पिछले काफी महीनों से इसी उधेडबुन में हूं कि खुश्ाी कहां से लाएं। अब तो यह वर्ष भी खत्म होनेवाला है। लोग नए वर्ष में बहुत तरह के रिजोल्यूशन लेते हैं खुशी पाने के लिए। लेकिन फिर दुखी हो जाते हैं। वे खुद को कोसने लगते हैं। वास्तिवकता यह है कि जन्म लेना हमारे हाथ में नहीं है, लेकिन इस जीवन को सुंदर बनाना हमारे हाथ में है और जब सुख की यह संभावना हमारे हाथ में है तो फिर यह दुख कैसा ? यह शिकायत कैसी ? हम क्यों भाग्य को कोसें और दूसरे को दोष दें ? जब सपने हमारे हैं तो कोशिशें भी हमारी होनी चाहिए। जब पहुंचना हमें है तो यात्रा भी हमारी ही होनी चाहिए। पर सच तो यह है जीवन की यह यात्रा सीधी और सरल नहीं है इसमें दुख हैं, तकलीफें हैं, संघर्ष और परीक्षाएं भी हैं। ऐसे में स्वयं को हर स्थिति-परिस्थिति में, माहौल-हालात में सजग एवं संतुलित रखना वास्तव में एक कला है। इंसान सीधे-सीधे क्यों नहीं मर जाता, इतने उतार चढ़ाव इतने कष्ट क्यों ? इंसान सरलता से क्यों नहीं मर जाता, इतनी परीक्षाएं क्यों ? कहते हैं सब कुछ पहले से ही तय है कि कौन क्या करेगा, कब करेगा, कितना और कैसा जिएगा ? यह सब पहले से ही निर्धारित है। इंसान बस उसको भोगता है, उससे गुजरता है। जब सब कुछ पहले से ही तय है तो फिर कर्म और भाग्य क्यों ? गीता कहती है ‘यहां हमारा कुछ नहीं, हम खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जाएंगे।’ यदि यह सत्य है तो इंसान के हाथ इतने भर क्यों जाते हैं कहां से जुटा लेता आदमी इतना कुछ ? आज समाज में पढे लिखे लोग सबसे अधिक पैसा कमा रहे हैं।
सुनकर, सोचकर लगता है कि यह ‘जीवन’ कितना उलझा हुआ है, यह दो-दो बातें करता है। न हमें ठीक से जलने देता है न ही बुझने देता है। हमें बांटकर, कशमकश में छोड़ देता है। सोचने की बात यह है कि यह जीवन उलझा हुआ है या हम उलझे हुए हैं ? उलझने हैं या पैदा करते हैं ? कमी जीवन में है या इसमें ? हमें जीवन समझ में नहीं आता या हम स्वयं को समझ नहीं पाते ? यह जन्म जीवन को समझने के लिए मिला है या खुद को समझने के लिए ? यह सवाल सोचने जैसे हैं। कितने लोग हैं जो इस जीवन से खुश हैं ? कितने लोग हैं जो स्वयं अपने आप से खुश हैं ? किसी को अपने आप से शिकायत है तो किसी को जीवन से। सवाल उठता है कि आदमी को जीवन में आकर दुख मिलता है या फिर वह अपनी वजह से जीवन को दुखी बना लेता है ? यदि जीवन में दुख होता तो सबके लिए होता, और हमेशा होता। मगर यही जीवन किसी को सुख भी देता है। जीवन सुख-दुख देता है या फिर आदमी सुख-दुख बना लेता है ? यह दोहरा खेल जीवन खेलता है या आदमी ? यह सब सोचने जैसे है। देखा जाए तो जीवन यह खेल नहीं खेल सकता, क्योंकि जीवन कुछ नहीं देता। हां जीवन में, जीवन के पास सब कुछ है। वह देता कुछ नहीं है, उससे इंसान को लेना पड़ता है। यदि देने का या इस खेल का जिम्मा जीवन का होता तो या तो सभी सुखी होता या सभी दुखी होते या फिर जिस एक बात पर एक आदमी दुखी होता है सभी उसी से दुखी होते तथा सब एक ही बात से सुखी होते, मगर ऐसा नहीं होता। तो इसका अर्थ तो यह हुआ कि यह खेल आदमी खेलता है। आदमी जीवन को सुख-दुख में बांट लेता है। यदि यह सही है तो इसका क्या मतलब लिया जाए, कि आदमी होना गलत है ? यानी इस जीवन में आना, जन्म लेना गलत है ? अब क्या करें ? कैसे बचें इस जीवन के खेल से ? क्या है हमारे हाथ में ? एक बात तो तय है आदमी होने से नहीं बचा जा सकता, लेकिन उसको तो ढूंढ़ा जा सकता है जो आदमी में छिपा है और जिम्मेदार है इस खेल का। पर कौन है आदमी में इतना चालाक, चंचल, संभावना की गुंजाइश है तो हमें जीवन को नहीं मन को समझना है क्योंकि यदि हमने मन को संभाल लिया तो समझो जीवन को संभाल लिया। सभी रास्ते मन के हैं, सभी परिणाम मन के हैं, वरना इस जन्म में, इस जीवन में रत्ती भर कोई कमी या खराबी नहीं। अपने अंदर की कमी को, मन की दोहरी चाल को समझ लेना और साध लेना ही एक कला है, एक मात्र उपाय है। इसलिए इस जीवन को कैसे जिएं कि इस जीवन में आना हमें बोझ या सिरदर्दी नहीं, बल्कि एक उपहार या पुरस्कार लगे। इस सोच के साथ ही इस व्ार्ष हमने जीने की तमन्ना पाल रखी है।
शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010
रविवार, 24 अक्टूबर 2010
पंचतंत्र की प्रेरक कहानियां
एक बार एक जंगल के निकटदो राजाओं के बीच घोर युद्ध हुआ। एक जीता दूसरा हारा। सेनाएं अपने नगरों को लौट गई। बस, सेना का एक ढोल पीछे रह गया। उस ढोल को बजा-बजाकर सेना के साथ गए भांड व चारण रात को वीरता की कहानियां सुनाते थे। युद्ध के बाद एक दिन आंधी आई। आंधी के जोर में वह ढोल लुढकता-पुढकता एक सूखे पेड के पास जाकर टिक गया। उस पेड की सूखी टहनियां ढोल से इस तरह से सट गई थी कि तेज हवा चलते ही ढोल पर टकरा जाती थी और ढमाढम ढमाढम की गुंजायमान आवाज होती। एक सियार उस क्षेत्र में घूमता था। उसने ढोल की आवाज सुनी। वह बडा भयभीत हुआ। ऐसी अजीब आवाज बोलते पहले उसने किसी जानवर को नहीं सुना था। वह सोचने लगा कि यह कैसा जानवर हैं, जो ऐसी जोरदार बोली बोलता हैं’ढमाढम’। सियार छिपकर ढोल को देखता रहता, यह जानने के लिए कि यह जीव उडने वाला हैं या चार टांगो पर दौडने वाला। एक दिन सियार झाडी के पीछे छुप कर ढोल पर नजर रखे था। तभी पेड से नीचे उतरती हुई एक गिलहरी कूदकर ढोल पर उतरी। हलकी-सी ढम की आवाज भी हुई। गिलहरी ढोल पर बैठी दाना कुतरती रही। सियार बडबडाया “ओह! तो यह कोई हिंसक जीव नहीं हैं। मुझे भी डरना नहीं चाहिए।” सियार फूंक-फूंककर कदम रखता ढोल के निकट गया। उसे सूंघा। ढोल का उसे न कहीं सिर नजर आया और न पैर। तभी हवा के झुंके से टहनियां ढोल से टकराईं। ढम की आवाज हुई और सियार उछलकर पीछे जा गिरा। “अब समझ आया।” सियार उढने की कोशिश करता हुआ बोला “यह तो बाहर का खोल हैं।जीव इस खोल के अंदर हैं। आवाज बता रही हैं कि जो कोई जीव इस खोल के भीतर रहता हैं, वह मोटा-ताजा होना चाहिए। चर्बी से भरा शरीर। तभी ये ढम=ढम की जोरदार बोली बोलता हैं।” अपनी मांद में घुसते ही सियार बोला “ओ सियारी! दावत खाने के लिए तैयार हो जा। एक मोटे-ताजे शिकार का पता लगाकर आया हूं।” सियारी पूछने लगी “तुम उसे मारकर क्यों नहीं लाए?” सियार ने उसे झिडकी दी “क्योंकि मैं तेरी तरह मूर्ख नहीं हूं। वह एक खोल के भीतर छिपा बैठा हैं। खोल ऐसा हैं कि उसमें दो तरफ सूखी चमडी के दरवाजे हैं।मैं एक तरफ से हाथ डाल उसे पकडने की कोशिश करता तो वह दूसरे दरवाजे से न भाग जाता?” चांद निकलने पर दोनों ढोल की ओर गए। जब वह् निकट पहुंच ही रहे थे कि फिर हवा से टहनियां ढोल पर टकराईं और ढम-ढम की आवाज निकली। सियार सियारी के कान में बोला “सुनी उसकी आवाज्? जरा सोच जिसकी आवाज ऐसी गहरी हैं, वह खुद कितना मोटा ताजा होगा।” दोनों ढोल को सीधा कर उसके दोनों ओर बैठे और लगे दांतो से ढोल के दोनों चमडी वाले भाग के किनारे फाडने। जैसे ही चमडियां कटने लगी, सियार बोला “होशियार रहना। एक साथ हाथ अंदर डाल शिकार को दबोचना हैं।” दोनों ने ‘हूं’ की आवाज के साथ हाथ ढोल के भीतर डाले और अंदर टटोलने लगे। अदंर कुछ नहीं था। एक दूसरे के हाथ ही पकड में आए। दोंनो चिल्लाए “हैं! यहां तो कुछ नहीं हैं।” और वे माथा पीटकर रह गए। सीखः शेखी मारने वाले ढोल की तरह ही अंदर से खोखले होते हैं।
चिड़िया और चींटी
एक दिन एक छोटी सी चिड़िया एक दाना दाल ले कर अपने घोंसले कि ओर उडती जा रही थी संयोग से वो दाना उसकी चोंच से गिरा और एक खूंटे की दरार में फँस गया चिड़िया ने बहुत चोंच मारी लेकिन दाना इतने गहरे चला गया था कि निकल न पाया
चिड़िया उड़ कर बढ़ई के पास पहुँची और उसने कहा-
‘बढ़ई-बढ़ई खूँटा चीर, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
बढ़ई – जा-जा तेरा एक दाना निकालने के लिए मैं खूँटा चीरने ना जाऊँगा
अब चिड़िया उड़ के राजा के पास शिकायत करने पहुंची -
राजा-राजा बढ़ई डाण (को दंड दे), बढ़ई ना खूँटा चीरे, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
राजा – जा-जा तेरे एक दाने के लिए मैं अपने बढ़ई को दंड नहीं दूँगा
चिड़िया वहाँ से उड़ के रानी के पास पहुँची, और उसने रानी से अपनी व्यथा कही-
रानी-रानी राजा छोड़, राजवा ना बढ़ई डाणै,बढ़ई ना खूँटा चीरे, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
रानी- अरी चिड़िया पागल हो गई है क्या ? तेरे एक दाने दाल के लिए मैं अपने राजा को क्यूँ छोड़ दूँ ?
चिड़िया फिर उड़ी अब वो साँप के पास गई और उससे बोली-
साँप-साँप रानी काट, रनिया ना राजा छोड़े,राजवा ना बढ़ई डाणै, बढ़ई ना खूँटा चीरे,खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
साँप- जा-जा मैं ना जाता तेरे दाल के दाने के लिए रानी को डसने !
चिड़िया फिर उड़ी इस बार वो लाठी के पास पहुँची और कहा-
लाठी-लाठी कीड़ा (साँप) मार, कीडवा ना रानी डसैरनिया ना राजा छोड़े, राजवा ना बढ़ई डाणै,बढ़ई ना खूँटा चीरे, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
लाठी – मैं तो तेरे लिए साँप मारने ना जाने वाला तू कोई और जतन कर ले
चिड़िया ने अभी भी हार नहीं मानी वो आग के पास जा पहुँची और उससे भी यही दोहराया -
आग-आग लाठी जार (जला), लठिया ना कीड़ा मारे,कीडवा ना रानी डसै, रनिया ना राजा छोड़े,राजवा ना बढ़ई डाणै, बढ़ई ना खूँटा चीरे,खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
आग- मैं ना जाती तेरे एक दाने के लिए लाठी जलाने !
चिड़िया फिर आगे उड़ चली रास्ते में उसे नदी मिली, उसने नदी से कहा-
नदी-नदी भाड़ (आग की भट्टी) बुझा, अगिया ना लाठी जारे,लठिया ना कीड़ा मारे,कीडवा ना रानी डसै, रनिया ना राजा छोड़े, राजवा ना बढ़ई डाणै,बढ़ई ना खूँटा चीरे, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
नदी – जा यहाँ से मैं तेरी कोई मदद नहीं कर सकती
चिड़िया फिर उड़ी अब वो हाथी के पास गई और हाथी से कहा-
हाथी-हाथी नदी सोख, नदिया ना भाड़ बुतावे (बुझाये),अगिया ना लाठी जारे, लठिया ना कीड़ा मारे,कीडवा ना रानी डसै, रनिया ना राजा छोड़े,राजवा ना बढ़ई डाणै, बढ़ई ना खूँटा चीरे,खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
हाथी- मैं ना जाता तेरे लिए नदी सोखने तू कोई और ढूंढ ले !
इस बार निराश सी होके चिड़िया एक पेड़ कि शाख पे बैठ के रोने लगी तभी उसे दाल पे कुंलांचे भरती चींटी दिखी चिड़िया ने चींटी से गुहार लगाई-
चींटी-चींटी हाथी मार, हथिया ना नदी सोखे,नदिया ना भाड़ बुतावे (बुझाये),अगिया ना लाठी जारे, लठिया ना कीड़ा मारे,कीडवा ना रानी डसै, रनिया ना राजा छोड़े,राजवा ना बढ़ई डाणै, बढ़ई ना खूँटा चीरे,खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
चींटी – अरी चिड़िया तू क्यों रोती है ? मैं हूँ ना ! चल देखूं तो इस हाथी को
चींटी चिड़िया को ले के हाथी के पास पहुँची और उसने हाथी को चिड़िया की मदद करने को कहा हाथी ना माना तो चींटी उसके सूंड में घुस गईं और अंदर काटना शुरू किया हाथी दर्द के मारे लोटने-बिलबिलाने लगा और चींटी से माफ़ी मांगी-
हमका दर्द दियो ना कोय हम तो नदिया सोखब होय
चींटी बाहर निकल आई और तीनो चल दिए नदी की ओर नदी हाथी को देख के घबराई, हाथ जोड़ के नतमस्तक हो गई और कहा-
हमका सोखेव-वोखेव ना कोय, हम तो भाड़ बुताइब होय
नदी भी साथ हो ली अब चारों भाड़ के पास पहुँचे नदी को गर्जना करते आते देख आग सिर झुका के खड़ी हो गई और उसने फ़रियाद की -
हमका बुतायो-वुतायो ना कोय, हम तो लाठी जारब होय
आग भी साथ हो ली पांचो लाठी के पास पहुँचे आग देखते ही लाठी के होश गुम हो गए घबरा के लाठी बोली -
हम जारेव-बारेव ना कोय, हम तो कीड़ा मारब होय
लाठी भी साथ चली अब छहों साँप के पास पहुँचे लाठी को देखते ही साँप की भी फुस्स हो गई बेचारा मिन्नत करने लगा -
हमका मारेव-वारेव ना कोय, हम तो रानी डसबै होय
साँप भी साथ हो लिया सातों पहुँचे रानी के महल में साँप ने फन फैलाया तो रानी के होश गुम हो गए रानी गिडगिडाते हुए बोली -
हमका डसे-वसे ना कोय, हम तो राजा छोडब होय
रानी को साथ ले के सातों दरबार में पहुँचे जैसे राजा को पता चला की रानी उसे छोड़ के चली जायेगी बेचारे के होश उड़ गए उसने कहा-
हमका छोडेव-वोडेव ना कोय हम तो बढ़ई डाणब होय
बढ़ई दरबार में बुलाया गया राजा ने कहा – तुम फ़ौरन चिड़िया का दाना खूंटे से निकाल के दो वर्ना तुम्हे कठोर दंड भुगतना पड़ेगा बढ़ई ने याचना की-
हमका डाणै-वाणै ना कोय हम तो खूँटा चीरब होय
बढ़ई ने आरी उठाई और खूँटा चीर दिया चिड़िया ने दाना चोंच में उठाया, चींटी को धन्यवाद दिया और खुशी-खुशी अपने घोंसले की ओर उड़ चली
जागरण जंक़्शन से साभार
चिड़िया उड़ कर बढ़ई के पास पहुँची और उसने कहा-
‘बढ़ई-बढ़ई खूँटा चीर, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
बढ़ई – जा-जा तेरा एक दाना निकालने के लिए मैं खूँटा चीरने ना जाऊँगा
अब चिड़िया उड़ के राजा के पास शिकायत करने पहुंची -
राजा-राजा बढ़ई डाण (को दंड दे), बढ़ई ना खूँटा चीरे, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
राजा – जा-जा तेरे एक दाने के लिए मैं अपने बढ़ई को दंड नहीं दूँगा
चिड़िया वहाँ से उड़ के रानी के पास पहुँची, और उसने रानी से अपनी व्यथा कही-
रानी-रानी राजा छोड़, राजवा ना बढ़ई डाणै,बढ़ई ना खूँटा चीरे, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
रानी- अरी चिड़िया पागल हो गई है क्या ? तेरे एक दाने दाल के लिए मैं अपने राजा को क्यूँ छोड़ दूँ ?
चिड़िया फिर उड़ी अब वो साँप के पास गई और उससे बोली-
साँप-साँप रानी काट, रनिया ना राजा छोड़े,राजवा ना बढ़ई डाणै, बढ़ई ना खूँटा चीरे,खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
साँप- जा-जा मैं ना जाता तेरे दाल के दाने के लिए रानी को डसने !
चिड़िया फिर उड़ी इस बार वो लाठी के पास पहुँची और कहा-
लाठी-लाठी कीड़ा (साँप) मार, कीडवा ना रानी डसैरनिया ना राजा छोड़े, राजवा ना बढ़ई डाणै,बढ़ई ना खूँटा चीरे, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
लाठी – मैं तो तेरे लिए साँप मारने ना जाने वाला तू कोई और जतन कर ले
चिड़िया ने अभी भी हार नहीं मानी वो आग के पास जा पहुँची और उससे भी यही दोहराया -
आग-आग लाठी जार (जला), लठिया ना कीड़ा मारे,कीडवा ना रानी डसै, रनिया ना राजा छोड़े,राजवा ना बढ़ई डाणै, बढ़ई ना खूँटा चीरे,खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
आग- मैं ना जाती तेरे एक दाने के लिए लाठी जलाने !
चिड़िया फिर आगे उड़ चली रास्ते में उसे नदी मिली, उसने नदी से कहा-
नदी-नदी भाड़ (आग की भट्टी) बुझा, अगिया ना लाठी जारे,लठिया ना कीड़ा मारे,कीडवा ना रानी डसै, रनिया ना राजा छोड़े, राजवा ना बढ़ई डाणै,बढ़ई ना खूँटा चीरे, खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
नदी – जा यहाँ से मैं तेरी कोई मदद नहीं कर सकती
चिड़िया फिर उड़ी अब वो हाथी के पास गई और हाथी से कहा-
हाथी-हाथी नदी सोख, नदिया ना भाड़ बुतावे (बुझाये),अगिया ना लाठी जारे, लठिया ना कीड़ा मारे,कीडवा ना रानी डसै, रनिया ना राजा छोड़े,राजवा ना बढ़ई डाणै, बढ़ई ना खूँटा चीरे,खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
हाथी- मैं ना जाता तेरे लिए नदी सोखने तू कोई और ढूंढ ले !
इस बार निराश सी होके चिड़िया एक पेड़ कि शाख पे बैठ के रोने लगी तभी उसे दाल पे कुंलांचे भरती चींटी दिखी चिड़िया ने चींटी से गुहार लगाई-
चींटी-चींटी हाथी मार, हथिया ना नदी सोखे,नदिया ना भाड़ बुतावे (बुझाये),अगिया ना लाठी जारे, लठिया ना कीड़ा मारे,कीडवा ना रानी डसै, रनिया ना राजा छोड़े,राजवा ना बढ़ई डाणै, बढ़ई ना खूँटा चीरे,खूंटवा मा दाल है,का बनाई ? का खाई ? का लई के परदेस जाई ?
