सीरत बदल गई है, तो हैरत न कीजिए
हम हादसों के शहर में रहते हैं दोस्तो।
आज हर दिल्लीवाले के जुबान पर यही शेर है और इसका पालन भी कर रहे हैं। तभी तो अंधे को उस पार ले जानेवाला कोई नहीं मिला। हुआ यूं कि रोज की तरह आज भी शाम को ऑफिस से घर जा रहा था। ऑटो पकडऩे के लिए रोड पार करना पड़ता है। वहां रेड लाइट नहीं है। इस कारण सभी लोग जान जोखिम में डालकर ही उस पार होते हैं। मैं उस पार होने के लिए लगभग दस मिनट से खड़ा था, लेकिन गाड़ी के वेग को देखते हुए उस पार जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। अपनी कमजोरी पर गुस्सा भी आ रहा था और भगवान से गुस्सा भी कर रहा था। मैं वहां खड़ा होकर सोचने लगा कि क्या यही जिंदगी है? एक तरफ बीमारी न आए, इसके लिए पहले से ही दवाई की जाती है और यहां न चाहकर भी सभी अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं। गाड़ी तभी रुकती है, जब लोग उसके आगे खड़े हो जाते हैं। वैसे भी यह दुनिया किसी की नहीं है। हां, तो मैं बात कर था कि दस मिनट से हम उस पार जाने के लिए सोच रहे थे और हर बार हमारी हिम्मत जवाब दे देती थी। उसी समय एक सुरदास जी आए और उन्होंने भी उस पार जाने के लिए लोगों से निवेदन किया। बहुत लोग तो उनकी बात पर ध्यान ही नहीं दिए। मैं भी उनमें से एक था। हो सकता है कि सभी को कुछ न कुछ लाचारी रही हो, लेकिन मेरी लाचारी यह है कि मैं खुद बैसाखी से चल रहा हूं। इस कारण अपनी जान को तो जोखिम में डाल तो सकता हूं, लेकिन दूसरे की जान को जोखिम में नहीं डाल सकता। क्या मेरी तरह वे लोग भी यही सोचते हैं? लेकिन वे तो मेरी तरह लाचार नहीं हैं। अंत में देखा कि कोई भी उसे उस पार तक नहीं पहुंचाया। कुछ देर बाद देखा कि वे खुद हिम्मत बांधकर पार होने लगे। उधर से गाड़ी आ रही थी। इस कारण मैंने उन्हें रोका। वे हम पर बहुत गुस्साए और बोले कि क्यों रोकते हो हमें? मैंने कहा कि गाड़ी आ रही थी। इस कारण रोका। शायद आप .... हो जाते। दुखी मन से वे बोले कि दोस्त यहां के लोगों को देखकर तो जीने की इच्छा भी मर गई है। हमें होने देते उस पार। दोनों मेरे हित में होता। अगर मैं मर जाता तो भी उस पार यानी कि धरती से ऊपर चला जाता और यदि बच जाता तो भी उस पार यानी कि अपना घर पहुंच जाता। अंत में मैंने उसे अपनी रिस्क पर उस पार पहुंचाने का निर्णय लिया। सभी लोग हम दोनों की जोड़ी को देखकर हंस रहे थे और मुस्कुराकर उस पार हो रहे थे। फिर मैं भी सोचने लगा कि अपनी जिंदगी बचाने के लिए ही तो हम रोज दस मिनट इसी में जाया करते हैं। काश यहां भी रेड लाइट होती तो यह दिन नहीं देखने पड़ते। अभी तक यही लोगों से सुना है कि यदि खुद संकट में हो, तो दूसरे की जान को संकट में नहीं डालना चाहिए। मैं उन्हें लेकर उस पार चला गया। क्या मैं गलत किया? मैं यह सोचकर काफी परेशान हूं कि यदि ऊपर के पंक्ति सही हैं, तो इस आधार पर मैं गलत हूं, लेकिन यदि मानवता के हित में देखें, तो शायद आप भी शब्दों की परवाह न करते हुए भावनाओं को तवज्जो देते और वही करते जो मैंने किया है। फिर अंतर्मन से आवाज आई कि यदि हमलोगों में संवेदनाएं होती, तो उस अंधे को तुम्हारी जरूरत क्यों पड़ती। तुम भी इसलिए ऐसा किए कि तुम्हारे पास दस मिनट का समय था। हादसों के इस शहर में दस मिनट में या तो मेट्रो पकड़कर नोएडा से दिल्ली पहुंचा जा सकता है या दुर्घटना में अल्ला के प्यारे हुआ जा सकता है। अब तुम्ही बताओ कि आजकल तुम्हारी तरह किसके पास दस मिनट का समय है। समयाभाव के कारण ही तो अपने से सभी अलग रहना चाहता है। अपने लोगों के लिए घर में भी समय नहीं है। यह तो दिल्ली की रोड है, जहां रोज आंख वाले मरते हैं, आज अंधा ही मर जाता तो कौन सा भूकंप आ जाता। आप ही बताइये न मैंने गलत किया?
2 टिप्पणियां:
बिल्कुल दुरुस्त फरमाया है सर जी आपने। इस भागमभाग शहर में लोगों के अंदर इंसानियत और जमीर जैसी चीज बचती ही कहां है?
Thats the irony of life....In a hsate for better life ...we are playing with our lives. Just take a break, think what u want from life and plan. Life will give you whatever u want if you concentrate. Don't just run in the rat race. Be different,be cool...enjoy life....Life will surely treat u GOOD.
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