रविवार, 3 जनवरी 2010
ताली दोनों हाथ से बजती है
देखिए न, शाकाहारी होते हुए भी मैं आजकल मुर्गा भक्त बन गया हूं। वैसे भी मुर्गा सभी के प्रिय हैं। दक्षिण भारत में तो उन्हें पूजा भी जाता है। उनके प्रशंसकों की कमी नहीं है। जब से मैं उनका दोस्त बना हूं, तब से हमेशा मूर्गा के फ्यूचर को लेकर चिंतित रहता हूं। ऑफिस जाते समय कुछ देर पैदल चलता हूं। रास्ते में बहुत सारे मूर्गे यानी ताजा चिकन बिकते हैं। आप भले ही देखकर लार टपकाते हों, लेकिन मैं आंसू बहाता हूं। मैं हमेशा यही सोचता हूं कि मुर्गा को मुर्गे के सामने क्यों काटा जाता है? क्या उसे छिपाकर नहीं काटा जा सकता? यदि इंसानियत की नजर से सोचें, तो यह अमानवीय है। तो क्या हम अब मानव नहीं रहे? शायद इस तरह के व्यवहार को देखकर मुर्गा तो यही कह रहा होगा। एक बात कहूं, यदि मेरी बातों पर विश्वास न हो, तो कभी मुर्गा को दड़बा से निकालते समय का सीन देखिए। वहां आप देखेंगे कि कोई भी मुर्गा अभी मरना नहीं चाहता। जबकि उसे भी यह पता है कि जब दड़बा में आ गए हंै, तो कुछ घंटे में अवश्य मरेंगे। फिर भी जीना चाहता है हमलोगों की तरह। यही सृष्टिï का नियम है। हमें भी यमराज इसी तरह ढूंढ के मारता होगा। फिर भी हम जिंदा रहने के लिए बहुत सारे अपराध करने के साथ ही फिजिकल फिटनेस बनाए रखने के लिए मुर्गा खाते हैं। मुर्गा भी हमलोगों की तरह खाता है और बीमार पडऩे पर उसकी चिकित्सा भी होती है। अंतर यही है कि उसे हम खाते हैं, लेकिन वह हमें नहीं खाता है। लेकिन सोचिए यदि आप मुर्गे की जगह होते और आपके दोस्त या रिश्तेदार को इसी तरह दड़वा से निकाला जाता तो आपकी क्या स्थिति होती? शायद रूह कांप उठेगी यह सोचकर। लेकिन ज्ञानी मानव होने के नाते जरूरी है कि आप मूर्गा खाएं। यदि आप नहीं खाएंगे, तो प्राकृतिक संतुलन बिगडऩे का खतरा रहेगा। इसलिए प्राचीन ग्रंथों में भी वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति और जीवो जीवस्य भोजनम जैसे वाक्य हैं, जिनके बल पर आज के मॉडर्न पंडित को तो मूर्गा भी चढ़ाते देखा है। वे कहते हैं कि मेट्रो शहर में यही उपलब्ध है, तो हम क्या कर सकते हैं। सही है पंडीजी, लगे रहो आप। आप यह भी तर्क रख ही सकते हैं कि हम नहीं खाएंगे, तो मूर्गा का धरती पर आधिपत्य हो जाएगा। फिर संभालना मुश्किल हो जाएगा इस दुनिया को बचाने के लिए। कितने जागरूप हैं आप। यदि सही में इतने जागरूप होते, तो आज ग्लोबल वार्मिग कोई समस्या ही नहीं होती। हां, तो हम बात कर रहे थे कि आखिर मुर्गा क्या सोच रहा होगा। आप निश्चिंत रहिए, क्योंकि वह हमारी तरह नहीं है कि गाली देगा। गाली देगा भी तो वह आपको क्यों देगा? आप तो मुर्गा काट नहीं रहे हैं, जो काटेगा, उसी को तो गाली पड़ेगी न। आप तो खानेवालों में से हैं। सच कहंू, मैं जब वहां मुर्गा बनकर सोचता हूं, तो पागल हो जाता हूं कि बेचारे मुर्गे पर क्या बीतती होगी। फिर गुस्सा भी आता है इन मुर्गों पर कि उन्हें जब मरना ही है, तो फिर वह दड़बा में इधर-उधर छिपता क्यों है। फिर यह सोचकर चुप हो जाता हूं कि हम मनुष्य ज्ञानी होते हुए भी यही कर रहे हैं। असाध्य रोग से पीडि़त होने के बावजूद जीने के लिए इधर-उधर भागते रहते हैं। करोड़ों रुपये खर्च करते हैं, कुछ तो इस प्रयास में बच भी जाते हैं, लेकिन अधिकतर हम जैसे गरीब लोग इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं। अपनी जान बचाने के लिए मेडिक्लेम कर रखा है। मुर्गे का भी इंश्योरेंस होता है, लेकिन उसका मालिक यह काम करता है। हमारा मालिक हमें हमारी हाल पर मरने छोड़ दिया है। इस कारण हमलोग खुद पॉलिसी लेते हैं। बेचारा मुर्गा तो मुर्गा ही है। वह भी तो अपना जान बचाना हमीं से सीखा है। इस मामले में वह हमारा ऋणी है। इस कारण वह प्राण देकर हमारी रक्षा कर रहा है। लेकिन याद रखिए आप किसी का भी अधिक दिनों तक शोषण नहीं कर सकते। मुर्गा में भी यह बात फैल चुकी है। यही कारण है कि आज के मानव बम की तरह वह भी चिकनगुनिया से स्वयं के साथ आपको भी मिटा रहा है। इस मामले में वह ढिलाई नहीं बरत रहा है। बरते भी क्यों, ताली दोनों हाथों से बजती है।
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1 टिप्पणी:
पंडीत जी आपके इस लेख ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया है। बेहद संवेदनशील बात छेड़ी है आपने।
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