गुरुवार, 28 जनवरी 2010

मैं और मेरा जीवन

जब मारा पहली बॉल पर छक्का
मुझे पढ़ाई में कभी भी मन नहीं लगता था। हमेशा खेलने और प्रमोद भैया से लडऩे में ही समय जाया हो जाता था। जिंदगी मजे में चल रही थी कि एक दिन परीक्षा सिर आ गई। क्लास कभी नहीं गया था। एकाएक परीक्षा देने पहुंच गया। चलने में लाचार था। इस कारण लाल भैया अपने कंधे पर मुझे स्कूल ले गए और परीक्षा हॉल में बैठा दिए। उस समय जहां तक मुझे याद है कि प्रश्न में क्या लिखा था, मुझे कुछ भी पता नहीं है। लेकिन टीचर सभी को एक दोहा लिखने के लिए कह रहे थे। मुझे अपने क्लास के सभी दोहे याद थे, लेकिन लिखने का अभ्यास नहीं था। इस कारण मैं रोने लगा। टीचर हमें कुछ भी लिखने के लिए कह रहे थे। अपना नाम और वर्ग किसी तरह लिख ही रहा था कि रोशनाई कॉपी पर गिर गई। मेरे भैया बाहर से देख रहे थे। उसे टीचर भगा रहे थे और वे किसी तरह वहां खड़े थे। बाद में उन्होंने काफी मेहनत के बाद अंदर मुझे लेने के लिए दाखिल हुए और पंद्रह मिनट में कॉपी भर दिए। उस समय तक मुझे कुछ भी पता नहीं था। जब एक महीने के बाद भैया स्कूल से आए, तो सभी लोग मुझे शाबासी दे रहे थे। क्योंकि मैं अपने वर्ग में प्रथम आया था। याद है मुझे उस समय की घटना, जब हम और भी पढ़ाई नहीं करने लगे। मुझे यह विश्वास हो गया था कि फिर मैं ही प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होऊंगा। उस समय न चल पाने के बावजूद मेरे पैर आसमान में थे। सच कहिए, तो उसी समय से मुझे सहारे की अहमियत मालूम हुई और मुझे लगने लगा कि अपने परिवार की बदौलत आसमान में उड़ा जा सकता है। लेकिन यह अधिक दिनों तक नहीं रही।
सेकेंड बॉल पर बोल्ड
जब सेकेंड क्लास में गया, तो पता चला कि मुझे कुछ भी नहीं आता है, जो कि सही आकलन था। आत्मविश्वास इतना गिर गया कि मैंने पढऩा ही छोड़ दिया। घर में दबाव की वजह से जो कुछ पढ़ता था, बस वही था। इस बार की परीक्षा में भैया नहीं थे। इस कारण हमें ही लिखना पड़ा। जो कुछ भी जानता था, उसे लिख दिया। रिजल्ट के पीछे यह धारणा अभी भी बनी हुई थी कि फस्र्ट नहीं, तो सेकेंड अवश्य आऊंगा। उस समय रिजल्ट निकलने से पहले स्कूल में बांस और झाड़ू देना पड़ता था। इससे अधिक माक्र्स मिलते थे। पहली बार इस उत्साह से अपने बांस बाड़ी गया स्वयं बांस काटने। मुझसे नहीं कटी बांस। मुझे यह सीख मिली कि जो देखने में बड़ा होता है, उसे काटना उतना ही मुश्किल होता है। खैर बांस और झाड़ू स्कूल मेेें पहुंचाया। रिजल्ट के दिन सभी स्टूडेंट्स को बुलाया गया। सभी क्लास से उन तीन नामों को बताया गया, जो प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी से उत्तीर्ण थे। मेरा नाम किसी में नहीं था। काफी दुख हुआ मुझे उस समय। प्रमोद भैया का नाम सुनकर मुझे और भी दुख हुआ। क्योंकि हमें यही डर था कि घर जाने पर वे सभी को बताएंगे और अपनी शेखी बघारेंगे। दुखी होकर मैं टीचर के पास गया और पूछा कि मास्टर साहब हम पास नहीं कर पाए हैं। उस समय रिजल्ट का अहमियत मालूम हुआ और उसका दबाव भी पता चला। टीचर भावुक होकर सभी के सामने बोले कि विजय झा भी पास कर गया है। उस समय का बालमन इतना भी समझ नहीं पाया कि वे हमें उत्साह बढ़ाने के लिए झूठ बोल रहे हैं। एकाएक मेरा दिमाग बदल गया और अपने दो साथियों का नाम न सुनकर उन्हें पढऩे के लिए नसीहत देने लगा। प्रमोद भैया हमें डांटते हुए बोले कि तुम भी तो पास नहीं हुए हो। मैं तपाक से बोला कि आपकी तरह मेरा भी नाम पुकारा गया है। हम दोनों में इस तरह की बहस एक दिन में तीन चार बार अवश्य हो जाया करती थी। छोटे होने का हम हमेशा फायदा उठाते और वे गलती न रहने के बावजूद हमेशा पीटते रहते। जब अनजाने में नाटक सीखाएक रात हम