शनिवार, 30 जनवरी 2010

मैं और मेरा जीवन 1

जब तीसरे वर्ग में था
पहले की अपेक्षा काफी कुछ समझने लगा था। मेरा रोल नंबर 21 था। घर का माहौल ऐसा था कि रोज स्कूल जाने की आदत पड़ गई। किताब और बोरा लेकर नियमित आने लगा। उस समय स्कूल में नीचे में ही बैठना पड़ता था। इस कारण सभी लोग बैठने के लिए बोरा या पन्नी लाते थे। जो अमीर थे, वे पन्नी लाते थे और शेष बोरा लाते थे। उस समय अनुभव यह हुआ कि क्लास में बिना पढ़े प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण नहीं हुआ जा सकता है। यह बात मैं अच्छी तरह समझ लिया था। लेकिन न जाने चाहकर भी पढ़ाई में मन नहीं लगता था। स्कूल से रोज यही सोचकर निकलता कि कल से खूब पढ़ूंगा, लेकिन घर जाते ही स्कूल की बातें भूल जाता था। आर्थिक स्थिति खराब होने की वजह से कपड़े भी ढंग के नहीं थे। पहनने के लिए एक पेंट और एक शर्ट था। उस समय गंजी भी नहीं था। स्कूल और घर में उसी को पहनता रहता था। इस कारण वह काफी गंदा हो जाता था। नंगा ही नहाता था उस समय। शर्म शब्द पता नहीं था और न ही इसकी अनुभूति ही हो रही थी। शारीरिक रूप से अक्षम आग में घी का काम कर रहा था। नाक से नेटा और मुंह से लार टपकना रोज की आदत बन गई थी। इन सब विशेषताओं के कारण मेरे पास कोई भी स्टूडेंट्स नहीं बैठता था। मैं भी स्वयं को उससे अलग समझ अकेला ही बैठता था। साथ में मेरे गांव के दो स्टूडेंट्स संतोष और पप्पू थे। वे लोग कभी मेरे पास तो कभी उन लोगों के पास बैठते थे। यही दोनों वास्तव में मेरे स्कूल और घर के दोस्त थे। घर में पप्पू का छोटा भाई पिंटू भी मिल जाता था। पढऩे में कोई भी तेज नहीं था। पारिवारिक माहौल की वजह से मैं ही इनमें से बीस था। लेकिन इस तरह का अनुभव उस समय नहीं हुआ था। पप्पू उम्र में काफी बड़ा था। इस कारण वह हम दोनों को बेवकूफ बनाता रहता था और हमलोग अनजाने में बनते रहते थे। उस समय किताब की कुंजी रखना घर में जरूरी नहीं समझा जाता था। इस कारण मेरे पास किताब ही थे। उस किताब की हालत आज के फुटपाथ बच्चे की कपड़े से की जा सकती है। कहने का आशय यह है कि दो महीने में में ही किताब के एक-एक पन्ने गायब हो रहे थे और शुरू और अंत के दो तीन अध्याय नहीं रहते थे। कुछ तो अपनी लापरवाही और कुछ शुरू से पुरानी किताब मिलने की वजह से यह स्थिति हो जाती थी। उस समय हमसे जो सीनियर स्टूडेंट्स थे, वे अपनी किताब आधी दाम में बेचते थे और हमलोग खरीदते थे। यदि संयोग से नई किताब मिल जाती थी, तो उसका पन्ना अधिक रहता था। लेकिन जब पापा पढ़ाते थे और बीच से पेज गायब रहता था, तो मार भी खानी पड़ती थी। पुरानी किताब पर तो बहाना चल जाता था, लेकिन नई किताब में बचने का कोई विकल्प नहीं रहता था।
दाय की विदाई
उस समय मां को बहुत अधिक नहीं जानता था और उनसे प्रेम भी कम ही करता था। कारण यह था कि मैं हमेशा अपनी बड़ी बहन यानी कि दाय के पास ही सोता, उठता और बैठता था। मैं उस पर पूरा अधिकार रखता था। यदि वह बिना कहे कहीं चली जाती थी, तो उनके बगैर खूब रोता था। यही कारण था कि हम दोनों हमेशा साथ-साथ रहते थे। कब से उनके साथ मैं रह रहा था, यह तो मैं नहीं जानता। लेकिन मां बोल रही थी कि बेहतर केयर की वजह से बचपन से ही मैं उनके साथ रह रहा था। मां के अनुसार दाय को काम में मन नहीं लगने की वजह से हमें सौंप दिया गया था। लेकिन अनजाने में ही हम दोनों का प्रेम इतना बढ़ गया कि एक दूसरे के बिना एक पल भी रहना मुश्किल हो रहा था। उस समय दाय को छोड़कर मैं किसी के साथ नहीं रहना चाहता था। वह हमेशा ही मेरा केयर करती रहती थी। मैं उन्हें काफी परेशान करता था, लेकिन वह हमें कभी-कभी मारती थी। उनके साथ गांव घूमता रहता था। उस समय तक मैं पति और पत्नी का मतलब नहीं जानता था। यही कारण था कि जब दाय के पति यानी आचार्य जी आते थे, तो मैं उनके साथ ही सोने की जिद करता और घरवाले उनसे अलग सोने के लिए दबाव डालते थे। इस मामले में हमेशा मेरी ही जीत होती थी। उस समय मैं काफी जिद्दी था। यह मुझे आभास हो गया था। इस कारण बाद में इसका काफी फायदा उठाया। घरवाले लाचार होकर मेरी बात मानते गए और मैं जिद्दी बनता गया। इससे मेरा दुस्साहस बढ़ता गया और घर में जो चाहता था, वही करता था। यदि कभी मेरा पहला औजार काम नहीं करता था, तो दूसरा औजार यानी कि भूख हड़ताल पर उतर जाता था। सभी को दया आ जाती थी और मेरी बात मान ली जाती थी। स्वयं को विजयी देखकर इस मामले में और भी दृढ़ होता गया। मेरी हिम्मत बढ़ती गई और घरवाले की परेशानी भी।
जब मैं बेहोश हो गया
मुझे ठीक तरह से याद नहीं है कि मैं क्यों घरवाले से खफा था। लेकिन यह याद जरूर है कि मैं दो दिनों तक घरवाले के लाख समझाने के बावजूद खाना नहीं खाया था। उस समय पास में पैसे भी नहीं रहते थे। मॉर्निंग स्कूल था। इस कारण सुबह उठकर स्कूल चला गया। सोचा कि ग्यारह बजे तक तो भूखा रह ही जाऊंगा। आठ बजे के लगभग एकाएक जोरों से नींद आने लगी। धीरे-धीरे आंख को बंद करने लगा और भूख से बेहोश हो गया। कब हम घर आए, पता नहीं चला। जब मेरी आंखें खुली, तो मां के गोद में था और मां कुछ खिला रही थी। उस समय यह जाना कि बिना खाना खाए बेहोश भी हुआ जा सकता है। उस दिन से रूठा तो बहुत, लेकिन न खाने की वजह से बेहोश नहीं हुआ।
दाय रात को अंधेरे में रो रही है। इस तरह की घटना दो चार दिनों से रोज देखता था। घर में काफी चहल-पहल थी। मां दाय को विदाई करने के लिए व्यवस्था कर रही थी। परसों दाय का द्विरागमन यानी कि गौना था। इस कारण वह रो रही थी। मुझे कोई भी कुछ भी बताने के लिए तैयार नहीं था। अंत में मुझे पता चला कि दाय परसों के बाद यहां नहीं रहेगी। यह सुनते ही मैं परेशान हो गया और रोने लगा। अंत में घरवाले दाय के साथ मुझे उनके ससुराल भेज दिए। वहां मैं एक महीने रहा और खूब मजे किया। आते वक्त दाय रो रही थी और मैं काफी खुश था। खुशी का कारण यह था कि मुझे नया कपड़ा मिलनेवाला था। कपड़े की खुशी में मैं दाय को भूल गया। वैसे भी एक महीने रहने के बाद मुझे उनसे दूरी बढ़ती गई और मैं पहले की अपेक्षा अधिक परिपक्व हो गया था। अपने घर आया और जहां तक मुझे याद है कि मैं उनके लिए कभी नहीं रोया। यह कैसे हुआ। अभी तक इसका उत्तर नहीं मिल पाया है। अभी भी यह मेरे लिए पहेली बनी हुई है।
