बुधवार, 23 नवंबर 2011

यूनीक आइडेंटीफिकेशन अथॉरिटी

 अमेरिका की दो नामी शिक्षण संस्थाओं से पढ़कर आए और नंदन निलेकनी के नेतृत्व में यूनीक आइडेंटीफिकेशन अथॉरिटी से जुड़कर काम कर रहे तुषार वशिष्ठ और मैथ्यू चेरियन भारत में योजना आयोग द्वारा पेश की गई आधिकारिक परिभाषा से इतने (अ)प्रभावित हुए कि उन्होंने 32 रुपये रोजाना के खर्च में कुछ दिन गुजारने का फैसला कर लिया।

इस देश में सदियों से गरीबों पर प्रयोग होते रहे हैं, लेकिन हाल में ही गरीबी पर किया गया प्रयोग अपने आप में विशिष्ट और देश के राजनेताओं, नौकरशाहों के सामने एक नजीर पेश करने वाला है। अमेरिका की दो नामी शिक्षण संस्थाओं से पढ़कर आए और नंदन निलेकनी के नेतृत्व में यूनीक आइडेंटीफिकेशन अथॉरिटी से जुड़कर काम कर रहे तुषार वशिष्ठ और मैथ्यू चेरियन भारत में योजना आयोग द्वारा पेश की गई आधिकारिक परिभाषा से इतने (अ)प्रभावित हुए कि उन्होंने 32 रुपये रोजाना के खर्च में कुछ दिन गुजारने का फैसला कर लिया। सरकार ने शहर में 32 और गांव में 26 रुपये वाली जो गरीबी रेखा निर्धारित की है उसके संदर्भ में देश की इन दो मेधावी शख्सियतों ने व्यावहारिक परीक्षण करके देखा कि 26 या 32 रुपये प्रतिदिन में क्या एक नागरिक अपनी गुजर-बसर कर भी सकता है? इनका यह अद्वितीय प्रयोग पांच हफ्तों तक चला। अपनी जरूरतों में कटौती करने के उपरांत पहले हफ्ते में ये इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि शहर में डेढ़ सौ रुपये प्रतिदिन से कम में एक व्यक्ति जीवन गुजार ही नहीं कर सकता। फिर दो हफ्तों के लिए इन दोनों ने अपने खर्चो में और कटौती की तो भी खर्चा सौ रुपये प्रतिदिन रहा। इन्होंने निष्कर्ष निकाला कि सौ रुपये रोज पर जीवन गुजारना बहुत मजबूरी भरा काम है। इसके बाद अगले दो हफ्तों के लिए इन्होंने अपने सभी खर्चो में कटौती कर दी और 32 रुपयों में जिंदा रहकर दिखाया। निष्कर्ष यह निकला कि शहरों में 32 रुपये में सिर्फ जिंदा रहने के लिए ही जिया जा सकता है। पांच हफ्तों के प्रयोग में इन्होंने यह जानने की कोशिश भी की कि गरीब लोग इससे भी कम आमदनी में कैसे जिंदा रहते होंगे? इनका अंतिम निष्कर्ष यह है कि इंसान घनघोर गरीबी में भी जैसे-तैसे जीवित रह लेता है, पर उसकी शारीरिक और मानसिक ताकत इतनी कम हो जाती है कि खुद या अपने परिवार को गरीबी से निजात दिलाने के बारे में वह सोच भी नहीं पाता। इन्होंने अपने अनुभव से बताया कि शहरों में गरीबी की रेखा 120 से 150 रुपये रोज की आय पर निर्धारित होनी चाहिए तो गांवों में 90 से 110 रुपये के बीच। सरकार इनकी यह सिफारिश तो मानने से रही, पर इन्होंने जो किया है वह सराहनीय है। काश, हमारे देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलूवालिया भी कोई ऐसा ही प्रयोग करके देखते तो शायद समझ पाते कि गरीबी है क्या? मैं तो यह कहता हूं कि व्यावहारिक यह होगा कि इस रिपोर्ट को बनाने वाले सभी योजना आयोग के सदस्यों को 965 रुपये देकर कहा जाए कि आप सब लोग इन रुपयों पर कम से कम एक महीना गुजर-बसर करके दिखाएं। अगर संभव हो तो इस रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करने वाले योजना आयोग के अध्यक्ष हमारे माननीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी इसी तरह व्यावहारिक रूप से एक बार शहर या गांव में इतने ही रुपयों में रहने को कहा जाए। तब इन लोगों को समझ में आएगा कि रिपोर्ट बनाने और वास्तविक जीवन जीने में कितना फर्क है। यह देश की विडंबना है कि इतने बड़े अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के होते हुए भी और इतनी चरम महंगाई को देखते हुए भी योजना आयोग द्वारा इस तरह कि रिपोर्ट बनाया गया। यह तो सरासर गरीब और गरीबों के साथ मजाक है । गरीबी पर किया गया यह प्रयोग आपने आप में बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इस प्रयोग को ऐसे दो लोगों ने किया जिन्होंने अपनी शिक्षा भी अमेरिका से प्राप्त की है। यह लोग काफी धनाड्य और साधन संपन्न भी हैं। यह उन लोगों के लिए एक नजीर है जो पांच सितारा होटलों के वातानुकूलित कमरों में बैठकर गरीबों पर रिपोर्ट बनाते हैं और उसे सही ठहराने के लिए अपना तर्क भी देते हैं। गरीबी पर अध्ययन के लिए कई देशो की यात्राएं की जाती हैं और उन पर करोड़ों रुपये खर्च किए जाते हैं। योजना आयोग ने महंगाई के बढ़ते बोझ से गरीबों की नई परिभाषा बनाई है। गांव में गरीब का घर रोजाना 26 रुपये में चलाने की बात करने वाले योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया का विदेश यात्राओं का रोजाना औसत खर्च है 11354 रुपये। योजना आयोग ने एक आरटीआइ के जवाब में यह बताया कि अहलूवालिया ने पांच साल में जुलाई 2006 से जुलाई 2011 तक सरकारी खर्च पर 35 बार विदेश यात्रा पर गए। इन यात्राओं में उन पर कुल 2 करोड 4 लाख 36 हजार 825 रुपये का खर्च आया। रोजाना औसतन विदेश यात्रा पर 11354 रुपये खर्च करने वाले योजना आयोग के हमारे उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया आखिर गरीबों का दर्द समझें भी कैसे जबकि उन्हें इसका कोई अनुभव ही नहीं है और न ही वह ऐसा प्रयोग ही चाहते हैं। आज भारत विश्व की चौथे नंबर की अर्थव्यवस्था है। आज लगभग हर क्षेत्र में भारत अच्छी तरक्की कर रहा है। हमारी क्षमता का लोहा सारी दुनिया मान रही है, लेकिन इतनी तरक्की होने के बावजूद भारत आज भी गरीब राष्ट्रों में गिना जाता है तो इसके लिए आखिर दोष किसका है? आर्थिक तरक्की से जहां देश का अमीर वर्ग और भी अमीर हुआ है तो गरीब वर्ग लगातार गरीब होता जा रहा है। भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए गरीबी एक अभिशाप बनकर उभरी है। इसलिए राष्ट्रहित में यह आवश्यक है की गरीबी का पूर्ण उन्मूलन करने के लिए प्रयास किया जाए। आज जीडीपी के आंकड़े सिर्फ कागजों तक ही सीमित हैं। असल में तो आज भी झुग्गी झोपडी में रहने वाले लोग 40 से 50 रुपये रोजाना कमाते हैं। उनका जीवन स्तर काफी निम्न है। उन्हें दो वक्त की रोटी के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। देश की आधी से ज्यादा आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही है। इसलिए यह आवश्यक है कि इस गंभीर समस्या की तरफ सरकार का ध्यान आकर्षित किया जाए। तमाम वैश्विक संस्थाएं जैसे विश्व बैंक आदि भी निर्धनता दूर करने के लिए काफी मदद करते हैं, लेकिन वह मदद भ्रष्टाचार के कारण गरीबों तक नहीं पहुंच पाता। इस कारण उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। गरीबी से निपटने के लिए सबसे पहले सरकार को भ्रष्टाचार दूर करना पड़ेगा तभी सही मायने में गरीबी का उन्मूलन होगा। इसके लिए सरकार के साथ-साथ जनता का भी फर्ज बनता है कि अपनी कमाई का छोटा सा हिस्सा गरीबों को दें। तभी भारत सही मायने में विकसित देश बन सकेगा। हमारे देश में नेताओं और नौकरशाहों की संवेदनशीलता व जवाबदेही लगता है खत्म हो चुकी है नहीं तो इतनी शर्मनाक रिपोर्ट शायद ही आती जिसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है। वास्तव में इस रिपोर्ट का असली मकसद सस्ते दर पर वितरित किए जाने वाले अनाज की मात्रा को कम करना है। जब योजना आयोग के ऐसे इरादे हों तो फिर किसी को यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि जो खाद्य सुरक्षा विधेयक चर्चा में है, वह आम आदमी का भला करने वाला है।
शशांक द्विवेदी 

