इसे मैं ग्रेजुएशन में पढा था, लेकिन सिर्फ पढा था, कुछ भी समझ में नहीं आया। दरअसल उस समय मैं काफी उपन्यास इसलिए पढता था कि लोगों के सामने शेखी बघार सकूं। जब मैं नौकरी करने लगा तो इसके बारे में काफी कुछ सुना। फिर से पढने की इच्छा हुई और पढने लगा। अब भी बहुत कुछ नहीं समझ पाया हूं, लेकिन जो समझा, उसे यहां इसलिए दे रहा हूं कि जब कभी मौका मिलेगा। इस पर मनन करूंगा। शेखर की जीवनी मुझसे काफी मिलती है। मैं भी बचपन में इसी स्वभाव का था, लेकिन अंतर यह है कि अब मैं बदल चुका हूं और अक्रामक नहीं हूं, जैसा कि पहले था। शेखर एक ऐसा व्यक्ति है जो पूरी ईमानदारी से अपने जीवन के सुख-दुख से गुज़रना चाहता है. वो पिता की सलाह को नज़रअंदाज़ कर अंग्रेज़ी की बजाय हिंदी में लेखन करना चाहता है क्योंकि अंग्रेज़ी से उसे दासता की अनुभूति होती है। नदी के द्वीप उपन्यास में व्यक्ति नदी के द्वीप की तरह है. चारों तरफ नदी की धारा से घिरा लेकिन फिर भी अकेला और अपनी सत्ता में स्वतंत्र. उपन्यास के मुख्य पात्र रेखा और भुवन एक-दूसरे के प्रति आकृष्ट हैं. दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी हैं लेकिन फिर भी रेखा भुवन को छोड़कर डॉक्टर रमेश चंद्र से विवाह करती है. गौरा और भुवन के बीच भी एक-दूसरे के लिए आकर्षण है लेकिन वे उसे सही रूप में व्यक्त नहीं कर
शेखर: एक जीवनी
'शेखर' की भूमिका में लिखते हैं कि यह जेल के स्थगित जीवन में केवल एक रात में महसूस की गई घनीभूत वेदना का ही शब्दबद्ध विस्तार है ये उपन्यास है.अज्ञेय ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि शेखर के जीवन की कुछ घटनाएं और स्थान उनके जीवन से मिलते-जुलते हैं लेकिन जैसे-जैसे शेखर का विकास होता गया है वैसे-वैसे शेखर का व्यक्ति और रचनेवाला रचनाकार एक-दूसरे से अलग होते गए हैं
कहते हैं यथार्थवादी साहित्य में किसी भी पात्र का जन्म अकस्मात् नहीं होता, या यों कहें वो महज़ कोरी कल्पना नहीं होता. कार्य-कारण संबंधों के आधार पर ही किसी यथार्थवादी रचना में घटनाओं और पात्रों का जन्म और विकास होता है. ‘शेखर’ में व्यक्ति स्वातंत्र्य की अनुभूति और अभिव्यक्ति की जो छटपटाहट पूरे उपन्यास में नज़र आती है वो दरअसल प्रेमचंद के गोदान (1936) के पात्र ‘गोबर’ के चरित्र का स्वाभाविक विकास है.
‘गोबर’ की संवेदना का ही स्वाभाविक विकास है अज्ञेय का ‘शेखर’ जो अपने अंतर्मन की आवाज़ सुनता है और वही करता है जिसकी गवाही उसका विवेक देता है. वो स्कूल नहीं जाना चाहता क्योंकि वो मानता है कि स्कूलों में टाइप बनते हैं जबकि शेखर व्यक्ति बनना चाहता है. एक ऐसा व्यक्ति जो पूरी ईमानदारी से अपने जीवन के सुख-दुख से गुज़रना चाहता है. वो पिता की सलाह को नज़रअंदाज़ कर अंग्रेज़ी की बजाय हिंदी में लेखन करना चाहता है क्योंकि अंग्रेज़ी से उसे दासता की अनुभूति होती है.
इस उपन्यास में ‘शेखर’ एक निहायत ईमानदार व्यक्ति है, अपनी अनुभूतियों और जिज्ञासाओं के प्रति बेहद ईमानदार. जीवन की नई-नई परिस्थितियों में उसके मन में कई सवाल उठते हैं और वह अनुभव करता चलता है, सीखता चलता है.
अज्ञेय ने मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से ‘शेखर’ के ज़रिए एक व्यक्ति के विकास की कहानी बुनी है जो अपनी स्वभावगत अच्छाइयों और बुराइयों के साथ देशकाल की समस्याओं पर विचार करता है, अपनी शिक्षा-दीक्षा, लेखन और आज़ादी की लड़ाई में अपनी भूमिका के क्रम में कई लोगों के संपर्क में आता है लेकिन उसके जीवन में सबसे गहरा और स्थायी प्रभाव शशि का पड़ता है जो रिश्ते में उसकी बहन लगती है, लेकिन दोनों के रिश्ते भाई-बहन के संबंधों के बने-बनाए सामाजिक ढांचे से काफी आगे निकलकर मानवीय संबंधों को एक नई परिभाषा देते हैं.