जब मैं बन गया शाकाहारी
यह घटना भी इन्हीं वर्षों के दौरान घटी। घर में नुनू काका के अलावा बिनोद भैया ही वैष्णव थे। उस समय वैष्णव का कुछ अर्थ भी नहीं जानता था। पहले मैं रोज मछली खाता था। ऐसा मां कहती है। दिमाग पर जोर देने के बाद मुझे भी याद पड़ रहा है कि यदि गांव में कहीं भी मछली या मांस देख लेता, तो उसे खाने के बाद ही दम लेता था। कभी-कभी मां करछूल में मछली तलकर खिलाती थी। उस समय मछली के अलावा किसी और व्यंजन में स्वाद का दीवाना नहीं था। रात के आठ बजे आंगन में सोए हुए थे और नुनू काका रामायण पढ़ रहे थे। रामायण सुनाते हुए बोले कि जो मांस-मछली खाएगा, उसे चौसठ जन्मों तक गिद्ध ही रहना पड़ेगा। उस समय जीवन के प्रति सकारात्मक सोच था। मरने के नाम से ही परेशान हो जाता था। याद है मुझे कि सोते वक्त मैं और मेरी छोटी बहन यह कल्पना कर रहे थे कि यदि भगवान आते हैं और एक वरदान मांगने के लिए कहते हैं, तो क्या मांगोगी? उसका उत्तर तो याद नहीं है, लेकिन मुझे यह अच्छी तरह से पता है कि मैंने भगवान से यह मांगा था कि मैं जिंदगी भर अमर रहूं। भले ही अब इस बात पर हंसी आती है, लेकिन हकीकत यही थी। गिद्ध वाली बात मेरे मन में बैठ गई और निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी। उसी समय निश्चय किया कि आज से मांस नहीं खाऊंगा। बचपन से ही वचन के प्रति ईमानदार था और जो वचन के पक्के थे, उन्हें काफी आदर भी करता था। यह अभी तक जारी है। यही कारण है कि इसमें ढिलाई बरतनेवाले लोगों से मैं काफी दूर रहता हूं। चाहे वह सगा-संबंधी ही क्यों न हो। एक बार वैष्णव बनने के बाद कभी भी मांस-मछली नहीं खाया। घरवाले काफी दबाव दिए, लेकिन निर्णय पर अडिग रहा। जब मछली देखकर खाने की हुईएक दिन घर में मछली बना था। देखने के साथ ही लार टपकने लगा। निश्चय किया कि रात को चुराकर अवश्य खाऊंगा। आधी रात को उठकर जैसे ही खाने की कोशिश करने लगा कि रात के अंधेरे में दिल से आवाज आई कि तुम अपने मां-बाप से छिपकर खा सकते हो, लेकिन भगवान देख रहा है। मैंने मछली जहां से उठाया, वहीं रख दिया। उस दिन से कभी भी प्रयास नहीं किया। धीरे-धीरे स्वाद भी भूल गया हूं। अब जब बड़ा हुआ हूं, तो उसे देखकर दया आती है। इस कारण खाने की इच्छा नहीं हो रही है। लाचारी बनी ताकत
दरवाजे पर सोया हुआ था। दोपहर का समय था। एकाएक मां मुझे डांट रही थी और मैं जागकर कुछ समझने की कोशिश कर रहा था। बात समझने में देर नहीं लगी। हुआ यूं कि जब मैं सोया था, तो छोटा काका मेरी बैसाखी लेकर उसे काट दिए। यह मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि उन्होंने जानकर नहीं काटा। खैर मेरी एक बैसाखी के दो टुकड़े हो गए। किसी तरह उससे चल रहा था। अंत में वह भी टूट गई। घर में इतने पैसे नहीं थे कि तुरंत बैसाखी खरीदा जाए। इस कारण एक बैसाखी से ही चलने की कोशिश करने लगा। स्कूल जाते समय एक छोर से छोटी बहन का हाथ पकड़ लेता था और दूसरी तरफ बैसाखी रहती थी। यह सिलसिला लगभग एक वर्ष तक चला। बाद में ऐसा हुआ कि दो बैसाखी रहने के बावजूद मैं एक ही बैसाखी पर चलने लगा और आज तक जारी है। परोक्ष रूप से चाचा ने मेरा उपकार ही किया। यदि वे इस तरह की नादानी नहीं करते,तो आज मैं यह सब लिखने के काबिल नहीं होता। एक बैसाखी से मुझे यह फायदा हुआ कि मैं औरों की तरह किताब और कॉपी लेकर चल सकता था। पहले पीठ पर किताब लेने पड़ते थे। क्योंकि दोनों हाथ में बैसाखी था। जिस तरह दशरथ राम को वनवास भेजकर राम को भगवान बना दिए, उसी तरह मेरे चाचा ने बैसाखी काटकर अनजाने में ही मेरा बहुत बड़ा उपकार कर गए। उसी समय मुझे यह भी विश्वास हुआ कि अभ्यास से कुछ भी हासिल किया जा सकता है। यदि दो बैसाीखी से चलता, तो... इस कल्पना से ही रूह कांप उठती है।
बदला नजारा, बदली हवा
उस समय मैं हीन भावना से ग्रस्त हो गया था और यह समझ बैठा था कि जिंदगी की गाड़ी इसी तरह से चलती रहेगी। चुनापुर के संतोष झा क्लास में फस्र्ट करता था। उस समय उससे आंख मिलाने की ताकत मुझमें नहीं थी। वह आया और मुझे समझाया कि तुम मेरी तरह बन सकते हो, मैंने हंसते हुए कहा कि यह संभव नहीं है। यदि तुम साफ-सुथरे कपड़े और पढ़ाई में बेहतर करते हो, तो तुम्हारे पास भी लोग बैठने लगेंगे। एक ही कपड़ा होने की वजह से साफ-सुथरा कपड़ा तो नहीं, लेकिन उस दिन से पढऩे में एक गजब का जुनून सवार हो गया। मैं खूब मेहनत करने लगा। जब परीक्षा के दिन आए, तो काफी परेशान थे। मुझे खुद पर विश्वास नहीं था। इस कारण परीक्षा हॉल में गांव के संतोष, पप्पू और मैं एक साथ बैठा। पप्पू उम्र में हमलोगों से बड़ा था। इस कारण वह हमें एक कुंजिका दिया और बोला कि इसे छिपाकर रख दो। मैंने वैसा ही किया। प्रश्नपत्र देने से पहले टीचर ने सभी स्टूडेंट्स को धमकाया कि यदि किसी के पास कुछ भी है, तो दे दो, वरना पकड़े जाने पर परीक्षा हॉल से बाहर निकाल दिए जाओगे। कभी भी परीक्षा में नकल नहीं किया था। इस कारण काफी डर गया और उसकी किताब निकालकर टीचर को दे दिया। संतोष भी कुछ रखा था, लेकिन वह नहीं दिया। गुस्से से वे दोनों हमारे पास से अलग बैठ गए और हमें अपनी हाल पर छोड़ दिया। मैं अंदर ही अंदर काफी डर गया। अंत में किसी तरह की सहायता मिलते न देखकर स्वयं को विश्वास में लिया और परीक्षा में लिखने लगा। एक भी नकल नहीं किया और मेरे रोल नंबर छलांग लगाते हुए तीन पर आ गया। यह आपको फिल्म की तरह लग रहा हो, लेकिन हकीकत यही था। इससे मेरा आत्मविश्वास काफी बढ़ गया और मैं भी आगे में सभी दोस्तों के साथ बैठने लगा। मेरे न चाहते हुए भी आगे की सीट पर मेरे सिवा किसी की हिम्मत नहीं होती थी बैठने की।