दोनों भाई पढ़ रहे थे। हम दोनों को पढऩे में मन नहीं लग रहा था। पढ़ाई छोड़कर उनके सामने रोने का एक्टिंग कर रहा था। रोने की एक्टिंग में ऐसा खो गया कि रोने की आवाज घर से बाहर पहुंच गई और लाल भैया दौड़ते हुए हमलोगों को देखने के लिए आ ही रहे थे कि मैं उन्हें देखकर सही में रोने लगा। संयोग से आंसू भी टपकने लगे। भैया ने जब रोने का करण पूछा, तो मैं प्रमोद भाई का नाम लगा दिया और बोला कि वे हमें मार रहे थे। वे हतप्रभ थे। उस समय वे कुछ भी उत्तर नहीं दे पा रहे थे। लाल भैया उन्हें मार रहे थे और बेचारा बिना मारे ही मार खा रहा था। उस समय पहली बार उन पर तरस आया और अपने आप में यह विश्वास जागा कि परिस्थितियां आने पर इस तरह के नाटक से बचा जा सकता है। बाद में इसका काफी उपयोग किया।
केले की रोटी
घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। पापा टीचर थे। हम पांच भाई और बहन थे। पापा के सिवा कोई कमानेवाला नहीं था। तीन बहनों की शादी हो चुकी थी। परिवार काफी बड़ा था। सिर्फ दो बड़ी बहने और बड़े भैया घर में नहीं थे। घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं था। मां किसी तरह सभी भाई-बहनों को बहला रही थी। दो दिनों से खाना में उबला हुआ आलू ही खा रहे थे। भाई-बहनों में मैं सबसे ज्यादा शरारती था। जहां तक मुझे याद है कि उस समय मुझे यही पता चला कि घर में खाने के लिए आलू के सिवा कुछ भी नहीं है, बस मैं रोना शुरू कर दिया कि मुझे रोटी चाहिए। मां परेशान हो गई, लेकिन कुछ कर भी नहीं सकती थी। पापा महीने में एक बार घर आते थे और दूसरे दिन विदा हो जाते थे। उस समय इतने कर्ज थे कि मुश्किल से खाने के लिए पैसा बचता था। खाना मिलते न देख मैं रोने लगा। अंत में मां ने रोटी बनाई और हमें खिलाई। तब जाकर शांत हुआ। उस समय किसकी रोटी बनाई गई थी, मुझे पता नहीं था। जब बड़ा हुआ, तो मां बताई कि घर में कुछ न देखकर कच्चा केला को उबालकर उसी की रोटी बनाई और तुम्हें शांत किया। उस दिन जब भी उबला हुआ आलू और केला देखता हूं, तो पुरानी यादें ताजा हो जाती है।
आज के परिप्रेक्ष्य में
जब पुरानी घटना को आज के परिप्रेक्ष्य में देखता हूं, तो लगता है कि पिताजी कितने महान थे कि अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़कर नौकरी करते थे और अपनी जिंदगी अपने बच्चे में बिता दिए। आज के मां-बाप इस तरह कर सकते हैं? यदि मां-बाप अपने बच्चे के लिए इस तरह के कार्य कर भी लें, तो औरत अपने बच्चे के लिए इतना त्याग कर सकती है। हम खुशनसीब हैं कि हमें इस तरह के पैरेंट्स नसीब हुए हैं। फिर स्वयं को देखता हूं, तो और भी परेशान हो जाता हूं। अपने बचपन के व्यवहार को देखकर मैं यह कह सकता हूं कि इस तरह के शरारती बच्चे को कम से कम मैं नहीं झेल सकता। मुझे यह भी सीख मिली कि सहारे की डोर पकड़कर आप जीवन की सफर तय नहीं कर सकते हैं। इस तरह के सहारे जीवन में कभी-कभी मिलते हैं। जो इन सहारा का सदुपयोग करते हैं, उन्हें कभी भी कठिनाइयां नहीं आती है। इस अनुभव का मैंने बाद में उपयोग किया और आज अनुभव का फायदा उठाकर इस मामले में खुश हूं। फिर सोचता हूं कि क्या आज के बच्चे को इस तरह ठगा जा सकता है?

2 टिप्‍पणियां:

उन्मुक्त ने कहा…

माता, पिता तो हमेशा बच्चों के लिये त्याग करते हैं।

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sunil ने कहा…

झा साहब, हंसी भी आती है और आंखों में आंसू भी। आपके लिए मेरे मन में अगाध श्रद्धा तो पहले से ही है, लेकिन बचपन की घटनाओं को जानने-समझने और पढ़ने के बाद मैं आपका और बड़ा फैन बनता जा रहा हूं। ईश्वर आपको निश्चित तौर पर कामयाबी की शीर्ष बुलंदियों तक पहुंचाएगा। आप हमेशा हमारे लिए आदर्श बने रहेंगे।