हिंदी साहित्य के लिए शशि-शेखर संबंध तत्कालीन भारतीय समाज में एक नई बात थी जिसे लेकर आलोचकों के बीच उपन्यास के प्रकाशन के बाद से लेकर आज तक बहस होती है.
शेखर एक जगह शशि से कहता है – ‘कब से तु्म्हें बहन कहता आया हूं, लेकिन बहन जितनी पास होती है, उतनी पास तुम नहीं हो, और जितनी दूर होती है, उतनी दूर भी नहीं हो’- ये भारतीय उपन्यास में स्त्री-पुरुष संबंधों की एक नई अभिव्यक्ति थी.
‘शेखर’ दरअसल एक व्यक्ति के बनने की कहानी है जिसमें उसके अंतर्मन के विभिन्न परतों की कथा क्रम के ज़रिए मनोवैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करने की कोशिश अज्ञेय ने की है. इस उपन्यास के प्रकाशन के बाद कुछ आलोचकों ने कहा था कि ये अज्ञेय की ही अपनी कहानी है.
लेकिन अज्ञेय ने इसका स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि शेखर के जीवन की कुछ घटनाएं और स्थान उनके जीवन से मिलते-जुलते हैं लेकिन जैसे-जैसे शेखर का विकास होता गया है वैसे-वैसे शेखर का व्यक्ति और रचनेवाला रचनाकार एक-दूसरे से अलग होते गए हैं.
‘नदी के द्वीप’
ये उपन्यास अलग-अलग पात्रों के जीवन, उनके सुख-दुख, उनके आंतरिक भावावेश को कवित्वपूर्ण भाषागत अभिव्यक्तियों के ज़रिए बयां तो करता है लेकिन युगीन यथार्थ को पूरी तरह स्पर्श नहीं कर पाता और इसकी वजह है पात्रों का अपने भीतर जीते जाना, बाहर या समाज में नहींभुवन विज्ञान का प्रोफेसर है, रेखा एक पढ़ी-लिखी पति द्वारा परित्यक्ता स्त्री है, गौरा भुवन की छात्रा है. उपन्यास में दो अन्य गौण पात्र हैं हेमेंद्र और डॉक्टर रमेशचंद्र. हेमेंद्र रेखा का पति है जो केवल उसे पाना चाहता है और जब हासिल नहीं कर पाता तो उसे छोड़ देता है.
उसे सौंदर्योबोध, नैतिकता जैसे मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं. डॉक्टर रमेशचंद्र रेखा का नया पति हैं जो एक सुलझा हुआ इनसान है.
‘शेखर’ की तुलना में इस उपन्यास में घटनाएं बहुत कम हैं क्योंकि उपन्यास के पात्र बाहर बहुत कम जीते हैं.
वे ज्यादातर आत्ममंथन या आत्मालाप कर रहे होते हैं. ये इतने संवेदनशील पात्र हैं कि बाहर की जिंदगी की हल्की सी छुअन भी इन्हें भीतर तक हिला कर रख देती है. अज्ञेय ने उपन्यास में पात्रों की इसी भीतरी ज़िंदगी को विभिन्न, प्रतीकों, बिम्बों और कविताओं के ज़रिए उभारने की कोशिश की है.
उपन्यास में भुवन रेखा और गौरा दोनों के बेहद क़रीब है. ये तीनों ही मध्यवर्गीय संवेदना से भरे, आधुनिकता बोध वाले बुद्धिजीवी पात्र हैं. लेकिन इनकी सबसे बड़ी समस्या ये है कि ये भीतर ही भीतर चाहे जितनी ही लंबी विचार सरणि बना लें, उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाते.
यहां तक कि एक-दूसरे के लिए अपनी भावनाएं भी. इस उपन्यास में व्यक्ति नदी के द्वीप की तरह है. चारों तरफ नदी की धारा से घिरा लेकिन फिर भी अकेला और अपनी सत्ता में स्वतंत्र.
उपन्यास के मुख्य पात्र रेखा और भुवन एक-दूसरे के प्रति आकृष्ट हैं. दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी हैं लेकिन फिर भी रेखा भुवन को छोड़कर डॉक्टर रमेश चंद्र से विवाह करती है. गौरा और भुवन के बीच भी एक-दूसरे के लिए आकर्षण है लेकिन वे उसे सही रूप में व्यक्त नहीं कर पाते.
कुल मिलाकर ये उपन्यास अलग-अलग पात्रों के जीवन, उनके सुख-दुख, उनके आंतरिक भावावेश को कवित्वपूर्ण भाषागत अभिव्यक्तियों के ज़रिए बयां तो करता है लेकिन युगीन यथार्थ को पूरी तरह स्पर्श नहीं कर पाता और इसकी वजह है पात्रों का अपने भीतर जीते जाना, बाहर या समाज में नहीं.
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