गुरुवार, 28 जनवरी 2010

मैं और मेरा जीवन

जब मारा पहली बॉल पर छक्का
मुझे पढ़ाई में कभी भी मन नहीं लगता था। हमेशा खेलने और प्रमोद भैया से लडऩे में ही समय जाया हो जाता था। जिंदगी मजे में चल रही थी कि एक दिन परीक्षा सिर आ गई। क्लास कभी नहीं गया था। एकाएक परीक्षा देने पहुंच गया। चलने में लाचार था। इस कारण लाल भैया अपने कंधे पर मुझे स्कूल ले गए और परीक्षा हॉल में बैठा दिए। उस समय जहां तक मुझे याद है कि प्रश्न में क्या लिखा था, मुझे कुछ भी पता नहीं है। लेकिन टीचर सभी को एक दोहा लिखने के लिए कह रहे थे। मुझे अपने क्लास के सभी दोहे याद थे, लेकिन लिखने का अभ्यास नहीं था। इस कारण मैं रोने लगा। टीचर हमें कुछ भी लिखने के लिए कह रहे थे। अपना नाम और वर्ग किसी तरह लिख ही रहा था कि रोशनाई कॉपी पर गिर गई। मेरे भैया बाहर से देख रहे थे। उसे टीचर भगा रहे थे और वे किसी तरह वहां खड़े थे। बाद में उन्होंने काफी मेहनत के बाद अंदर मुझे लेने के लिए दाखिल हुए और पंद्रह मिनट में कॉपी भर दिए। उस समय तक मुझे कुछ भी पता नहीं था। जब एक महीने के बाद भैया स्कूल से आए, तो सभी लोग मुझे शाबासी दे रहे थे। क्योंकि मैं अपने वर्ग में प्रथम आया था। याद है मुझे उस समय की घटना, जब हम और भी पढ़ाई नहीं करने लगे। मुझे यह विश्वास हो गया था कि फिर मैं ही प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होऊंगा। उस समय न चल पाने के बावजूद मेरे पैर आसमान में थे। सच कहिए, तो उसी समय से मुझे सहारे की अहमियत मालूम हुई और मुझे लगने लगा कि अपने परिवार की बदौलत आसमान में उड़ा जा सकता है। लेकिन यह अधिक दिनों तक नहीं रही।
सेकेंड बॉल पर बोल्ड
जब सेकेंड क्लास में गया, तो पता चला कि मुझे कुछ भी नहीं आता है, जो कि सही आकलन था। आत्मविश्वास इतना गिर गया कि मैंने पढऩा ही छोड़ दिया। घर में दबाव की वजह से जो कुछ पढ़ता था, बस वही था। इस बार की परीक्षा में भैया नहीं थे। इस कारण हमें ही लिखना पड़ा। जो कुछ भी जानता था, उसे लिख दिया। रिजल्ट के पीछे यह धारणा अभी भी बनी हुई थी कि फस्र्ट नहीं, तो सेकेंड अवश्य आऊंगा। उस समय रिजल्ट निकलने से पहले स्कूल में बांस और झाड़ू देना पड़ता था। इससे अधिक माक्र्स मिलते थे। पहली बार इस उत्साह से अपने बांस बाड़ी गया स्वयं बांस काटने। मुझसे नहीं कटी बांस। मुझे यह सीख मिली कि जो देखने में बड़ा होता है, उसे काटना उतना ही मुश्किल होता है। खैर बांस और झाड़ू स्कूल मेेें पहुंचाया। रिजल्ट के दिन सभी स्टूडेंट्स को बुलाया गया। सभी क्लास से उन तीन नामों को बताया गया, जो प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी से उत्तीर्ण थे। मेरा नाम किसी में नहीं था। काफी दुख हुआ मुझे उस समय। प्रमोद भैया का नाम सुनकर मुझे और भी दुख हुआ। क्योंकि हमें यही डर था कि घर जाने पर वे सभी को बताएंगे और अपनी शेखी बघारेंगे। दुखी होकर मैं टीचर के पास गया और पूछा कि मास्टर साहब हम पास नहीं कर पाए हैं। उस समय रिजल्ट का अहमियत मालूम हुआ और उसका दबाव भी पता चला। टीचर भावुक होकर सभी के सामने बोले कि विजय झा भी पास कर गया है। उस समय का बालमन इतना भी समझ नहीं पाया कि वे हमें उत्साह बढ़ाने के लिए झूठ बोल रहे हैं। एकाएक मेरा दिमाग बदल गया और अपने दो साथियों का नाम न सुनकर उन्हें पढऩे के लिए नसीहत देने लगा। प्रमोद भैया हमें डांटते हुए बोले कि तुम भी तो पास नहीं हुए हो। मैं तपाक से बोला कि आपकी तरह मेरा भी नाम पुकारा गया है। हम दोनों में इस तरह की बहस एक दिन में तीन चार बार अवश्य हो जाया करती थी। छोटे होने का हम हमेशा फायदा उठाते और वे गलती न रहने के बावजूद हमेशा पीटते रहते। जब अनजाने में नाटक सीखाएक रात हम दोनों भाई पढ़ रहे थे। हम दोनों को पढऩे में मन नहीं लग रहा था। पढ़ाई छोड़कर उनके सामने रोने का एक्टिंग कर रहा था। रोने की एक्टिंग में ऐसा खो गया कि रोने की आवाज घर से बाहर पहुंच गई और लाल भैया दौड़ते हुए हमलोगों को देखने के लिए आ ही रहे थे कि मैं उन्हें देखकर सही में रोने लगा। संयोग से आंसू भी टपकने लगे। भैया ने जब रोने का करण पूछा, तो मैं प्रमोद भाई का नाम लगा दिया और बोला कि वे हमें मार रहे थे। वे हतप्रभ थे। उस समय वे कुछ भी उत्तर नहीं दे पा रहे थे। लाल भैया उन्हें मार रहे थे और बेचारा बिना मारे ही मार खा रहा था। उस समय पहली बार उन पर तरस आया और अपने आप में यह विश्वास जागा कि परिस्थितियां आने पर इस तरह के नाटक से बचा जा सकता है। बाद में इसका काफी उपयोग किया।
केले की रोटी
घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। पापा टीचर थे। हम पांच भाई और बहन थे। पापा के सिवा कोई कमानेवाला नहीं था। तीन बहनों की शादी हो चुकी थी। परिवार काफी बड़ा था। सिर्फ दो बड़ी बहने और बड़े भैया घर में नहीं थे। घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं था। मां किसी तरह सभी भाई-बहनों को बहला रही थी। दो दिनों से खाना में उबला हुआ आलू ही खा रहे थे। भाई-बहनों में मैं सबसे ज्यादा शरारती था। जहां तक मुझे याद है कि उस समय मुझे यही पता चला कि घर में खाने के लिए आलू के सिवा कुछ भी नहीं है, बस मैं रोना शुरू कर दिया कि मुझे रोटी चाहिए। मां परेशान हो गई, लेकिन कुछ कर भी नहीं सकती थी। पापा महीने में एक बार घर आते थे और दूसरे दिन विदा हो जाते थे। उस समय इतने कर्ज थे कि मुश्किल से खाने के लिए पैसा बचता था। खाना मिलते न देख मैं रोने लगा। अंत में मां ने रोटी बनाई और हमें खिलाई। तब जाकर शांत हुआ। उस समय किसकी रोटी बनाई गई थी, मुझे पता नहीं था। जब बड़ा हुआ, तो मां बताई कि घर में कुछ न देखकर कच्चा केला को उबालकर उसी की रोटी बनाई और तुम्हें शांत किया। उस दिन जब भी उबला हुआ आलू और केला देखता हूं, तो पुरानी यादें ताजा हो जाती है।
आज के परिप्रेक्ष्य में
जब पुरानी घटना को आज के परिप्रेक्ष्य में देखता हूं, तो लगता है कि पिताजी कितने महान थे कि अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़कर नौकरी करते थे और अपनी जिंदगी अपने बच्चे में बिता दिए। आज के मां-बाप इस तरह कर सकते हैं? यदि मां-बाप अपने बच्चे के लिए इस तरह के कार्य कर भी लें, तो औरत अपने बच्चे के लिए इतना त्याग कर सकती है। हम खुशनसीब हैं कि हमें इस तरह के पैरेंट्स नसीब हुए हैं। फिर स्वयं को देखता हूं, तो और भी परेशान हो जाता हूं। अपने बचपन के व्यवहार को देखकर मैं यह कह सकता हूं कि इस तरह के शरारती बच्चे को कम से कम मैं नहीं झेल सकता। मुझे यह भी सीख मिली कि सहारे की डोर पकड़कर आप जीवन की सफर तय नहीं कर सकते हैं। इस तरह के सहारे जीवन में कभी-कभी मिलते हैं। जो इन सहारा का सदुपयोग करते हैं, उन्हें कभी भी कठिनाइयां नहीं आती है। इस अनुभव का मैंने बाद में उपयोग किया और आज अनुभव का फायदा उठाकर इस मामले में खुश हूं। फिर सोचता हूं कि क्या आज के बच्चे को इस तरह ठगा जा सकता है?