शनिवार, 19 नवंबर 2011

मैं अच्छा कैसे बन जाऊं, मैं अच्छाई से डरता हूँ....

मर्यादा जीवन भर पूजी, बदले मे वनवास मिला...
बड़ी सती थी जिसको कहते जग का तब उपहास मिला...
शिव का आधा अंग बनी, पर बदले मे थी आग मिली...
सत्यमूर्ति बन भटक रहा था, बुझी पुत्र की साँस मिली...

इंद्रिय सारी जीत चुका था, उसको पुत्र वियोग मिला...
विष प्याला उपहार मिला था कृष्ण भक्ति का जोग लिया...
दानवीर, आदर्श सखा, पर छल से था वो वधा गया...
ज्ञान मूर्ति इक संत का शव भी, था शैय्या पर पड़ा रहा...

धर्म हेतु उपदेश दिया पर पूरा वंश विनाश मिला...
हरि के थे जो मात पिता उनको क्यूँ कारावास मिला...
मात पिता का बड़ा भक्त था, बाणों का आघात हुआ...
ऐसे ही ना जाने कितने अच्छे जन का ह्रास हुआ....

थे ऐसे भी जो पाप कर्म की परिभाषा का अर्थ बने...
जो अच्छाई को धूल चटाते, धर्म अंत का गर्त बने...
जो अत्याचार मचाते थे, दूजो की पत्नी लाते थे...
वो ईश के हाथों मरते थे, फिर परम गति को पाते थे...

अब ये बतलाओ सत्य बोल मैं कौन सा सुख पा जाऊँगा...
मैं धर्म राह पे चला अगर,दुख कष्ट सदा ही पाऊँगा...
नाम अमरता नही चाहिए, चयन सुखों का करता हूँ...
मैं अच्छा कैसे बन जाऊं, मैं अच्छाई से डरता हूँ....

धर्म गुरुओं का लीप लॉक

  चुंबन से आत्‍मिक प्रेम बढेगा और धर्मगुरु एक दूसरे धर्म के बारे में गलत बातें कम फैलाएंगे। इसमें उन्‍हें कि‍सी  प्रकार की परेशानी भी नहीं होगी, क्‍योंक‍ि पुरुष धर्मगुरु दूसरे पुरुष के होठ चुसेंगे। लेकि‍न डर लगता है क‍ि यद‍ि बाबा रामदेव कि‍सी का होठ चुसेंगे, तो उन पर क्‍या गुजरेगी।  

आजकल सभी फि‍ल्‍मों में लीप लॉक अनि‍वार्य सा हो गया है। कोई भी फि‍ल्‍म इसके बि‍ना हि‍ट नहीं होती है। यह बात हमारे धर्म गुरु को भी अच्‍छी लगी। इस समय हालात ये हैं क‍ि उन्‍हें कोई भाव नहीं दे रहा है। अपनी चर्चा के लिए उन्‍होंने लीप लॉक का हि‍ट फि‍ल्‍मी फार्मूला अपनाया। यह सीन काफी हि‍ट रहा और  यूरोपीय देशों में एक इतालवी कंपनी के ' अनहेट ' सीरीज के विज्ञापन इधर कुछ ज्यादा ही चर्चा में हैं। इनमें एक - दूसरे से तीखी घृणा के लिए पहचाने जाने वाले लोगों को - जो प्राय : पुरुष ही हैं - फोटोशॉप के जरिये तैयार की गई नकली तस्वीरों में एक - दूसरे को होंठों पर चूमते दिखाया गया है। कुछेक पश्चिमी और कुछ अरबी समाजों में मुलाकात के वक्त गाल से गाल सटाने की परंपरा है। जब - तब भावातिरेक में लोग एक - दूसरे को गाल पर चूम लेते हैं , लेकिन होठों पर चुंबन का वहां एक स्पष्ट सांस्कृतिक संदर्भ है। ईसाई परंपरा में पति अपनी नवविवाहिता पत्नी को सार्वजनिक रूप से सिर्फ एक बार होंठों पर चूमता है। बाकी सभी संदर्भों में होठों पर चुंबन निजी दायरे की चीज समझी जाता है और इसे यौन संसर्ग के एक हिस्से की तरह देखा जाता है। स्वाभाविक था कि यूरोप में इस पूरी सीरीज पर , और खासकर इसकी उस तस्वीर पर तीखी प्रतिक्रिया देखी गई , जिसमें मौजूदा पोप को मिस्र के एक कट्टरपंथी मौलवी के साथ होंठ से होंठ मिलाए दिखाया गया था। लोगों के विरोध से विज्ञापन जारी करने वाली कंपनी बुरी तरह डर गई और उसने अनहेट सीरीज से इस तस्वीर को हटा देने का फैसला कर लिया। लेकिन इस सीरीज के बाकी सारे हिस्से आज भी ज्यों के त्यों हैं। विज्ञापन की नई थ्योरी में चर्चित होना ही सब कुछ समझा जाता है , भले ही चर्चा की वजह सही हो या गलत। लेकिन विज्ञापन बनाने वालों में सबसे ज्यादा शातिर लोग अपनी चर्चा के फॉर्म्युले में कोई फिलॉसफिकल एंगल भी जोड़ना चाहते हैं , ताकि उनके प्रॉडक्ट के बारे में होने वाली बात ज्यादा दीर्घजीवी हो सके। मसलन , अनड्रेस ( निर्वस्त्र होने ) की तर्ज पर बनाए गए शब्द अनहेट को इसके साथ छपने वाली तस्वीरों से जोड़कर देखें तो एकबारगी ऐसी गफलत हो सकती है कि इसमें लोगों से एक - दूसरे के प्रति जाति , नस्ल , धर्म आदि पर आधारित घृणा को छोड़कर विश्वशांति की तरफ बढ़ने की अपील की गई है। कहना कठिन है कि शांति के ऐसे चाकलेटी फॉर्म्युले लोगों को करीब लाते हैं , या उन्हें खिझाकर एक - दूसरे से और ज्यादा दूर धकेल देते हैं।मुझे तो लगता है क‍ि इससे लोग काफी करीब आएंगे। क्‍योंकि चुंबन से आत्‍मिक प्रेम बढेगा और धर्मगुरु एक दूसरे धर्म के बारे में गलत बातें कम फैलाएंगे। इसमें उन्‍हें कि‍सी  प्रकार की परेशानी भी नहीं होगी, क्‍योंक‍ि पुरुष धर्मगुरु दूसरे पुरुष के होठ चुसेंगे। लेकि‍न डर लगता है क‍ि यद‍ि बाबा रामदेव कि‍सी का होठ चुसेंगे, तो उन पर क्‍या गुजरेगी। 

