शुक्रवार, 8 जनवरी 2010
लड़कियां मन की बात नहीं समझती?
बचपन से यही सीख मिली थी कि करेक्टर इज लोस्ट, एवरीथिंग इज लोस्ट। लेकिन पंद्रह की उम्र के बाद से खुद को किसी तरह संभाल रहा हूं। जब किसी सुंदर कन्या को देखता हूं, तो न जाने मन में क्या-क्या सोचने लगता हूं। मुझे खुद पर घृणा होने लगती है। और कभी डरता भी हूं कि यदि ये लड़कियां मेन की बात पहचान जाए, तो मेरी रही सही इज्जत खत्म हो जाएगी। शादी होने के बाद भी इस तरह की आदत में सुधार नहीं हुई है। हां, यह अलग बात है कि अभी तक मार नहीं खाया हूं और बेइज्जत भी नहीं हुआ हूं। कल मैंने अखबार में पढ़ा कि लड़कियां मन की बात भी आसानी से समझ लेती है। उस दिन से काफी परेशान हूं। खाना भी ढंग से नहीं खा पा रहा हूं। बीबी से जब अपनी परेशानी कही, तो वह हंसने लगी और बोली कि अखबार की खबर झूठी है। मैंने पूछा कि यह तुम दावे के साथ कैसे कह सकती हो। वह बोली कि हमें अभी तक यही पता था कि मेरे पति अखबार में काम करते हैं, तो अखबार की भाषा भी समझते होंगे। लेकिन अब मैं यह दावे के साथ कह सकती हूं कि आप अच्छे जर्नलिस्ट नहीं हो। रही बात मन की बात जानने की तो। इसके लिए मैं यही कहूंगी कि जब शादी के दो वर्षों के बाद भी मैं आपके मन की बात नहीं समझ पाई, तो दो-चार घंटे बात करनेवाली आपके मन की बात कैसे समझ सकती है। मुझे उसके बात में दम लगी और उसके बाद से पत्नी से सामने शेखी बघारने के लिए कुछ नहीं रहा। इज्जत तो पहले ही उतर चुकी थी, रही सही कसर भी पूरी हो गई। तभी तो उसे होम मिनिस्ट्री का दर्जा प्राप्त है। भले ही हमारे चिदंबरम साहब को यह मंत्रालय भारी-भरकम लगे, लेकिन हमारी मिनिस्ट्री को तो हम पर लगाम कसने के लिए समय ही समय है।
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