीन शासकों ने इस आदर्श को तिलांजलि दे दी और वे पाकिस्तान को एक मुस्लिम राष्ट्र बनाने पर तुल गये। लेकिन क्या धर्म का बन्धन पाकिस्तान को एक रख सका ? बांग्लादेश का एक मुक्ति संग्राम एक सर्वथा सेकुलर संघर्ष था। किन्तु सेकुलरबाद का यह आदर्श स्वतंत्र बांग्लादेश में भी ज्यादा दिन नहीं टिक सका। वहाँ भी, पाकिस्तान की तरह ही धर्मतांत्रिक राज्य बनाने की अधार्मिक कोशिश की गयी। नतीजा यह हुआ कि बांग्लादेश में वह बदसूरत आग फिर सुलग उठी, जिसके कारण पहले के दशकों में लाखों हिन्दुओं को देश त्याग करना पड़ा था। संकेत स्पष्ट है जब भी धर्म और राजनीति का अनुचित सम्मिश्रण होगा, समाज में तरह-तरह की बर्बताएँ फैलेंगी।

तसलीमा नसरीन मूलतः नारीवादी लेखिका हैं। वे स्त्री की पूर्ण स्वाधीनता की प्रखर पक्षधर हैं। अपने अनुभवों से वे यह अच्छी तरह जानती हैं कि स्त्री के साथ होने वाला अन्याय व्यापक सामाजिक अन्याय का ही एक अंग है। इसलिए वे यह भी देख सकीं कि कट्टरतावाद सिर्फ अल्पसंख्यकों का ही विनाश नहीं करता, बल्कि बहुसंख्यकों का जीवन भी दूषित कर देता है। कठमुल्ले पंडित और मौलवी जीवन के हर क्षेत्र को विकृत करना चाहते हैं। सुरंजन और परवीन एक-दूसरे को प्यार करते हुए भी विवाह के बंधन में नहीं बंध सके, क्योंकि दोनों के बीच धर्म की दीवार थी और माहौल धर्मोन्माद से भरा हुआ था। धर्मोन्माद के माहौल में सबसे ज्यादा कहर स्त्री पर ही टूटता हैः उसे तरह-से-तरह से सीमित और प्रताड़ित किया जाता है। सुरंजन की बहन माया का अपहरण करने वाले क्या किसी धार्मिक आदर्श पर चल रहे थे ? उपन्यास का अन्त एक तरह की हताशा से भरा हुआ है और यह हताशा सिर्फ सुरंजन के आस्थावान पिता सुधामय की नहीं, हम सबकी लज्जा है, क्योंकि हम अब भी उपमहादेश में एक मानवीय समाज नहीं बना पाए हैं।
यह एक नये ढंग का उपन्यास है। कथा के साथ रिपोर्ताज और टिप्पणी का सिलसिला भी चलता रहता है। इसलिए यह हमें सिर्फ भिगोता नहीं, सोचने विचारने की पर्याप्त सामग्री भी मुहैया करता है। कहानी और तथ्य उपन्यास में भी उसी तरह घुले-मिले हुए हैं, जिस तरह कल्पना और यथार्थ जीवन में। आशा है, तसलीमा की यह विचारोत्तेजक कृति हिन्दी पाठक को न केवल एक नयी भूमि परिचित कराएगी, बल्कि उसे एक नया विचार संस्कार भी देगी।

गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011

लोग माजी का भी अंदाज़ा लगा लेते हैं
मुझको तो याद नहीं कल का भी क़िस्सा कोई

बेसबब आँखों में आँसू नहीं आया करते
आपसे होगा यक़ीनन मेरा रिश्ता कोई

बिगड़ते रिश्तों को फिर से बहाल मत करना,
जो टूट जाएँ तो उनका ख़याल मत करना।

हरेक दोस्त को बढ़कर गले लगा लेना,
किसी बिछुड़ते हुए का मलाल मत करना।

जिन्हें सुने तो कोई बेनक़ाब हो जाए,
किसी से भूलकर ऐसे सवाल मत करना।

नज़र चुरानी पड़े आइने से रह-रहकर,
ज़मीर इतना भी अपना हलाल मत करना

वफ़ा-ओ-प्यार की उम्मीद दुनियादारों से,
तुम अपने होश में ऐसा कमाल मत करना।

पड़ी है उम्र अभी, और बहुत-सी चोटें हैं,
तुम अपने मन को अभी से निढाल मत करना।

उसूल, दोस्ती, ईमान, प्यार, सच्चाई,
तुम अपनी ज़िंदगी इनसे मुहाल मकरना


कम से कम बच्चों के होंठों की हँसी की ख़ातिर
ऐसे मिट्‍टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ

