शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

लॉ ऑफ डिमिनिशिंग यूटिलिटी

सही नाप के जूते


लता शर्मा
उर्मि से उर्वशी बना दी गई इस उपन्यास की नायिका की कथा, सिर्फ इसी की गाथा नहीं है। यह उन सब महत्वाकांक्षी सुंदरियों की गाथा है जो दरअसल, सावित्री, नेहा या निकिता नहीं, उर्वशी बनने के लिए सब कुछ दांव पर लगा देती हैं। जिन्हें समझाया जाता है कि ‘तुम्हारी देह, तुम्हारा मस्तिष्क, तुम्हारी अपनी पूंजी है। अंततः उसका निवेश होना ही है, तो तुम स्वयं करो। कम से कम अस्सी प्रतिशत लाभांश तो मिलेगा।’ उन्हें बाकायदा तैयार किया जाता है, चाहे घरेलू परिस्थितियां कितनी भी गई-गुजरी क्यों न हों! करियर सबसे जरूरी है, तो फिर बेहतरीन को ही क्यों न चुना जाए! क्या करना है डॉक्टर या इंजीनियर बनकर जब मिस इंडिया बनने के लिए सिर्फ ग्रेजुएट होना अनिवार्य है! तो फिर चलो फिनिशिंग स्कूल, सीखो कैट वॉक और मोहक अंदाज। जॉइन करो एक्वेटिक क्लब। भरो मिस इंडिया बनने का फार्म। और फिर आगे ही आगे चलते चलो उर्वशी की तरह, पीछे मुड़कर देखना मना है। कामयाबी आगे खड़ी इंतजार कर रही है। बनो करोड़ों दिलों की मलिका और अंततः बदल जाओ खुद एक कमोडिटी में। खरीदो भी और बिकती भी जाओ।

बाजार देखते-देखते, बाजार हो जाने की यह गाथा सिर्फ मनोरंजन भर नहीं है। लता शर्मा का स्त्री-विमर्शकार यहां कथाकार में बखूबी प्रवेश करता है। बताता है कि अस्सी प्रतिशत लाभांश पाने की महत्त्वाकांक्षा का अर्थ क्या है यदि विवेक को ताक पर रख दिया जाए। आप इस उपन्यास को पढ़ना शुरू करेंगे, तो फिर पूरा पढ़े बगैर नहीं छोड़ सकते। रोशनी की रंगीन चमक में चहकते चेहरे की दास्तान भर नहीं है यह, यहां अकेली उदासी में टूटती सांसों की गमजदा आवाज भी सुनी जा सकती है।

उपयोगिता ह्वास नियम अर्थात्
लॉ ऑफ डिमिनिशिंग यूटिलिटी


इस सदी के बूढ़े महानायक के सामने नाच रही है विश्वसुंदरी।
यह नाच है?
‘नाच कांच है, बात सांच है।’ (सूत्रधार-संजीव)
फिर तो सच है यह सब।
मुक्त अर्थव्यवस्था के सामने नाच रही है अर्धनग्न स्त्री देह।
नाच है यह।

बूढ़े के ढीले जबड़ों, लटके गालों, लरियाते होंठों के पास, ठीक नाक के नीचे अपना उन्नत वक्ष उठा-गिरा रही है सुंदरी।
हर बूढ़े मर्द को तसल्ली मिलती है।
जेब में नोट हो तो ये उन्नत वक्ष ऐन नाक के नीचे, होंठों के पास। युवा नायक पर बूढ़े महानायक को तरजीह देती है सुंदरी।
क्यों?

बूढ़ा सत्ता है, धन है–इसीलिए अथाह ऊर्जा है।
अधेड़-बूढ़ों के सामने मेला लगा है। सोलह से अठारह, बीस से बाइस वर्ष तक की आतुर नवयौवनाओं का…
…क्या है,…कौन है जो इन्हें इसे नग्न नृत्य के लिए विवश कर रहा है? अभिभावक?…उनकी अपनी महत्त्वाकांक्षा?
या उपभोक्ता संस्कृति और मुक्त बाजार के शाश्वत नियम।

1 टिप्पणी:

Asha Joglekar ने कहा…

अभी तक पढा नही है । पर पढना चाहूंगी । समीक्षा अच्छी है ।