चींटी – अरी चिड़िया तू क्यों रोती है ? मैं हूँ ना ! चल देखूं तो इस हाथी को
चींटी चिड़िया को ले के हाथी के पास पहुँची और उसने हाथी को चिड़िया की मदद करने को कहा हाथी ना माना तो चींटी उसके सूंड में घुस गईं और अंदर काटना शुरू किया हाथी दर्द के मारे लोटने-बिलबिलाने लगा और चींटी से माफ़ी मांगी-
हमका दर्द दियो ना कोय हम तो नदिया सोखब होय
चींटी बाहर निकल आई और तीनो चल दिए नदी की ओर नदी हाथी को देख के घबराई, हाथ जोड़ के नतमस्तक हो गई और कहा-
हमका सोखेव-वोखेव ना कोय, हम तो भाड़ बुताइब होय
नदी भी साथ हो ली अब चारों भाड़ के पास पहुँचे नदी को गर्जना करते आते देख आग सिर झुका के खड़ी हो गई और उसने फ़रियाद की -
हमका बुतायो-वुतायो ना कोय, हम तो लाठी जारब होय
आग भी साथ हो ली पांचो लाठी के पास पहुँचे आग देखते ही लाठी के होश गुम हो गए घबरा के लाठी बोली -
हम जारेव-बारेव ना कोय, हम तो कीड़ा मारब होय
लाठी भी साथ चली अब छहों साँप के पास पहुँचे लाठी को देखते ही साँप की भी फुस्स हो गई बेचारा मिन्नत करने लगा -
हमका मारेव-वारेव ना कोय, हम तो रानी डसबै होय
साँप भी साथ हो लिया सातों पहुँचे रानी के महल में साँप ने फन फैलाया तो रानी के होश गुम हो गए रानी गिडगिडाते हुए बोली -
हमका डसे-वसे ना कोय, हम तो राजा छोडब होय
रानी को साथ ले के सातों दरबार में पहुँचे जैसे राजा को पता चला की रानी उसे छोड़ के चली जायेगी बेचारे के होश उड़ गए उसने कहा-
हमका छोडेव-वोडेव ना कोय हम तो बढ़ई डाणब होय
बढ़ई दरबार में बुलाया गया राजा ने कहा – तुम फ़ौरन चिड़िया का दाना खूंटे से निकाल के दो वर्ना तुम्हे कठोर दंड भुगतना पड़ेगा बढ़ई ने याचना की-
हमका डाणै-वाणै ना कोय हम तो खूँटा चीरब होय
बढ़ई ने आरी उठाई और खूँटा चीर दिया चिड़िया ने दाना चोंच में उठाया, चींटी को धन्यवाद दिया और खुशी-खुशी अपने घोंसले की ओर उड़ चली
जागरण जंक़्शन से साभार
सोमवार, 18 अक्टूबर 2010
टेढ़ी खीर
एक नवयुवक था. छोटे से क़स्बे का. अच्छे खाते-पीते घर का लेकिन सीधा-सादा और सरल सा. बहुत ही मिलनसार.
एक दिन उसकी मुलाक़ात अपनी ही उम्र के एक नवयुवक से हुई. बात-बात में दोनों दोस्त हो गए. दोनों एक ही तरह के थे. सिर्फ़ दो अंतर थे, दोनों में. एक तो यह था कि दूसरा नवयुवक बहुत ही ग़रीब परिवार से था और अक्सर दोनों वक़्त की रोटी का इंतज़ाम भी मुश्किल से हो पाता था. दूसरा अंतर यह कि दूसरा जन्म से ही नेत्रहीन था. उसने कभी रोशनी देखी ही नहीं थी. वह दुनिया को अपनी तरह से टटोलता-पहचानता था.
लेकिन दोस्ती धीरे-धीरे गाढ़ी होती गई. अक्सर मेल मुलाक़ात होने लगी.
एक दिन नवयुवक ने अपने नेत्रहीन मित्र को अपने घर खाने का न्यौता दिया. दूसरे ने उसे ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार किया.
दोस्त पहली बार खाना खाने आ रहा था. अच्छे मेज़बान की तरह उसने कोई कसर नहीं छोड़ी. तरह-तरह के व्यंजन और पकवान बनाए.
दोनों ने मिलकर खाना खाया. नेत्रहीन दोस्त को बहुत आनंद आ रहा था. एक तो वह अपने जीवन में पहली बार इतने स्वादिष्ट भोजन का स्वाद ले रहा था. दूसरा कई ऐसी चीज़ें थीं जो उसने अपने जीवन में इससे पहले कभी नहीं खाईं थीं.
इसमें खीर भी शामिल थी. खीर खाते-खाते उसने पूछा, "मित्र, यह कौन सा व्यंजन है, बड़ा स्वादिष्ट लगता है."
मित्र ख़ुश हुआ. उसने उत्साह से बताया कि यह खीर है.
सवाल हुआ, "तो यह खीर कैसा दिखता है?"
"बिलकुल दूध की तरह ही. सफ़ेद."
जिसने कभी रोशनी न देखी हो वह सफ़ेद क्या जाने और काला क्या जाने. सो उसने पूछा, "सफ़ेद? वह कैसा होता है."
मित्र दुविधा में फँस गया. कैसे समझाया जाए कि सफ़ेद कैसा होता है. उसने तरह-तरह से समझाने का प्रयास किया लेकिन बात बनी नहीं.
आख़िर उसने कहा, "मित्र सफ़ेद बिलकुल वैसा ही होता है जैसा कि बगुला."
"और बगुला कैसा होता है."
यह एक और मुसीबत थी कि अब बगुला कैसा होता है यह किस तरह समझाया जाए. कई तरह की कोशिशों के बाद उसे तरक़ीब सूझी. उसने अपना हाथ आगे किया, उँगलियाँ को जोड़कर चोंच जैसा आकार बनाया और कलाई से हाथ को मोड़ लिया. फिर कोहनी से मोड़कर कहा, "लो छूकर देखो कैसा दिखता है बगुला."
दृष्टिहीन मित्र ने उत्सुकता में दोनों हाथ आगे बढ़ाए और अपने मित्र का हाथ छू-छूकर देखने लगा. हालांकि वह इस समय समझने की कोशिश कर रहा था कि बगुला कैसा होता है लेकिन मन में उत्सुकता यह थी कि खीर कैसी होती है.
जब हाथ अच्छी तरह टटोल लिया तो उसने थोड़ा चकित होते हुए कहा, "अरे बाबा, ये खीर तो बड़ी टेढ़ी चीज़ होती है."
वह फिर खीर का आनंद लेने लगा. लेकिन तब तक खीर ढेढ़ी हो चुकी थी. यानी किसी भी जटिल काम के लिए मुहावरा बन चुका था "टेढ़ी खीर."
एक दिन उसकी मुलाक़ात अपनी ही उम्र के एक नवयुवक से हुई. बात-बात में दोनों दोस्त हो गए. दोनों एक ही तरह के थे. सिर्फ़ दो अंतर थे, दोनों में. एक तो यह था कि दूसरा नवयुवक बहुत ही ग़रीब परिवार से था और अक्सर दोनों वक़्त की रोटी का इंतज़ाम भी मुश्किल से हो पाता था. दूसरा अंतर यह कि दूसरा जन्म से ही नेत्रहीन था. उसने कभी रोशनी देखी ही नहीं थी. वह दुनिया को अपनी तरह से टटोलता-पहचानता था.
लेकिन दोस्ती धीरे-धीरे गाढ़ी होती गई. अक्सर मेल मुलाक़ात होने लगी.
एक दिन नवयुवक ने अपने नेत्रहीन मित्र को अपने घर खाने का न्यौता दिया. दूसरे ने उसे ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार किया.
दोस्त पहली बार खाना खाने आ रहा था. अच्छे मेज़बान की तरह उसने कोई कसर नहीं छोड़ी. तरह-तरह के व्यंजन और पकवान बनाए.
दोनों ने मिलकर खाना खाया. नेत्रहीन दोस्त को बहुत आनंद आ रहा था. एक तो वह अपने जीवन में पहली बार इतने स्वादिष्ट भोजन का स्वाद ले रहा था. दूसरा कई ऐसी चीज़ें थीं जो उसने अपने जीवन में इससे पहले कभी नहीं खाईं थीं.
इसमें खीर भी शामिल थी. खीर खाते-खाते उसने पूछा, "मित्र, यह कौन सा व्यंजन है, बड़ा स्वादिष्ट लगता है."
मित्र ख़ुश हुआ. उसने उत्साह से बताया कि यह खीर है.
सवाल हुआ, "तो यह खीर कैसा दिखता है?"
"बिलकुल दूध की तरह ही. सफ़ेद."
जिसने कभी रोशनी न देखी हो वह सफ़ेद क्या जाने और काला क्या जाने. सो उसने पूछा, "सफ़ेद? वह कैसा होता है."
मित्र दुविधा में फँस गया. कैसे समझाया जाए कि सफ़ेद कैसा होता है. उसने तरह-तरह से समझाने का प्रयास किया लेकिन बात बनी नहीं.
आख़िर उसने कहा, "मित्र सफ़ेद बिलकुल वैसा ही होता है जैसा कि बगुला."
"और बगुला कैसा होता है."
यह एक और मुसीबत थी कि अब बगुला कैसा होता है यह किस तरह समझाया जाए. कई तरह की कोशिशों के बाद उसे तरक़ीब सूझी. उसने अपना हाथ आगे किया, उँगलियाँ को जोड़कर चोंच जैसा आकार बनाया और कलाई से हाथ को मोड़ लिया. फिर कोहनी से मोड़कर कहा, "लो छूकर देखो कैसा दिखता है बगुला."
दृष्टिहीन मित्र ने उत्सुकता में दोनों हाथ आगे बढ़ाए और अपने मित्र का हाथ छू-छूकर देखने लगा. हालांकि वह इस समय समझने की कोशिश कर रहा था कि बगुला कैसा होता है लेकिन मन में उत्सुकता यह थी कि खीर कैसी होती है.
जब हाथ अच्छी तरह टटोल लिया तो उसने थोड़ा चकित होते हुए कहा, "अरे बाबा, ये खीर तो बड़ी टेढ़ी चीज़ होती है."
वह फिर खीर का आनंद लेने लगा. लेकिन तब तक खीर ढेढ़ी हो चुकी थी. यानी किसी भी जटिल काम के लिए मुहावरा बन चुका था "टेढ़ी खीर."
एक मुहावरे की कथा
एक नगर सेठ थे. अपनी पदवी के अनुरुप वे अथाह दौलत के स्वामी थे. घर, बंगला, नौकर-चाकर थे. एक चतुर मुनीम भी थे जो सारा कारोबार संभाले रहते थे.
किसी समारोह में नगर सेठ की मुलाक़ात नगर-वधु से हो गई. नगर-वधु यानी शहर की सबसे ख़ूबसूरत वेश्या. अपने पेश की ज़रुरत के मुताबिक़ नगर-वधु ने मालदार व्यक्ति जानकर नगर सेठ के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया. फिर उन्हें अपने घर पर भी आमंत्रित किया.
सम्मान से अभिभूत सेठ, दूसरे-तीसरे दिन नगर-वधु के घर जा पहुँचे. नगर-वधु ने आतिथ्य में कोई कमी नहीं छोड़ी. खूब आवभगत की और यक़ीन दिला दिया कि वह सेठ से बेइंतहा प्रेम करती है.
अब नगर-सेठ जब तब नगर-वधु के ठौर पर नज़र आने लगे. शामें अक्सर वहीं गुज़रने लगीं. नगर भर में ख़बर फैल गई. काम-धंधे पर असर होने लगा. मुनीम की नज़रे इस पर टेढ़ी होने लगीं.
एक दिन सेठ को बुखार आ गया. तबियत कुछ ज़्यादा बिगड़ गई. कई दिनों तक बिस्तर से नहीं उठ सके. इसी बीच नगर-वधु का जन्मदिन आया. सेठ ने मुनीम को बुलाया और आदेश दिए कि एक हीरों जड़ा नौलखा हार ख़रीदा जाए और नगर-वधु को उनकी ओर से भिजवा दिया जाए. निर्देश हुए कि मुनीम ख़ुद उपहार लेकर जाएँ.
मुनीम तो मुनीम था. ख़ानदानी मुनीम. उसकी निष्ठा सेठ के प्रति भर नहीं थी. उसके पूरे परिवार और काम धंधे के प्रति भी थी. उसने सेठ को समझाया कि वे भूल कर रहे हैं. बताने की कोशिश की, वेश्या किसी व्यक्ति से प्रेम नहीं करती, पैसों से करती है. मुनीम ने उदाहरण देकर समझाया कि नगर-सेठ जैसे कई लोग प्रेम के भ्रम में वहाँ मंडराते रहते हैं. लेकिन सेठ को न समझ में आना था, न आया. उनको सख़्ती से कहा कि मुनीम नगर-वधु के पास तोहफ़ा पहुँचा आएँ.
मुनीम क्या करते. एक हीरों जड़ा नौलखा हार ख़रीदा और नगर-वधु के घर की ओर चल पड़े. लेकिन रास्ते भर वे इस समस्या को निपटाने का उपाय सोचते रहे.
चित्रांकनः हरीश परगनिहा
नगर-वधु के घर पहुँचे तो नौलखा हार का डब्बा खोलते हुए कहा, “यह तोहफ़ा उसकी ओर से जिससे तुम सबसे अधिक प्रेम करती हो.”
नगर-वधु ने फटाफट तीन नाम गिना दिए. मुनीम को आश्चर्य नहीं हुआ कि उन तीन नामों में सेठ का नाम नहीं था. निर्विकार भाव से उन्होंने कहा, “देवी, इन तीन में तो उन महानुभाव का नाम नहीं है जिन्होंने यह उपहार भिजवाया है.”
नगर-वधु की मुस्कान ग़ायब हो गई. सामने चमचमाता नौलखा हार था और उससे भारी भूल हो गई थी. उसे उपहार हाथ से जाता हुआ दिखा. उसने फ़ौरन तेरह नाम गिनवा दिए.
तेरह नाम में भी सेठ का नाम नहीं था. लेकिन इस बार मुनीम का चेहरा तमतमा गया. ग़ुस्से से उन्होंने नौलखा हार का डब्बा उठाया और खट से उसे बंद करके उठ गए. नगर-वधु गिड़गिड़ाने लगी. उसने कहा कि उससे भूल हो गई है. लेकिन मुनीम चल पड़े.
बीमार सेठ सिरहाने से टिके मुनीम के आने की प्रतीक्षा ही कर रहे थे. नगर-वधु के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे.
मुनीम पहुचे और हार का डब्बा सेठ के सामने पटकते हुए कहा, “लो, अपना नौलखा हार, न तुम तीन में न तेरह में. यूँ ही प्रेम का भ्रम पाले बैठे हो.”
सेठ की आँखें खुल गई थीं. इसके बाद वे कभी नगर-वधु के दर पर नहीं दिखाई पड़े.
किसी समारोह में नगर सेठ की मुलाक़ात नगर-वधु से हो गई. नगर-वधु यानी शहर की सबसे ख़ूबसूरत वेश्या. अपने पेश की ज़रुरत के मुताबिक़ नगर-वधु ने मालदार व्यक्ति जानकर नगर सेठ के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया. फिर उन्हें अपने घर पर भी आमंत्रित किया.
सम्मान से अभिभूत सेठ, दूसरे-तीसरे दिन नगर-वधु के घर जा पहुँचे. नगर-वधु ने आतिथ्य में कोई कमी नहीं छोड़ी. खूब आवभगत की और यक़ीन दिला दिया कि वह सेठ से बेइंतहा प्रेम करती है.
अब नगर-सेठ जब तब नगर-वधु के ठौर पर नज़र आने लगे. शामें अक्सर वहीं गुज़रने लगीं. नगर भर में ख़बर फैल गई. काम-धंधे पर असर होने लगा. मुनीम की नज़रे इस पर टेढ़ी होने लगीं.
एक दिन सेठ को बुखार आ गया. तबियत कुछ ज़्यादा बिगड़ गई. कई दिनों तक बिस्तर से नहीं उठ सके. इसी बीच नगर-वधु का जन्मदिन आया. सेठ ने मुनीम को बुलाया और आदेश दिए कि एक हीरों जड़ा नौलखा हार ख़रीदा जाए और नगर-वधु को उनकी ओर से भिजवा दिया जाए. निर्देश हुए कि मुनीम ख़ुद उपहार लेकर जाएँ.
मुनीम तो मुनीम था. ख़ानदानी मुनीम. उसकी निष्ठा सेठ के प्रति भर नहीं थी. उसके पूरे परिवार और काम धंधे के प्रति भी थी. उसने सेठ को समझाया कि वे भूल कर रहे हैं. बताने की कोशिश की, वेश्या किसी व्यक्ति से प्रेम नहीं करती, पैसों से करती है. मुनीम ने उदाहरण देकर समझाया कि नगर-सेठ जैसे कई लोग प्रेम के भ्रम में वहाँ मंडराते रहते हैं. लेकिन सेठ को न समझ में आना था, न आया. उनको सख़्ती से कहा कि मुनीम नगर-वधु के पास तोहफ़ा पहुँचा आएँ.
मुनीम क्या करते. एक हीरों जड़ा नौलखा हार ख़रीदा और नगर-वधु के घर की ओर चल पड़े. लेकिन रास्ते भर वे इस समस्या को निपटाने का उपाय सोचते रहे.
चित्रांकनः हरीश परगनिहा
नगर-वधु के घर पहुँचे तो नौलखा हार का डब्बा खोलते हुए कहा, “यह तोहफ़ा उसकी ओर से जिससे तुम सबसे अधिक प्रेम करती हो.”
नगर-वधु ने फटाफट तीन नाम गिना दिए. मुनीम को आश्चर्य नहीं हुआ कि उन तीन नामों में सेठ का नाम नहीं था. निर्विकार भाव से उन्होंने कहा, “देवी, इन तीन में तो उन महानुभाव का नाम नहीं है जिन्होंने यह उपहार भिजवाया है.”
नगर-वधु की मुस्कान ग़ायब हो गई. सामने चमचमाता नौलखा हार था और उससे भारी भूल हो गई थी. उसे उपहार हाथ से जाता हुआ दिखा. उसने फ़ौरन तेरह नाम गिनवा दिए.
तेरह नाम में भी सेठ का नाम नहीं था. लेकिन इस बार मुनीम का चेहरा तमतमा गया. ग़ुस्से से उन्होंने नौलखा हार का डब्बा उठाया और खट से उसे बंद करके उठ गए. नगर-वधु गिड़गिड़ाने लगी. उसने कहा कि उससे भूल हो गई है. लेकिन मुनीम चल पड़े.
बीमार सेठ सिरहाने से टिके मुनीम के आने की प्रतीक्षा ही कर रहे थे. नगर-वधु के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे.
मुनीम पहुचे और हार का डब्बा सेठ के सामने पटकते हुए कहा, “लो, अपना नौलखा हार, न तुम तीन में न तेरह में. यूँ ही प्रेम का भ्रम पाले बैठे हो.”
सेठ की आँखें खुल गई थीं. इसके बाद वे कभी नगर-वधु के दर पर नहीं दिखाई पड़े.
लघु कथाएँ
लघु कथाएँ
नींद में चोर
चोर सोचता रहा, आख़िर वह चोर कैसे बन गया? वह चोर तो बनना नहीं चाहता था. वह चाहता था कि वह भी पढ़-लिखकर बाबू बने. उनके माता-पिता कह सकें कि मेरे बेटे ने ख़ानदान का नाम रोशन किया है. चोर दिनभर सोचता रहा और समझ नहीं पाया कि आख़िर वह चोर कैसे बन गया.
सोचते-सोचते उसे नींद आ गई. नींद में उसने देखा कि एक लड़का उसके घर से रोटी चुरा रहा है. उसने नींद में उसे फ़ौरन पकड़ लिया.
उसने ज़ोरों से चिल्लाकर कहा,‘‘चोरी करते तुम्हें शर्म नहीं आती.’’ जब नींद टूटी तो उसने देखा कि वह अपना ही हाथ पकड़े हुए है.
**********
चोर की सुहागरात
चोर की एक दिन शादी हो गई, पर लड़की वालों को पता नहीं था कि दूल्हा चोर है. दरअसल चोर के घरवालों को भी मालूम नहीं था कि उनका बेटा चोर है.
सुहागरात के दिन चोर जब अपनी पत्नी से मिला तो उसने यह नहीं बताया कि वह चोर है. रात में जब वह सोने लगा तो उसके मन में यह द्वंद्व उठने लगा कि क्या वह अपनी पत्नी को यह राज़ बताए कि वह चोर है? अगर आज वह यह राज़ नहीं बताता है तो एक दिन पत्नी को जब यह राज़ पता चलेगा तो उसे गहरा धक्का लगेगा. चोर इसी उधेड़बुन में था. वह करवटें बदलता रहा. पत्नी समझ नहीं पाई कि आख़िर चोर वह सब क्यों नहीं कर रहा है जो सुहागरात में उसे करना चाहिए. वह सकुचा रही थी. उसने पति से पूछा,‘‘लगता है आप मुझसे कुछ छिपा रहे हैं. कहिए ना क्या बात है? अब तो हमें ज़िंदगी भर साथ निभाना है, इसलिए एक-दूसरे पर विश्वास करना चाहिए और मन की बातें बतानी चाहिए.’’
तब चोर ने हिम्मत जुटाई. वह बोला,‘‘जानती हो मैं क्या काम करता हूँ. मैं एक चोर हूँ. चोरी कर घर-बार चलाता हूँ.’’ यह सुनकर उसकी पत्नी रोने लगी. चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी. उसके रोने की आवाज़ जब कमरे के बाहर सुनाई पड़ी तो घरवालों के कान खड़े हो गए. वे सोचने लगे कि आख़िर बात क्या है? क्या कुछ ऐसी-वैसी बात हो गई या दुल्हन को अपने घर की याद आ रही है? चोर अपनी पत्नी को बहुत देर तक मनाता रहा. उसने कहा,‘‘आख़िर तुमने ही कहा था कि मन में कोई बात नहीं छिपानी चाहिए. इसलिए मैंने तुम्हें सच-सच बता दिया.’’
चोर की पत्नी को चोर पर प्यार आ गया. उसने मन ही मन कहा,‘‘पति चोर है तो क्या हुआ, सच तो बोलता है. मुझ पर विश्वास तो करता है.’’ इसके बाद पत्नी ने चोर को चूम लिया. चोर को आज तक याद है अपनी सुहागरात. वह भूला नहीं है. जब भी उसे उसकी पत्नी चूमती है, उसे अपनी सुहागरात की याद आ जाती है.
**********
चोर का इंटरव्यू
एक दिन अख़बार में चोर का इंटरव्यू छपा. बहुत धमाकेदार इंटरव्यू. उसके बाद इलेक्ट्रॉनिक चैनल वाले भी इसका इंटरव्यू लेने आए. चोर ने बड़ी निर्भीकता से अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट से कही. अगले दिन उसके शहर के एसपी का फ़ोन आया,‘‘तुमको चोरी करनी है तो चोरी करो. इस तरह का इंटरव्यू मत दो, नहीं तो तुम्हें थाने के अंदर कर दिया जाएगा.’’
चोर यह समझ नहीं पाया. यह कैसा लोकतंत्र है! क्या मीडिया को इंटरव्यू देने के लिए किसी को धमकी दी जा सकती है, गिरफ़्तारी भी हो सकती है! उसने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को पत्र लिखा. आयोग का जवाब आया,‘‘हमने राज्य सरकार को नोटिस भेजा है. एक महीने के भीतर उसका जवाब मांगा है.’’
