मंगलवार, 8 नवंबर 2011

रशीदी ट‍िकट

रशीदी ट‍िकट जब मैं पढा था, तो उस समय शादी नहीं हुई थी। न ही मैं लेखक के बारे में कुछ जानता था और न ही जानने की दि‍लचस्‍पी ही थी। इंटरनेट खंगाल रहा था क‍ि उसी समय इसके कुछ वाक्‍य अनायास ही गुगल पर दि‍खाई दि‍ए। उस समय मैं गुनाहों का देवता पढा था और इसी तरह की उपन्‍यास पढना चाहता था। रशीदी टि‍कट पढने में न जाने बहुत मजा आया। ' रसीदी टिकट' अमृता प्रीतम की बहुचर्चित आत्मकथा है। 'कई घटनाएं जब घट रही होती हैं, अभी-अभी जख्मों-सी, तब उनकी कोई कसक अक्षरों में उतर आती है... लेकिन वक्त पाकर अहसास होता है कि ये बातें, लंबे समय के लिए साहित्य को कुछ दे नहीं पाएंगी... ये वक्ती आंधियां होती हैं...' अपनी उम्र बिता चुकी वक्ती आंधियों को छांटते हुए और नई बातें यादों के रूप में जोड़ते हुए लेखिका ने आत्मकथा को नया और संक्षिप्त रूप दिया है। हां, मूल चिंतन वही है जो मूल आत्मकथा में था। अध्यापन करने वाले मां-बाप की यह संतान मां राज बीबी और पिता नंद साधु को याद करते हुए अपने चरित्र का आधार भी खोलती चली है। चरित्र, जो बरतनों को हिंदू-मुसलमान होने से रोकता है। जो परछाइयों को बहुत बड़ी हकीकत मानता है। जो कवि पिता की इस नसीहत को मानने से इनकार कर देता है कि अमृता को सिर्फ धामिर्क कविताएं लिखनी चाहिए। जो दकियानूसी विचारों से बाहर निकल खुली हवा में सांस लेना चाहता है। जो तसव्वुर को कायम रखना चाहता है। अमृता प्रीतम की यह आत्मकथा बताती है कि उसे नफरत के दायरे पर तरस आता है, उसे विभाजन ने बुरी तरह प्रभावित किया था कि 'वारिस शाह' जैसी कविता की रचना हुई। यह बताती है कि रचनाकार को कैसे अपनी आलोचना की परवाह नहीं करनी चाहिए, चाहे जमाना बैरी हो जाए। साहिर से करीबी और इमरोज से गहरी दोस्ती के बीच के वक्फे को भी अमृता ने खूबसूरती से सामने रखा है। इस किताब को पढ़ना एक ऐसे बुखार से गुजरना है जो आपको नायिका की जिंदगी की हर सच्चाई से रूबरू करा देता है। बगैर बुखारी ताप के उन तक पहुंचना नामुमकिन है। दरअसल, यह एक आत्मकोलाज है, जहां डायरी संस्मरण, कविताएं, स्वप्न और जिंदगी के कड़वे यथार्थ घुलमिल गए हैं। यहां यात्राएं हैं और उनके भीतर हैं अंतर्यात्राएं। यहां एक व्यक्ति की लगातार विस्तृत होती दुनिया भी है, जहां दुनिया भर के अदीब शामिल हैं और स्त्री की वह हकीकत भी जो उसे कमजोर भी बनाती है और मजबूत भी। अच्छी बात यह है कि यह पुरानी 'रसीदी टिकट' की पूरक है। दोनों को एक साथ पढ़ने पर रोचक अध्ययन परिणाम आएंगे। यहां अमृता की रचना-प्रक्रिया और उसके अंत:सूत्र खुलते हैं तो पात्रों की अंतर्कथाएं भी। जिंदगी का भले ही कोई रफ ड्राफ्ट न होता हो, अमृता ने यह साबित कर दिया कि आत्मकथा दोबारा लिखी जा सकती है और अगर वह खुद ही तराश दी गई हो, तो कहना ही क्या! इमरोज का मुखपृष्ठ अमृता का जीवन-घट और गहरा देता है।
किताब की खास बातें - 
- तस्वीर चाहे किसी भी खास व्यक्ति की हो, यह सवाल नहीं है, जो अच्छे लगते हैं, वे हर समय खयालों में रहते हैं, तस्वीरों में नहीं। 
- हम सभी जानते हैं कि इंसान और इंसाफ के दरमियान एक लंबा फासला है, जिसे तय करते हुए लोगों की जिंदगी के जाने कितने साल और उनकी कितनी कमाई बर्बाद हो जाती है।

यूं तो हर परछाईं किसी काया की परछाईं होती है, काया की मोहताज, पर कई परछाइयां ऐसी भी होती हैं, जो इस नियम के बाहर होती हैं, काया से भी स्वतंत्र।
- दीवानेपन के अंतिम शिखर पर पैर रखकर खड़े नहीं रहा जा सकता, पैरों पर बैठने के लिए धरती का टुकड़ा चाहिए। - दुखांत यह नहीं होता कि जिंदगी की लंबी डगर पर समाज के बंधन अपने कांटे बिखरते रहें और आपके पैरों में से सारी उम्र लहू बहता रहे। दुखांत यह होता है कि आप लहूलुहान पैरों से एक उस जगह पर खड़े हो जाएं, जिसके आगे कोई रास्ता आपको बुलावा न दे।
- कुछ घटनाएं बहुत ही थोड़े समय के बाद रचना का अंग बन जाती हैं, पर कुछ घटनाओं को कलम तक पहुंचने के लिए बरसों का फासला तय करना पड़ता है। 
- दुनिया के सब सच्चे लेखक मुझे ककनूसी नस्ल के प्रतीत होते हैं। रचनात्मक क्रिया की आग में जलते और फिर अपनी राख में से रचना के रूप में जन्म लेते हुए।
- भले ही कहानी के हर पात्र के साथ लेखक का गहरा साझा होता है, पर एक दूरी हर साझे का हिस्सा होती है।
- लेखक दो तरह के होते हैं - एक जो लेखक होते हैं, और दूसरे, जो लेखक दिखना चाहते हैं। जो हैं, दिखने का यत्न उनकी आवश्यकता नहीं होता। 

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