बुधवार, 16 नवंबर 2011

इंटरनेट पापा

  इंटरनेट के आविर्भाव ने सम्पूर्ण विश्व में एक नई क्रान्ति उत्पन्न कर दी है। आज हम अपने घर में बैठकर ही अनेकों आवश्यक कार्यों को इंटरनेट की सहायता से निबटा सकते हैं। इंटरनेट ने “वसुधैव कुटुंबकम्” की धारणा को सत्य में परिणित कर दिखाया है। आप किसी भी समय किसी भी देश के किसी भी व्यक्ति से सम्पर्क कर सकते हैं। ईमेल अथवा एसएमएस के द्वारा कहीं पर भी तत्काल संदेश भेजा जा सकता है। यह बात हमारे सहयोगी मनोज जी को काफी अच्‍छी लगी और उन्‍होंने घर पर इंटरनेट ले ल‍िया। उस समय उनके बच्‍चे काफी खुश हुए क‍ि अब फेसबुक और मेल से दोस्‍तों से खूब बातें करूंगा, लेकि‍न उन्‍हें क्‍या पता था क‍ि पापा अब पापा नहीं रह जाएंगे, वे इंटरनेट पापा बन जाएंगे। अभी तक यही होता था क‍ि उनके बच्‍च्‍ो स्‍कूल में अच्‍छे मार्क्‍स ले आते थे, और मार्क्‍स देखकर वे काफी खुश हो जाते थे क‍ि बच्‍चे की पढाई अच्‍छी चल रही है। इंटरनेट आने से उनका ज्ञान दायरा बढा और वे इंटरनेट की तरह फास्‍ट सोचने लगे। वे पुराने खयालात के आदमी हैं। इस कारण इंटरनेट पर अश्‍लील फोटो देखना या फेसबुक पर चैटिंग करना अच्‍छा नहीं लगता था। वे सोचने लगे क‍ि आखिर कि‍स तरह इंटरनेट का सदुपयोग हो। उन्‍होंने सोचा क‍ि इंटरनेट के माध्‍यम से बच्‍चों की पढाई जांची जाए। इसमें फायदा यह है क‍ि सही उत्‍तर के ल‍िए उन्‍हें द‍िमाग भी नहीं खंपाना पडेगा और बच्‍चों की पढाई के बारे में भी सही जानकारी मि‍ल जाएगी। इसके पहले बच्‍चे उन्‍हें इंटरनेट के बारे में काफी कुछ बताया करते थे। बात के स‍िलसिले में ऑनलाइन टेस्‍ट की बात भी कह दी। बच्‍चे तो बच्‍चे होते हैं, बोलने के बाद उन्‍हें कुछ भी याद नहीं रहती है। आजकल के बच्‍चे इतने मॉडर्न हो गए हैं क‍ि उनके गर्लफ्रेंड की संख्‍या कि‍तनी है, वे भी याद नहीं रहते हैं। याद रहते हैं, तो  स‍िर्फ नई फ्रेंड, नए मोबाइल, बाइक या नई कार। आजकल वे इतने ओवर कॉनफि‍डेंस होने लगे हैं क‍ि अपने माता पि‍ता को हमेशा बेबकूफ बनाना चाहते हैं। पैरेंट़स समझते हुए भी प्‍यार के वशीभूत खुद को अज्ञानी समझना ही बेहतर समझते हैं।  बच्‍चे यह नहीं समझते क‍ि वे उनके बाप हैं। अगर वे मॉडर्न हो जाएं तो बच्‍चे बच्‍चे ही रह जाएंगे। आज तेंदुलकर और अमि‍ताभ से बढिया उदाहरण क्‍या हो सकता है। वे दोनों  क‍िसी भी आनेवाली पीढी से आगे चलते हैं। मनोज जी इंटरनेट लेने के बाद बच्‍चों को ऑनलाइन टेस्‍ट लेना शुरू कर दि‍ए। बच्‍चे कभी सोचे  भी नहीं थे क‍ि पापा इस तरह के टेस्‍ट ले सकते हैं। अब वे काफी परेशान हैं और इस इंटरनेट पापा से परेशान भी । उन्‍हें समझ में नहीं आ रहा है क‍ि वे क्‍या करें।       ‍       

बुधवार, 9 नवंबर 2011

vaibhav: द ओल्ड मैन एण्ड द सी

vaibhav: द ओल्ड मैन एण्ड द सी

vaibhav: अंधा ने अंधी के इज्‍जत को तार तार कर द‍िया

vaibhav: अंधा ने अंधी के इज्‍जत को तार तार कर द‍िया

vaibhav: नदी के द्वीप

vaibhav: नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

इसे मैं ग्रेजुएशन में पढा था, लेकि‍न स‍िर्फ पढा था, कुछ भी समझ में नहीं आया। दरअसल उस समय मैं काफी उपन्‍यास इसलि‍ए पढता था क‍ि लोगों के सामने शेखी बघार सकूं। जब मैं नौकरी करने लगा तो इसके बारे में काफी कुछ सुना। फि‍र से पढने की इच्‍छा हुई और पढने लगा। अब भी बहुत कुछ नहीं समझ पाया हूं, लेकि‍न जो समझा, उसे यहां इसलि‍ए दे रहा हूं क‍ि जब कभी मौका मि‍लेगा। इस पर मनन करूंगा। शेखर की जीवनी मुझसे काफी मि‍लती है। मैं भी बचपन में इसी स्‍वभाव का था, लेकि‍न अंतर यह है क‍ि अब मैं बदल चुका हूं और अक्रामक नहीं हूं, जैसा क‍ि पहले था। शेखर एक ऐसा व्यक्ति है जो पूरी ईमानदारी से अपने जीवन के सुख-दुख से गुज़रना चाहता है. वो पिता की सलाह को नज़रअंदाज़ कर अंग्रेज़ी की बजाय हिंदी में लेखन करना चाहता है क्योंकि अंग्रेज़ी से उसे दासता की अनुभूति होती है। नदी के द्वीप उपन्यास में व्यक्ति नदी के द्वीप की तरह है. चारों तरफ नदी की धारा से घिरा लेकिन फिर भी अकेला और अपनी सत्ता में स्वतंत्र. उपन्यास के मुख्य पात्र रेखा और भुवन एक-दूसरे के प्रति आकृष्ट हैं. दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी हैं लेकिन फिर भी रेखा भुवन को छोड़कर डॉक्टर रमेश चंद्र से विवाह करती है. गौरा और भुवन के बीच भी एक-दूसरे के लिए आकर्षण है लेकिन वे उसे सही रूप में व्यक्त नहीं कर      