चित्रांकन-हरीश परगनिहा
एक महीने के बाद आयोग का जवाब आया-राज्य सरकार की ओर से कोई जवाब नहीं आया. आप चाहें तो उच्चतम न्यायालय का दरवाज़ा खटखटा सकते हैं. चोर के पास न इतने पैसे थे और न ही इतना समय कि वह कोर्ट के चक्कर लगाए. उसने नेताओं की तरह एक प्रेस बयान जारी किया कि मीडिया ने मेरी बातों को तोड़-मरोड़कर पेश किया है.
**********
चोर का भाग्य
एक चोर आस्तिक था तो एक चोर अनीश्वरवादी. जो चोर आस्तिक था, वह भाग्यवादी था. इसलिए वह मानता था कि यह चोरी करना उसके भाग्य में लिखा है. यही कारण है वह चोरी करता है. पर जो अनीश्वरवादी था, वह जानता था कि चोरी करना उसका भाग्य नहीं है. इसलिए वह अपने भाग्य को बदलने की फ़िराक़ में रहता था. आस्तिक चोर छोटा चोर ही बना रह गया. नास्तिक चोर बहुत बड़ा चोर बन गया.
बड़ा चोर बनते ही उसका भाग्य भी बदल गया.
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चोर की धर्मनिरपेक्षता
एक चोर मंदिर जाता था.एक चोर मस्जिद जाता था.एक चोर गिरजाघर जाता था.पर वे आपस में लड़ते नहीं थे, झगड़ते नहीं थे.वे आपस में मिलकर रहते थे.
पर जो लोग ख़ुद को शरीफ़ और ईमानदार कहते थेवे मंदिर-मस्जिद की बात पर बहुत झगड़ा करते थे.
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अमीर चोर
चोर अमीर होते हैं, ग़रीब होते हैं. सफल होते हैं, असफल होते हैं. कई चोर ज़िंदगी भर कपड़े, बर्तन, साइकिल आदि चुराते रहते हैं. उनमें महत्वाकांक्षा कम होती है. अमीर चोर महत्वाकांक्षी होते हैं. वे नई-नई योजनाएँ बनाते रहते हैं. वे विश्च बैंक से मिलकर देश को लूटने के ख़ाके तैयार करते हैं. उनकी चोरी ‘क्लास’ ही अलग है. वे चोर दिखते भी नहीं. वे बहुत संभ्रांत होते हैं. उन्हें चोर कहकर उनकी तौहीन नहीं की जा सकती. वे सभा-सोसाइटियों के लोग हैं. यही कारण है कि अमीर चोर ग़रीब चोरों को हेय दृष्टि से देखते हैं. वे उसे अपना मौसेरा भाई तो क्या, दूर के रिश्ते का भी कोई भाई नहीं मानते. इसलिए कई बार ग़रीब चोर भी अमीर चोरों के घर इतनी सफ़ाई से सेंध लगाते हैं कि उन्हें पता ही नहीं चलता और माल साफ़ हो जाता है. ग़रीब चोर इतना ज़रूर जता देते हैं कि वे सत्ता विमर्श में भले ही पीछे हों, पर उनकी कल्पनाशीलता और रचनात्मकता का कोई जवाब नहीं है.
**********पुस्तक अंशचोर पुराणलेखक-विमल कुमारपेंगुइन बुक्स11, पंचशील पार्क, नई दिल्ली 17.
नींद में चोर
चोर सोचता रहा, आख़िर वह चोर कैसे बन गया? वह चोर तो बनना नहीं चाहता था. वह चाहता था कि वह भी पढ़-लिखकर बाबू बने. उनके माता-पिता कह सकें कि मेरे बेटे ने ख़ानदान का नाम रोशन किया है. चोर दिनभर सोचता रहा और समझ नहीं पाया कि आख़िर वह चोर कैसे बन गया.
सोचते-सोचते उसे नींद आ गई. नींद में उसने देखा कि एक लड़का उसके घर से रोटी चुरा रहा है. उसने नींद में उसे फ़ौरन पकड़ लिया.
उसने ज़ोरों से चिल्लाकर कहा,‘‘चोरी करते तुम्हें शर्म नहीं आती.’’ जब नींद टूटी तो उसने देखा कि वह अपना ही हाथ पकड़े हुए है.
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चोर की सुहागरात
चोर की एक दिन शादी हो गई, पर लड़की वालों को पता नहीं था कि दूल्हा चोर है. दरअसल चोर के घरवालों को भी मालूम नहीं था कि उनका बेटा चोर है.
सुहागरात के दिन चोर जब अपनी पत्नी से मिला तो उसने यह नहीं बताया कि वह चोर है. रात में जब वह सोने लगा तो उसके मन में यह द्वंद्व उठने लगा कि क्या वह अपनी पत्नी को यह राज़ बताए कि वह चोर है? अगर आज वह यह राज़ नहीं बताता है तो एक दिन पत्नी को जब यह राज़ पता चलेगा तो उसे गहरा धक्का लगेगा. चोर इसी उधेड़बुन में था. वह करवटें बदलता रहा. पत्नी समझ नहीं पाई कि आख़िर चोर वह सब क्यों नहीं कर रहा है जो सुहागरात में उसे करना चाहिए. वह सकुचा रही थी. उसने पति से पूछा,‘‘लगता है आप मुझसे कुछ छिपा रहे हैं. कहिए ना क्या बात है? अब तो हमें ज़िंदगी भर साथ निभाना है, इसलिए एक-दूसरे पर विश्वास करना चाहिए और मन की बातें बतानी चाहिए.’’
तब चोर ने हिम्मत जुटाई. वह बोला,‘‘जानती हो मैं क्या काम करता हूँ. मैं एक चोर हूँ. चोरी कर घर-बार चलाता हूँ.’’ यह सुनकर उसकी पत्नी रोने लगी. चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी. उसके रोने की आवाज़ जब कमरे के बाहर सुनाई पड़ी तो घरवालों के कान खड़े हो गए. वे सोचने लगे कि आख़िर बात क्या है? क्या कुछ ऐसी-वैसी बात हो गई या दुल्हन को अपने घर की याद आ रही है? चोर अपनी पत्नी को बहुत देर तक मनाता रहा. उसने कहा,‘‘आख़िर तुमने ही कहा था कि मन में कोई बात नहीं छिपानी चाहिए. इसलिए मैंने तुम्हें सच-सच बता दिया.’’
चोर की पत्नी को चोर पर प्यार आ गया. उसने मन ही मन कहा,‘‘पति चोर है तो क्या हुआ, सच तो बोलता है. मुझ पर विश्वास तो करता है.’’ इसके बाद पत्नी ने चोर को चूम लिया. चोर को आज तक याद है अपनी सुहागरात. वह भूला नहीं है. जब भी उसे उसकी पत्नी चूमती है, उसे अपनी सुहागरात की याद आ जाती है.
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चोर का इंटरव्यू
एक दिन अख़बार में चोर का इंटरव्यू छपा. बहुत धमाकेदार इंटरव्यू. उसके बाद इलेक्ट्रॉनिक चैनल वाले भी इसका इंटरव्यू लेने आए. चोर ने बड़ी निर्भीकता से अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट से कही. अगले दिन उसके शहर के एसपी का फ़ोन आया,‘‘तुमको चोरी करनी है तो चोरी करो. इस तरह का इंटरव्यू मत दो, नहीं तो तुम्हें थाने के अंदर कर दिया जाएगा.’’
चोर यह समझ नहीं पाया. यह कैसा लोकतंत्र है! क्या मीडिया को इंटरव्यू देने के लिए किसी को धमकी दी जा सकती है, गिरफ़्तारी भी हो सकती है! उसने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को पत्र लिखा. आयोग का जवाब आया,‘‘हमने राज्य सरकार को नोटिस भेजा है. एक महीने के भीतर उसका जवाब मांगा है.’’
चित्रांकन-हरीश परगनिहा
एक महीने के बाद आयोग का जवाब आया-राज्य सरकार की ओर से कोई जवाब नहीं आया. आप चाहें तो उच्चतम न्यायालय का दरवाज़ा खटखटा सकते हैं. चोर के पास न इतने पैसे थे और न ही इतना समय कि वह कोर्ट के चक्कर लगाए. उसने नेताओं की तरह एक प्रेस बयान जारी किया कि मीडिया ने मेरी बातों को तोड़-मरोड़कर पेश किया है.
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चोर का भाग्य
एक चोर आस्तिक था तो एक चोर अनीश्वरवादी. जो चोर आस्तिक था, वह भाग्यवादी था. इसलिए वह मानता था कि यह चोरी करना उसके भाग्य में लिखा है. यही कारण है वह चोरी करता है. पर जो अनीश्वरवादी था, वह जानता था कि चोरी करना उसका भाग्य नहीं है. इसलिए वह अपने भाग्य को बदलने की फ़िराक़ में रहता था. आस्तिक चोर छोटा चोर ही बना रह गया. नास्तिक चोर बहुत बड़ा चोर बन गया.
बड़ा चोर बनते ही उसका भाग्य भी बदल गया.
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चोर की धर्मनिरपेक्षता
एक चोर मंदिर जाता था.एक चोर मस्जिद जाता था.एक चोर गिरजाघर जाता था.पर वे आपस में लड़ते नहीं थे, झगड़ते नहीं थे.वे आपस में मिलकर रहते थे.
पर जो लोग ख़ुद को शरीफ़ और ईमानदार कहते थेवे मंदिर-मस्जिद की बात पर बहुत झगड़ा करते थे.
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अमीर चोर
चोर अमीर होते हैं, ग़रीब होते हैं. सफल होते हैं, असफल होते हैं. कई चोर ज़िंदगी भर कपड़े, बर्तन, साइकिल आदि चुराते रहते हैं. उनमें महत्वाकांक्षा कम होती है. अमीर चोर महत्वाकांक्षी होते हैं. वे नई-नई योजनाएँ बनाते रहते हैं. वे विश्च बैंक से मिलकर देश को लूटने के ख़ाके तैयार करते हैं. उनकी चोरी ‘क्लास’ ही अलग है. वे चोर दिखते भी नहीं. वे बहुत संभ्रांत होते हैं. उन्हें चोर कहकर उनकी तौहीन नहीं की जा सकती. वे सभा-सोसाइटियों के लोग हैं. यही कारण है कि अमीर चोर ग़रीब चोरों को हेय दृष्टि से देखते हैं. वे उसे अपना मौसेरा भाई तो क्या, दूर के रिश्ते का भी कोई भाई नहीं मानते. इसलिए कई बार ग़रीब चोर भी अमीर चोरों के घर इतनी सफ़ाई से सेंध लगाते हैं कि उन्हें पता ही नहीं चलता और माल साफ़ हो जाता है. ग़रीब चोर इतना ज़रूर जता देते हैं कि वे सत्ता विमर्श में भले ही पीछे हों, पर उनकी कल्पनाशीलता और रचनात्मकता का कोई जवाब नहीं है.
**********पुस्तक अंशचोर पुराणलेखक-विमल कुमारपेंगुइन बुक्स11, पंचशील पार्क, नई दिल्ली 17.
बुढ़ापे का सहारा
ममता रानी वर्मा मां का इकलौता बेटा बुढ़ापे का सहारा अमरीका में जा बैठा था। नाम था उसका सोनू। यों तो उसका रहन-सहन ठाठ-बाट कम न थे। बड़े ऊंचे ओहदे पर जो था वो। पर माँ को अपने साथ रखने में हिचकिचाता था। पर बूढ़ी माँ क्या करे। किसके सहारे जिए। बुढ़ापे में किसके दरवाजे पर जा पड़े, यह सोच-सोचकर वह परेशान थी। रिश्तेदारों ने बेटे को समझाया कि बुढ़ापे में अपनी माँ को अपने साथ रखो। बेटा बोला मैं हिन्दुस्तान नहीं आऊंगा और माँ तो है ठेठ गंवार वह अमेरिका में कैसे रहेगी। मेरे दोस्त मेरी मजाक बनाएंगे। पर बाद में बहुत समझाने के बाद वह माँ को अपने पास अमेरिका ले जाने को तैयार हो गया। माँ अमेरिका अपने बेटे और बहू को पास चली गई। रिश्तेदारों ने भी चैन की सांस ली।अब वहां माँ का हाल बेहाल हो गया। बहू को घर की नौकरानी मिल गई। पर माँ तो माँ है। वह अपने घर का काम करने में ही संतोष का अनुभव करती। कुशल होने के कारण माँ का निभाव हो रहा था। बेटे ने एक दिन अपने बॉस को पार्टी दी। बॉस ने सोनू के प्रमोशन का वादा जो किया था। अब क्या घर की साज सजावट होने लगी। घर का सारा खराब समान इधर-उधर पलंग के नीचे छिपाया जाने लगा। अब वह घड़ी आने वाली थी, शाम के पांच बजे बॉस को आना था। तभी सोनू की पत्नी रेखा की नार माँ पर पड़ी। वह चौक कर बोली, अरे माँ का क्या करें। माँ उस समय कहां रहेगी जब तुम्हारे बॉस आएंगे? माँ को कहां छिपाएं? सोनू ने कहा, पहले खाने की तैयारी माँ के साथ मिलकर कर लो, फिर माँ को छिपाने का भी प्रबंध करते हैं। सारा खाना तैयार करवाकर डाइनिंग टेबल पर लगा दिया गया। पांच बजने वाले थे। माँ को कहां छिपाया जाए? इसी बात को लेकर सब परेशान थे। अंत में एक स्टोर रूम में माँ को छिपा दिया और हिदायत दी कि कुछ भी हो बाहर मत आना। ठीक पांच बजे श्रीमान मुकुन्द सोनू के बॉस आ गए। गपशप के बाद खाना खाकर तो मुकुन्द जी ऊंगली चाटते रह गए। उन्होंने इतना स्वादिष्ट खाना कभी न खाया था। सोनू के बॉस खाना खाकर रेखा की तारीफ के पुल बांधने लगे, पर सोनू के बेटे निखिल ने सारी पोल खोल दी कि अंकल ये सारा खाना तो दादी माँ ने बनाया है। बॉस सोनू की माँ से मिलने के लिए उत्सुक हुए, बोले हमें भी उनसे मिलवाओ। निखिल तपाक से बोला, ''मम्मी डैडी ने उन्हें स्टोर रूम में बंद कर रखा है।'' कारण पूछने पर सोनू ने बॉस को बताया कि माँ गांव की रहने वाली है, इसलिए मैं माँ को तुम्हारे सामने नहीं लाना चाहता था।सोनू के बॉस ने सोनू को समझाया, माँ ने तुमको नौ महीने पेट में पाला, अपने खून से सींचा। माँ तुम्हें दुनिया के सामने लाने में नहीं शर्माई और तुम माँ को मेरे सामने लाने से शरमा रहे थे। बॉस ने माँ से मिलकर मां के पैर छुए। सोनू और रेखा शरम से गड़े जा रहे थे। प्राथमिक शिक्षिका, केन्द्रीय विद्यालय, ओ.एन.जी.सी., सूरत
बुधवार, 4 अगस्त 2010
कुंवारी और शादी-शुदा मर्द
आज नेट पर सर्च कर रहा था, तो एक लेख पर अनायास ही नजर टिक गई। हैडिंग देखकर मन ठनका, तो सोचकर दिल धड़कने लगा। लेख का सार यह था कि एक कुंवारी शादी-शुदा लड़के को दिल क्यों दे रही है। यह आजकल फैशन हो चला है, क्योंकि फिल्मी हीरोइनें आजकल यही कर रही है। यही मुख्य कारण बताया गया। क्या इस तरह के संबंध को बढ़ावा देना चाहिए? मेरी राय में इस तरह की बातें भारतीय समाज में गंदगी ही फैलाएगी। आज पाश्चात्य संस्कृति के लोग हमारी सभ्यता इसलिए अपना रहे हैं कि इसमें स्थायित्व है। स्थायित्व इसलिए है कि हमारी शादी पहले होती है, उसके बाद प्यार होता है। उनके बीच रिश्ते का जो बंधन है, वह जाति, खानदान, रीति रिवाज, हैसियत, कुंडली, खूबसूरती आदि कितने ही आधार पर खड़ा है। पाश्चात्य संस्कृति में पहले प्यार होता है। प्यार शारीरिक आकर्षण पर अवलंबित होता है। जब तक दोनों सुंदर हैं। शारीरिक बनावट बेहतर है, संबंध बने रहते हैं, लेकिन शरीर गिरते ही आत्मीयता तार-तार हो जाती है और वे लोग आसपास नजर दौड़ाने लगते हैं। क्योंकि लव मैरिज में भी दो व्यक्ति एक-दूसरे को इसलिए नहीं अपनाते कि दोनों दुनिया के सर्वश्रेष्ठ स्त्री-पुरुष हैं। दोनों एक-दूसरे को इसलिए चुनते हैं, क्योंकि जीवन के किसी मोड़ पर दोनों ने एक-दूसरे को अपने अनुकूल पाया। ऐसा बिल्कुल मुमकिन है कि आज कोई लड़की आपको बहुत अच्छी लगी और आपने उससे शादी कर ली लेकिन साल-दो साल बाद कोई और लड़की मिली, जिसमें कुछ और खासियतें हैं, जो आपकी खुद की चुनी प्रेमिका में नहीं और आपको वह भी अच्छी लगने लगे। यही हाल किसी लड़की का भी हो सकता है। भारतीय संस्कृति में यह बात नहीं है। यहां ना-ना करते प्यार तुम्ही से कर बैठे वाली बात है। यदि आप धड़कन सिनेमा देखेंगे, तो इसमें यही बताया गया है कि प्यार से बढ़कर शादी है अन्यथा न ही यह गाना हिट होता और न ही सिनेमा। हमें इस तरह की बातें दबानी चाहिए। तभी हमारी सभ्यता और देश का कल्याण होगा। यह मन का वहम होता है। यदि आत्मीय भाव से प्रेम किया जाए तो एक-दूसरे के बिना एक पल का जीना दूभर हो सकता है।
सोमवार, 2 अगस्त 2010
सही बात पर तलाक
आधुनिक शिक्षा मिली थी। इस कारण आधुनिक विचार थे मोहित के। वह सभी को यही बताता था कि संबंध विश्वास पर आधारित होते हैं। एक-दूसरे बीच विश्वास तभी बन सकती है, जब कोई भी बात एक-दूसरे से छिपी न हो। सभी उसके विचार से प्रभावित थे। मैं उससे काफी प्रभावित था। उसका विचार मुझे इतना अच्छा लगा कि आज हम दोनों अच्छे दोस्त बन गए हैं। लगभग 6 महीनों से बात नहीं हुई थी। इस बार जब मिला, तो वह रोने लगा। मैं उसे देखकर अपसेट हो गया। उसे किसी भी चीज की कमी नहीं है। सरकारी नौकरी भी कर रहा है और एक वर्ष पहले शादी भी हुई है। फिर किस तरह की परेशानी हुई इसे? सुलझा हुआ व्यक्ति था वह। दूसरे की उलझन सुलझाने में उसका कोई जवाब नहीं था। हुआ यूं कि शादी से पहले वह किसी लड़की से प्यार करता था। किसी कारणवश दोनों की शादी नहीं हो पाई। उसके बाद लगभग चार वर्षो तक अकेला रहा। अंत में माता-पिता के दबाव में आकर शादी के लिए तैयार हुआ। शादी के एक वर्ष बाद ही अब तलाक की नौबत आ गई। यार, घरवाले मना किए थे कि प्यार के बारे में कुछ भी नहीं बताना। लेकिन मुझे लगा कि सब कुछ उसे बता देना चाहिए, क्योंकि यदि बाद में पता चलेगा, तो विश्वास टूट जाएगा। यह सोचकर मैने उसे सब कुछ बता दिया। अब हालात यह है कि वह अपनी मर्जी से घर चलाना चाहती है। कहता हूं, तो रोने लगती है और उलाहना देती है कि आप अभी भी उसी लड़की से प्यार करते हैं। इस कारण मेरी बात नहीं सुनते, जबकि वास्तविकता यह है कि हम दोनों एक-दूसरे के बारे में 6 वर्षो से कुछ भी नहीं जानते। अब मेरी स्थिति कहीं की नहीं रही। मोहित के ये शब्द सुनकर कलेजा मुंह को आ गया और सोचने लगा कि सही कौन है? उसके घरवाले जो उन्हें पिछली बात नहीं बताने के लिए कह रहे थे या मोहित के आधुनिक विचार? लेकिन इसका हश्र तो बुरा हुआ। यदि नहीं बताया जाता और बाद में उसे पता चलता तो और भी अनर्थ हो सकता था। आप क्या सोच रहे हैं? आप ही बताइये न?
गलती किसकी?
