जब मैं बच्चा था
दिल का सच्चा था
खेला करता था
अपने दरवाजे पर ।
किसी तरह का कोई गम
नहीं था
भविष्य की कोई
योजना नहीं थी
पढाई का कोई टेंशन
नहीं था ।
पैरेंट़स और दोस्त
ही अपने थे
जो पढाई करने के लिए
कहते थे
वे हमें दुश्मन लगते
थे।
काफी कष्ट होता था
हमें
सोचता कि वे हमसे
बात न करें
हमें पढने के लिए न
कहें
हमसे संबंध विच्छेद
कर लें
लेकिन वे हमें पढने
के लिए फिर से कहते
क्योंकि वे कहते कि
हम अपने हैं।
उनकी बातों में हमें
आत्मीयता नहीं लगती
मुझे लगता कि वे झूठ
बोल रहे हैं।
लेकिन उनकी कमी
महसूस हो रही है
तब जब वे नहीं हैं।
ऐसा क्यों होता है
अक्सर कि
न रहने पर उनकी सभी
बातें याद आती हैं
उनके साथ रहने को जी
करता है।
उनके साथ खाने की
इच्छा होती है
बातें करने की इच्छा
होती है
लेकिन जब साथ रहते
हैं तो
शहद की मक्खियों की
भांति
उन्हें घर से बाहर
इसलिए निकाल देते हैं
क्योंकि वे बुजूर्ग
हैं
काम करने लायक नहीं
हैं
उनकी दिनचर्या अलग
है
आधुनिक तिकडम नहीं
है उनके पास
सिर्फ सच्ची
श्रद़धा है अपने बच्चों के प्रति
जबकि उन्हीं की मार
और वचन के बदौलत
आज हम अपने पैरों पर
खडे होते हैं।
आखिर हम कब तक भूलते
रहेंगे अपनों को
कब तक उन्हें
बुजूर्ग होने पर बोझ समझेंगे
कब हम उसे परिवार का
हिस्सा समझेंगे
कब उनसे प्यार
करेंगे, जो उन्होंने हमसे किया था।