 

शेखर: एक  जीवनी

'शेखर' की भूमिका में लिखते हैं कि यह जेल के स्थगित जीवन में केवल एक रात में महसूस की गई घनीभूत वेदना का ही शब्दबद्ध विस्तार है ये उपन्यास है.
अज्ञेय ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि शेखर के जीवन की कुछ घटनाएं और स्थान उनके जीवन से मिलते-जुलते हैं लेकिन जैसे-जैसे शेखर का विकास होता गया है वैसे-वैसे शेखर का व्यक्ति और रचनेवाला रचनाकार एक-दूसरे से अलग होते गए हैं
शेखर जन्मजात विद्रोही है. वो परिवार, समाज, व्यवस्था, तथाकथित मर्यादा – सबके प्रति विद्रोह करता है. वो स्वतंत्रता का आग्रही है और व्यक्ति की स्वतंत्रता को उसके विकास के लिए बेहद ज़रूरी मानता है.
कहते हैं यथार्थवादी साहित्य में किसी भी पात्र का जन्म अकस्मात् नहीं होता, या यों कहें वो महज़ कोरी कल्पना नहीं होता. कार्य-कारण संबंधों के आधार पर ही किसी यथार्थवादी रचना में घटनाओं और पात्रों का जन्म और विकास होता है. ‘शेखर’ में व्यक्ति स्वातंत्र्य की अनुभूति और अभिव्यक्ति की जो छटपटाहट पूरे उपन्यास में नज़र आती है वो दरअसल प्रेमचंद के गोदान (1936) के पात्र ‘गोबर’ के चरित्र का स्वाभाविक विकास है.
‘गोबर’ की संवेदना का ही स्वाभाविक विकास है अज्ञेय का ‘शेखर’ जो अपने अंतर्मन की आवाज़ सुनता है और वही करता है जिसकी गवाही उसका विवेक देता है. वो स्कूल नहीं जाना चाहता क्योंकि वो मानता है कि स्कूलों में टाइप बनते हैं जबकि शेखर व्यक्ति बनना चाहता है. एक ऐसा व्यक्ति जो पूरी ईमानदारी से अपने जीवन के सुख-दुख से गुज़रना चाहता है. वो पिता की सलाह को नज़रअंदाज़ कर अंग्रेज़ी की बजाय हिंदी में लेखन करना चाहता है क्योंकि अंग्रेज़ी से उसे दासता की अनुभूति होती है.
इस उपन्यास में ‘शेखर’ एक निहायत ईमानदार व्यक्ति है, अपनी अनुभूतियों और जिज्ञासाओं के प्रति बेहद ईमानदार. जीवन की नई-नई परिस्थितियों में उसके मन में कई सवाल उठते हैं और वह अनुभव करता चलता है, सीखता चलता है.
अज्ञेय ने मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से ‘शेखर’ के ज़रिए एक व्यक्ति के विकास की कहानी बुनी है जो अपनी स्वभावगत अच्छाइयों और बुराइयों के साथ देशकाल की समस्याओं पर विचार करता है, अपनी शिक्षा-दीक्षा, लेखन और आज़ादी की लड़ाई में अपनी भूमिका के क्रम में कई लोगों के संपर्क में आता है लेकिन उसके जीवन में सबसे गहरा और स्थायी प्रभाव शशि का पड़ता है जो रिश्ते में उसकी बहन लगती है, लेकिन दोनों के रिश्ते भाई-बहन के संबंधों के बने-बनाए सामाजिक ढांचे से काफी आगे निकलकर मानवीय संबंधों को एक नई परिभाषा देते हैं.
हिंदी साहित्य के लिए शशि-शेखर संबंध तत्कालीन भारतीय समाज में एक नई बात थी जिसे लेकर आलोचकों के बीच उपन्यास के प्रकाशन के बाद से लेकर आज तक बहस होती है.
शेखर एक जगह शशि से कहता है – ‘कब से तु्म्हें बहन कहता आया हूं, लेकिन बहन जितनी पास होती है, उतनी पास तुम नहीं हो, और जितनी दूर होती है, उतनी दूर भी नहीं हो’- ये भारतीय उपन्यास में स्त्री-पुरुष संबंधों की एक नई अभिव्यक्ति थी.
‘शेखर’ दरअसल एक व्यक्ति के बनने की कहानी है जिसमें उसके अंतर्मन के विभिन्न परतों की कथा क्रम के ज़रिए मनोवैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करने की कोशिश अज्ञेय ने की है. इस उपन्यास के प्रकाशन के बाद कुछ आलोचकों ने कहा था कि ये अज्ञेय की ही अपनी कहानी है.
लेकिन अज्ञेय ने इसका स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि शेखर के जीवन की कुछ घटनाएं और स्थान उनके जीवन से मिलते-जुलते हैं लेकिन जैसे-जैसे शेखर का विकास होता गया है वैसे-वैसे शेखर का व्यक्ति और रचनेवाला रचनाकार एक-दूसरे से अलग होते गए हैं.

‘नदी के द्वीप’

ये उपन्यास अलग-अलग पात्रों के जीवन, उनके सुख-दुख, उनके आंतरिक भावावेश को कवित्वपूर्ण भाषागत अभिव्यक्तियों के ज़रिए बयां तो करता है लेकिन युगीन यथार्थ को पूरी तरह स्पर्श नहीं कर पाता और इसकी वजह है पात्रों का अपने भीतर जीते जाना, बाहर या समाज में नहीं
इस उपन्यास के मुख्य पात्र हैं भुवन, रेखा, गौरा और चंद्रमाधव.
भुवन विज्ञान का प्रोफेसर है, रेखा एक पढ़ी-लिखी पति द्वारा परित्यक्ता स्त्री है, गौरा भुवन की छात्रा है. उपन्यास में दो अन्य गौण पात्र हैं हेमेंद्र और डॉक्टर रमेशचंद्र. हेमेंद्र रेखा का पति है जो केवल उसे पाना चाहता है और जब हासिल नहीं कर पाता तो उसे छोड़ देता है.
उसे सौंदर्योबोध, नैतिकता जैसे मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं. डॉक्टर रमेशचंद्र रेखा का नया पति हैं जो एक सुलझा हुआ इनसान है.
‘शेखर’ की तुलना में इस उपन्यास में घटनाएं बहुत कम हैं क्योंकि उपन्यास के पात्र बाहर बहुत कम जीते हैं.
वे ज्यादातर आत्ममंथन या आत्मालाप कर रहे होते हैं. ये इतने संवेदनशील पात्र हैं कि बाहर की जिंदगी की हल्की सी छुअन भी इन्हें भीतर तक हिला कर रख देती है. अज्ञेय ने उपन्यास में पात्रों की इसी भीतरी ज़िंदगी को विभिन्न, प्रतीकों, बिम्बों और कविताओं के ज़रिए उभारने की कोशिश की है.
उपन्यास में भुवन रेखा और गौरा दोनों के बेहद क़रीब है. ये तीनों ही मध्यवर्गीय संवेदना से भरे, आधुनिकता बोध वाले बुद्धिजीवी पात्र हैं. लेकिन इनकी सबसे बड़ी समस्या ये है कि ये भीतर ही भीतर चाहे जितनी ही लंबी विचार सरणि बना लें, उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाते.
यहां तक कि एक-दूसरे के लिए अपनी भावनाएं भी. इस उपन्यास में व्यक्ति नदी के द्वीप की तरह है. चारों तरफ नदी की धारा से घिरा लेकिन फिर भी अकेला और अपनी सत्ता में स्वतंत्र.
उपन्यास के मुख्य पात्र रेखा और भुवन एक-दूसरे के प्रति आकृष्ट हैं. दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी हैं लेकिन फिर भी रेखा भुवन को छोड़कर डॉक्टर रमेश चंद्र से विवाह करती है. गौरा और भुवन के बीच भी एक-दूसरे के लिए आकर्षण है लेकिन वे उसे सही रूप में व्यक्त नहीं कर पाते.
कुल मिलाकर ये उपन्यास अलग-अलग पात्रों के जीवन, उनके सुख-दुख, उनके आंतरिक भावावेश को कवित्वपूर्ण भाषागत अभिव्यक्तियों के ज़रिए बयां तो करता है लेकिन युगीन यथार्थ को पूरी तरह स्पर्श नहीं कर पाता और इसकी वजह है पात्रों का अपने भीतर जीते जाना, बाहर या समाज में नहीं.