विकलांग था वह। अंदर से पूरी तरह टूटा हुआ था। उस समय वह यही सोचता था कि उसे प्यार करने वाला कोई नहीं है, सिवा परिवार के। यह उन दिनों की बात है, जब वह पांचवीं क्लास में पढ़ता था। धीरे-धीरे बड़ा हुआ और नकारात्मक सोच भी उसी के हिसाब से बढ़ता गया। अब उसका हृदय शॉक प्रूव हो चुका था। अब उसे किसी बात का दुख नहीं होता था। मन में हमेशा यही इच्छा होती थी कि उसे भी अच्छे दोस्त मिले, लेकिन विकलांगता के कारण उससे सभी दूर रहते थे। यदि कोई चाहता भी था, तो अंदर से इतना टूट चुका था कि उसे अपमानित होने का डर सताता रहता था। इस भय से वह किसी के पास नहीं जाता था। इसी तरह दिन कटते गए और वह इंटरमीडिएट में पढ़ने लगा। जवान हो चुका था, इस कारण सपने भी देखने लगा। फिर अपने को संभालता कि यदि तुम्हें लड़का दोस्त नहीं बना रहा है, तो लड़की क्या पूछेगी? मन ही मन स्वयं को कोसता रहता था। काफी दुखी था वह। एक दिन वह अपने रिलैटिव के यहां गया और वहां एक खूबसूरत लड़की मिली। उसे देखते ही हर कुंवारे की तरह उसका भी मन डोलने लगा। फिर स्वयं को हीन समझकर नियंत्रित किया और चुपचाप बैठ गया। मजाक के लहजे में किसी ने कहा कि यह तुम्हें पूछेगी? अपनी विकलांगता तो देखो। वह कुछ नहीं बोला लेकिन मन ही मन रोने लगा अपनी विकलांगता को लेकर। उसे यह पता नहीं था कि अच्छे लड़के को भी लड़कियां भाव नहीं देती हैं। वह सभी का कारण विकलांगता को मानता था और मन ही मन कोसता रहता था। फिर एकाएक न जाने कहां से ऊर्जा आ गई और वह उस लड़की को पाने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। अंत में लड़के की जीत और वह लड़की उसकी प्रेमिका बन गई। आत्मविश्वास एकाएक काफी बढ़ गया और जो उसका उपहास उड़ाया था, उसके लिए करारा जवाब भी दिया वह। काफी कॉन्फिडेंस में था वह उस समय। खुश इस कारण नहीं था कि अब उसे प्रेमिका मिल गई है। खुश इस कारण था कि आज भी कद्रदानों की कद्र है। उसे समझ में आ गया कि मॉडर्न लड़की आज भी प्रतिभा और व्यक्तित्व को शारीरिक सुंदरता पर वरीयता देती है। उस समय तक सेक्स भावना नहीं थी। सिर्फ वह आगे बढ़ने के लिए इसका इस्तेमाल करना चाहता था। पहले से वह आईएएस बनने के लिए कृतसंकल्प था और अपनी तैयारी में जी जान से जुट गया। उस लड़की से उसे नया जीवन दिया और आगे बढ़ने का प्रेरणास्रोत भी बनी। यह प्रेम लगभग 6 वर्षो तक चला। अभी तक किसी तरह की गलत हरकत नहीं हुई। लड़का इतना ईमानदार था कि कभी लड़की पर दबाव नहीं डाला। सिर्फ साल में एक बार तीन से चार घंटे के लिए मिलता था और बहुत सारी बातें करता रहता था। दोस्तों के बीच उसका काफी क्रेज था। उसका आत्मविश्वास सातवें आसमान पर था। उसे लगने लगा कि अब वह भी इस धरती पर खास है। एक दिन लड़की बताई कि यदि तुम 6 महीने में नौकरी नहीं पकड़ते हो, तो हमारी शादी कहीं और हो जाएगी। इससे पहले लड़का खोने के डर से इस तरह की बात लड़की से नहीं कर पाया था। वह काफी खुश हुआ। उस दिन लड़की को न जाने क्या हो गया, उसके सामने सब कुछ देने को तैयार थी। लड़का इस कारण अपनी भावना को कंट्रोल में रखा कि इस तरह के समर्पित लड़की के साथ शादी के बाद ही कुछ होना चाहिए। इस कारण उसे कुछ नहीं कहा और आईएएस की परीक्षा छोड़कर कोई डिप्लोमा कोर्स कर लिया और संयोग से उसे नौकरी भी मिल गई। अपने घरवाले को भी तैयार कर लिया। लेकिन लड़की शादी से इस कारण इनकार कर दी कि वह विकलांग है। उस लड़के को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। उसकी दुखती रग पर वह हाथ रख चुकी थी। लड़का कुछ नहीं कहा और अभी तक मौन है। आप ही बताइये न कि इसमें गलती किसकी है? लड़की यदि गलत होती तो 6 वर्षो तक उस बेरोजगार विकलांग से नि:स्वार्थ प्यार क्यों करती? यदि लड़का गलत होता तो वह लड़की को कुछ कह सकता था। ठीक ही कहा गया है कि त्रिया चरित्रम पुरुषस्य भाग्यम, देवो न जानाति, कुतो मनुष्यम।
गुरुवार, 29 जुलाई 2010
पागल बुढि़या कुछ भी बोलती रहती है
जून में कुछ दिनों के लिए घर गया था। काफी खुश था घर जाकर। पड़ोसी में एक बूढ़ी है। उम्र होगी करीब सत्तर वर्ष। वह काफी परेशान थी। कसम खाई थी कि अब किसी बच्चे को नहीं पढ़ने देगी। इस कारण उसे कुछ लोग पागल भी कह रहे थे। मुझे आश्चर्य हुआ यह सुनकर कि आजकल सभी शिक्षा को बढ़ावा दे रहे हैं और यह दादी शिक्षा की कब्र खोद रही है, जबकि वह पेशे से खुद टीचर थी। एक समय उनकी खूब चलती थी। मुझे याद है कि संस्कृत के श्लोक रटाने के लिए वह बहुत मारी थी। उसका बेटा महेश भी मेरे साथ पढ़ता था। उसे भी खूब मार पड़ी थी। अंत में मैं यह श्लोक सुना दिया और उसे याद नहीं हुआ। उसे इस कारण छोड़ दिया गया कि वह संस्कृत में कमजोर था, लेकिन मैथ में तेज था। उसकी मां गर्व से कहती थी कि संस्कृत में क्या रखा है। मैथ पढ़कर बेटा इंजीनियर बनेगा। हुआ वही, बेटा इंजीनियर बन गया, लेकिन अपनी मां को यहीं छोड़ गया है। मां इसलिए परेशान थी। मैं उन्हें मजाक के लहजे में कहा कि आप मुझे संस्कृत के श्लोक के लिए बहुत पीटी थीं आपको याद है? वह बोली कि मुझे वह घटना भी याद है और श्लोक भी। काश, उस समय मैं इसका महत्व समझती और उसे भी तुम्हारी तरह रटा देती तो आज यह दिन नहीं देखने पड़ते। मुझे हंसी आ गई और वह रोने लगी। अब आप सोच रहे होंगे कि श्लोक क्या था। साधारण है, आप सभी जानते हैं। उस समय तो मैं उसे रट लिया था और व्यावहारिक जीवन में कभी जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन उसके बाद मैं भी सोचने के लिए मजबूर हो गया। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि एक श्लोक का इतना महत्व हो सकता है। अंत में मैं लाचार होकर उनसे पूछा कि विद्या तो उसके पास है ही, फिर श्लोक का क्या महत्व? वह गंभीर होकर बोली कि जब हनुमान के दिल में ही सीता और राम थे, तो फिर राम-राम की रट क्यों लगाते थे। श्लोक है : विद्या ददाति विनयम, विनया ददाति पात्रत्रामपात्रत्वधनआप्नोति धनात धर्म: तत: सुखम। आधुनिक शिक्षा तो वह ग्रहण कर लिया लेकिन बुनियादी शिक्षा ही वह भूल गया। कुछ दिन पहले उसके पास गया तो मुझे वहां से इस कारण भेज दिया कि तुम यहां एडजस्ट नहीं कर सकती। बताओ, यदि सही विद्या होती, तो इस तरह की बातें वह करता? मैं निरुत्तर था और वह बार-बार यही प्रश्न कर रही थी। इसी बीच भतीजा आया और बोला कि चलिए यह पागल बुढि़या कुछ भी बोलती रहती है।
गृहस्थ या सन्यास
पत्नी ने प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या की। पति के बेवफाई से तंग आकर पत्नी ने तलाक ली। इस तरह की खबरें आजकल आम हो गए हैं। पहले ये खास लोगों में थी, तो खास खबर बनती थी। अब आम हो गई है। बचपन में एक कहानी पढ़ी थी। उसमें यह था कि एक युवक गृहस्थ और सन्यास को लेकर दुविधा में था। वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि कौन बेहतर है? काफी परेशान होने के बाद वह कबीर दास के पास पहुंचा और अपनी परेशानी बताई। कबीर उन्हें जंगल घास काटने के लिए ले गए। दो घंटे के बाद नब्बे वर्ष के बूढ़े संत के पास ले गए। कबीर ने उनसे पूछा कि बाबा आपका नाम क्या है और कितनी उम्र हो रही है? संत न बताया कि बेटा नाम आत्मा राम है और उम्र 90 वर्ष है। कबीर फिर उसी को दोहराए और संत उसी भाव से उत्तर दिए। इस तरह एक ही प्रश्न कबीर ने उस संत से लगभग पचास बार पूछा, लेकिन संत उसी भाव से सहज उत्तर देते रहे। युवक भी इस बात को सुन रहा था। वह पछता रहा था कि किस पागल के पास मैं आ गया हूं। बाद में कबीर दास ने युवक को अपना घर लाया। उस समय दिन के दो बज रहे थे। बीच आंगन में घास रखकर कबीर ने पत्नी से एक दीया जलाकर लाने को कहा। युवक अब अच्छी तरह समझ गया कि कबीर पागल है, क्योंकि उस समय धूप काफी खिली हुई थी। पत्नी कबीर के आदेशानुसार दीया जलाकर ले आई। अब कबीर ने युवक को बताया कि यदि तुम संत की तरह क्रोध मिटा सकते हो, तो संत बनो। इसके विपरीत यदि विश्वास है, तो गृहस्थ बनो। क्योंकि गृहस्थ जीवन विश्वास पर अवलंबित है। यदि अविश्वास होता तो पत्नी धूप में दीया लाने का प्रयोजन पूछ सकती थी, लेकिन नहीं पूछी। कारण साफ है। यह तो एक कहानी थी, लेकिन आजकल दोनों चीज गायब हैं। आजकल के हाइटेक बाबा काम और क्रोध में लिप्त हैं और अखबार की सुखियरें में रहते हैं, तो अविश्वास के कारण परिवार टूट रहे हैं। शक के कारण एक दूसरे की हत्या की जा रही है। अब मैं खुद परेशान हूं कि कबीर सही थे या हमलोग सही हैं। आखिर हमें भी तो जमाने के साथ कदम बढ़ाकर चलना है। नहीं चलेंगे, तो पीछे रह जाएंगे। चलेंगे तो कहीं के नहीं रहेंगे।
मन का सुख
जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी - जल्दी करने की इच्छा होती है , सब कुछ तेजीसे पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कमपड़ते हैं , उस समय ये बोध कथा , " काँच की बरनी और दो कप चाय " हमें याद आतीहै ।दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंनेछात्रों से कहा कि वेआज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं ...उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी ( जार ) टेबल पर रखा और उसमें टेबलटेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समानेकी जगह नहीं बची ... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ? हाँ ...आवाज आई ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे - छोटे कंकर उसमें भरने शुरुकिये h धीरे- धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समागये , फ़िरसे प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्या अब बरनी भर गई है , छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ... कहा अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले - हौले उस बरनी में रेत डालनाशुरु किया , वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई , अब छात्र अपनी नादानी परहँसे ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्यों अबतो यह बरनी पूरी भर गई ना ? हाँ॥ अब तो पूरी भर गई है .. सभी ने एक स्वर में कहा .. सर ने टेबल के नीचे सेचाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली , चाय भी रेत के बीच स्थितथोडी़ सी जगह में सोख ली गई ...प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया –इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो ....टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान ,परिवार , बच्चे , मित्र, स्वास्थ्य और शौक हैं ,छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी , कार , बडा़ मकान आदि हैं , औररेत का मतलब और भी छोटी - छोटी बेकार सी बातें , मनमुटाव , झगडे़ है ..अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस कीगेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती , या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहींभर पाते , रेत जरूर आ सकती थी...ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है ... यदि तुम छोटी - छोटी बातों के पीछेपडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातोंके लिये अधिक समय नहीं रहेगा ... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है येतुम्हें तय करना है । अपनेबच्चों के साथ खेलो , बगीचे में पानी डालो , सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ ,घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको , मेडिकल चेक - अपकरवाओ ... टेबल टेनिसगेंदों की फ़िक्र पहले करो , वही महत्वपूर्ण है ... पहले तय करो कि क्या जरूरी है... बाकी सब तो रेत है ..छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे .. अचानक एक ने पूछा , सर लेकिन आपने यहनहीं बतायाकि " चाय के दो कप " क्या हैं ? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये , बोले .. मैं सोच हीरहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया ...इसका उत्तर यह है कि , जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे , लेकिनअपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनीचाहिये ।
मंगलवार, 4 मई 2010
मैं और मेरा जीवन चार
पेरेंट्स
क्या बताऊं इनके बारे में। पहले पिताजी से काफी डरता था। मुझे लगता था कि वे मुझे प्यार नहीं करते हैं। लेकिन हॉस्टल आने के बाद पता चला कि वे भी मुझसे प्यार करते हैं, तभी तो हर सप्ताह मुझे देखने आते हैं और पैसे भी देते हैं। मां के बारे में कभी भी संदेह नहीं रहा। उन्हीं के ममता के बदौलत तो मैं बचपन की सभी कठिनाइयों से पार पाया। यदि वह नहीं होती तो॥मैं कुछ नहीं होता और यह लिखने की स्थिति में भी नहीं होता। वह बचपन से ही साहसी थीं और हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा देती रहती थी। वह भी रविवार को मुझसे मिलने के लिए पैदल ही आ जाती थी। उनके पैर में चप्पल भी नहीं रहते थे। अब तो मुझे खुद आश्चर्य होता है कि पिताजी कमाते हुए भी एक धोती और कुर्ता तथा मां बिना चप्पल के कैसे चल लेती थीं।
पटना यात्रा
उस समय आठवीं कक्षा में पढ़ता था। भैया काफी मेहनत के बाद पटना कॉलेजियट स्कूल में एडमिशन करा दिए। घरवाले भी खुश थे कि अब यह बेहतर पढ़ाई करेगा। मैं भी अंदर से खुश था कि वहां जाकर खूब पढ़ूंगा। अनेक तरह के सपने भी देखने लगा था। कपड़े भी ढंग का था। भैया के साथ पटना बस से सफर कर रहा था। उसके पहले पूर्णियां भी नहीं गया था। रात की बस थी। सभी सो रहे थे और मैं आने जानेवाले सभी बसों और ट्रकों को देखता और रोमांचित भी हो उठता था। कभी-कभी भैया को भी देखने की सलाह दे देता था। भैया सिर्फ मुस्कुरा देते थे। पटना में अलग वातावरण था। उस समय उनके साथ लाल भैया रहते थे। जाते वक्त यही डर लग रहा था कि फिर लाल भैया पढ़ने के लिए मारेंगे। उनके सामने जाने से डरता था। जब अपने कमरे में पहुंचा, तो लाल भैया के बदले स्वभाव से हिम्मत बंधी। उस समय न हीं बोलने का तरीका मालूम था और न ही शिष्टाचार से वाकिफ था। भैया अपने दोस्तों से मिलाते और खुद ही मेरे बारे में बताते रहते थे। वे जिन्हें कहते, प्रणाम कर लेते अन्यथा सिर्फ वे लोग बातें करते थे और मैं सुनता रहता था।
हॉस्टल में प्रवेश
स्कूल में एडमिशन के बाद हॉस्टल में रहने लगा। एक कमरे में मुझे लगाकर पांच स्टूडेंट्स थे। जाने के साथ ही पढ़ाई शुरू कर दिया। रात को एकाएक रोने लगा। घर की याद खूब आ रही थी। भैया के कमरे में नहीं जाना चाहता था, क्योंकि वहां लाल भैया थे। कोई भी मुझसे मिलने आता, तो रोने लगता। इस तरह की स्थिति लगभग एक वर्ष तक रही। यहां तो इससे भी बदतर स्थिति थी। स्कूल बहुत अच्छा था। हॉस्टल में भी टॉप स्टूडेंट्स रहते थे, लेकिन मेरे कमरे में मैं ही तेज था। इस कारण पहले का डर खत्म हो गया। यहां भी पढ़ने की कोई व्यवस्था नहीं थी। इस कारण फिर पढ़ाई से दूर हो गया। महीने में कभी भी यदि भैया के यहां जाता तो मैथ छोड़कर अन्य किताब ले जाता। यदि लाल भैया कहीं से किताब लेकर मैथ बनाने देते तो हाथ-पांव कांप उठते थे। नहीं बनाने पर मारने की कोशिश करते तो इतना रोने लगता कि लाचारी में भैया बचा लेते और उनसे न पढ़ाने को कहते। कुछ दिन लाल भैया प्रयास किए अंत में वे हार मान गए। इससे घाटा यह हुआ कि मैं कमजोर से कमजोर बनता गया। स्कूल में रिजल्ट से उन लोगों को कोई मतलब नहीं था। मैं किसी तरह पास करता गया और उन लोगों की डांट सुनकर और जिद्दी बनता गया। इस समय मुझे भैया के प्रति घृणा के रोगाणु लग चुके थे। न जाने क्यों, बचपन से ही मुझे झूठ से नफरत हो गई थी। भैया मेरे बारे में बहुत कुछ बिना देखे ही सभी को बोलते रहते थे। जैसे कि उस समय मुझे एडल्ट सिनेमा के बारे में जानकारी नहीं थी और मैं बाहर जाकर सिनेमा भी नहीं देखता था, लेकिन घर में सभी को बता दिए थे कि यह पढ़ाई छोड़कर इन्हीं सब बातों में लगा रहता है। हॉस्टल में महीने में एक बार वीडियो आता था और सभी स्टूडेंट्स इसके लिए चंदा देते थे। रात भर सिनेमा देखा जाता था। इससे कोई भी अलग नहीं हो सकता था। हमारी यह बात सुनने के लिए कोई तैयार नहीं रहता था और कहा जाता था कि ये तो रात भर सिनेमा देखता है। इन झूठ से भैया के प्रति काफी घृणा हो गई थी। जब भी घर जाता, तो पिताजी से काफी डांट लगती और फिर ढाक के तीन पात वाली स्थिति रहती। घर की तरफ से सभी परेशान ही करते थे। उस समय तक घर में यही धारणा थी कि मैथ के बिना स्टूडेंट्स आगे नहीं बढ़ सकता है। मैं मैथ में कमजोर हो गया था। इस कारण हमारी क्लास खूब लगती थी। धीरे-धीरे घर आना भी छोड़ दिया और पढ़ाई तो कब से छोड़ दिया था। जब कभी पढ़ने की इच्छा होती भी थी, तो घरवालों के व्यवहार से नहीं पढ़ पाता था। वे लोग हमारी स्थिति को सुनने के लिए तैयार नहीं थे और मैं उनके अनुरूप नहीं चल रहा था। धीरे-धीरे पिताजी को भी जवाब देने लगा। मेरे घर में बड़ों को जवाब देना घोर अपराध माना जाता था, लेकिन इसकी शुरुआत मैंने कर दी थी। अब पढ़ाई छोड़ मैं उन लोगों की बात का काट ढूंढने लगा और अपनीर थ्योरी विकसित करने लगा। इससे फायदा यह मिला कि मैं पढ़ाई के प्रति फिर से मुड़ गया और यह सिद्ध करने के लिए पढ़ने लगा कि मैथ न जानने के बावजूद भी सफल हुआ जा सकता है। इसमें जोखिम काफी था, लेकिन इसके सिवा मेरे पास कोई विकल्प भी नहीं था। लेकिन पटना में मेरी पढ़ाई न के बराबर हुई। कुछ टीचर और पिताजी यही मानते थे कि यह इंटेलिजेंट है। इस कारण पढ़ाई कर सकता है। दसवीं में सभी का रजिस्ट्रेशन फॉर्म भराया गया, मैं भी उनमें से एक था। पढ़ाई इस तरह की नहीं हुई थी कि मेरिट से बोर्ड परीक्षा पास कर सकें। लेकिन खुशी यह थी न जाने क्यों, दोस्तों के बीच मेरी गिनती अच्छे स्टूडेंट्स में होती थी और सभी यही कहते थे कि तुम प्रथम श्रेणी से अवश्य पास होगे। मैं यह सुनकर काफी खुशफहमी में रहता था। घर में जो मेरे क्लासमेट थे, उन्हें पटनिया स्टाइल में बेवकूफ बनाता रहता था और वे लोग भी काफी तेज समझते थे। एक बात घर में यह भी थी कि स्टूडेंट्स के समक्ष उसकी प्रशंसा करने से वह बिगड़ जाता है। इसके विपरीत उस समय मैं परिवार से अपने किए अच्छे कार्यो की प्रशंसा सुनना चाहता था ताकि फिर दोगुने हिम्मत से तैयारी में जुट सकूं। यहां से परिवार और मेरे विचार भिन्न होने लगे और मैं दृढ़ बनता गया, जो कि परिवारवालों को अच्छा नहीं लगता था।