सोमवार, 25 जनवरी 2010

बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया

लोग हमें कामयाब समझकर खुश हो रहे थे और मेरी तरह बनने के लिए कह रहे थे, तो मैं कामयाबी का अर्थ समझ रहा था और बर्बादियों का जश्न मनाने में मशगूल था।
उस समय अक्सर मैं भ्रम में रहता था कि आदमी खुशी और कामयाबी में से किसे वरीयता दे? जब बच्चा था, तो पापा यही बताए थे कि यदि तुम अपने उद्देश्यों में कामयाब हो जाओ, तो खुशियां अपने आप आ जाएगीं। पापा ही नहीं, टीचर और अन्य सभी लोग भी यही कहते थे। इस कारण उस समय संदेह की गुंजाइश ही नहीं थी। उस समय कामयाबी एक सपना था, तो खुशी हकीकत। मुझे याद है कि उस समय मैं छोटी-छोटी चीज मिलने पर भी काफी खुश हो जाता था। उस समय मुझे यह पता नहीं था कि यही स्वर्णिम समय है खुशी पाने का। कामयाब व्यक्ति को देखकर अनेक तरह की कल्पना करता रहता था उस समय। कामयाब बनने के लिए दिनरात लग गया अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में। मेहनत का नतीजा या किस्मत कहिए कि लगभग पच्चीस की उम्र में देश के प्रतिष्ठित अखबार में नौकरी भी मिल गई। उस दिन काफी खुश था इसे पाकर। मुझे लगा कि अब हमें खुशियां ही खुशियां मिलेगी। याद है मुझे कि जब नौकरी मिली थी, तो गांव के सभी लोग काफी खुश थे। मैं भी उन लोगों के बदले व्यवहार से खुश था। मुझे लगा कि मंजिल मिल गई। अब सिर्फ परमानेेंट खुशियां आनी हंै।
सपना हो न सका अपना
नौकरी के दूसरे दिन से ही सपना देखना शुरू कर दिया। हर रोज वही ऑफिस और बॉस का मनहूस चेहरा। ऑफिस में उनका चेहरा देखना लाचारी था, लेकिन कमबख्त रात के अंधेरे में भी वही ऑफिस और बॉस सपने में दिखाई दे रहा था। एक बार लाइट जलाकर सो गया, तो नींद में सपने देखने लगा। मुझे लगा कि शायद लाइट का फायदा उठाकर वे हमारे कमरे में घुस गए हों। इस कारण उस दिन से लाइट बंद करके सोता हूं। लेकिन सपना आना बंद नहीं हुआ। लोग हमें देखकर काफी खुश थे और परिवार वाले की अपेक्षा मुझ पर बढ़ गई थी। लेकिन उस समय मेरी हालत न भागा जाए है हमसे और न ठहरा जाए है हमसे जैसी थी। यदि मैं नौकरी छोड़ता तो लोगों की नजरों में नाकामयाब कहलाने का डर था। इसकी संभावना मात्र से ही रूह कांप उठती थी। इसके विपरीत नौकरी में रहकर अंदर से और कमजोर हो रहा था। उस समय मुझे यह अहसास दिलाया गया कि मुझे कुछ भी नहीं आता है। इससे काफी परेशान हो गया। एक सीनियर ने हमें बताया कि इस तरह की स्थिति हर नए लोगों के साथ होती है। तुम अपवाद नहीं हो। विश्वास तो नहीं हुआ, लेकिन दिलासा के लिए न मानने के सिवा कोई और विकल्प नहीं था। उस समय खुशी शब्द ही भूल गया। स्वयं को एक लाश के समान समझता था। दुनिया हमें खुशनसीब और कामयाब समझ रही थी। और हम कामयाबी का मतलब धीरे-धीरे समझ रहे थे। वक्त का एक-एक लम्हा काटना मुश्किल हो रहा था। इस आशा से काम करता जा रहा था कि सब कुछ सीखने के बाद खुशियां ही खुशियां आएंगी। उसी समय सही अर्थों में कामयाब कहलाऊंगा। लेकिन अब पता चला कि आदमी कभी भी पूर्ण नहीं होता है, उसे हर दिन सीखने पड़ते हैं। स्वयं को दिलासा देने के लिए उन सभी लोगों से मिला, जिन्हें मेरे साथ सभी लोग कामयाब कहते हैं। उनसे संबंध बढ़ाया और दिल की बात जानने की कोशिश की। लेकिन कहीं भी कामयाब व्यक्ति को अपनी जिंदगी से खुश नहीं देखा। इसके विपरीत वे हमसे ज्यादा तनाव में थे। जब सत्यम के सीईओ को जेल जाने की खबर पढ़ी, तो पक्का विश्वास हो गया कि कामयाबी और खुशी एक साथ कभी नहीं मिल सकती है।
यदि आप कामयाब हो रहे हैं, तो कुछ पलों के लिए खुशियां अवश्य आएंगी और फिर विलुप्त हो जाएगी। खुशी पाने के लिए फिर से कामयाब होना पड़ेगा। यह जिंदगी में अनवरत जारी रहेगी। अब मैं यह समझ रहा हूं कि कामयाबी का कोई अंत नहीं है। खुशियां भी इन्हीं पीछे-पीछे चलती है। यदि आपको सही में खुश रहना है, तो संतुष्टï होना पड़ेगा। यदि आप संतुष्टï हैं, तो जिंदगी की गाड़ी के पहिए भले ही लोगों की नजर में पंक्चर है, लेकिन यह तय है कि उसी गाड़ी से आप जिंदगी का नैया पार लगा लेंगे। जबसे मुझे इस बात का अहसास हुआ है, तब से काफी खुश हूं। भले ही आप मुझे कायर समझिए, अब कामयाबी के लिए मैं नहीं दौड़ सकता।