अंधा ने अंधी के इज्‍जत को तार तार कर द‍िया

प‍िछले द‍िनों अखबार में एक खबर छपी थी क‍ि एक अंधा ने अंधी के इज्‍जत को तार तार कर द‍िया। इस तरह की घटना पहली बार सुना था। इस कारण इसे सबसे पहले पढा क‍ि आख‍िर यह संभव कैसे हुआ। कहानी यह थी क‍ि एक अंधे की शादी अंधी लडकी से हुई और दोनों काफी खुश थे। कि‍सी कारणवश उसे बाहर जाना पडा। अपनी पत्‍नी की रक्षा की ज‍िम्‍मेदारी  उन्‍होंने अपने अंधे दोस्‍त को  सौंपकर चला गया। उसके अंधे दोस्‍त ने उनकी पत्‍नी की इज्‍जत लूट ली। जो अखबार में एक सनसनीखेज खबर बन गई। उस दि‍न से मैं काफी परेशान हूं क‍ि आखि‍र यह अन्‍य खबर से अलग क्‍यों दि‍ख रहा है। इस समय मुझे प्रश्‍न मन में आ रहे हैं, जो परेशान कि‍ए हुए है।  प्रश्‍न इस प्रकार है

क्‍या अंधा को अंधा दोस्‍त ही  मि‍ला अपनी पत्‍नी की देखभाल करने के  ल‍िए। 

अंधा ने उस अंधी लडकी की इज्‍जत क्‍यों लूटी। 

काफी सोचने के बाद मैं इस नि‍ष्कर्ष  पर पहुंचा क‍ि मेरे अंधे भाई सोचे होंगे क‍ि आंख वाले दोस्‍त इससे भी खतरनाक होते हैं, क्‍योंक‍ि वे आंखों से शारीरि‍क सुंदरता देख सकते हैं।  और सुंदरता तो इतनी बला होती है क‍ि जि‍सने भी नजर डाली, बूरी नजर डाली। कम से कम उसकी पत्‍नी बूरी नजर से तो बच ही गई।  महिलाओं के बारे में…ऊंची-ऊंची बातें…घर में, परिवार में, सड़क पर दफ्तर में, मंच पर…। मगर, अकेले में नारी के प्रति विपरीत सोच, अर्थात हर आंख निहारती है देह। लैला-मजनूं व हीर-रांझा की प्रेम कहानियां इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह गई हैं। प्रेम की परिभाषा बदल चुकी है। नारी को देवी का दर्जा सिर्फ भाषणों में ही दिया जा रहा है। यदि ऐसा न होता तो हर विज्ञापन में अद्र्धनग्न नारी न दिखती। नेताओं की पार्टी में अद्र्धनग्न युवतियों को नहीं नचाया जाता। बलात्कार की घटना में अप्रत्याशित वृद्धि नहीं होती। टेलीविजन पर चल रहे कार्यक्रम को पिता-पुत्री साथ बैठकर देखने से परहेज नहीं करते। लेकिन यह हो रहा है…। वहीं, सोलह की उम्र में पैर रखते ही छात्र-छात्राओं में दोस्ती के प्रति बेचैनी नहीं बढ़ती। चंद दिनों में ये प्रेमी-प्रेमिका भी न बनते? मगर, यह भी हो रहा है…। क्योंकि प्रेम तो कहीं है ही नहीं, प्रेम तो हवश का रूप ले चुका है। उसे तो चाहिए बस देह सुख। तभी तो, बच्ची बन रही ‘बच्ची’ की ‘मां’…। ये सभी काम आंखवाले देख रहे हैं और कर रहे हैं। इस मामले में इसे आंख वाले से अधिक वरीयता मि‍लनी चाहि‍ए। मुझे लगता है क‍ि इसी कारण उन्‍होंने अपने अंधे दोस्‍त पर वि‍श्‍वास  कि‍या होगा। लेकि‍न यह क्‍या उन्‍होंने आंखवालों की तरह हरकत कर दी। अब कि‍स पर वि‍श्‍वास कि‍या जाए। सुना है क‍ि डायन भी दस घर छोडकर डायन करती है। आजकल सभी अपनी जात‍ि की रक्षा के लि‍ए संसद तक  मार्च करते हैं और बल‍िदान तक देने के लि‍ए तैयार रहते हैं। यद‍ि कि‍सी  जात‍ि पर  उनकी ही जात‍ि के लोग अत्‍याचार करता है, तो कुछ भी नहीं होता है। अगर पंडीजी के बेटे ने भगवान को गाली दे दी, तो चलेगा, लेकिन यही बात मुस्‍लि‍म कर दे तो दंगा फैल जाएगा। वास्‍तव में अब मानवीयता नाम की चीज नहीं रह गई है। रि‍लेशन की पर‍िभाषा भी आधुनि‍क तरीके से तर्क सहि‍त अपने फायदे के लि‍ए बनाई जा रही है।  आज कहीं हवशी पि‍ता अपनी बेटी की आबरु लूट रहे हैं, तो कहीं मां अपने बेटे के साथ संबंध बना रही है। इस मामले में भाई बहन भी पीछे नहीं हैं। आजकल इस तरह की खबरें न्‍यूज पेपर में छपती रहती है और समाज के लोग अब इस तरह की घटना के आदी हो गए हैं। अब उन्‍हें इस तरह की घटना सामान्‍य लग रही है, जबक‍ि एक एक इस तरह की कल्‍पना करने से पाप लगता था। कहने का आशय यह है क‍ि इस वातावरण में आप  कि‍सी पर भी व‍ि‍श्‍वास नहीं कर सकते हैं। लेकि‍न व‍िश्‍वास पर दुनि‍या कायम है। 

बेवफाई का अहसास इन ,
हवावों में क्यों है तारी ।

क्या किसी भरोसे को फिर,
तोड़ने की है बारी ।

पहले के जख्म अभी सूखे भी नही ,
फिर क्या दूसरे जख्मों की है तय्यारी ।

करते रहे इलाज जिस्म के दागों की ,
आखिर में पता चला ये,,तो दिल की है बीमारी।

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मंगलवार, 8 नवंबर 2011

चाँदी की हँसुली

 नारी-मुक्ति के नाम पर आज महिला , मुक्त नारी होती जा रही है । ऐसी बात नहीं है कि सोनरी को स्त्री को आगे बढ़ने पर आपत्ति है । स्त्री तरक्की करे, पढे-लिखे, उसका समाज में बराबरी का दर्जा हो,उसका सम्मान हो, इस पर  एतराज नहीं है, पर एक सम्मान के दायरे में हो, यही चाहती है । आजकल यही नहीं है। मह‍िला आधुनकिता के नाम पर कुछ भी करने के लि‍ए तैयार हो जाती है। आज आप कोई भी फिल्‍म  देखें, हर जगह उन्‍हीं के बदन दि‍खाए जाते हैं। आज के संदर्भ में यह उपन्‍यास एकदम सटीक है।      