आग में घी का काम
परिवार वाले मुझसे नाराज थे ही कि आग में घी का काम यह हुआ कि क्लास टीचर की गलती से मेरा रजिस्ट्रेशन फॉर्म बोर्ड में जमा नहीं हो पाया। इस कारण मैं बोर्ड परीक्षा नहीं दे सका। परिवार वाले पहले से ही खार खाए बैठे थे। यह सुनकर वे आग बबूला हो गए और भैया घर में यह प्रचारित कर दिए कि यह जानकर परीक्षा नहीं देना चाहता था। इस कारण ऐसा किया। मुझे काफी गुस्सा भी आया और आश्चर्य भी हुआ कि उनकी दलील पर सभी सहमत हो गए। उस समय भैया से घृणा हो चुकी थी। उनकी शक्ल भी देखना नहीं चाहता था। हालांकि रजिस्ट्रेशन फॉर्म लाने के लिए काफी कोशिश किए, लेकिन सफल नहीं हो पाए। डांटने के बावजूद मेरी परेशानी उन्हें ही उठानी पड़ती थी। इस कारण कभी-कभी दया भी आ जाती थी। लेकिन उनसे चिढ़ बनी रही।
घर में एक वर्ष
अंत में पटना छोड़कर घर आ गया और यहीं रहने लगा। इस एक वर्ष में सभी ने अपना भड़ास खूब निकाला। इस वक्त सुनने के सिवा कुछ विकल्प भी नहीं था, लेकिन निडर हो गया था। आलोचना सुनने की आदत पड़ गई थी। सभी लोग कुछ न कुछ अवश्य कहते थे। खासकर पिताजी और भैया पीछे पड़ गए थे। मैं उनकी बातों को अनसुना करना सीख लिया था। घर आने के बाद मुझे ये नहीं समझ में आ रहा था कि पढ़ाई कहां से शुरू करूं? मेरे क्लास में चचेरी बहन गुडि़या पढ़ती थी। वह भी उस समय मुझसे काफी तेज थी। गांव के स्कूल में राघवेंद्र फर्स्ट करता था। टुक्कू भी मेरे साथ था। मेरी ममेरी बहन भी उसी क्लास में पढ़ती थी। कहने का मतलब यह था कि बचपन के क्लासमेट के साथ मैं फिर आ गया। घर की तरफ से किसी तरह का सहयोग नहीं मिल रहा था। प्रमोद भैया पूर्णियां में रहते थे। घर में मैं अकेला रहता था। सभी लड़कों के साथ दिन भर क्रिकेट खेलता रहता था। पिताजी के आने के बाद मार भी पड़ती थी, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था।
जयशंकर मामा
इनकी नौकरी टीचर में हो चुकी थी। एमए तथा योग्य थे। उनकी नियुक्ति चार पांच महीने बाद होनी थी। पिताजी और मां मेरी पढ़ाई में अरुचि को देखकर उनको दो माह के लिए यहीं रख लिए। इनकी खासियत यह थी कि पढ़ाई करने पर प्रशंसा करते थे। इस कारण इनके साथ पढ़ने लगा और फिर से कुछ करने की इच्छा बलवती होने लगी। घरवाले भी मेरी पढ़ाई को देखकर खुश हो रहे थे। वे साइंस छोड़कर सभी पेपर पढ़ाते थे। इस कारण मैं भी पढ़ने लगा और काफी मेहनत करने लगा। उनके कारण इतिहास, अंग्रेजी और संस्कृत पर अच्छी पकड़ बन गई थी। न जाने क्यों, वे भी मुझे काफी इंटेलिजेंट समझते थे। दो महीने के बाद मैं पूर्णियां प्रमोद भैया के साथ रहने लगा। वे इंजीनियरिंग की तैयारी करते थे। उनके साथ लगभग दस घंटा रोज पढ़ता था, लेकिन कुछ भी याद नहीं रहता था। वे मुझे कुछ होमवर्क करने के लिए देते थे, जिसे मैं चाहकर भी पूरा नहीं कर पाता था। उनके साथ इस शर्त पर आया था कि यहां उनकी ही बातें मानूंगा। इस कारण वे जो कहते थे। चुपचाप सुनता रहता और कभी-कभी सभी के सामने मारते भी थे, लेकिन चुपचाप सहता रहता था। वहां की पढ़ाई पोजीटिव नहीं रही। अंत में फिर घर आ गया। अभी तक मैं सिर्फ मोहरा बना हुआ था। सभी लोग अपनी तरह से हमें यूज कर रहे थे। अंत में यह निर्णय लिया गया कि गांव के स्कूल में इसे पढ़ने दिया जाए, ताकि दिन भर खेल न सके।
स्कूल में आगमन
इस निर्णय का मैं इसलिए विरोध कर रहा था कि मुझे यह डर बना हुआ था कि मैं कुछ नहीं जानता हूं और वहां जाने के बाद मेरी रही सही इज्जत भी खत्म हो जाएगी। मेरा कुछ नहीं चला। अंत में लाचार होकर स्कूल जाने की तैयारी करने लगा। उस रात नींद नहीं आई। एक बार आत्महत्या करने के बारे में भी सोचा, लेकिन न जाने क्यों इरादा बदल दिया और अंदर से कुछ करने की हिम्मत जागी। सुबह तैयार होकर स्कूल जाने लगा। वहां सभी बचपन के दोस्त थे। इस कारण अधिक समस्या नहीं आई। राघवेंद्र क्लास में फर्स्ट आता था, जिससे पहले से ही जान-पहचान थी। टुक्कू के अलावा चेचेरी और मेमेरी बहन भी पढ़ती थी। वे लोग भी पढ़ने में ठीक थे। सभी दोस्त मुझे चार क्लासवाले तेज ही समझते थे। इस कारण हमें पहली बेंच पर बैठाया गया। अंदर से काफी परेशान था। लेकिन उन लोगों को प्रभावित करने के लिए सर्वस्व झौंक दिया। घर पर आकर पढ़ाई करने लगा। इस समय यही स्ट्रेटेजी अपनाया कि कल जो पढ़ाया जाएगा, उसे आज ही पढ़कर जाना है। यह आइडिया काम कर गया और स्कूल में टीचर के प्रश्नों का उत्तर देने लगा। मेरे सभी भाई यहीं से पढ़े थे। इस कारण टीचर भी हमें तेज समझते थे और मैं उनकी अपेक्षाओं पर खरा भी उतर रहा था। अब मुझे पढ़ने में काफी मन लगने लगा, लेकिन पहले से पढ़ाई में इतना वीक था कि बहुत कुछ पढ़ने के लिए था। अंत में मैंने यही निश्चय किया कि मैथ सिर्फ पास करने के लिए पढ़ूंगा और शेष विषयों में जी जान लगा दूंगा। मेरी यह रणनीति किसी को पसंद नहीं आई, लेकिन मैं अपने निर्णय पर दृढ़ रहा। अंत में वे लोग हार गए और मैं पढ़ाई में लग गया। मुझे याद है कि मैं दिन को स्कूल और खेलने में लगाता और रात भर पढ़ता था। चार बजे से पहले मैंने कभी नहीं सोया। सभी भाई व्यंग्य करते थे कि दिन भर पत्ता चुनता है और रात को पढ़ता है, लेकिन उनकी बातों पर कोई फर्क नहीं पड़ता था। मैं अपनी धुन पर ही काम करता था। धीरे-धीरे आत्मविश्वास बढ़ गया। जब सब कुछ बढि़या चल रहा था, तो एक दिन उस स्कूल के हेडमास्टर फिजिक्स पढ़ाने आए। मैं पहले से तैयारी करके आया था। इस कारण संयोग से उनके पूछे गए सभी प्रश्नों का जवाब सिर्फ मैं ही दिया। इससे वे काफी प्रभावित हुए और दुखी भी हुए कि इस स्कूल का स्टूडेंट्स जवाब नहीं दिया। दूसरे दिन आकर बोले कि आप यहीं से परीक्षा दीजिए ताकि इस स्कूल से अच्छे रिजल्ट आ सकें। यह मेरे लिए असंभव था। क्योंकि पटना से पास करने का रोमांच ही अलग था। इस कारण मैं मना कर दिया, बदले में वे मुझे कल से स्कूल न आने का आदेश दे दिए। घर पर आकर बताया और स्कूल जाना छोड़ दिया। हीरो की तरह स्कूल छोड़ा था। इस कारण काफी खुश था और दोस्तों के बीच काफी क्रेज भी बन गया था। अब मैं अपनी पूरी रंगत में आ गया और जमकर पढ़ाई करने लगा। खेलता भी खूब था। घरवाले की बात न मानकर खुद अपनी ही मर्जी से चलता था। एक दिन सुबह से ही क्रिकेट खेल रहा था। पिताजी दो बार मना कर चुके थे, लेकिन फिर भी खेलता रहा। अंत में पिताजी बुलाए और पूछे कि तुम्हारी परीक्षा दो महीने के बाद हैं और तुम पढ़ाई नहीं कर रहे हो। इससे पढ़ाई से पास कर पाओगे? वह मारने के लिए तैयार हुए कि मैने उन्हें रोका और बोला कि यदि मैं प्रथम श्रेणी से परीक्षा पास नहीं करूंगा, तो आप मुझे घर से बाहर कर देंगे। पिताजी नहीं मारे और बोले कि रिजल्ट के बाद तुम्हें पूछूंगा। मैं भी निश्चिंत होकर चला गया और काफी खुश था कि आज मार से बच गया। लेकिन रात भर यही चिंता सता रही थी कि यदि प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण नहीं होऊंगा, मेरी खैर नहीं। उस दिन से मैं और पढ़ने लगा और पिताजी उस दिन से हमें पढ़ने के लिए कभी नहीं मारे। एक दिन तो वे मुझे रात भर पढ़ते देखकर हैरान हो गए। इससे मुझे और बल मिला और खूब मेहनत किया। अब मैं अपनी स्टाइल में पढ़ता था। भैया कहते भी तो उनकी बातों पर विशेष ध्यान नहीं देता। सेंटर में चोरी तो हो रही थी, लेकिन उसमें मेरा कोई दोस्त नहीं था, क्योंकि जब मैं पढ़ रहा था, तो वे लोग हमसे जूनियर थे। मैं एक भी किताब नहीं ले गया और जो जानता था, उसे लिख दिया। अच्छे मार्क्स की आशा तो नहीं थी, लेकिन विश्वास जरूर था कि प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हो जाऊंगा। घरवाले भी बदले-बदले नजर आए। मेरे साथ गांव के काफी स्टूडेंट्स थे। इस कारण थोड़ा तनाव में था। दो-तीन महीने पढ़ाई छोड़कर खूब घूमे। रात को कभी डर भी सताता था कि यदि प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण नहीं हुआ तो पिताजी नहीं छोड़ेंगे। रिजल्ट आने से पहले मां के बक्सा में ही दो सौ रुपये अलग करके रख दिया था कि यदि प्रथम श्रेणी से पास नहीं करूंगा, तो घर से भाग जाऊंगा। यह आभास मां को हो चुका था। इस कारण वह हमें समझा रही थी कि पिताजी इस तरह की बातें सिर्फ पढ़ने के लिए कह रहे थे। कोई भी पिता अपने बेटे को इस तरह नहीं कर सकता, लेकिन मुझे उन पर विश्वास नहीं था। इस कारण पहले से तैयार था। खैर जो भी हो, रिजल्ट निकला और मैं प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हो गया। मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था, लेकिन भाई लोग इस कारण नाराज थे कि अच्छे मार्क्स नहीं आए हैं। पिताजी के व्यवहार में गजब का परिवर्तन दिखा। वे काफी खुश थे कि मैं प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ हूं। मामा पचास रुपये मुझे मिठाई के लिए दिए। सभी जगह मेरी इज्जत काफी बढ़ गई थी।
क्या बताऊं इनके बारे में। पहले पिताजी से काफी डरता था। मुझे लगता था कि वे मुझे प्यार नहीं करते हैं। लेकिन हॉस्टल आने के बाद पता चला कि वे भी मुझसे प्यार करते हैं, तभी तो हर सप्ताह मुझे देखने आते हैं और पैसे भी देते हैं। मां के बारे में कभी भी संदेह नहीं रहा। उन्हीं के ममता के बदौलत तो मैं बचपन की सभी कठिनाइयों से पार पाया। यदि वह नहीं होती तो॥मैं कुछ नहीं होता और यह लिखने की स्थिति में भी नहीं होता। वह बचपन से ही साहसी थीं और हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा देती रहती थी। वह भी रविवार को मुझसे मिलने के लिए पैदल ही आ जाती थी। उनके पैर में चप्पल भी नहीं रहते थे। अब तो मुझे खुद आश्चर्य होता है कि पिताजी कमाते हुए भी एक धोती और कुर्ता तथा मां बिना चप्पल के कैसे चल लेती थीं।
पटना यात्रा
उस समय आठवीं कक्षा में पढ़ता था। भैया काफी मेहनत के बाद पटना कॉलेजियट स्कूल में एडमिशन करा दिए। घरवाले भी खुश थे कि अब यह बेहतर पढ़ाई करेगा। मैं भी अंदर से खुश था कि वहां जाकर खूब पढ़ूंगा। अनेक तरह के सपने भी देखने लगा था। कपड़े भी ढंग का था। भैया के साथ पटना बस से सफर कर रहा था। उसके पहले पूर्णियां भी नहीं गया था। रात की बस थी। सभी सो रहे थे और मैं आने जानेवाले सभी बसों और ट्रकों को देखता और रोमांचित भी हो उठता था। कभी-कभी भैया को भी देखने की सलाह दे देता था। भैया सिर्फ मुस्कुरा देते थे। पटना में अलग वातावरण था। उस समय उनके साथ लाल भैया रहते थे। जाते वक्त यही डर लग रहा था कि फिर लाल भैया पढ़ने के लिए मारेंगे। उनके सामने जाने से डरता था। जब अपने कमरे में पहुंचा, तो लाल भैया के बदले स्वभाव से हिम्मत बंधी। उस समय न हीं बोलने का तरीका मालूम था और न ही शिष्टाचार से वाकिफ था। भैया अपने दोस्तों से मिलाते और खुद ही मेरे बारे में बताते रहते थे। वे जिन्हें कहते, प्रणाम कर लेते अन्यथा सिर्फ वे लोग बातें करते थे और मैं सुनता रहता था।
हॉस्टल में प्रवेश
स्कूल में एडमिशन के बाद हॉस्टल में रहने लगा। एक कमरे में मुझे लगाकर पांच स्टूडेंट्स थे। जाने के साथ ही पढ़ाई शुरू कर दिया। रात को एकाएक रोने लगा। घर की याद खूब आ रही थी। भैया के कमरे में नहीं जाना चाहता था, क्योंकि वहां लाल भैया थे। कोई भी मुझसे मिलने आता, तो रोने लगता। इस तरह की स्थिति लगभग एक वर्ष तक रही। यहां तो इससे भी बदतर स्थिति थी। स्कूल बहुत अच्छा था। हॉस्टल में भी टॉप स्टूडेंट्स रहते थे, लेकिन मेरे कमरे में मैं ही तेज था। इस कारण पहले का डर खत्म हो गया। यहां भी पढ़ने की कोई व्यवस्था नहीं थी। इस कारण फिर पढ़ाई से दूर हो गया। महीने में कभी भी यदि भैया के यहां जाता तो मैथ छोड़कर अन्य किताब ले जाता। यदि लाल भैया कहीं से किताब लेकर मैथ बनाने देते तो हाथ-पांव कांप उठते थे। नहीं बनाने पर मारने की कोशिश करते तो इतना रोने लगता कि लाचारी में भैया बचा लेते और उनसे न पढ़ाने को कहते। कुछ दिन लाल भैया प्रयास किए अंत में वे हार मान गए। इससे घाटा यह हुआ कि मैं कमजोर से कमजोर बनता गया। स्कूल में रिजल्ट से उन लोगों को कोई मतलब नहीं था। मैं किसी तरह पास करता गया और उन लोगों की डांट सुनकर और जिद्दी बनता गया। इस समय मुझे भैया के प्रति घृणा के रोगाणु लग चुके थे। न जाने क्यों, बचपन से ही मुझे झूठ से नफरत हो गई थी। भैया मेरे बारे में बहुत कुछ बिना देखे ही सभी को बोलते रहते थे। जैसे कि उस समय मुझे एडल्ट सिनेमा के बारे में जानकारी नहीं थी और मैं बाहर जाकर सिनेमा भी नहीं देखता था, लेकिन घर में सभी को बता दिए थे कि यह पढ़ाई छोड़कर इन्हीं सब बातों में लगा रहता है। हॉस्टल में महीने में एक बार वीडियो आता था और सभी स्टूडेंट्स इसके लिए चंदा देते थे। रात भर सिनेमा देखा जाता था। इससे कोई भी अलग नहीं हो सकता था। हमारी यह बात सुनने के लिए कोई तैयार नहीं रहता था और कहा जाता था कि ये तो रात भर सिनेमा देखता है। इन झूठ से भैया के प्रति काफी घृणा हो गई थी। जब भी घर जाता, तो पिताजी से काफी डांट लगती और फिर ढाक के तीन पात वाली स्थिति रहती। घर की तरफ से सभी परेशान ही करते थे। उस समय तक घर में यही धारणा थी कि मैथ के बिना स्टूडेंट्स आगे नहीं बढ़ सकता है। मैं मैथ में कमजोर हो गया था। इस कारण हमारी क्लास खूब लगती थी। धीरे-धीरे घर आना भी छोड़ दिया और पढ़ाई तो कब से छोड़ दिया था। जब कभी पढ़ने की इच्छा होती भी थी, तो घरवालों के व्यवहार से नहीं पढ़ पाता था। वे लोग हमारी स्थिति को सुनने के लिए तैयार नहीं थे और मैं उनके अनुरूप नहीं चल रहा था। धीरे-धीरे पिताजी को भी जवाब देने लगा। मेरे घर में बड़ों को जवाब देना घोर अपराध माना जाता था, लेकिन इसकी शुरुआत मैंने कर दी थी। अब पढ़ाई छोड़ मैं उन लोगों की बात का काट ढूंढने लगा और अपनीर थ्योरी विकसित करने लगा। इससे फायदा यह मिला कि मैं पढ़ाई के प्रति फिर से मुड़ गया और यह सिद्ध करने के लिए पढ़ने लगा कि मैथ न जानने के बावजूद भी सफल हुआ जा सकता है। इसमें जोखिम काफी था, लेकिन इसके सिवा मेरे पास कोई विकल्प भी नहीं था। लेकिन पटना में मेरी पढ़ाई न के बराबर हुई। कुछ टीचर और पिताजी यही मानते थे कि यह इंटेलिजेंट है। इस कारण पढ़ाई कर सकता है। दसवीं में सभी का रजिस्ट्रेशन फॉर्म भराया गया, मैं भी उनमें से एक था। पढ़ाई इस तरह की नहीं हुई थी कि मेरिट से बोर्ड परीक्षा पास कर सकें। लेकिन खुशी यह थी न जाने क्यों, दोस्तों के बीच मेरी गिनती अच्छे स्टूडेंट्स में होती थी और सभी यही कहते थे कि तुम प्रथम श्रेणी से अवश्य पास होगे। मैं यह सुनकर काफी खुशफहमी में रहता था। घर में जो मेरे क्लासमेट थे, उन्हें पटनिया स्टाइल में बेवकूफ बनाता रहता था और वे लोग भी काफी तेज समझते थे। एक बात घर में यह भी थी कि स्टूडेंट्स के समक्ष उसकी प्रशंसा करने से वह बिगड़ जाता है। इसके विपरीत उस समय मैं परिवार से अपने किए अच्छे कार्यो की प्रशंसा सुनना चाहता था ताकि फिर दोगुने हिम्मत से तैयारी में जुट सकूं। यहां से परिवार और मेरे विचार भिन्न होने लगे और मैं दृढ़ बनता गया, जो कि परिवारवालों को अच्छा नहीं लगता था।
आग में घी का काम
परिवार वाले मुझसे नाराज थे ही कि आग में घी का काम यह हुआ कि क्लास टीचर की गलती से मेरा रजिस्ट्रेशन फॉर्म बोर्ड में जमा नहीं हो पाया। इस कारण मैं बोर्ड परीक्षा नहीं दे सका। परिवार वाले पहले से ही खार खाए बैठे थे। यह सुनकर वे आग बबूला हो गए और भैया घर में यह प्रचारित कर दिए कि यह जानकर परीक्षा नहीं देना चाहता था। इस कारण ऐसा किया। मुझे काफी गुस्सा भी आया और आश्चर्य भी हुआ कि उनकी दलील पर सभी सहमत हो गए। उस समय भैया से घृणा हो चुकी थी। उनकी शक्ल भी देखना नहीं चाहता था। हालांकि रजिस्ट्रेशन फॉर्म लाने के लिए काफी कोशिश किए, लेकिन सफल नहीं हो पाए। डांटने के बावजूद मेरी परेशानी उन्हें ही उठानी पड़ती थी। इस कारण कभी-कभी दया भी आ जाती थी। लेकिन उनसे चिढ़ बनी रही।
घर में एक वर्ष
अंत में पटना छोड़कर घर आ गया और यहीं रहने लगा। इस एक वर्ष में सभी ने अपना भड़ास खूब निकाला। इस वक्त सुनने के सिवा कुछ विकल्प भी नहीं था, लेकिन निडर हो गया था। आलोचना सुनने की आदत पड़ गई थी। सभी लोग कुछ न कुछ अवश्य कहते थे। खासकर पिताजी और भैया पीछे पड़ गए थे। मैं उनकी बातों को अनसुना करना सीख लिया था। घर आने के बाद मुझे ये नहीं समझ में आ रहा था कि पढ़ाई कहां से शुरू करूं? मेरे क्लास में चचेरी बहन गुडि़या पढ़ती थी। वह भी उस समय मुझसे काफी तेज थी। गांव के स्कूल में राघवेंद्र फर्स्ट करता था। टुक्कू भी मेरे साथ था। मेरी ममेरी बहन भी उसी क्लास में पढ़ती थी। कहने का मतलब यह था कि बचपन के क्लासमेट के साथ मैं फिर आ गया। घर की तरफ से किसी तरह का सहयोग नहीं मिल रहा था। प्रमोद भैया पूर्णियां में रहते थे। घर में मैं अकेला रहता था। सभी लड़कों के साथ दिन भर क्रिकेट खेलता रहता था। पिताजी के आने के बाद मार भी पड़ती थी, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था।
जयशंकर मामा
