जब मैं बच्चा था, दिल का सच्चा था
नंगा ही रहता था, खेला करता था
लुका छिपी का खेल, घर, बगीचों में।
वहां समय महत्वपूर्ण नहीं था
नहीं समझता था लड़का-लड़की में अंतर
पहचानता था, तो सिर्फ अपने दोस्तों को
जो हमारे साथ हमेशा ही खेला करते थे।
वहां न कोई करियर और चिंता ही थी
ऑफिस भी नहीं था और बॉस भी नहीं थे
दु:ख के समय मम्मी-पापा ही सब कुछ थे।
इसके अलावा मैं और मेरा बचपना था।
कभी फुटबॉल तो कभी कबड्डी भी खेलते थे
कभी गुड्डा-गुड्डी भी खेलते थे।
मां के बुलाने पर बहुत कष्ट होता था हमें
क्योंकि खेल छोड़कर पढऩा पढ़ता था हमें
कुछ कर भी नहीं सकता था उस वक्त
सिवा रोने और सर पीटने के।
फिर यह सोचकर खुश भी हो जाता कि
जब मैं बनूंगा भैया की तरह
मस्ती में रहूंगा मैया की तरह
उस समय कोई नहीं रोकेगा मुझे
क्योंकि मैं भी रौब जमाऊंगा बड़ा होकर।
मेरा सोचना गलत था उस समय
यह आभास मुझे बड़ा होने पर चला।
अब नहीं खेल सकता बच्चों की तरह यह खेल
अब जिंदगी ही खेल रही है लुका-छिपी का यह खेल
आशाओं और निराशाओं के साथ।
अब न चाहकर भी चलना पड़ता है
लोगों की बातें सुननी पड़ती है
सुबह स्कूल छोडऩा पड़ता है
ऑफिस भी आना पड़ता है
जबकि डांटने के लिए मां नहीं हैं।
समझने लगा हूं अब अपना दायित्व
इस कारण नहीं छोड़ सकता इन्हें।
क्योंकि मजबूरी है, तमन्ना अधूरी है
जिन्हें पूरी करनी है बच्चे को पढ़ाकर।
बचपन की यादें अब याद ही आती है।
जब कभी एकांत में जाकर सोचता हूं ,
तो यही गुनगुनाता हूं कि कोई लौटा दे हमें बीते हुए दिन।
1 टिप्पणी:
बॉस बचपन जीवन का सबसे सुनहरा दौर है। ऊपर वाले ने इंसानों को खुश और मस्त रहने के लिए बस यही एक थोड़ा सा टाइम बख्शा है। बाकी जिंदगी तो ऐसे ही कई तरह के बोझ तले दबी रह जाती है। वैसे एक बात और है कि उम्र के हर पड़ाव पर बीता पल ज्यादा सुहावना लगता है।
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