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

जब मुझे प्रेमचंद पर गुस्सा आया

बचपन में हमलोग लताम (अमरूद) बहुत ही चुराते थे। इसके चलते कितनी ही बार डांट और मार पड़ चुकी थी। गांव में लताम बाबा के यहां बहुत लताम था। इस कारण उसे लताम बाबा कहते थे। एक दिन गलती से मैं उनके चंगुल में फंस गया और वे काफी पीटे थे। यह बात मैं घर में इस कारण नहीं बताया कि भैया और भी मारते। उस दिन कसम खाई थी कि बड़ा होने पर इसका बदला अवश्य लूंगा। लेकिन यह क्या जब मौका मिला, तो मैं उन्हें देखकर रोने लगा।
हुआ यूं कि रोड पर शाम को पांच दोस्त बातें कर रहे थे। अंधेरा था। उन पांचों में से एक मैं भी था। उस समय लगभग सात बज रहे होंगे। ठंड भी ज्यादा थी। सभी लोग घर में थे। रोड पर हमलोगों के अलावा अंधेरा और कभी-कभी गाडिय़ां चल रही थीं। देहात में शाम सात बजे बस भी नहीं चलती है। हमलोग बात कर ही रहे थे कि किसी के गिरने की आवाज आई। आवाज से हमलोग चौंके और दौड़े। वहां जाने के बाद पता चला कि लताम बाबा दूध लेकर आ रहे थे, और अंधेरे में गिर पड़े। देखते ही मुझे बचपन की यादें तरोताजा हो गई लेकिन उनकी हालत देखकर कलेजा मुंह को आ गया। बदला लेने की भावनाएं भी मर गई। उन्हें कहा कि क्या जरूरत है आपको इस उम्र में भी दूध लाने की। यदि अंधेरे में गए ही थे, तो टॉर्च तो साथ में ले लिए होते। इस पर वह कुछ नहीं बोले और चलते बने। चोट उन्हें जोर से लगी थी। मुझे लगा कि कल वे डॉक्टर से दिखा लेंगे।
दूसरे दिन जब उनके घर गया, तो उनकी पतोहू उन्हें गालियां दे रही थी। सुनने में यहां तक आया कि वह मारती भी है। उस समय चेतावनी दे रही थी कि इस बार गलती होने पर आपका खाना ही बंद कर दिया जाएगा। लताम बाबा हमें देख रहे थे और मैं कल रात की घटना याद कर रहा था। मुझे लगा कि शायद उन्हें कल वाली घटना न बताई गई हो। उन्हें बताने ही जा रहा था कि उनका पोता बोला कि देखिए इस बूढ़े के चक्कर में मां आज ब्राह्मण को नहीं खिला पाई। बाबा रात को दूध ही गिरा दिए। इसलिए मां गुस्सा कर रही है। इस पर अपने बच्चे की हां में हां मिलाते हुए वह बोली कि हे भगवान, मेरा न खिलाने का सभी पाप इन्हें ही लग जाना। मैं यही सोचने लगा कि यह कौन सा धर्म है। फि‍र दरिद्रनारायण की कहानी याद आ गई, जिसमें भगवान को खुश करने के लिए दूर दूर से लोग आ रहे है। चढावे में पैसे के साथ ही बहुमूल्‍य उपहार भी दे रहे हैं। लेकिन फि‍र भी उन्‍हें भगवान का आशीर्वाद नहीं मिल रहा है, क्‍योंकि वे लोग जिसे भीखारी सझकर लात मार रहे थे, असल में भगवान वहीं दरिद्रनारयण का रूप लेकर थे। उस रात नहीं सोया और जब अपनी मां से इस संबंध में बात की, तो वह बोली कि बेचारे की यही हालत हर दिन होती है। सिर्फ एक पापी पेट पालने के लिए उन्हें यह करना पड़ता है। जबकि एक समय उनकी तूती बोलती थी और गांव वाले काफी इज्जत करते थे। कुछ वर्षों के बाद घर गया तो मां बोली कि आज भोज है, क्योंकि लताम बाबा मर गए हैं। मुझे उस समय प्रेमचंद की कफन कहानी याद आ गई। यह कहानी प्रेमचंद कब लिखे थे, हमें पता नहीं है, लेकिन आज हालात वही है, लेकिन पात्र और तरीका बदल गया है। आज के पढ़े-लिखे बुजुर्ग के पास पैसे हैं, तो उन्हें प्यार करने वाला और देखने वाला कोई नहीं है। कफन कहानी में दारू की भट्टी पर खाते हुए बाप-बेटा यह कह रहा था कि वह मरी भी तो खूब खिला-पि‍लाकर। आज गांव वाले भी परोक्ष रूप से यही कह रहे होंगे। क्योंकि खाना बहुत ही स्वादिष्ट बना था। फिर जब पता चला कि उसकी पतौहू पढ़ी-लिखी है, तो प्रेमचंद पर काफी गुस्सा आया कि शायद कफन से ही वह इस तरह के कार्य करने के लिए प्रेरित हुई होगी। मुझसे रहा नहीं गया और उनसे इस बारे में पूछा, तो वह बताई कि
कफन पढऩे के बाद मैं बहुत रोई थी। बेचारी औरत भूखे और प्यासे मर गई। उसके ससुर और पति मौज कर रहे थे। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। कोई भी औरत इस तरह की हालत बर्दास्त नहीं कर सकती है। वहां सुनने वाले उन्हें शाबाशी दे रहे थे, तो हमारी आत्मा यह कह रही थी कि तुम्हारा भी तो तरीका बेहतर नहीं था। प्रेमचंद के कहानी लिखने का तो उद्देश्य यह नहीं था। वह तो समाज को सीख देना चाहते थे, न कि किसी और से बदला लेने के लिए। सच कहिए तो लताम बाबा की दुर्दशा और पतोहू के व्यवहार को देखकर हमें प्रेमचंद पर काफी गुस्सा आ रहा है।