इनकी नौकरी टीचर में हो चुकी थी। एमए तथा योग्य थे। उनकी नियुक्ति चार पांच महीने बाद होनी थी। पिताजी और मां मेरी पढ़ाई में अरुचि को देखकर उनको दो माह के लिए यहीं रख लिए। इनकी खासियत यह थी कि पढ़ाई करने पर प्रशंसा करते थे। इस कारण इनके साथ पढ़ने लगा और फिर से कुछ करने की इच्छा बलवती होने लगी। घरवाले भी मेरी पढ़ाई को देखकर खुश हो रहे थे। वे साइंस छोड़कर सभी पेपर पढ़ाते थे। इस कारण मैं भी पढ़ने लगा और काफी मेहनत करने लगा। उनके कारण इतिहास, अंग्रेजी और संस्कृत पर अच्छी पकड़ बन गई थी। न जाने क्यों, वे भी मुझे काफी इंटेलिजेंट समझते थे। दो महीने के बाद मैं पूर्णियां प्रमोद भैया के साथ रहने लगा। वे इंजीनियरिंग की तैयारी करते थे। उनके साथ लगभग दस घंटा रोज पढ़ता था, लेकिन कुछ भी याद नहीं रहता था। वे मुझे कुछ होमवर्क करने के लिए देते थे, जिसे मैं चाहकर भी पूरा नहीं कर पाता था। उनके साथ इस शर्त पर आया था कि यहां उनकी ही बातें मानूंगा। इस कारण वे जो कहते थे। चुपचाप सुनता रहता और कभी-कभी सभी के सामने मारते भी थे, लेकिन चुपचाप सहता रहता था। वहां की पढ़ाई पोजीटिव नहीं रही। अंत में फिर घर आ गया। अभी तक मैं सिर्फ मोहरा बना हुआ था। सभी लोग अपनी तरह से हमें यूज कर रहे थे। अंत में यह निर्णय लिया गया कि गांव के स्कूल में इसे पढ़ने दिया जाए, ताकि दिन भर खेल न सके।
स्कूल में आगमन
इस निर्णय का मैं इसलिए विरोध कर रहा था कि मुझे यह डर बना हुआ था कि मैं कुछ नहीं जानता हूं और वहां जाने के बाद मेरी रही सही इज्जत भी खत्म हो जाएगी। मेरा कुछ नहीं चला। अंत में लाचार होकर स्कूल जाने की तैयारी करने लगा। उस रात नींद नहीं आई। एक बार आत्महत्या करने के बारे में भी सोचा, लेकिन न जाने क्यों इरादा बदल दिया और अंदर से कुछ करने की हिम्मत जागी। सुबह तैयार होकर स्कूल जाने लगा। वहां सभी बचपन के दोस्त थे। इस कारण अधिक समस्या नहीं आई। राघवेंद्र क्लास में फर्स्ट आता था, जिससे पहले से ही जान-पहचान थी। टुक्कू के अलावा चेचेरी और मेमेरी बहन भी पढ़ती थी। वे लोग भी पढ़ने में ठीक थे। सभी दोस्त मुझे चार क्लासवाले तेज ही समझते थे। इस कारण हमें पहली बेंच पर बैठाया गया। अंदर से काफी परेशान था। लेकिन उन लोगों को प्रभावित करने के लिए सर्वस्व झौंक दिया। घर पर आकर पढ़ाई करने लगा। इस समय यही स्ट्रेटेजी अपनाया कि कल जो पढ़ाया जाएगा, उसे आज ही पढ़कर जाना है। यह आइडिया काम कर गया और स्कूल में टीचर के प्रश्नों का उत्तर देने लगा। मेरे सभी भाई यहीं से पढ़े थे। इस कारण टीचर भी हमें तेज समझते थे और मैं उनकी अपेक्षाओं पर खरा भी उतर रहा था। अब मुझे पढ़ने में काफी मन लगने लगा, लेकिन पहले से पढ़ाई में इतना वीक था कि बहुत कुछ पढ़ने के लिए था। अंत में मैंने यही निश्चय किया कि मैथ सिर्फ पास करने के लिए पढ़ूंगा और शेष विषयों में जी जान लगा दूंगा। मेरी यह रणनीति किसी को पसंद नहीं आई, लेकिन मैं अपने निर्णय पर दृढ़ रहा। अंत में वे लोग हार गए और मैं पढ़ाई में लग गया। मुझे याद है कि मैं दिन को स्कूल और खेलने में लगाता और रात भर पढ़ता था। चार बजे से पहले मैंने कभी नहीं सोया। सभी भाई व्यंग्य करते थे कि दिन भर पत्ता चुनता है और रात को पढ़ता है, लेकिन उनकी बातों पर कोई फर्क नहीं पड़ता था। मैं अपनी धुन पर ही काम करता था। धीरे-धीरे आत्मविश्वास बढ़ गया। जब सब कुछ बढि़या चल रहा था, तो एक दिन उस स्कूल के हेडमास्टर फिजिक्स पढ़ाने आए। मैं पहले से तैयारी करके आया था। इस कारण संयोग से उनके पूछे गए सभी प्रश्नों का जवाब सिर्फ मैं ही दिया। इससे वे काफी प्रभावित हुए और दुखी भी हुए कि इस स्कूल का स्टूडेंट्स जवाब नहीं दिया। दूसरे दिन आकर बोले कि आप यहीं से परीक्षा दीजिए ताकि इस स्कूल से अच्छे रिजल्ट आ सकें। यह मेरे लिए असंभव था। क्योंकि पटना से पास करने का रोमांच ही अलग था। इस कारण मैं मना कर दिया, बदले में वे मुझे कल से स्कूल न आने का आदेश दे दिए। घर पर आकर बताया और स्कूल जाना छोड़ दिया। हीरो की तरह स्कूल छोड़ा था। इस कारण काफी खुश था और दोस्तों के बीच काफी क्रेज भी बन गया था। अब मैं अपनी पूरी रंगत में आ गया और जमकर पढ़ाई करने लगा। खेलता भी खूब था। घरवाले की बात न मानकर खुद अपनी ही मर्जी से चलता था। एक दिन सुबह से ही क्रिकेट खेल रहा था। पिताजी दो बार मना कर चुके थे, लेकिन फिर भी खेलता रहा। अंत में पिताजी बुलाए और पूछे कि तुम्हारी परीक्षा दो महीने के बाद हैं और तुम पढ़ाई नहीं कर रहे हो। इससे पढ़ाई से पास कर पाओगे? वह मारने के लिए तैयार हुए कि मैने उन्हें रोका और बोला कि यदि मैं प्रथम श्रेणी से परीक्षा पास नहीं करूंगा, तो आप मुझे घर से बाहर कर देंगे। पिताजी नहीं मारे और बोले कि रिजल्ट के बाद तुम्हें पूछूंगा। मैं भी निश्चिंत होकर चला गया और काफी खुश था कि आज मार से बच गया। लेकिन रात भर यही चिंता सता रही थी कि यदि प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण नहीं होऊंगा, मेरी खैर नहीं। उस दिन से मैं और पढ़ने लगा और पिताजी उस दिन से हमें पढ़ने के लिए कभी नहीं मारे। एक दिन तो वे मुझे रात भर पढ़ते देखकर हैरान हो गए। इससे मुझे और बल मिला और खूब मेहनत किया। अब मैं अपनी स्टाइल में पढ़ता था। भैया कहते भी तो उनकी बातों पर विशेष ध्यान नहीं देता। सेंटर में चोरी तो हो रही थी, लेकिन उसमें मेरा कोई दोस्त नहीं था, क्योंकि जब मैं पढ़ रहा था, तो वे लोग हमसे जूनियर थे। मैं एक भी किताब नहीं ले गया और जो जानता था, उसे लिख दिया। अच्छे मार्क्स की आशा तो नहीं थी, लेकिन विश्वास जरूर था कि प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हो जाऊंगा। घरवाले भी बदले-बदले नजर आए। मेरे साथ गांव के काफी स्टूडेंट्स थे। इस कारण थोड़ा तनाव में था। दो-तीन महीने पढ़ाई छोड़कर खूब घूमे। रात को कभी डर भी सताता था कि यदि प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण नहीं हुआ तो पिताजी नहीं छोड़ेंगे। रिजल्ट आने से पहले मां के बक्सा में ही दो सौ रुपये अलग करके रख दिया था कि यदि प्रथम श्रेणी से पास नहीं करूंगा, तो घर से भाग जाऊंगा। यह आभास मां को हो चुका था। इस कारण वह हमें समझा रही थी कि पिताजी इस तरह की बातें सिर्फ पढ़ने के लिए कह रहे थे। कोई भी पिता अपने बेटे को इस तरह नहीं कर सकता, लेकिन मुझे उन पर विश्वास नहीं था। इस कारण पहले से तैयार था। खैर जो भी हो, रिजल्ट निकला और मैं प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हो गया। मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था, लेकिन भाई लोग इस कारण नाराज थे कि अच्छे मार्क्स नहीं आए हैं। पिताजी के व्यवहार में गजब का परिवर्तन दिखा। वे काफी खुश थे कि मैं प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ हूं। मामा पचास रुपये मुझे मिठाई के लिए दिए। सभी जगह मेरी इज्जत काफी बढ़ गई थी।
रविवार, 25 अप्रैल 2010
मम्मी और मां
कल पार्क में बहुत दिनों के बाद घूमने गया था। स्टूडेंट़स लाइफ में पार्क में घंटों बैठकर भिवष्य की योजना बनाते रहते थे। लेकिन अब फ़ुर्सत नहीं मिलती है सोचने के लिए। वहां कुछ देर बाद बच्चा को रोते हुए देखा। पहले तो अनसुना कर िदया, लेकिन जब इधर उधर दौडने लगा, तो वहां जाना मुनािसब समझा। उसे देखकर कुछ लोग आहें, तो कुछ लोग हंस रहे थे। हंस रहे थे आधुनिक मम्मी पर और चिंतित थे बच्चा को लेकर। चिंतित थे इस कारण कि बच्चा उम्र में काफी छोटा था। सभी लोग उसे समझा रहे थे, लेकिन उसे सिर्फ मम्मी चाहिए थी। इस कारण सिर्फ रोता रहता था। बच्चा भी अजीब था वह शक्ल से पिता को पहचानता था, लेकिन पूरा नाम नहीं जानता था कि कोई भी उसे अपने घर पर छोड सके। घर को पहचानता था लेिकन घर का पता नहीं जानता था। इस कारण मम्मी को ढूंढ रहा था ताकि घर और पापा के पास पहुंच सके। चर्चा में मम्मी और बच्चा ही थाकुछ लोग मम्मी ढूंढ रहे थे, तो कुछ लोग मम्मी को कोस रहे थे। आज की मम्मी करियर देखती है, बच्चे की देखभाल दूसरी प्राथमिकता है। इसलिए बच्चे को छोड़कर गुम हो जाती है। केकेयी भी कुमाता बनी बच्चों के लिए मम्मी कुमाता बन रही है अपना करियर के लिए। दोनों में समय का फर्क है। कर्त्तव्य जाननेवाली मां कहलाई अधिकार जाननेवाली मम्मी। मां और मम्मी में यही तो फर्क है शायद। एक बुजुर्ग बच्च्े को लेकर इस तरह की बातें बोलता जा रहा था। सभी परेशान थे कि बच्चे को कैसेट उसके घर पहुंचाया जाए। अंत में लाचार होकर उसे पुलिस थाने में रख दिया गया। मैं भी सोचने लगा और मम्मी और मां में फर्क करने लगा, तो एक घंटे लग गए। अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मां दिल की सच्ची थी। इसिलए हमेशा बच्चे में खोई रहती थी। वह करियर नहीं जानती थी इसलिए गांव में रहती थी। जहां बच्चे गुम होने का कोई अंदेशा नहीं। आज की मम्मी शहर में रहती हैत्र जींस पहनती है, टॉपलेस हो जाती है करियर के लिए। कुछ घरों में रौब जमाती है अपने पति पर। और जब बात नहीं बन पाती हैतो गुम हो जाती है बच्चे को छोड़कर। क्योंकि मम्मी खुद की पहचान चाहती है और भीड़ से अलग भी दिखना चाहती है। नहीं करनी है उन्हें बच्चों की देखभालयह तो नौकर भी कर सकता है। शायद यही सोचकर गुम हो जाती है। बच्चे तो फिर आ सकते हैं, दूसरी शादी भी की जा सकती है लेकिन करियर नहीं बनाया जा सकता समय बीतने के बाद। लेकिन बच्चे नादान हैं, उसे नहीं चाहिए अपनी पहचान। वह मम्मी के साथ रहना चाहता है। नहीं चाहिए आईसक्रीम और खिलौने, उसे पापा भी नहीं चाहिएसिर्फ मम्मी के पास रहना चाहता है वह। लेकिन आज के बच्चे को यह भी नसीब नहीं, जिन्हें मम्मी मिली भी, तो कुछ वर्षो के बाद गुम हो गई।आधे से अधिक बच्चे को यह ीाी नसीब नहीं। करियर की आपाधापी में नहीं रहा वह मां का प्यार, जो बच्चे के लिए सर्वस्व लूटा देती थी। अब प्यार की जगह करियर महत्वपूर्ण है। इसलिए बड़े होने पर मम्मी रोती है बच्चे के लिए और बच्चे मशगूल रहते हैं करियर के लिए।
शनिवार, 24 अप्रैल 2010
मैं और मेरा जीवन चार
जब बहन का पेंट पहना
टीचर ने छात्रवृत्ति की तैयारी के लिए मेरा भी नाम सेलेक्ट किया। उस समय इसके बारे में कुछ भी जानकारी नहीं थी। खुशी इस कारण थी कि चार स्टूडेंट्स में मेरा भी नाम शामिल था। यह बात जब घर में बताया, तो लाल भैया डांटने लगे और बोले कि तुम इस परीक्षा में पास नहीं कर पाओगे। इस कारण तुम पर पैसा खर्च करना व्यर्थ है। मां हमेशा से हमारी बात सुनती थी। इस संबंध में मेरा कहना था कि जब टीचर हमें सेलेक्ट किए हैं, तो कुछ खासियत अवश्य देखे होंगे। इस कारण मैं जाऊंगा। अंत में बात मेरी रही और मां की सहमति मिल गई। काफी खुश हुआ मां के निर्णय पर। उसके बाद से स्कूल में हमलोगों के लिए विशेष व्यवस्था थी। वहां हमलोग पढ़ाई कम, गप्पें ज्यादा लड़ाते थे। कुछ दिनों के बाद परीक्षा तिथि घोषित हुई और हम सभी बनमनखी जाने के लिए तैयारी करने लगे। मेरे साथ में टीचर भी थे। उस समय कितने पैसे देने पड़े थे, मुझे याद नहीं है। जब मैं बनमनखी जाने के लिए तैयार हुआ, तो जाने के लिए मेरे पास हाफ पेंट नहीं था। एक जो था, वह काफी गंदा और फटा हुआ था। खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। अंत में लाचार होकर मां ने छोटी बहन की एक नई पेंट को मोडिफाई करके दी। लड़का और लड़की के पेंट में अंतर यह रहता था कि लड़के के पेंट में नीचे रबड़ नहीं होते थे, जबकि उसमें होते थे। खैर, उसे पहनकर एग्जाम दिया और बाद में पहनकर स्कूल भी जाने लगा। कुछ दोस्तों ने इस पर कमेंट भी किया, लेकिन मैं कुछ भी जवाब नहीं दिया। परीक्षा अच्छी गई थी, रिजल्ट भी निकला और मैं पास हो गया था। अब फाइनल एग्जाम की तैयारी में लग गया। इसी बीच मेरा एडमिशन बनमनखी के आदिवासी आवासीय उच्च विद्यालय में हो गया। उसमें 6 क्लास से ही पढ़ाई शुरू थी, इस कारण पांचवीं की पढ़ाई किए बिना ही छठी में पढ़ने लगा।
बर्बादियों का साल
इस एक वर्ष ने मुझे अर्श से लेकर फर्श पर ढकेल दिया। इस बीच मैं पांचवीं और छठी के द्वंद्व में फंसा रहा और पढ़ाई नहीं की। स्कूल सितंबर में गया, इस कारण घर पर ही रहने लगा और वहीं पढ़ाई करने लगा। कहने को तो लाल भैया और प्रमोद भैया घर पर ही थे, लेकिन वे लोग सिर्फ डांटने और दुत्कारने के सिवा कुछ नहीं करते थे। स्थिति यह हो गई कि मैं पढ़ाई से भागने लगा और निडर बनता गया। आलोचना रोज की घटना थी, जिससे मुझे कोई भी फर्क नहीं पड़ता था। पिताजी और लाल भैया पढ़ाई न करने पर मारते भी थे, लेकिन पढ़ाई न के बराबर करता था। अंत में लाचार होकर उसी स्कूल में पांचवीं क्लास में पढ़ने लगा। दलील यह दी गई कि स्कूल में पांचवीं क्लास का पढ़ो और घर पर छठी कक्षा का पढ़ो। उस समय तो यह दलील बढि़या लगा, लेकिन अंदर से मैं पढ़ाई में इतना कमजोर हो गया कि आगे सपना देखना ही छोड़ दिया। खुद को अंदर से कमजोर समझने लगा। अब सिर्फ समय व्यतीत करता था। इस तरह की स्थिति अगस्त तक बनी रही। इस एक वर्ष ने मुझे काफी कमजोर बना दिया। परिणाम यह हुआ कि गणित देखकर भागने लगा। यह स्थिति अभी तक बनी हुई है। आज भी सपने में गणित को देखकर परेशान हो जाता हूं। आश्चर्य तो तब होता है कि मुझसे बड़े चारों भाई गणित में बहुत अच्छे-बहुत अच्छे और बहुत अच्छे हैं। उस समय घर में गणित न जानना अपराध माना जाता था, लेकिन ताज्जुब होता है कि सभी ने गणित पढ़ाने के लिए जोर तो दिए, कमजोरी के कारण को कोई नहीं समझे। यह बात मुझे अब पता चल रहा है।
हॉस्टल यात्रा
बनमनखी हॉस्टल में अगस्त से रहने लगा। मुझे छोड़ने के लिए मां और प्रमोद भैया आए थे। काफी मशक्कत के बाद हॉस्टल में रहने के लिए आया। यहां आने के बाद पहली बार मां से अलग हुआ था। इस कारण काफी रोया। उम्र उस समय लगभग ग्यारह या बारह वर्ष के हुए होंगे। यहां आने के बाद पता चला कि मैं सबसे तेज स्टूडेंट हूं। कारण यहां सभी आदिवासी और विकलांग ही पढ़ते थे, जिसे पढ़ने में कम और इधर-उधर घूमने में अधिक मन लगता था। मैं यह संकल्प लेकर यहां आया था कि आने के साथ खूब पढू़ंगा, लेकिन पढ़ाई के बदले मैं उन्हीं के साथ घूमने लगा। मैं अपना लक्ष्य भूल चुका था और अब परिवार का डर भी नहीं था। क्योंकि कभी-कभी घर जाता था और बातों में उलझाकर ठग लेता था। खाने का उत्तम प्रबंध था। इस कारण मौज-मस्ती करने लगा। पारिवारिक संस्कार की वजह से कम पढ़ाई के बावजूद भी क्लास में प्रथम आता था। इस कारण घरवाले भी अधिक परेशान नहीं करते थे। इस बीच यह हुआ कि गणित को बहुत कम बनाता था। घर आने पर जो पढ़ाया जाता था, उसे कॉपी में नोट कर यहां प्रैक्टिस करता और किसी तरह गणित में पास होता रहता था। इसकी भरपाई अन्य विषयों से करता था। इसी तरह आठ क्लास में पहुंच गया।
हॉस्टल रुटीन
जहां हमलोग रहते थे, वहां कोई टीचर नहीं थे। इस कारण स्वयं ही पढ़ाई करनी पड़ती थी। सीनियर भी उतने तेज नहीं थे कि कुछ बता सके। इस कारण जो जानते थे, उसी को पढ़ते रहते थे। सुबह 6 बजे उठते थे और मुंह हाथ धोकर नाश्ता के लिए बैठ जाते थे। स्कूल की तरफ से चना और गुड़ मिलता था। मुझे घर से मुरही या लाई खरीदकर हर सप्ताह दिया जाता था। दोनों को मिलाकर नाश्ता करते थे। यदि इच्छा हुई, तो पढ़ने के लिए बैठ गए अन्यथा सोते या गप्प लड़ाते रहते थे। नौ बजे नहा धोकर खाना खाते थे और फिर इच्छा होती थी, तो स्कूल जाते अन्यथा सो जाते थे। उसके बाद शाम को घूमने के लिए निकलते और लगभग दो घंटे तक वाकिंग करते रहते थे। शाम को जब खाने के लिए सब्जी काटा जाता तो सप्ताह में कम से कम दो दिन किसी तरह एक प्याज चुराते और उसमें नमक मिर्च डालकर स्वादिष्ट खाना का आनंद उठाते। उन लोगों में सबसे अधिक मैं ही पढ़ता था। सभी मुझे तेज स्टूडेंट कहते थे। इस कारण पास करने के लिए नहीं, लेकिन अपनी इज्जत बचाने के लिए सप्ताह में तीन-चार दिन पढ़ लिया करते थे और दो-तीन दिन स्कूल भी चला जाता था। वहां हमारी उम्र भी उनलोगों की अपेक्षा काफी कम थी, इस कारण वे लोग हमेशा मारते रहते थे।
जब परमानंद बाहर हुए
परमानंद हम विकलांगों में सबसे उम्र दराज और दुष्ट स्टूडेंट था। वह एक गुट बनाया था और जो भी खाना आता था, तो पहले अपनी थाली भरकर तभी औरों को देता था। विरोध करने पर पीटता भी था। उसकी एक तरह से तानाशाही चलती थी। मुझे सभी टीचर्स बहुत प्यार करते थे। हेड मास्टर की सख्त हिदायत थी कि उन्हें किसी प्रकार की परेशानी नहीं होनी चाहिए। एक दिन मुझे सब्जी कम दिया गया, विरोध करने पर काफी मारा। खाना छोड़कर मैं सीधे हेड मास्टर के कमरे में घुस गया। उसके बाद उन्हें काफी पीटा गया और सख्त चेतावनी दी गई कि दोबारा करने पर उसे स्कूल से बाहर निकाल दिया जाएगा। मार खाने के बाद उसने सभी को अपनी तरफ मिला लिया और मुझे अलग कर दिया। इससे हमें फायदा यह मिला कि मैं कुछ पढ़ने लगा और स्कूल भी जाने लगा। छोटा बच्चा था। इस कारण चाभी गुम हो जाती थी। मां से कितनी बार डांट पड़ चुकी थी इस संबंध में। इस कारण कुछ नहीं बताता था। रात को सोते वक्त वह मेरा चाभी लेकर सभी नाश्ता खा जाता था और चाभी भी गुम कर देता था। एक-दो बार मां को बताया, लेकिन डांट के डर से उन्हें भी बताना छोड़ दिया। इसका वह काफी फायदा उठाया। स्कूल छोड़ने के बाद पता चला कि उसे स्कूल से बाहर कर दिया गया है।
अमरेंद्र बाबु
ये हमारे गुरु थे और अंग्रेजी पढ़ाते थे। ये हमारे पड़ोसी थे। इस कारण उन पर अधिकार समझता था। शुरुआत में आदिवासी को देखकर मुझे खाना नहीं खाया जाता था, जब उन्हें इस बारे में बताया तो वे खुद खाना खाकर मुझे खाने के लिए प्रेरित किए। मैं उन्हें ब्राह्मण समझ रहा था, बाद में पता चला कि वे बनिया थे। उन्होंने काफी सहायता की और साहस भी प्रदान किए। यदि वे नहीं रहते तो शायद मैं कब का स्कूल छोड़ दिया होता।