भीख से तो भूख अच्छी गाँव को वापस चलो
शहर में रहने से ये बच्चा बुरा हो जाएगा

 


मेरी क़िस्मत की लकीरें, मेरे हाथों में न थीं,
तेरे माथे पर कोई, मेरा मुक़द्‍दर देखता।।

चोट खाते हैं ज़हर पीते हैं
छोड़कर गाँव की फिज़ा जो लोग
शहर की बस्तियों में जीते हैं
बच्चा खो जाए ग़म तो होता है
आज बच्चे का खो गया बचपन
इस बड़े ग़म में आज कौन रोता है

जो मिले उसके संग होती है
ज़िंदगानी अज़ीज़ बच्चों की
जैसे पत्नी का रंग होती है

बच्चा स्कूल रोज़ जाता है
बस्ता दिल से लगा के रखता था
आजकल पीठ पर उठाता है

ज़रा सा ग़म हो तो होते हो नीम जान मियाँ
हमारे सर से गुज़रते हैं आसमान मियाँ

लिपटी हुई है वक़्त से मायूसियों की धूप
कितनी उदासी आज की इस दोपहर में है

मशहूर शेर

ज़ुबाँ पर बेखुदी में नाम उसका आ ही जाता है, अगर पूछे कोई ये कौन है बतला नहीं सकता।

रोज़ मय पी है, तुम्हें याद किया है लेकिन, आज तुम याद न आए, ये नई बात हुई -

तुमको चाहा तो ख़ता क्या है बता दो मुझको, दूसरा कोई तो अपना-सा दिखा दो मुझको

मैं ज़िंदगी की दुआ माँगने लगा हूँ बहुत, जो हो सके तो दुआओं को बेअसर कर दे।।

डूबने वाला था, और साहिल पे चेहरों का हुजूम, पल की मौहलत थी, मैं किसको आँख भरकर देखता।।