श्री नन्दलाल भारती सामाजिक सरोकारों और अपने लेखकीय दायित्व के प्रति भी वे सचेत हैं । इसी का प्रतिफल है, इनका उपन्यास ‘चाँदी की हँसुली’। दरअसल यह लोक जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज है। मनुष्य का सम्बंध संस्कारों से है और समाज का संस्कृति से। जहाँ मनुष्य होंगे, वहाँ समाज होगा। अकेले मनु्ष्य से समाज का निर्माण नहीं होता। गाँव, ग्रामीणजन, प्रकृति और परम्पराओं से निर्मित होती है संस्कृति । समाज के आचार-विचार, तीज-त्यौहार,जीवन-शैली संस्कृति के लिये जिम्मेवार हैं। 51 कड़ी के उपन्यास चाँदी की हँसुली की कथा के जीन पक्ष हैं - पहले में गरीब खेतिहर मजदूर गुदरीराम एवं उसकी पत्नी मंगरी है । दूसरे में मुख्यतः प्रेमनाथ और पत्नी सोनरी का प्रेमालाप है तो उनका जीवन संघर्ष भी है । तीसरे में नई पीढ़ी के राजू-रूपमती हैं । कथा के केन्द्र में चाँदी की हँसुली है,यह केवल चाँदी की हँसुली की कथा नहीं है, यह औरतों के आभूषण-प्रेम की कहानी भी है । गहनें औरत की बड़ी कमजोरी हैं । हर औरत को चाहे गरीब हो अमीर,गहनों की चाह होती है। गहने स्त्री के श्रृंगार का मुख्य साधन हैं । लेकिन सभी की चाह कहां पूरी होती है ! गरीब के सपने कहाँ पूरे होते हैं । निर्धन स्त्री गहनों के लिये तरसती रह जाती है । बचपन से उसे हँसुली का बड़ा शौक था, पर वह कभी चाँदी की हँसुली से आगे नहीं बढ़ सकी । वैवाहिक जीवन में, यहां तक की जिन्दगी के आखिर दिनों तक, असली हँसुली के लिये तरसती रह गयी । कर्ज चुकाने के लिये उसे अपनी चाँदी की हँसुली को साहूकार को लौटा देने या गिरवी रख देने तक का विचार करना पड़ा ।लेखक के अनुसार ‘गोदनें’ भी हमारे स्थायी गहने हैं ।
उपन्यास में जातिवाद,आर्थिक-सामाजिक विषमता-विसंगति,निर्धनता,मजूदरों की हाड़-तोड़ मेहनत तथा जमींदारों -साहूकारों द्वारा किये जा रहे षोषण का हृदयस्पर्षी चित्रण है । कई बार कृ्षक की भूमि को जमींदार धोखे से हड़प लेता है । कृ्षक जीवन भर तरसता रह जाता है । छोटी जाति के प्रेमनाथ का यह दर्द देखिये- ‘ हम मूलनिवासियों को स्वार्थ-सत्ता के मोह ने हाशिये पर लाकर पटक दिया है । पता नहीं हमें हमारी जमीन कभी वापस मिलेगी भी या नहीं ?’ आज भी स्थिति भिन्न नहीं है। ऋण के बोझ-तले दबे किसान आत्म हत्याएँ कर रहे हैं । अर्थाभाव के कारण खेतिहर श्रमिक को किन-किन कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है, यह उपन्यास,’चाँदी की हँसुली’ उसका आईना है । इन लोगों के सपने पूरे नहीं हो पाते । यहाँ तक कि संतान को उच्च शिक्षा के लिये शहर भेजने के मार्ग में भी बहुत सी बाधाएँ मुंह फाड़े खड़ी हो जाती हैं ।दलित का जमकर शोषण होता है । चाहे वह गाँव में हो या शिक्षित होकर शहर में नौकरी कर रहा हो, उसका मान-सम्मान नहीं होता । छोटी जाति वालों के प्रति नफरत है । परीक्षा हो या साक्षात्कार,उनके साथ भेदभाव किया जाता है । नारी-मुक्ति के नाम पर स्त्री में आ रहे बदलावों के प्रति भी लेखक ने चिन्ता व्यक्त की है । बूढ़ी हो चुकी सोनरी जब उपचार हेतु बेटे-बहू के पास शहर जाती है तो वहां तथाकथित आधुनिक नारियों को देख दुःखी और अचंभित होती है । उसे आज की नारी का अति आधुनिकतापन अच्छा नहीं लगता है । उसकी पीड़ा यह है कि नारी-मुक्ति के नाम पर आज महिला , मुक्त नारी होती जा रही है । ऐसी बात नहीं है कि सोनरी को स्त्री को आगे बढ़ने पर आपत्ति है । स्त्री तरक्की करे, पढे-लिखे, उसका समाज में बराबरी का दर्जा हो,उसका सम्मान हो, इस पर सोनरी को एतराज नहीं है, पर एक सम्मान के दायरे में हो, यही चाहती है ।
उपन्यासकार का आधुनिकता बोध इसी मुद्दे तक सीमित नहीं रहा । तन्त्र में मौजूद भ्रष्टाचार पर भी लेखक ने कड़ा प्रहार किया है । सरकारी कारिन्दे और बिचौलिये की मिलीभगत साधनहीनों को मिलने वाली सहायता या अनुदान राशि का बड़ा हिस्सा बीच में ही किस तरह हड़प जाते हैं, लेखक ने उसका कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया है । प्रेमनाथ को शामियाने के धंधे के लिये पच्चीस हजार का ऋण स्वीकृत होता है,लेकिन उसके पल्ले मात्र दस हजार पड़ते हैं । शेष दूसरे डकार जाते हैं। यही नहीं,शामियाने का जो सामान उसको उपलब्ध कराया जाता है,वह भी आधा-अधूरा और कटा-फटा होता है । प्र्रेमनाथ-पच्चीस हजार के सूद का देनदार हो जाता है सो अलग । वह सब ओर से ठगा जाता है । वस्तुतः जब लोकतन्त्र अपने धर्म का निर्वाह नहीं करता है तो शोषित-पीड़ित व्यक्ति हृदयहीन,अमानवीय और असंवेदनशील हो जाता है और तब नक्सली जैसा मूवमेंट स्तित्व में आता है। जो लोकतांत्रिक तरीके से हासिल नहीं हुआ, उसे वह हिंसा द्वारा प्राप्त करना चाहता है । हिंसा में ही उसे त्वरित उपाय नजर आता है ।