फिल्मी चक्कर
वहां मुझे छोड़कर सभी सिनेमा देखने जाते थे। मैं ही अकेला था कि सिनेमा नहीं जाता था। पापा शनिवार को साइकिल से आते थे और पैसा देकर चले जाते थे। सभी ने कहा कि पापा तो शनिवार को ही आएंगे। इस कारण सिनेमा दिखाने के लिए जिद करने लगे। मैं भी सुरक्षित आइडिया देखकर तैयार हो गया और नौ से बारह सिनेमा देखने चला गया। पिक्चर का नाम मुझे याद नहीं है, लेकिन सिनेमा हॉल में खूब सोया था, यह मुझे याद है। हॉस्टल आने पर पता चला कि पापा आए थे। मेरी जो हालत थी, वह मैं बता नहीं सकता। दूसरे दिन सफाई देने के लिए घर गया और फिर हॉस्टल आ गया। वहां जो डांट लगनी थी, वह लग चुकी थी। उसके बाद जिस दिन स्कूल छोड़कर पटना के लिए रवाना हुआ, उस समय गंगा यमुना सरस्वती देखने गया। बढि़या लगा और हॉस्टल आया तो पता चला कि अभी-अभी पापा आए थे। काफी दुख हुआ और आश्चर्य भी हुआ कि पापा को इसकी भनक कैसे लग जाती है। वहां दो सिनेमा ही देखा और दोनों बार पकड़ा गया। घरवाले यही समझते थे कि यह सभी सिनेमा देखता है। सिवा सुनने के कुछ कर भी नहीं सकता था।
एक सिकका
इस सिक्का का काफी महत्व था उस समय। बनमनखी से घर आने के लिए एक रुपया किराया देना पड़ता था। एक ही बस था। इस कारण काफी भीड़ रहती थी। उसमें किसी तरह चढ़ पा रहा था। यदि एक रुपया दे देता था, तो सीट मिल जाती थी। अन्यथा सीट से उठा दिया जाता था। एक-दो बार हिम्मत करके बिना पैसे ही बैठ गया किंतु जबर्दस्ती उठाने के बाद हिम्मत जवाब दे गई और उसके बाद पहले आने के बाद भी बस में तभी घुसता था, जब सीट भर जाते थे और उनकी नजरों से बचकर भीड़ में कहीं खड़ा हो जाता था। घर से आते वक्त तो पैसे रहते थे, लेकिन जाते वक्त हमेशा यही स्थिति रहती थी। सभी को मुझ पर दया आ जाती थी और वे पैसे नहीं मांगते थे। उस समय एक रुपया का सिक्का एक सोने के सिक्के के बराबर लगता था। अब जब कहीं भी उस सिक्के को देखता हूं, तो हंसी आती है और अपने आप पर दुख भी। आज तो एक बच्चा भी 50 से कम नहीं लेता है।
टीचर ने छात्रवृत्ति की तैयारी के लिए मेरा भी नाम सेलेक्ट किया। उस समय इसके बारे में कुछ भी जानकारी नहीं थी। खुशी इस कारण थी कि चार स्टूडेंट्स में मेरा भी नाम शामिल था। यह बात जब घर में बताया, तो लाल भैया डांटने लगे और बोले कि तुम इस परीक्षा में पास नहीं कर पाओगे। इस कारण तुम पर पैसा खर्च करना व्यर्थ है। मां हमेशा से हमारी बात सुनती थी। इस संबंध में मेरा कहना था कि जब टीचर हमें सेलेक्ट किए हैं, तो कुछ खासियत अवश्य देखे होंगे। इस कारण मैं जाऊंगा। अंत में बात मेरी रही और मां की सहमति मिल गई। काफी खुश हुआ मां के निर्णय पर। उसके बाद से स्कूल में हमलोगों के लिए विशेष व्यवस्था थी। वहां हमलोग पढ़ाई कम, गप्पें ज्यादा लड़ाते थे। कुछ दिनों के बाद परीक्षा तिथि घोषित हुई और हम सभी बनमनखी जाने के लिए तैयारी करने लगे। मेरे साथ में टीचर भी थे। उस समय कितने पैसे देने पड़े थे, मुझे याद नहीं है। जब मैं बनमनखी जाने के लिए तैयार हुआ, तो जाने के लिए मेरे पास हाफ पेंट नहीं था। एक जो था, वह काफी गंदा और फटा हुआ था। खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। अंत में लाचार होकर मां ने छोटी बहन की एक नई पेंट को मोडिफाई करके दी। लड़का और लड़की के पेंट में अंतर यह रहता था कि लड़के के पेंट में नीचे रबड़ नहीं होते थे, जबकि उसमें होते थे। खैर, उसे पहनकर एग्जाम दिया और बाद में पहनकर स्कूल भी जाने लगा। कुछ दोस्तों ने इस पर कमेंट भी किया, लेकिन मैं कुछ भी जवाब नहीं दिया। परीक्षा अच्छी गई थी, रिजल्ट भी निकला और मैं पास हो गया था। अब फाइनल एग्जाम की तैयारी में लग गया। इसी बीच मेरा एडमिशन बनमनखी के आदिवासी आवासीय उच्च विद्यालय में हो गया। उसमें 6 क्लास से ही पढ़ाई शुरू थी, इस कारण पांचवीं की पढ़ाई किए बिना ही छठी में पढ़ने लगा।
बर्बादियों का साल
इस एक वर्ष ने मुझे अर्श से लेकर फर्श पर ढकेल दिया। इस बीच मैं पांचवीं और छठी के द्वंद्व में फंसा रहा और पढ़ाई नहीं की। स्कूल सितंबर में गया, इस कारण घर पर ही रहने लगा और वहीं पढ़ाई करने लगा। कहने को तो लाल भैया और प्रमोद भैया घर पर ही थे, लेकिन वे लोग सिर्फ डांटने और दुत्कारने के सिवा कुछ नहीं करते थे। स्थिति यह हो गई कि मैं पढ़ाई से भागने लगा और निडर बनता गया। आलोचना रोज की घटना थी, जिससे मुझे कोई भी फर्क नहीं पड़ता था। पिताजी और लाल भैया पढ़ाई न करने पर मारते भी थे, लेकिन पढ़ाई न के बराबर करता था। अंत में लाचार होकर उसी स्कूल में पांचवीं क्लास में पढ़ने लगा। दलील यह दी गई कि स्कूल में पांचवीं क्लास का पढ़ो और घर पर छठी कक्षा का पढ़ो। उस समय तो यह दलील बढि़या लगा, लेकिन अंदर से मैं पढ़ाई में इतना कमजोर हो गया कि आगे सपना देखना ही छोड़ दिया। खुद को अंदर से कमजोर समझने लगा। अब सिर्फ समय व्यतीत करता था। इस तरह की स्थिति अगस्त तक बनी रही। इस एक वर्ष ने मुझे काफी कमजोर बना दिया। परिणाम यह हुआ कि गणित देखकर भागने लगा। यह स्थिति अभी तक बनी हुई है। आज भी सपने में गणित को देखकर परेशान हो जाता हूं। आश्चर्य तो तब होता है कि मुझसे बड़े चारों भाई गणित में बहुत अच्छे-बहुत अच्छे और बहुत अच्छे हैं। उस समय घर में गणित न जानना अपराध माना जाता था, लेकिन ताज्जुब होता है कि सभी ने गणित पढ़ाने के लिए जोर तो दिए, कमजोरी के कारण को कोई नहीं समझे। यह बात मुझे अब पता चल रहा है।
हॉस्टल यात्रा
बनमनखी हॉस्टल में अगस्त से रहने लगा। मुझे छोड़ने के लिए मां और प्रमोद भैया आए थे। काफी मशक्कत के बाद हॉस्टल में रहने के लिए आया। यहां आने के बाद पहली बार मां से अलग हुआ था। इस कारण काफी रोया। उम्र उस समय लगभग ग्यारह या बारह वर्ष के हुए होंगे। यहां आने के बाद पता चला कि मैं सबसे तेज स्टूडेंट हूं। कारण यहां सभी आदिवासी और विकलांग ही पढ़ते थे, जिसे पढ़ने में कम और इधर-उधर घूमने में अधिक मन लगता था। मैं यह संकल्प लेकर यहां आया था कि आने के साथ खूब पढू़ंगा, लेकिन पढ़ाई के बदले मैं उन्हीं के साथ घूमने लगा। मैं अपना लक्ष्य भूल चुका था और अब परिवार का डर भी नहीं था। क्योंकि कभी-कभी घर जाता था और बातों में उलझाकर ठग लेता था। खाने का उत्तम प्रबंध था। इस कारण मौज-मस्ती करने लगा। पारिवारिक संस्कार की वजह से कम पढ़ाई के बावजूद भी क्लास में प्रथम आता था। इस कारण घरवाले भी अधिक परेशान नहीं करते थे। इस बीच यह हुआ कि गणित को बहुत कम बनाता था। घर आने पर जो पढ़ाया जाता था, उसे कॉपी में नोट कर यहां प्रैक्टिस करता और किसी तरह गणित में पास होता रहता था। इसकी भरपाई अन्य विषयों से करता था। इसी तरह आठ क्लास में पहुंच गया।
हॉस्टल रुटीन
जहां हमलोग रहते थे, वहां कोई टीचर नहीं थे। इस कारण स्वयं ही पढ़ाई करनी पड़ती थी। सीनियर भी उतने तेज नहीं थे कि कुछ बता सके। इस कारण जो जानते थे, उसी को पढ़ते रहते थे। सुबह 6 बजे उठते थे और मुंह हाथ धोकर नाश्ता के लिए बैठ जाते थे। स्कूल की तरफ से चना और गुड़ मिलता था। मुझे घर से मुरही या लाई खरीदकर हर सप्ताह दिया जाता था। दोनों को मिलाकर नाश्ता करते थे। यदि इच्छा हुई, तो पढ़ने के लिए बैठ गए अन्यथा सोते या गप्प लड़ाते रहते थे। नौ बजे नहा धोकर खाना खाते थे और फिर इच्छा होती थी, तो स्कूल जाते अन्यथा सो जाते थे। उसके बाद शाम को घूमने के लिए निकलते और लगभग दो घंटे तक वाकिंग करते रहते थे। शाम को जब खाने के लिए सब्जी काटा जाता तो सप्ताह में कम से कम दो दिन किसी तरह एक प्याज चुराते और उसमें नमक मिर्च डालकर स्वादिष्ट खाना का आनंद उठाते। उन लोगों में सबसे अधिक मैं ही पढ़ता था। सभी मुझे तेज स्टूडेंट कहते थे। इस कारण पास करने के लिए नहीं, लेकिन अपनी इज्जत बचाने के लिए सप्ताह में तीन-चार दिन पढ़ लिया करते थे और दो-तीन दिन स्कूल भी चला जाता था। वहां हमारी उम्र भी उनलोगों की अपेक्षा काफी कम थी, इस कारण वे लोग हमेशा मारते रहते थे।
जब परमानंद बाहर हुए
परमानंद हम विकलांगों में सबसे उम्र दराज और दुष्ट स्टूडेंट था। वह एक गुट बनाया था और जो भी खाना आता था, तो पहले अपनी थाली भरकर तभी औरों को देता था। विरोध करने पर पीटता भी था। उसकी एक तरह से तानाशाही चलती थी। मुझे सभी टीचर्स बहुत प्यार करते थे। हेड मास्टर की सख्त हिदायत थी कि उन्हें किसी प्रकार की परेशानी नहीं होनी चाहिए। एक दिन मुझे सब्जी कम दिया गया, विरोध करने पर काफी मारा। खाना छोड़कर मैं सीधे हेड मास्टर के कमरे में घुस गया। उसके बाद उन्हें काफी पीटा गया और सख्त चेतावनी दी गई कि दोबारा करने पर उसे स्कूल से बाहर निकाल दिया जाएगा। मार खाने के बाद उसने सभी को अपनी तरफ मिला लिया और मुझे अलग कर दिया। इससे हमें फायदा यह मिला कि मैं कुछ पढ़ने लगा और स्कूल भी जाने लगा। छोटा बच्चा था। इस कारण चाभी गुम हो जाती थी। मां से कितनी बार डांट पड़ चुकी थी इस संबंध में। इस कारण कुछ नहीं बताता था। रात को सोते वक्त वह मेरा चाभी लेकर सभी नाश्ता खा जाता था और चाभी भी गुम कर देता था। एक-दो बार मां को बताया, लेकिन डांट के डर से उन्हें भी बताना छोड़ दिया। इसका वह काफी फायदा उठाया। स्कूल छोड़ने के बाद पता चला कि उसे स्कूल से बाहर कर दिया गया है।
अमरेंद्र बाबु
ये हमारे गुरु थे और अंग्रेजी पढ़ाते थे। ये हमारे पड़ोसी थे। इस कारण उन पर अधिकार समझता था। शुरुआत में आदिवासी को देखकर मुझे खाना नहीं खाया जाता था, जब उन्हें इस बारे में बताया तो वे खुद खाना खाकर मुझे खाने के लिए प्रेरित किए। मैं उन्हें ब्राह्मण समझ रहा था, बाद में पता चला कि वे बनिया थे। उन्होंने काफी सहायता की और साहस भी प्रदान किए। यदि वे नहीं रहते तो शायद मैं कब का स्कूल छोड़ दिया होता।
फिल्मी चक्कर
वहां मुझे छोड़कर सभी सिनेमा देखने जाते थे। मैं ही अकेला था कि सिनेमा नहीं जाता था। पापा शनिवार को साइकिल से आते थे और पैसा देकर चले जाते थे। सभी ने कहा कि पापा तो शनिवार को ही आएंगे। इस कारण सिनेमा दिखाने के लिए जिद करने लगे। मैं भी सुरक्षित आइडिया देखकर तैयार हो गया और नौ से बारह सिनेमा देखने चला गया। पिक्चर का नाम मुझे याद नहीं है, लेकिन सिनेमा हॉल में खूब सोया था, यह मुझे याद है। हॉस्टल आने पर पता चला कि पापा आए थे। मेरी जो हालत थी, वह मैं बता नहीं सकता। दूसरे दिन सफाई देने के लिए घर गया और फिर हॉस्टल आ गया। वहां जो डांट लगनी थी, वह लग चुकी थी। उसके बाद जिस दिन स्कूल छोड़कर पटना के लिए रवाना हुआ, उस समय गंगा यमुना सरस्वती देखने गया। बढि़या लगा और हॉस्टल आया तो पता चला कि अभी-अभी पापा आए थे। काफी दुख हुआ और आश्चर्य भी हुआ कि पापा को इसकी भनक कैसे लग जाती है। वहां दो सिनेमा ही देखा और दोनों बार पकड़ा गया। घरवाले यही समझते थे कि यह सभी सिनेमा देखता है। सिवा सुनने के कुछ कर भी नहीं सकता था।
एक सिकका
इस सिक्का का काफी महत्व था उस समय। बनमनखी से घर आने के लिए एक रुपया किराया देना पड़ता था। एक ही बस था। इस कारण काफी भीड़ रहती थी। उसमें किसी तरह चढ़ पा रहा था। यदि एक रुपया दे देता था, तो सीट मिल जाती थी। अन्यथा सीट से उठा दिया जाता था। एक-दो बार हिम्मत करके बिना पैसे ही बैठ गया किंतु जबर्दस्ती उठाने के बाद हिम्मत जवाब दे गई और उसके बाद पहले आने के बाद भी बस में तभी घुसता था, जब सीट भर जाते थे और उनकी नजरों से बचकर भीड़ में कहीं खड़ा हो जाता था। घर से आते वक्त तो पैसे रहते थे, लेकिन जाते वक्त हमेशा यही स्थिति रहती थी। सभी को मुझ पर दया आ जाती थी और वे पैसे नहीं मांगते थे। उस समय एक रुपया का सिक्का एक सोने के सिक्के के बराबर लगता था। अब जब कहीं भी उस सिक्के को देखता हूं, तो हंसी आती है और अपने आप पर दुख भी। आज तो एक बच्चा भी 50 से कम नहीं लेता है।
रविवार, 14 फ़रवरी 2010
मैं और मेरा जीवन तीन
दादी
भायजी यानी पापा जब भी आते थे, तो मैं डर जाता था। क्योंकि घर में सबसे अधिक शरारती मैं ही था। दादी को हमेशा चिढ़ाता रहता था। वह यही धमकी देती रहती थी कि भायजी के आने के बाद तुम्हें पिटवाती हूं। दादी दिल की सच्ची थी। कभी भी मेरी शिकायत नहीं की। वह अनपढ़ थी, लेकिन रामायण और महाभारत के श्लोक रटे हुए थे। पूजा-पाठ खूब करती थी। कहानी भी सुनाती थी। मां कहती है कि जब वह आई थी, तो घर के सभी सामान दूसरे को दे देती थी। इस कारण बाबा से उन्हें डांट भी पड़ती रहती थी। कुछ पड़ोसी उनका फायदा भी उठाए। वह किसी को भी भूखा नहीं देख सकती थी। मेरे पिताजी तीन भाई थे। बंटवारे के समय दादा और दादी हमलोगों के साथ ही थे, लेकिन दादी खुद जिद पकड़कर उन दोनों चाचा के पास चली गई। मेरी मां जब भी चाय या विशेष खाना बनाती, तो उन्हें जरूर खिलाती थी। उस समय दोनों चाचा अमीर थे। पारिवारिक माहौल गांव के अन्य परिवारों से बढिय़ा था। अलग रहने के बावजूद दोनों चाचा कभी भी भायजी को जवाब नहीं देते थे। इसका प्रभाव यह पड़ा कि हमलोग चाचा या चाची को कभी भी जवाब नहीं दिए। यही कारण है कि अभी तक हमलोगों का आंगन और दरवाजा एक ही है। यह गांववाले के लिए कौतूहल और इष्र्या का विषय है।
धीमा
पांच किलोमीटर की दूरी पर शिव मंदिर था, जिसे हमलोग धीमा कहकर पुकारते हैं। अभी तक मुझे इसका अर्थ मालूम नहीं है, लेकिन इलाके के सभी लोग इससे परिचित हैं। उस समय सभी लोग पैदल ही वहां जाते थे। गांव की एक झुंड जाती थी। दादी भी हर रविवार को वहां जाती थी और हमलोगों के लिए बतासा लाती थी। बतासा एक प्रकार की मीठाई थी। बतासा के इंतजार में हमलोग दादी के आने का इंतजार घंटों करते रहते थे। इसके लिए बहुत दूर तक पैदल भी चल देते थे। उस समय को याद करता हूं, तो अभी भी काफी खुशी मिलती है। याद है मुझे कि उन्हें धीमा जाने के लिए पैसे नहीं रहते थे। काफी हल्ला करने के बाद उन्हें पैसे मिलते थे। उस समय आर्थिक स्थिति भी खराब थी। दादी के जाने के बाद मैं यही सोचता था कि इस बार मां उन्हें पैसा नहीं दी है, इस कारण हमें वह मीठाई नहीं देगी। लेकिन वह सभी के साथ एकसमान व्यवहार करती थी। न पढऩे-लिखने के बावजूद इस तरह का व्यवहार देखकर तो आश्चर्य होता है आजकल के औरत की व्यवहार पर। उस समय शायद पढ़ाई की अपेक्षा संस्कार प्रभावी था। इस कारण अच्छे कुल में शादी करने को वरीयता दी जाती थी। दादी घर आने के बाद हमलोगों को बता देती थी। उनके पास जितने भी पैसे रहते थे, सभी खाने और सामान लाने में खर्च कर देती थी। इसके विपरीत पड़ोसी पैसा बचाकर घर लाते थे। दादी को पैसे बचाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उस समय तक अमीर-गरीब सभी पैदल ही जाते थे। अब तो हालात बदल गए हैं। आज भी सभी लोग जाते हैं, लेकिन पैदल कोई नहीं जाता है। एक दिन मैं भी गया था। मां भी साथ में थी। वहां पूजा करने के बाद गांव के सभी सदस्य बाजार से मंगाकर कुछ खा रहे थे। मां घर से चूड़ा और आलू की सब्जी बनाकर ले गई थी। मैं भी बाजार से कुछ मंगाने का जिद करने लगा। मां लाचार होकर घुघनी खरीदी थी। मात्रा कितनी थी, मुझे पता नहीं है, लेकिन मुझे उससे बढिय़ा अपनी सब्जी ही लगी थी और उस दिन से अभी तक चूड़ा और सब्जी का स्वाद जिंदा है। मौका पडऩे पर उसे अवश्य खाता हूं। उस समय मां के ये शब्द भी याद हैं कि घर का खाना बाजार के खाना से अच्छा और शुद्ध होता है। हो सकता हो कि मां किसी और प्रशेजन से बोली हो, लेकिन यह बात हमें दिमाग में बैठ गई, जिसका फायदा अभी तक मैं उठा रहा हूं।
बथुआ साग
साग के शौकीन हमारे परिवार में सभी थे। उस समय दादी के साथ हमलोग साग तोडऩे के लिए बहुत दूर चले जाते थे। साथ में गांव के बहुत सारे बच्चे रहते थे। सभी लोग दिन-चार घंटे तक साग तोड़ते थे और अपनी-अपनी दादी या बहन को देते थे। उस समय शर्म नहीं लगती थी। न ही यह सोच डेवलप था कि लोग क्या कहेंगे। हमारे उम्र के बच्चे तो आजकल दूसरे के घर जाने में भी शर्म महसूस करते हैं। जब दादी साथ नहीं रहती थी, तो गांव के लड़की और लड़के के साथ साग तोडऩे के लिए जाते थे। उसमें कुछ उम्र में काफी बड़े थे। जहां तक मुझे याद है कि हम सभी साग तोडऩे के बाद एक जगह इकट्टïा होते थे, और सभी अपनी झोली से कुछ न कुछ साग भगवान को चढ़ाते थे। इसके पीछे यह विश्वास था कि भगवान को साग चढ़ाने से अपने आप अधिक साग हो जाएगा। यह डर भी था कि जो इस साग को चुपके से घर ले जाएगा, भगवान उस पर क्रोधित होंगे। इस कारण मैंने कभी भी साग नहीं चुराया। अब यदि दिमाग पर जोर लगाता हूं, तो अंदाजा यह लग रहा है कि सभी साग हमलोगों में से जो बड़े थे, आपस में बांट लेते थे। इस मामले में हमलोग बेबकूफ ही बने रहते थे। घरवाले पढऩे के लिए जोर देते थे और मैं साग तोडऩे में अधिक दिलचस्पी ले रहा था। सभी तरह के खेल खेलते थे उस समय। खेलते देखकर लोग हमें आश्चर्य से देखते थे, लेकिन हमें कुछ भी अनुभव नहीं हो रहा था। पैर खराब होने के बावजूद हमारी एक अलग स्टाइल थी खेलने की, जिस कारण सभी लोग अपनी टीम में रखना चाहते थे। अलग स्टाइल इसलिए बन जाती थी कि उस समय मुझे विकलांग होने का अहसास कम था और मैं औरों की तरह ही सभी में पूरी आत्मविश्वास के साथ भाग लेता था। इस तरह की फीलिंग बड़े होने तक बनी रही। कोई खेल हमने नहीं छोड़ा। अब सोचता हूं, तो आश्चर्य में पड़ जाता हूं। आम के बगीचे में आम भी चुनने के लिए दादी केसाथ जाता था। उस समय कोई भी आम नमक साथ आसानी से खा जाता था। दांत खट्टे नहीं होते थे, लेकिन अब खाने के नाम से ही सिहर जाता हूं। उस समय लोक लाज का भी ख्याल रखा जाता था। आजकल की तरह उस समय के लोग नहीं थे। तभी तो बाबा के मरने के बाद दादी छिपकर रो रही थी। मैं जब उनसे रोने का कारण पूछा, तो वह हंसने का बहाना करने लगी। क्या आजकल की पत्नी इस तरह कर सकती है?