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

तिल खाने से तेल हो जाएगा

कल मकर संक्रान्ति थी। सभी लोग काफी खुश थे। मैं भी उनमें से एक था। अखबार में नौकरी करता हूं। इस कारण ऑफिस में छुट्टïी नहीं थी। घर से निकलने में दुख भी नहीं हो रहा था। क्योंकि मैडम यहां नहीं हैं। रास्ते में आते वक्त सोचने लगा कि एक औरत के रहने से जिंदगी कैसे बदल जाती है। क्योंकि उसी समय याद आ गई वह पुरानी घटना, जिस समय मेरी पत्नी काफी दुखी होकर हमें ऑफिस के लिए विदा कर रही थी। उस दिन दशहरा था। इस कारण हमें छुट्टïी नहीं थी। उस दिन हमें भी आने में काफी दुख हुआ था और आज उसके न होने से ही हालात बदल गए हैं। क्या उसके न होने का इतना बड़ा फर्क पड़ता है? अब हमारी खुशी उसी पर अवलंबित हो गई है? यह सोच ही रहा था कि मोबाइल की घंटी बजी और रौब से बोली कि कल आप किसी के यहां तिल तो नहीं खा लिए थे? मैं प्रश्न से हैरान था। फिर भी बात बढ़ाते हुए पूछा कि खाने से तिलचट्टïा बन जाऊंगा। नहीं, लेकिन नहीं खाना चाहिए। क्योंकि आज के दिन जिस किसी का तिल खाएंगे, उसी के हो जाएंगे। आइडिया मजेदार लगा। लेकिन दुख यह था कि हमें कोई भी तिल खाने के लिए नहीं बुलाया। लेकिन यह प्रश्न अभी भी हास्यास्पद लग रहा है कि ऐसा होता है? यदि ऐसा होता तो बचपन में उसकी मां के तिल तो खूब चुराके खाया था, लेकिन नहीं वह हमारी बन पाई और न ही उसकी मां की टेढ़ी नजर सीधी हुई। काश तिल में ऐसी शक्ति होती तो आजतक उसकी भक्ति में लगा रहता और और...। फिर सोचने लगा कि तिल खिलाकर बॉस को अपने पाले में कर लेता, बहुत सारी संपत्ति अपने नाम कर लेता और और बहुत कुछ कर लेता। फिर दादी की बात याद आई कि वह भी हमलोगों को तिल खिलाती थी और हमें यह वचन देना पड़ता था कि हम आपके बने रहेंगे। लेकिन वे पहले हमें धोखा दीं और इस संसार से चल बसीं। वैसे भी जिंदा रहती तो दुखी ही रहती। क्योंकि हमारे पड़ोसी की मां भी अपने बच्चे को तिल खिलाकर यही वचन कह रही थी और वे भी निभाने का वादा कर रहे थे। अभी हालात ये हैं कि वह भूखी मर रही है और बेटे को देखने के लिए टाइम नहीं है। इस संबंध में मां से जब पूछा तो मां ने बताई कि वह आज ही तिल खिलाने के लिए आई थी और वही वचन दोहरा रही थी। क्या विश्वास इतना सख्त होता है कि हालात भी उन्हें नहीं डिगा सकता? तभी तो देश के अंदर ही इंडियाऔर भारत है। एक तरफ सर्दी में खास तरह की व्यवस्था की जाती है और लोग कड़ाके की सर्दी आने का इंतजार करते हैं, ताकि जिंदगी का लुत्फ उठाया जा सके। दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें खाना तो दूर, पहनने के लिए एक कपड़े तक नहीं हैं। यदि रोड या पुल के किनारे वे अपना बसेरा बनाए भी हैं, तो सरकार की टेढ़ी नजर है और सौंदर्य के नाम पर उन्हें घर से बेघर करके मरने के लिए छोड़ दिया गया है। लेकिन फिर भी वे आपका तिल नहीं खाएंगे। भले ही उन्हें भूख है। आप इस पर हंसिए या आश्चर्य व्यक्त किजिए। हमारे भारत में हकीकत यही है। तभी तो भारत को विविधता का देश कहा जाता है।

सोमवार, 11 जनवरी 2010

सीरत बदल गई है तो हैरत न कीजिए

सीरत बदल गई है, तो हैरत न कीजिए
हम हादसों के शहर में रहते हैं दोस्तो
आज हर दिल्लीवाले के जुबान पर यही शेर है और इसका पालन भी कर रहे हैं। तभी तो अंधे को उस पार ले जानेवाला कोई नहीं मिला। हुआ यूं कि रोज की तरह आज भी शाम को ऑफिस से घर जा रहा था। ऑटो पकडऩे के लिए रोड पार करना पड़ता है। वहां रेड लाइट नहीं है। इस कारण सभी लोग जान जोखिम में डालकर ही उस पार होते हैं। मैं उस पार होने के लिए लगभग दस मिनट से खड़ा था, लेकिन गाड़ी के वेग को देखते हुए उस पार जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। अपनी कमजोरी पर गुस्सा भी आ रहा था और भगवान से गुस्सा भी कर रहा था। मैं वहां खड़ा होकर सोचने लगा कि क्या यही जिंदगी है? एक तरफ बीमारी न आए, इसके लिए पहले से ही दवाई की जाती है और यहां न चाहकर भी सभी अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं। गाड़ी तभी रुकती है, जब लोग उसके आगे खड़े हो जाते हैं। वैसे भी यह दुनिया किसी की नहीं है। हां, तो मैं बात कर था कि दस मिनट से हम उस पार जाने के लिए सोच रहे थे और हर बार हमारी हिम्मत जवाब दे देती थी। उसी समय एक सुरदास जी आए और उन्होंने भी उस पार जाने के लिए लोगों से निवेदन किया। बहुत लोग तो उनकी बात पर ध्यान ही नहीं दिए। मैं भी उनमें से एक था। हो सकता है कि सभी को कुछ न कुछ लाचारी रही हो, लेकिन मेरी लाचारी यह है कि मैं खुद बैसाखी से चल रहा हूं। इस कारण अपनी जान को तो जोखिम में डाल तो सकता हूं, लेकिन दूसरे की जान को जोखिम में नहीं डाल सकता। क्या मेरी तरह वे लोग भी यही सोचते हैं? लेकिन वे तो मेरी तरह लाचार नहीं हैं। अंत में देखा कि कोई भी उसे उस पार तक नहीं पहुंचाया। कुछ देर बाद देखा कि वे खुद हिम्मत बांधकर पार होने लगे। उधर से गाड़ी आ रही थी। इस कारण मैंने उन्हें रोका। वे हम पर बहुत गुस्साए और बोले कि क्यों रोकते हो हमें? मैंने कहा कि गाड़ी आ रही थी। इस कारण रोका। शायद आप .... हो जाते। दुखी मन से वे बोले कि दोस्त यहां के लोगों को देखकर तो जीने की इच्छा भी मर गई है। हमें होने देते उस पार। दोनों मेरे हित में होता। अगर मैं मर जाता तो भी उस पार यानी कि धरती से ऊपर चला जाता और यदि बच जाता तो भी उस पार यानी कि अपना घर पहुंच जाता। अंत में मैंने उसे अपनी रिस्क पर उस पार पहुंचाने का निर्णय लिया। सभी लोग हम दोनों की जोड़ी को देखकर हंस रहे थे और मुस्कुराकर उस पार हो रहे थे। फिर मैं भी सोचने लगा कि अपनी जिंदगी बचाने के लिए ही तो हम रोज दस मिनट इसी में जाया करते हैं। काश यहां भी रेड लाइट होती तो यह दिन नहीं देखने पड़ते। अभी तक यही लोगों से सुना है कि यदि खुद संकट में हो, तो दूसरे की जान को संकट में नहीं डालना चाहिए। मैं उन्हें लेकर उस पार चला गया। क्या मैं गलत किया? मैं यह सोचकर काफी परेशान हूं कि यदि ऊपर के पंक्ति सही हैं, तो इस आधार पर मैं गलत हूं, लेकिन यदि मानवता के हित में देखें, तो शायद आप भी शब्दों की परवाह न करते हुए भावनाओं को तवज्जो देते और वही करते जो मैंने किया है। फिर अंतर्मन से आवाज आई कि यदि हमलोगों में संवेदनाएं होती, तो उस अंधे को तुम्हारी जरूरत क्यों पड़ती। तुम भी इसलिए ऐसा किए कि तुम्हारे पास दस मिनट का समय था। हादसों के इस शहर में दस मिनट में या तो मेट्रो पकड़कर नोएडा से दिल्ली पहुंचा जा सकता है या दुर्घटना में अल्ला के प्यारे हुआ जा सकता है। अब तुम्ही बताओ कि आजकल तुम्हारी तरह किसके पास दस मिनट का समय है। समयाभाव के कारण ही तो अपने से सभी अलग रहना चाहता है। अपने लोगों के लिए घर में भी समय नहीं है। यह तो दिल्ली की रोड है, जहां रोज आंख वाले मरते हैं, आज अंधा ही मर जाता तो कौन सा भूकंप आ जाता। आप ही बताइये न मैंने गलत किया?