भारती के इतिहास -बोध की झलक भी उपन्यास में देखने को मिलती है । वह कहते हैं कि जमींदारों और पूंजीपतियों ने अंग्र्रेजो की भांति लोगों में फूट डालो और राज करो की नीति को अपनाया। उसी प्रकार जैसे अ्रग्रेजों ने चालाकी से हमारे देश को हड़प लिया वैसे ही जमींदारों-साहूकारों ने षोशित-वंचित, गरीब किसानों की जमीन को हड़प लिया । गाँवों में जमीन-जायदाद को लेकर परिवारजनों के बीच विवाद और वैमनस्य तब भी होता था आज भी होता है । यहाँ तक कि भाई-भाई की हत्या कर देता है । अलग होकर शहर में रह रहा,स्वार्थी और आत्म-केन्द्रित भीखानाथ अपने भाई दीनानाथ की हत्या कर जमीन हथिया लेता है । इतना सब होते हुए भी गाँव कई मायनों में शहर से भिन्न है । वहाँ लोगों के बीच आत्मीयता है,अपनत्व की भावना है । एक परिवार की बेटी पूरे गाँव की बेटी होती है । कृतिकार यहां सामाजिक जागरूकता का परिचय देते हुए सोनरी से कहलवाता है कि होली पर हुड़दंग,गाली-गलौज तथा कीचड़ और हानिकारक मिलावटी रंग पोतने जैसी कुप्रवृत्तियों से बचना चाहिये । होली के त्यौहार को शालीनता से मनाना चाहिये । सोनरी और उसके पति प्रेमनाथ के बीच प्रेम और विश्वास की जो डोर है,प्यार भरी नोंक-झोंक है,उलाहने और प्रेम -प्रसंग है, वे लेखक के अभिव्यक्ति कौशल के प्रमाण हैं । हँसुली माध्यम से लेखक ने निम्न वर्ग की लाचारी,बेरोजगारी,शोषण और जीवन-संघर्ष को रेखांकित करने का प्रयास किया है। यह सर्वहारा के सपनों के टूटने-बिखरने के कारणों की तला्श की करूण कथा है हँसुली निम्न वर्ग की आशा-आकांक्षा है और पूंजीवादी शोषण के कारण उसे हासिल न कर पाना उसकी विवशता । लेखक को विषमतावादी समाज के गले में एक सुन्दर हँसुली की अपेक्षा है।

रशीदी ट‍िकट

रशीदी ट‍िकट जब मैं पढा था, तो उस समय शादी नहीं हुई थी। न ही मैं लेखक के बारे में कुछ जानता था और न ही जानने की दि‍लचस्‍पी ही थी। इंटरनेट खंगाल रहा था क‍ि उसी समय इसके कुछ वाक्‍य अनायास ही गुगल पर दि‍खाई दि‍ए। उस समय मैं गुनाहों का देवता पढा था और इसी तरह की उपन्‍यास पढना चाहता था। रशीदी टि‍कट पढने में न जाने बहुत मजा आया। ' रसीदी टिकट' अमृता प्रीतम की बहुचर्चित आत्मकथा है। 'कई घटनाएं जब घट रही होती हैं, अभी-अभी जख्मों-सी, तब उनकी कोई कसक अक्षरों में उतर आती है... लेकिन वक्त पाकर अहसास होता है कि ये बातें, लंबे समय के लिए साहित्य को कुछ दे नहीं पाएंगी... ये वक्ती आंधियां होती हैं...' अपनी उम्र बिता चुकी वक्ती आंधियों को छांटते हुए और नई बातें यादों के रूप में जोड़ते हुए लेखिका ने आत्मकथा को नया और संक्षिप्त रूप दिया है। हां, मूल चिंतन वही है जो मूल आत्मकथा में था। अध्यापन करने वाले मां-बाप की यह संतान मां राज बीबी और पिता नंद साधु को याद करते हुए अपने चरित्र का आधार भी खोलती चली है। चरित्र, जो बरतनों को हिंदू-मुसलमान होने से रोकता है। जो परछाइयों को बहुत बड़ी हकीकत मानता है। जो कवि पिता की इस नसीहत को मानने से इनकार कर देता है कि अमृता को सिर्फ धामिर्क कविताएं लिखनी चाहिए। जो दकियानूसी विचारों से बाहर निकल खुली हवा में सांस लेना चाहता है। जो तसव्वुर को कायम रखना चाहता है। अमृता प्रीतम की यह आत्मकथा बताती है कि उसे नफरत के दायरे पर तरस आता है, उसे विभाजन ने बुरी तरह प्रभावित किया था कि 'वारिस शाह' जैसी कविता की रचना हुई। यह बताती है कि रचनाकार को कैसे अपनी आलोचना की परवाह नहीं करनी चाहिए, चाहे जमाना बैरी हो जाए। साहिर से करीबी और इमरोज से गहरी दोस्ती के बीच के वक्फे को भी अमृता ने खूबसूरती से सामने रखा है। इस किताब को पढ़ना एक ऐसे बुखार से गुजरना है जो आपको नायिका की जिंदगी की हर सच्चाई से रूबरू करा देता है। बगैर बुखारी ताप के उन तक पहुंचना नामुमकिन है। दरअसल, यह एक आत्मकोलाज है, जहां डायरी संस्मरण, कविताएं, स्वप्न और जिंदगी के कड़वे यथार्थ घुलमिल गए हैं। यहां यात्राएं हैं और उनके भीतर हैं अंतर्यात्राएं। यहां एक व्यक्ति की लगातार विस्तृत होती दुनिया भी है, जहां दुनिया भर के अदीब शामिल हैं और स्त्री की वह हकीकत भी जो उसे कमजोर भी बनाती है और मजबूत भी। अच्छी बात यह है कि यह पुरानी 'रसीदी टिकट' की पूरक है। दोनों को एक साथ पढ़ने पर रोचक अध्ययन परिणाम आएंगे। यहां अमृता की रचना-प्रक्रिया और उसके अंत:सूत्र खुलते हैं तो पात्रों की अंतर्कथाएं भी। जिंदगी का भले ही कोई रफ ड्राफ्ट न होता हो, अमृता ने यह साबित कर दिया कि आत्मकथा दोबारा लिखी जा सकती है और अगर वह खुद ही तराश दी गई हो, तो कहना ही क्या! इमरोज का मुखपृष्ठ अमृता का जीवन-घट और गहरा देता है।
किताब की खास बातें - 
- तस्वीर चाहे किसी भी खास व्यक्ति की हो, यह सवाल नहीं है, जो अच्छे लगते हैं, वे हर समय खयालों में रहते हैं, तस्वीरों में नहीं। 
- हम सभी जानते हैं कि इंसान और इंसाफ के दरमियान एक लंबा फासला है, जिसे तय करते हुए लोगों की जिंदगी के जाने कितने साल और उनकी कितनी कमाई बर्बाद हो जाती है।

यूं तो हर परछाईं किसी काया की परछाईं होती है, काया की मोहताज, पर कई परछाइयां ऐसी भी होती हैं, जो इस नियम के बाहर होती हैं, काया से भी स्वतंत्र।
- दीवानेपन के अंतिम शिखर पर पैर रखकर खड़े नहीं रहा जा सकता, पैरों पर बैठने के लिए धरती का टुकड़ा चाहिए। - दुखांत यह नहीं होता कि जिंदगी की लंबी डगर पर समाज के बंधन अपने कांटे बिखरते रहें और आपके पैरों में से सारी उम्र लहू बहता रहे। दुखांत यह होता है कि आप लहूलुहान पैरों से एक उस जगह पर खड़े हो जाएं, जिसके आगे कोई रास्ता आपको बुलावा न दे।
- कुछ घटनाएं बहुत ही थोड़े समय के बाद रचना का अंग बन जाती हैं, पर कुछ घटनाओं को कलम तक पहुंचने के लिए बरसों का फासला तय करना पड़ता है। 
- दुनिया के सब सच्चे लेखक मुझे ककनूसी नस्ल के प्रतीत होते हैं। रचनात्मक क्रिया की आग में जलते और फिर अपनी राख में से रचना के रूप में जन्म लेते हुए।
- भले ही कहानी के हर पात्र के साथ लेखक का गहरा साझा होता है, पर एक दूरी हर साझे का हिस्सा होती है।
- लेखक दो तरह के होते हैं - एक जो लेखक होते हैं, और दूसरे, जो लेखक दिखना चाहते हैं। जो हैं, दिखने का यत्न उनकी आवश्यकता नहीं होता। 