कुछ निशानात हैं राहों में तो जारी है सफ़र
ये निशानात न होंगे तो किधर जाऊँगा

शनिवार, 15 अक्टूबर 2011

शादी आजकल
युवा उम्मीद में जीते हैं, बूढे यादों में, लेकिन युवा वर्ग की ये उम्मीदें इतनी होती हैं कि जिंदगी के अन्य पहलुओं के बारे में सोचने का मौका नहीं मिलता। शादी भी उनकी प्राथमिकता सूची में पीछे खिसकती जा रही है। आजकल पैसा ही सबकुछ है। पहले की लडकी यह नहीं देखती थी, आज पैसे नहीं है तो लउकियां बात भी नहीं करती है। यही कारण है क‍ि आजकल का युवा पहले कमाता है, पिफर शादी के बारे में सोचता है। जो युवा नहीं कमाता है, उसे काफी परेशानी होती है। आजकल के माहौल भी ऐसे हो गए हैं कि लव आसानी से कुछ दिनों के लिए हो जाते हैं। आज के मॉडर्न लव में प्रेमिका या प्रेमी के लिए किसी और के साथ संबंध खराब नहीं लगता है। वे इसे आपसी समझौता मानते हैं। आज युवाओं के पास वाकई सब कुछ है। बेहतरीन करियर, बैंक बैलेंस, घर, गाडी, सुख-सुविधाएं, दोस्त..। इन सबके बीच शादी कहां है? ओह गॉड, ऐसी भी क्या जल्दी है! कुछ दिन तो चैन से जीने दो.. युवाओं का जवाब ऐसा ही होता है। एक फ्रेंच कहावत है कि युवा उम्मीद में जीते हैं, बूढे यादों में, लेकिन युवा वर्ग की ये उम्मीदें इतनी होती हैं कि जिंदगी के अन्य पहलुओं के बारे में सोचने का मौका नहीं मिलता। शादी भी उनकी प्राथमिकता सूची में पीछे खिसकती जा रही है। शलमान खान ग्लैमर की दुनिया में हैं, जहां देर से शादी बडा मसला नहीं है। पिछले कुछ वर्षो में शादी की उम्र तेजी से आगे खिसकने लगी है। महानगरीय युवाओं में सिंगल रहने के साथ ही लिव-इन रिलेशनशिप का ट्रेंड बढा है। शादियां भी हो रही हैं, लेकिन उस तरह नहीं, जैसी अपेक्षा पुरानी पीढी को थी। रिश्ते जन्म-जन्मांतर के बंधन के बजाय सुविधा बनते जा रहे हैं। इस संबंध में युवाओं के तर्क भी अजीब होते हैं। आजकल के युवा और युवतियों की यह दलील होती है क‍ि शादी किए जाते हैं। माता-पिता लाडले बेटे को दूसरे शहर या देश भेजने से पहले सर्वगुणसंपन्न व गृहकार्य में निपुण लडकी के पल्ले नहीं बांध पाते। बदलाव तो आया है, लेकिन बजाय इसकी आलोचना के उन स्थितियों-मूल्यों को समझने की कोशिश की जानी चाहिए जो युवाओं की सोच को निर्धारित कर रही हैं।
मुश्किल है शादी का फैसला
क्या वाकई युवाओं के लिए विवाह का निर्णय लेना मुश्किल हो रहा है? दिल्ली स्थित एक पी.आर. कंपनी से जुडी गौरी कहती हैं, मैं 24 की हूं। मेरा मानना है कि पहले करियर जरूरी है। शादी से डर यह है कि ससुराल में एडजस्ट कर पाऊंगी कि नहीं। अरेंज मैरिज नहीं करूंगी। वैसे मेरे पुरुष मित्र भी हैं, मगर अभी तक कोई ऐसा नहीं मिला, जिस पर भरोसा कर सकूं। देहरादून में मेडिकल छात्रा 19 वर्षीय नताशा के विचार अलग हैं। कहती हैं, एक उम्र के बाद भावनात्मक साझेदारी जरूरी है। मैं अभी इतनी परिपक्व नहीं हूं कि फैसले खुद ले सकूं। इसलिए शादी का फैसला मम्मी-पापा पर छोडूंगी। करियर तो जरूरी है। मैं नहीं समझती कि युवा शादी या कमिटमेंट से बचते हैं। करियर के चलते शादी में देरी जरूर होती है। शादी को लेकर लडकों के भय अलग तरह के हैं। दिल्ली में एक कॉल सेंटर में कार्यरत रोहित अपनी पीडा बयान करते हैं, मम्मी-पापा ने मेरे लिए लडकी पसंद की। चट मंगनी पट ब्याह वाली बात हो गई। मंगेतर की जिद थी कि अपने लिए वह खुद खरीदारी करेगी। मैंने उसकी बात मानी, अब पछता रहा हूं। मेरा पूरा बजट बिगड गया। उसे समझाया, लेकिन वह नहीं समझी। मेरी जिम्मेदारियां बहुत हैं। शादी के बाद भी उसका यही स्वभाव रहा तो कैसे निभा पाऊंगा। पुणे स्थित मल्टीनेशनल कंपनी के 25 वर्षीय कंप्यूटर इंजीनियर अंकित का कहना है कि उन्हें कंपनी तीन वर्ष के लिए यू.