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

लड़कियां मन की बात नहीं समझती?

बचपन से यही सीख मिली थी कि करेक्टर इज लोस्ट, एवरीथिंग इज लोस्ट। लेकिन पंद्रह की उम्र के बाद से खुद को किसी तरह संभाल रहा हूं। जब किसी सुंदर कन्या को देखता हूं, तो न जाने मन में क्या-क्या सोचने लगता हूं। मुझे खुद पर घृणा होने लगती है। और कभी डरता भी हूं कि यदि ये लड़कियां मेन की बात पहचान जाए, तो मेरी रही सही इज्जत खत्म हो जाएगी। शादी होने के बाद भी इस तरह की आदत में सुधार नहीं हुई है। हां, यह अलग बात है कि अभी तक मार नहीं खाया हूं और बेइज्जत भी नहीं हुआ हूं। कल मैंने अखबार में पढ़ा कि लड़कियां मन की बात भी आसानी से समझ लेती है। उस दिन से काफी परेशान हूं। खाना भी ढंग से नहीं खा पा रहा हूं। बीबी से जब अपनी परेशानी कही, तो वह हंसने लगी और बोली कि अखबार की खबर झूठी है। मैंने पूछा कि यह तुम दावे के साथ कैसे कह सकती हो। वह बोली कि हमें अभी तक यही पता था कि मेरे पति अखबार में काम करते हैं, तो अखबार की भाषा भी समझते होंगे। लेकिन अब मैं यह दावे के साथ कह सकती हूं कि आप अच्छे जर्नलिस्ट नहीं हो। रही बात मन की बात जानने की तो। इसके लिए मैं यही कहूंगी कि जब शादी के दो वर्षों के बाद भी मैं आपके मन की बात नहीं समझ पाई, तो दो-चार घंटे बात करनेवाली आपके मन की बात कैसे समझ सकती है। मुझे उसके बात में दम लगी और उसके बाद से पत्नी से सामने शेखी बघारने के लिए कुछ नहीं रहा। इज्जत तो पहले ही उतर चुकी थी, रही सही कसर भी पूरी हो गई। तभी तो उसे होम मिनिस्ट्री का दर्जा प्राप्त है। भले ही हमारे चिदंबरम साहब को यह मंत्रालय भारी-भरकम लगे, लेकिन हमारी मिनिस्ट्री को तो हम पर लगाम कसने के लिए समय ही समय है।

हंगामा क्यों बरपा

मेरा एक घनिष्ठतम दोस्त है। जाहिर है हमारे विचार भी उनसे काफी मिलते हंै। अंतर यह है कि वह सिगरेट नियमित लेकिन शराब कभी-कभी पीता है। कभी-कभी इसलिए कि उन्हें पत्नी से डर लगता है या उनके शब्दों में वह पत्नी की इज्जत करता है। इससे पहले मैं यही सोचता था कि शराबी किसी के नहीं होते हैं। नशे में वे खुद का भी खयाल नहीं करते हैं। लेकिन अब मुझे अपना विचार बदलना पड़ रहा है। मुझे लगता है कि शराबी के प्रति मैं काफी सख्त हो गया था। वे इस तरह के नहीं हैं, जैस मैं सोच रहा था। उनके पास भी दिल होता है। वे भी दूसरे की भावनाओं को समझ सकते हैं। फिर क्यों हम हंगामा करते हैं। क्या एक घूंट पीने से उसका ईमान घट गया? हमलोग भी तो कुछ न कुछ पीते ही हैं। कोई जाम पीता है, तो कोई नजरों से पीता है। कोई जाम और नजर दोनों पीता है। भाई मेरी तो भविष्य में यही तमन्ना है कि मैं पानी, जाम और नजर तीनों को पीऊं। और यह गजल गाऊं कि हंगामा क्यों बरपा थोड़ी सी जो पी ली है। लोग हमको कहे काफिर, अल्लाह की मर्जी है।

आप ही बताइये न

जब मैं बच्चा था, तो इस बात से हमेशा परेशान रहता था कि पिताजी तीन सहोदर भाई होने के बावजूद कैसे अलग हैं। जब वे अलग खाते हैं, तो दूसरे भाई की याद नहीं आती है? क्या हमलोग भी अलग होंगे और अलग-अलग खाना पकाएंगे? मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। उस समय मैं यही सोच रहा था। हम पांच भाई हमेशा साथ रहेंगे। हमारी इजाजत के बिना हमें कोई नहीं अलग कर सकता। अब हालात ये हैं कि एक शहर में चार भाई रहते हुए भी अलग-अलग हैं। जाहिर है खाना भी अलग ही बनाते हैं। अब उनके दुख से हमें कम दुख होता है और धीरे-धीरे हमलोगों में खासी दूरी बन गई है। लेकिन पढ़े-लिखे हैं, तो जब भी मिलते हैं खाने-पीने का खूब आनंद लेते हैं। सभी नौकरी करते हैं। इस कारण हमलोग गांव में अलग भी नहीं हुए हैं। घर जाने पर साथ खाना खाते हैं और भरपूर आनंद भी उठाते हैं। लेकिन अब डर यह नहीं सताता है कि कैसे अलग रहेंगे? वक्त का तकाजा है या हम खुद बदल गए हैं। यह मैं नहीं बता सकता। यदि संभव हो, तो आप ही बताइये न। प्लीज कृपा होगी।