प्राइड ऐंड प्रेजुडिस : जेन ऑस्टिन

19वीं सदी के शुरू के इंग्लैंड के कुलीन समाज के रहन-सहन, रीति-रिवाज, नैतिक आचरण आदि पर केंद्रित की गई यह किताब मॉडर्न पाठकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है। किताब कुलीन परिवार की पांच बेटियों में से दूसरे नंबर की एलिजाबेथ की कहानी कहती है। आज भी पाठकों की सबसे चहेती किताबों में से एक मानी जानेवाली इस किताब में वर्ग का फर्क खुलकर सामने आता है। अक्‍सर हम यही सोचते थे क‍ि हम भारतीयों की तरह कोई नहीं है। जेन ऑस्टन के उपन्‍यास पढने के बाद मेरा यह भ्रम टूट गया। मैं सोचने के लिए मजबूर हो गया क‍ि उनकी सोच भी हम सभी से कि‍तनी म‍िलिती जूलती है। इस उपन्‍यास को पढ1ने के बाद कलेजा मंुह को आ जाता है और एक नई सोच भी डेवलप होती है। इसके साथ ही यह भी सोचने केलिए विवश करती है क‍ि व्‍यकत‍ि किस तरह वक्‍त के सामने मजबूर हो जाता है और अंत में लाख कोशिश करने के बावजूद हारकर आदमी किस तरह की राय कायम करता है। जेन ऑस्टन के इस नॉवल को साहित्य की दुनिया में क्लासिक का दर्जा हासिल है। सन 1813 में आई इस किताब पर कई फिल्में भी बनीं लेकिन कोई भी किताब की ऊंचाइयों को नहीं छू पाई। परिजनों के आपसी जुड़ाव, प्यार, इज्जत (प्राइड) और पूर्वाग्रह (प्रेजुडिस) की यह कहानी बताती है कि प्यार किस तरह खुद पूर्वाग्रहों से दूर निकल जाता है। यह प्यार को महसूस करने, उससे इनकार करने, उसे स्वीकार करने और इन सबसे ऊपर उसकी जीत की कहानी है। किताब यह भी बताती है कि शक्ल-सूरत देखकर किसी के बारे में राय कायम नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने पर आप धोखा खा सकते हैं। नॉवल की कहानी एलिजाबेथ के आसपास बुनी गई है, जो बेनेट परिवार की दूसरे नंबर की बेटी है। उसकी चार बहनें हैं - रहमदिल और भोलीभाली जेन, पढ़ाकू मैरी व किटी और फ्लर्ट लाडिया। मां की बहुत इच्छा है कि उसकी बेटियों की शादी खूब पैसेवाले परिवारों में हो। अपनी इस चाहत को पूरी करने के लिए वह हर मुमकिन कोशिश करती है। जब रईस मि. बिंग्ले उस इलाके में आते हैं तो मां उसे जेन की ओर आकर्षित करने की कोशिश करती है। बिंग्ले का दोस्त मि. डार्सी शुरुआत में एक घमंडी, अकड़ू और उद्देश्यहीन शख्स नजर आता है। लेकिन जब वह एलिजाबेथ (जोकि उन सबमें सबसे ज्यादा पूर्वाग्रह से पीड़ित थी) को चाहने लगता है, तो पता चलता है कि किस तरह किसी के प्यार में पड़ने पर एक पुरुष अपने तौर-तरीके और महिला अपनी सोच बदल सकती है। किताब का सबसे बड़ा सबक यह है कि कवर से किताब के बारे में राय नहीं बनानी चाहिए... यानी किसी की शक्ल देखकर आप उसके बारे में सही राय नहीं बना सकते। साथ ही, किसी के बारे में अपरिपक्व तरीके से भी राय नहीं बनानी चाहिए। किताब यह भी कहती है कि प्यार अपना रास्ता खुद तलाश लेता है, जैसे कि जेन और बिंग्ले या एलिजाबेथ और डार्सी के मामले में हुआ। किताब यह भी साबित करती है कि हर प्रेम कहानी का अपना तरीका और अपनी राह होती है। कहानी के किरदार ब्लैक एंड वाइट के बजाय ग्रे शेड वाले हैं, यानी खूबियों के साथ-साथ कमियों से भी भरे। मजेदार यह है कि हर कमी कहानी में एक दिलचस्प सिनेरियो पैदा करता है और बाद में उसकी परफेक्ट एंडिंग हो जाती है। करीब 200 साल पहले लिखे जाने के बावजूद किताब में दर्शाए गए सामाजिक दबावों को आज भी महसूस किया जा सकता है। यह हमें दिल के मामलों को हैंडल करना सिखाती है और बताती है कि आप अपने दिल की सुनें, प्यार अपनी राह खुद तलाश लेगा। यह माफ करने की सीख देती है, पूर्वाग्रहों को खत्म करने का पाठ पढ़ाती है और कहती है कि बंद दिमाग जिंदगी में मददगार साबित नहीं होता। किताब अपने परिवार को हिफाजत करने का सबक भी सिखाती है। किताब की मुख्य बातें - किसी महिला की कल्पना की रफ्तार काफी तेज होती है। वह एक पल में तारीफ से प्यार और प्यार से शादी तक छलांग लगा लेती है। - अपमान कई बार छलावा भर होता है। जरूरी नहीं है कि सामनेवाले ने हमें अपमानित करने की मंशा के साथ कोई काम किया। कई बार किसी की लापरवाही तो कई बार हमें उत्साहित करने की किसी की कोशिश भी हमें अपमान महसूस हो सकती है। - दूसरे लोग चाहते हैं कि हम उन विचारों की जिम्मेदारी लें, जिन्हें उन्होंने हमारा करार दिया है, जबकि हमने कभी उन पर गौर ही नहीं किया। - अच्छा विचार एक बार खोता है तो हमेशा के लिए खो जाता है। - हर शख्स में खास तरह की बुराई होती है। उसे पैदाइशी खोट भी कह सकते हैं और अच्छी-से-अच्छी शिक्षा उसे दूर नहीं कर सकती। - जितना ज्यादा हम दुनिया को देखते हैं, उतना ज्यादा असंतोष होता है। मानव स्वभाव की अस्थिरता के बारे में विश्वास और मजबूत होता जाता है। - सिर्फ बीते हुए कल के बारे में सोचें क्योंकि उसे याद करना हमें खुशी देता है। - अगर कोई महिला किसी पुरुष का फेवर करती है तो उसे (पुरुष) इसे महसूस कर लेना चाहिए। - हम दूसरे के घमंड को माफ कर सकते हैं, बशतेर् उसने हमारे स्वाभिमान को ठेस न पहुंचाई हो। - गर्व और अहंकार दो अलग-अलग चीजें हैं। बिना अहंकार भी कोई शख्स गर्व महसूस कर सकता है। जिसे हम गर्व मानते हैं, वह दूसरों की निगाह में अहंकार हो सकता है।