एस. भेज रही है, जिसमें शर्त है कि इस दौरान वह शादी नहीं कर सकेंगे। कहते हैं, शादी का फैसला माता-पिता ही लें तो बेहतर है। मैं ऐसी लडकी से शादी नहीं करना चाहता, जो मेरे घरवालों के साथ न निभा सके। पैरेंट्स ही बहू चुनेंगे तो बाद में मुश्किल नहीं होगी। सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता के.जैन कहती हैं, मैंने शादी नहीं की है, लेकिन 50 की उम्र में कमी खलती है। शादी न करने का बडा नुकसान यह है कि भावनात्मक साझेदारी नहीं हो पाती। बहन-भाई या मित्र सभी अपने घर-परिवार में व्यस्त हैं। शाम को घर लौटने पर घर खाली लगता है। बिजली, फोन, गैस जैसे तमाम बिल खुद भरने पडते हैं। अकेले महानगरों में जीवनयापन वाकई मुश्किल है। अभिनेत्री प्राची देसाई की मां अमिता का कहना है कि आज युवाओं के पास मनचाहा करियर है, लेकिन मनचाही जिंदगी नहीं है। कहती हैं, मेरी बेटी प्राची ग्लैमर व‌र्ल्ड में है। वह मेरी हर बात मानती है, फिर भी मैं अपने विचार उस पर नहीं थोप सकती। माता-पिता के साथ मेरे भी मतभेद होते थे, पर वह समय अलग था। नई पीढी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है। शादी अब कमिटमेंट से ज्यादा कंपेनियनशिप है। प्राची का करियर ऐसा है कि शादी से बाधा हो सकती है। यदि वह 30 की उम्र में यह फैसला ले तो आश्चर्य नहीं होगा। मैंने दोनों बेटियों प्राची, ईशा के साथ नौकरी की। पति अकसर बाहर रहते थे। प्राची पंचगनी में पढती थी, घर पर मैं अकेले मैनेज करती थी। मेरी बेटियां भी सब संभाल सकेंगी, कहना मुश्किल है।
करियर है प्राथमिकता
एक ग्लोबल स्वीडिश सर्वे बताता है कि भारतीय युवा की प्राथमिकता सूची में काम, करियर और उच्च जीवन स्तर सर्वोपरि है। भारतीय समाज की धुरी है परिवार, लेकिन आज का युवा परिवार व बच्चे की चाह से दूर जा रहा है। कई लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि शादी से इतर भी जिंदगी है। ये यूरोपीय युवाओं की तुलना में करियर को ज्यादा महत्व दे रहे हैं। यह सर्वे एशिया सहित यूरोप व उत्तरी अमेरिका के17 देशों में 16 से 35 वर्ष की आयु के बीच किया गया था। इसके अनुसार 17 फीसदी जापानी व 27 प्रतिशत जर्मन जहां अपनी निजी जिंदगी व काम से खुश हैं, वहीं50 फीसदी से भी ज्यादा भारतीय युवा जिंदगी व करियर से खुश हैं। सर्वे कम से कम यह तो दर्शाता है कि देर से शादी बडी चिंता का विषय नहीं है।
रिश्ते बदलाव के दौर में
हाल ही में डॉ. शेफाली संध्या की पुस्तक लव विल फॉलो : ह्वाई द इंडियन मैरिज इज बर्रि्नग आई है। यह भारत व विदेशों में रहने वाले दंपतियों पर 12 वर्र्षो के शोध के बाद लिखी गई है। इसके मुताबिक 25 से 39 वर्ष की आयु वाले भारतीय जोडों में तलाक के केस बढे हैं। 80-85 फीसदी मामलों में यह पहल स्त्रियां कर रही हैं। 94 फीसदी मध्यवर्गीय युगल मानते हैं कि वे शादी से खुश हैं, लेकिन ज्यादातर का कहना है कि दोबारा मौका मिले तो वे मौजूदा साथी से शादी नहीं करेंगे। एक तिहाई भारतीय सेक्स लाइफ से संतुष्ट नहीं हैं। दिल्ली की वरिष्ठ मैरिज काउंसलर डॉ. वसंता आर. पत्री कहती हैं, सामाजिक मूल्य बदले हैं तो वैवाहिक रिश्ते भी बदले हैं। तलाक भी इसलिए बढे हैं, क्योंकि लडकियां आत्मनिर्भर हैं। पहले शादियां इसलिए चलती थीं कि लोगों के पास कोई विकल्प नहीं था। खामोशी से सब कुछ सहन करने वाली पीढी अब नहीं है।
विवाह आउटडेटेड नहीं
इसमें कई तरह की समस्याएं हैं, फिर भी मैं विवाह संस्था का समर्थन करता हूं, तब तक करता रहूंगा, जब तक कि इससे बेहतर कुछ और नहीं मिल जाता। आप क्‍या सोचते हैं। जहां तक मेरा अनुभव कहता है क‍ि विवाह सभी को करनी चाहिए। इस संबंध में शिशिर का कहना है क‍ि शादी तभी करनी चाहिए, जब कमाई अच्‍छी हो। कमाई की भी अलग परिभाषा है इनके पास। ये कहते हैं क‍ि आज के युवा का बेसिक नीड मोबाइल, लेपटॉप है, लेकिन हमारे पिता के समय यह जरूरी नहीं थी। यही अंतर हो जाता है आज पैरेंट़स के साथ तालमेल बनाने में। आज अगर आप इस तरह के बेसिक नीड को पूरा नहीं कर पाएंगे, तो आपकी शादी सफल नहीं हो सकती है।