रविवार, 3 जनवरी 2010

जब मैं बच्चा था

जब मैं बच्चा था, दिल का सच्चा था
नंगा ही रहता था, खेला करता था
लुका छिपी का खेल, घर, बगीचों में।
वहां समय महत्वपूर्ण नहीं था
नहीं समझता था लड़का-लड़की में अंतर
पहचानता था, तो सिर्फ अपने दोस्तों को
जो हमारे साथ हमेशा ही खेला करते थे।
वहां न कोई करियर और चिंता ही थी
ऑफिस भी नहीं था और बॉस भी नहीं थे
दु:ख के समय मम्मी-पापा ही सब कुछ थे।
इसके अलावा मैं और मेरा बचपना था।
कभी फुटबॉल तो कभी कबड्डी भी खेलते थे
कभी गुड्डा-गुड्डी भी खेलते थे।
मां के बुलाने पर बहुत कष्ट होता था हमें
क्योंकि खेल छोड़कर पढऩा पढ़ता था हमें
कुछ कर भी नहीं सकता था उस वक्त
सिवा रोने और सर पीटने के।
फिर यह सोचकर खुश भी हो जाता कि
जब मैं बनूंगा भैया की तरह
मस्ती में रहूंगा मैया की तरह
उस समय कोई नहीं रोकेगा मुझे
क्योंकि मैं भी रौब जमाऊंगा बड़ा होकर।
मेरा सोचना गलत था उस समय
यह आभास मुझे बड़ा होने पर चला।
अब नहीं खेल सकता बच्चों की तरह यह खेल
अब जिंदगी ही खेल रही है लुका-छिपी का यह खेल
आशाओं और निराशाओं के साथ।
अब न चाहकर भी चलना पड़ता है
लोगों की बातें सुननी पड़ती है
सुबह स्कूल छोडऩा पड़ता है
ऑफिस भी आना पड़ता है
जबकि डांटने के लिए मां नहीं हैं।
समझने लगा हूं अब अपना दायित्व
इस कारण नहीं छोड़ सकता इन्हें।
क्योंकि मजबूरी है, तमन्ना अधूरी है
जिन्हें पूरी करनी है बच्चे को पढ़ाकर।
बचपन की यादें अब याद ही आती है।
जब कभी एकांत में जाकर सोचता हूं ,
तो यही गुनगुनाता हूं कि कोई लौटा दे हमें बीते हुए दिन।

ताली दोनों हाथ से बजती है

देखिए न, शाकाहारी होते हुए भी मैं आजकल मुर्गा भक्त बन गया हूं। वैसे भी मुर्गा सभी के प्रिय हैं। दक्षिण भारत में तो उन्हें पूजा भी जाता है। उनके प्रशंसकों की कमी नहीं है। जब से मैं उनका दोस्त बना हूं, तब से हमेशा मूर्गा के फ्यूचर को लेकर चिंतित रहता हूं। ऑफिस जाते समय कुछ देर पैदल चलता हूं। रास्ते में बहुत सारे मूर्गे यानी ताजा चिकन बिकते हैं। आप भले ही देखकर लार टपकाते हों, लेकिन मैं आंसू बहाता हूं। मैं हमेशा यही सोचता हूं कि मुर्गा को मुर्गे के सामने क्यों काटा जाता है? क्या उसे छिपाकर नहीं काटा जा सकता? यदि इंसानियत की नजर से सोचें, तो यह अमानवीय है। तो क्या हम अब मानव नहीं रहे? शायद इस तरह के व्यवहार को देखकर मुर्गा तो यही कह रहा होगा। एक बात कहूं, यदि मेरी बातों पर विश्वास न हो, तो कभी मुर्गा को दड़बा से निकालते समय का सीन देखिए। वहां आप देखेंगे कि कोई भी मुर्गा अभी मरना नहीं चाहता। जबकि उसे भी यह पता है कि जब दड़बा में आ गए हंै, तो कुछ घंटे में अवश्य मरेंगे। फिर भी जीना चाहता है हमलोगों की तरह। यही सृष्टिï का नियम है। हमें भी यमराज इसी तरह ढूंढ के मारता होगा। फिर भी हम जिंदा रहने के लिए बहुत सारे अपराध करने के साथ ही फिजिकल फिटनेस बनाए रखने के लिए मुर्गा खाते हैं। मुर्गा भी हमलोगों की तरह खाता है और बीमार पडऩे पर उसकी चिकित्सा भी होती है। अंतर यही है कि उसे हम खाते हैं, लेकिन वह हमें नहीं खाता है। लेकिन सोचिए यदि आप मुर्गे की जगह होते और आपके दोस्त या रिश्तेदार को इसी तरह दड़वा से निकाला जाता तो आपकी क्या स्थिति होती? शायद रूह कांप उठेगी यह सोचकर। लेकिन ज्ञानी मानव होने के नाते जरूरी है कि आप मूर्गा खाएं। यदि आप नहीं खाएंगे, तो प्राकृतिक संतुलन बिगडऩे का खतरा रहेगा। इसलिए प्राचीन ग्रंथों में भी वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति और जीवो जीवस्य भोजनम जैसे वाक्य हैं, जिनके बल पर आज के मॉडर्न पंडित को तो मूर्गा भी चढ़ाते देखा है। वे कहते हैं कि मेट्रो शहर में यही उपलब्ध है, तो हम क्या कर सकते हैं। सही है पंडीजी, लगे रहो आप। आप यह भी तर्क रख ही सकते हैं कि हम नहीं खाएंगे, तो मूर्गा का धरती पर आधिपत्य हो जाएगा। फिर संभालना मुश्किल हो जाएगा इस दुनिया को बचाने के लिए। कितने जागरूप हैं आप। यदि सही में इतने जागरूप होते, तो आज ग्लोबल वार्मिग कोई समस्या ही नहीं होती। हां, तो हम बात कर रहे थे कि आखिर मुर्गा क्या सोच रहा होगा। आप निश्चिंत रहिए, क्योंकि वह हमारी तरह नहीं है कि गाली देगा। गाली देगा भी तो वह आपको क्यों देगा? आप तो मुर्गा काट नहीं रहे हैं, जो काटेगा, उसी को तो गाली पड़ेगी न। आप तो खानेवालों में से हैं। सच कहंू, मैं जब वहां मुर्गा बनकर सोचता हूं, तो पागल हो जाता हूं कि बेचारे मुर्गे पर क्या बीतती होगी। फिर गुस्सा भी आता है इन मुर्गों पर कि उन्हें जब मरना ही है, तो फिर वह दड़बा में इधर-उधर छिपता क्यों है। फिर यह सोचकर चुप हो जाता हूं कि हम मनुष्य ज्ञानी होते हुए भी यही कर रहे हैं। असाध्य रोग से पीडि़त होने के बावजूद जीने के लिए इधर-उधर भागते रहते हैं। करोड़ों रुपये खर्च करते हैं, कुछ तो इस प्रयास में बच भी जाते हैं, लेकिन अधिकतर हम जैसे गरीब लोग इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं। अपनी जान बचाने के लिए मेडिक्लेम कर रखा है। मुर्गे का भी इंश्योरेंस होता है, लेकिन उसका मालिक यह काम करता है। हमारा मालिक हमें हमारी हाल पर मरने छोड़ दिया है। इस कारण हमलोग खुद पॉलिसी लेते हैं। बेचारा मुर्गा तो मुर्गा ही है। वह भी तो अपना जान बचाना हमीं से सीखा है। इस मामले में वह हमारा ऋणी है। इस कारण वह प्राण देकर हमारी रक्षा कर रहा है। लेकिन याद रखिए आप किसी का भी अधिक दिनों तक शोषण नहीं कर सकते। मुर्गा में भी यह बात फैल चुकी है। यही कारण है कि आज के मानव बम की तरह वह भी चिकनगुनिया से स्वयं के साथ आपको भी मिटा रहा है। इस मामले में वह ढिलाई नहीं बरत रहा है। बरते भी क्यों, ताली दोनों हाथों से बजती है।