भैया
बचपन से ही उन्हें भैया न समझकर कुछ और समझते थे। सही अर्थों में वे बड़े होने का सभी दायित्व निभाते थे। गांव वाले भी उन्हें आदर्श मानते थे। हम भाई-बहनों को भी खूब मानते थे। वे पढ़ते हुए भी घर की जिम्मेदारी से कभी नहीं मुंह मोड़े। उस समय हमारी बाहर की जरूरत वही पूरी करते थे। उन्हीं की बदौलत आज मैं यहां तक पहुंच पाया हूं। पढ़े-लिखे थे, इस कारण हमेशा मेरे लिए बेहतर की तलाश में रहते थे। वे नहीं पढऩे के लिए कहते थे और नहीं मारते थे। इस कारण उनके साथ रहने में अच्छा लगता था। उस समय वे कॉलेज में पढ़ रहे थे। किस स्ट्रीम में थे। मुझे पता नहीं था। एक दिन मां के साथ हम अपनी बहन के पास बनमनखी गए थे। जीजा जी यहीं सर्विस करते थे। कुछ दिन रहने के बाद भैया साइकिल से हमें घर ले जा रहे थे। रास्ते में कोसी नदी को नाव के सहारे पार करना पड़ता था। हमलोग नाव से उस पार हो गए। उसके बाद साइकिल से हमलोग जा रहे थे। लगभग दो किलोमीटर तक बालू ही बालू था। इस कारण उनकी सारी ऊर्जा और दिमाग साइकिल खींचने में में ही लग रहा था। जहां तक मुझे याद है कि मुझे जोर से नींद आने लगी। मैं नींद तोडऩे के लिए हर संभव कोशिश किया। लेकिन अंत में नींद की जीत हुई और मैं निश्चिंत होकर सो गया। उसके बाद मुझे कुछ भी पता नहीं है। जब नींद खुली, तो भैया हमें उठा रहे थे। मैं बालू पर गिर गया था और भैया को पता ही नहीं चला। उस समय साइकिल के पीछे की सीट पर बैठा था। भैया के अनुसार वे एक किलोमीटर आगे तक निकल चुके थे। अंत साइकिल हल्का देख जब वे पीछे मुड़े, तो उनके होश ठिकाने लग गए। निराश होकर वे पीछे की ओर तेजी से दौड़े जा रहे थे और मैं बालू पर चैन की नींद ले रहा था। अभी भी भैया को आश्चर्य हो रहा है कि मुझे थोड़ी भी चोट नहीं लगी थी। कहते हैं न कि जाको राखे साइयां, मार सके न कोय। वही बात मुझ पर लागू हो गई।
लाल भैया
उस समय इनके नाम से ही रूह कांप उठती थी। कारण यह था कि जिंदगी में सबसे अधिक मार उन्हीं से पड़ी है। वह पढ़ाकू थे और हम सभी भाई-बहनों को भी पढ़ाते रहते थे। स्कूल नहीं जाने पर बहुत पीटते थे। उस समय यह स्थिति थी कि यदि सर्प और लाल भैया दोनों दो जगह पर होते, तो मैं सर्प के पास जाना ज्यादा फायदेमंद समझता। यदि वह नहीं रहते तो शायद मैं बचपन में पढ़ भी नहीं पाता। यदि वह दो दिनों के लिए बाहर चले जाते, तो किताब छूने का नाम ही नहीं लेता। मैं उन्हें दुश्मन समझता था। इस तरह की सोच मैट्रिक तक बनी रही।
पेरेंट्स
क्या बताऊं इनके बारे में। पापा को भायजी कहता था। उनके बारे में क्या सोच थी। ठीक से हमें पता नहीं है। लेकिन होली के समय हमें रंग डालते थे और कभी कभी भांग भी खिलाते थे। उनके कंधे पर बैठकर गांव भी घूमा करते थे। उस समय वे कम ही मारते थे। दाय के जाने के बाद मां पर ही अवलंबित हो गया। बहुत प्यार करती थी और बदमाशी करने पर मारती भी थी। जो भी मांगता था, हर संभव देती थी। पैसे की काफी कमी थी, लेकिन फिर भी हमेशा खुश रहती थी। उस समय एक ही घर और एक ही रजाई था। उसी में हम सभी भाई-बहन सोते थे। घर कच्ची मिट्टी का बना था। बारिश के समय में छत के ऊपर से पानी टपकता रहता था। उस समय हमें यही डर सताता रहता था कि घर आंधी में गिर न जाए। दादा के समय का घर था। इस कारण काफी मजबूत था। अभाव के बावजूद उन्हें लोग काफी आदर करते थे। वे हम सभी भाई-बहनों को पढ़ाने के साथ ही संस्कृत के श्लोक सुनाती थी। उस समय मां से कोई शिकायत नहीं थी। जितने भी खेत थे, सभी दूसरे के पास गिरबी था। एक वेतन ही सहारा था। उस समय असुविधाओं के बावजूद हम सभी को पढ़ते देख लोग हंसते थे, लेकिन अभी हालात ये हैं कि वे लोग हम पांचों भाइयों को देखकर अपने बेटे को कोसते हैं।
परिवार के अन्य सदस्य
बिनोद भैया पढऩे में काफी तेज थे। यह हमें पता नहीं था, लेकिन घरवाले यही कह रहे थे। उन्हें सरकार की तरफ से छात्रवृत्ति मिली हुई थी। इस कारण वे रानीगंज स्कूल में पढ़ते थे। अच्छे थे। वे भी बहुत प्यार करते थे। उस समय उनसे जुड़ी एक घटना मुझे अभी तक याद है। हुआ यूं कि छात्रवृत्ति में पास होने के बाद बिनोद भैया को हॉस्टल भेजने की तैयारी होने लगी। हॉस्टल में एक चौकी भी जरूरी थी। घर में एक ही चौकी थी, जिस पर घर की इज्जत टिकी हुई थी। कहने का आशय यह कि जो भी गेस्ट आते थे, उन्हीं पर सोते थे। हमलोग उस समय नीचे में ही सोते थे। भयजी को घर से कोई मतलब नहीं था। मां ही सब कुछ थी। मां के पास कुछ तख्ता था। उसे लेकर वह लताम बाबा के पास गई और उसे बनाने के लिए कही। पेशे से वे मिस्त्री नहीं थे। घर में मिस्त्री को देने के लिए पैसे नहीं थे, इस कारण वे ही किसी तरह बना रहे थे। उनसे घर के संबंध अच्छे थे। जब वे दरवाजे पर बना रहे थे, तो मैं भी वहीं था। मेरे साथ और कौन-कौन थे, याद नहीं है। लेकिन इतना याद है कि जब उसे बस के ऊपर चढ़ाया जा रहा था, तो उसी समय उसके कुछ भाग टूट चुके थे। बाद में बिनोद भैया ने बताया कि उतारते वक्त वह पूरी तरह से टूट चुका था। रात को वे बेंच लगाकर हॉस्टल में सोते थे। प्रमोद भैया मेरे साथ ही रहते थे। जब हमलोग साथ रहते तो लड़ाई करते रहते थे और उनसे अलग रहने की कल्पना से ही रोने लगते थे। वे पढऩे में तेज थे। चुन्नू छोटी बहन थी। प्यारी थी। उसे हमेशा परेशान करता रहता था। बैसाखी टूटने के बाद उसी के कंधे को पकड़कर एक वर्ष तक चला। रास्ते में उसे खूब रुलाता था। याद है मुझे बचपन की वह घटना, जब रास्ते में स्कूल जाते वक्त शरारत करने को सूझी। उस समय चारो ओर पानी ही पानी था। मैं चुन्नू को डराया कि मैं यही डूब जाता हूं। वह मुझे रोक रही थी और मैं आगे बढ़ता जा रहा था। अंत में वह जोर-जोर से चिल्लाने लगी, तभी मैं रुका और प्रथम बार उसके प्यार का अहसास हुआ। उसके बाद से उसे इस मामले में कभी भी परेशान नहीं किया।
भायजी यानी पापा जब भी आते थे, तो मैं डर जाता था। क्योंकि घर में सबसे अधिक शरारती मैं ही था। दादी को हमेशा चिढ़ाता रहता था। वह यही धमकी देती रहती थी कि भायजी के आने के बाद तुम्हें पिटवाती हूं। दादी दिल की सच्ची थी। कभी भी मेरी शिकायत नहीं की। वह अनपढ़ थी, लेकिन रामायण और महाभारत के श्लोक रटे हुए थे। पूजा-पाठ खूब करती थी। कहानी भी सुनाती थी। मां कहती है कि जब वह आई थी, तो घर के सभी सामान दूसरे को दे देती थी। इस कारण बाबा से उन्हें डांट भी पड़ती रहती थी। कुछ पड़ोसी उनका फायदा भी उठाए। वह किसी को भी भूखा नहीं देख सकती थी। मेरे पिताजी तीन भाई थे। बंटवारे के समय दादा और दादी हमलोगों के साथ ही थे, लेकिन दादी खुद जिद पकड़कर उन दोनों चाचा के पास चली गई। मेरी मां जब भी चाय या विशेष खाना बनाती, तो उन्हें जरूर खिलाती थी। उस समय दोनों चाचा अमीर थे। पारिवारिक माहौल गांव के अन्य परिवारों से बढिय़ा था। अलग रहने के बावजूद दोनों चाचा कभी भी भायजी को जवाब नहीं देते थे। इसका प्रभाव यह पड़ा कि हमलोग चाचा या चाची को कभी भी जवाब नहीं दिए। यही कारण है कि अभी तक हमलोगों का आंगन और दरवाजा एक ही है। यह गांववाले के लिए कौतूहल और इष्र्या का विषय है।
धीमा
पांच किलोमीटर की दूरी पर शिव मंदिर था, जिसे हमलोग धीमा कहकर पुकारते हैं। अभी तक मुझे इसका अर्थ मालूम नहीं है, लेकिन इलाके के सभी लोग इससे परिचित हैं। उस समय सभी लोग पैदल ही वहां जाते थे। गांव की एक झुंड जाती थी। दादी भी हर रविवार को वहां जाती थी और हमलोगों के लिए बतासा लाती थी। बतासा एक प्रकार की मीठाई थी। बतासा के इंतजार में हमलोग दादी के आने का इंतजार घंटों करते रहते थे। इसके लिए बहुत दूर तक पैदल भी चल देते थे। उस समय को याद करता हूं, तो अभी भी काफी खुशी मिलती है। याद है मुझे कि उन्हें धीमा जाने के लिए पैसे नहीं रहते थे। काफी हल्ला करने के बाद उन्हें पैसे मिलते थे। उस समय आर्थिक स्थिति भी खराब थी। दादी के जाने के बाद मैं यही सोचता था कि इस बार मां उन्हें पैसा नहीं दी है, इस कारण हमें वह मीठाई नहीं देगी। लेकिन वह सभी के साथ एकसमान व्यवहार करती थी। न पढऩे-लिखने के बावजूद इस तरह का व्यवहार देखकर तो आश्चर्य होता है आजकल के औरत की व्यवहार पर। उस समय शायद पढ़ाई की अपेक्षा संस्कार प्रभावी था। इस कारण अच्छे कुल में शादी करने को वरीयता दी जाती थी। दादी घर आने के बाद हमलोगों को बता देती थी। उनके पास जितने भी पैसे रहते थे, सभी खाने और सामान लाने में खर्च कर देती थी। इसके विपरीत पड़ोसी पैसा बचाकर घर लाते थे। दादी को पैसे बचाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उस समय तक अमीर-गरीब सभी पैदल ही जाते थे। अब तो हालात बदल गए हैं। आज भी सभी लोग जाते हैं, लेकिन पैदल कोई नहीं जाता है। एक दिन मैं भी गया था। मां भी साथ में थी। वहां पूजा करने के बाद गांव के सभी सदस्य बाजार से मंगाकर कुछ खा रहे थे। मां घर से चूड़ा और आलू की सब्जी बनाकर ले गई थी। मैं भी बाजार से कुछ मंगाने का जिद करने लगा। मां लाचार होकर घुघनी खरीदी थी। मात्रा कितनी थी, मुझे पता नहीं है, लेकिन मुझे उससे बढिय़ा अपनी सब्जी ही लगी थी और उस दिन से अभी तक चूड़ा और सब्जी का स्वाद जिंदा है। मौका पडऩे पर उसे अवश्य खाता हूं। उस समय मां के ये शब्द भी याद हैं कि घर का खाना बाजार के खाना से अच्छा और शुद्ध होता है। हो सकता हो कि मां किसी और प्रशेजन से बोली हो, लेकिन यह बात हमें दिमाग में बैठ गई, जिसका फायदा अभी तक मैं उठा रहा हूं।
बथुआ साग
साग के शौकीन हमारे परिवार में सभी थे। उस समय दादी के साथ हमलोग साग तोडऩे के लिए बहुत दूर चले जाते थे। साथ में गांव के बहुत सारे बच्चे रहते थे। सभी लोग दिन-चार घंटे तक साग तोड़ते थे और अपनी-अपनी दादी या बहन को देते थे। उस समय शर्म नहीं लगती थी। न ही यह सोच डेवलप था कि लोग क्या कहेंगे। हमारे उम्र के बच्चे तो आजकल दूसरे के घर जाने में भी शर्म महसूस करते हैं। जब दादी साथ नहीं रहती थी, तो गांव के लड़की और लड़के के साथ साग तोडऩे के लिए जाते थे। उसमें कुछ उम्र में काफी बड़े थे। जहां तक मुझे याद है कि हम सभी साग तोडऩे के बाद एक जगह इकट्टïा होते थे, और सभी अपनी झोली से कुछ न कुछ साग भगवान को चढ़ाते थे। इसके पीछे यह विश्वास था कि भगवान को साग चढ़ाने से अपने आप अधिक साग हो जाएगा। यह डर भी था कि जो इस साग को चुपके से घर ले जाएगा, भगवान उस पर क्रोधित होंगे। इस कारण मैंने कभी भी साग नहीं चुराया। अब यदि दिमाग पर जोर लगाता हूं, तो अंदाजा यह लग रहा है कि सभी साग हमलोगों में से जो बड़े थे, आपस में बांट लेते थे। इस मामले में हमलोग बेबकूफ ही बने रहते थे। घरवाले पढऩे के लिए जोर देते थे और मैं साग तोडऩे में अधिक दिलचस्पी ले रहा था। सभी तरह के खेल खेलते थे उस समय। खेलते देखकर लोग हमें आश्चर्य से देखते थे, लेकिन हमें कुछ भी अनुभव नहीं हो रहा था। पैर खराब होने के बावजूद हमारी एक अलग स्टाइल थी खेलने की, जिस कारण सभी लोग अपनी टीम में रखना चाहते थे। अलग स्टाइल इसलिए बन जाती थी कि उस समय मुझे विकलांग होने का अहसास कम था और मैं औरों की तरह ही सभी में पूरी आत्मविश्वास के साथ भाग लेता था। इस तरह की फीलिंग बड़े होने तक बनी रही। कोई खेल हमने नहीं छोड़ा। अब सोचता हूं, तो आश्चर्य में पड़ जाता हूं। आम के बगीचे में आम भी चुनने के लिए दादी केसाथ जाता था। उस समय कोई भी आम नमक साथ आसानी से खा जाता था। दांत खट्टे नहीं होते थे, लेकिन अब खाने के नाम से ही सिहर जाता हूं। उस समय लोक लाज का भी ख्याल रखा जाता था। आजकल की तरह उस समय के लोग नहीं थे। तभी तो बाबा के मरने के बाद दादी छिपकर रो रही थी। मैं जब उनसे रोने का कारण पूछा, तो वह हंसने का बहाना करने लगी। क्या आजकल की पत्नी इस तरह कर सकती है?
भैया
बचपन से ही उन्हें भैया न समझकर कुछ और समझते थे। सही अर्थों में वे बड़े होने का सभी दायित्व निभाते थे। गांव वाले भी उन्हें आदर्श मानते थे। हम भाई-बहनों को भी खूब मानते थे। वे पढ़ते हुए भी घर की जिम्मेदारी से कभी नहीं मुंह मोड़े। उस समय हमारी बाहर की जरूरत वही पूरी करते थे। उन्हीं की बदौलत आज मैं यहां तक पहुंच पाया हूं। पढ़े-लिखे थे, इस कारण हमेशा मेरे लिए बेहतर की तलाश में रहते थे। वे नहीं पढऩे के लिए कहते थे और नहीं मारते थे। इस कारण उनके साथ रहने में अच्छा लगता था। उस समय वे कॉलेज में पढ़ रहे थे। किस स्ट्रीम में थे। मुझे पता नहीं था। एक दिन मां के साथ हम अपनी बहन के पास बनमनखी गए थे। जीजा जी यहीं सर्विस करते थे। कुछ दिन रहने के बाद भैया साइकिल से हमें घर ले जा रहे थे। रास्ते में कोसी नदी को नाव के सहारे पार करना पड़ता था। हमलोग नाव से उस पार हो गए। उसके बाद साइकिल से हमलोग जा रहे थे। लगभग दो किलोमीटर तक बालू ही बालू था। इस कारण उनकी सारी ऊर्जा और दिमाग साइकिल खींचने में में ही लग रहा था। जहां तक मुझे याद है कि मुझे जोर से नींद आने लगी। मैं नींद तोडऩे के लिए हर संभव कोशिश किया। लेकिन अंत में नींद की जीत हुई और मैं निश्चिंत होकर सो गया। उसके बाद मुझे कुछ भी पता नहीं है। जब नींद खुली, तो भैया हमें उठा रहे थे। मैं बालू पर गिर गया था और भैया को पता ही नहीं चला। उस समय साइकिल के पीछे की सीट पर बैठा था। भैया के अनुसार वे एक किलोमीटर आगे तक निकल चुके थे। अंत साइकिल हल्का देख जब वे पीछे मुड़े, तो उनके होश ठिकाने लग गए। निराश होकर वे पीछे की ओर तेजी से दौड़े जा रहे थे और मैं बालू पर चैन की नींद ले रहा था। अभी भी भैया को आश्चर्य हो रहा है कि मुझे थोड़ी भी चोट नहीं लगी थी। कहते हैं न कि जाको राखे साइयां, मार सके न कोय। वही बात मुझ पर लागू हो गई।
लाल भैया
उस समय इनके नाम से ही रूह कांप उठती थी। कारण यह था कि जिंदगी में सबसे अधिक मार उन्हीं से पड़ी है। वह पढ़ाकू थे और हम सभी भाई-बहनों को भी पढ़ाते रहते थे। स्कूल नहीं जाने पर बहुत पीटते थे। उस समय यह स्थिति थी कि यदि सर्प और लाल भैया दोनों दो जगह पर होते, तो मैं सर्प के पास जाना ज्यादा फायदेमंद समझता। यदि वह नहीं रहते तो शायद मैं बचपन में पढ़ भी नहीं पाता। यदि वह दो दिनों के लिए बाहर चले जाते, तो किताब छूने का नाम ही नहीं लेता। मैं उन्हें दुश्मन समझता था। इस तरह की सोच मैट्रिक तक बनी रही।
पेरेंट्स
क्या बताऊं इनके बारे में। पापा को भायजी कहता था। उनके बारे में क्या सोच थी। ठीक से हमें पता नहीं है। लेकिन होली के समय हमें रंग डालते थे और कभी कभी भांग भी खिलाते थे। उनके कंधे पर बैठकर गांव भी घूमा करते थे। उस समय वे कम ही मारते थे। दाय के जाने के बाद मां पर ही अवलंबित हो गया। बहुत प्यार करती थी और बदमाशी करने पर मारती भी थी। जो भी मांगता था, हर संभव देती थी। पैसे की काफी कमी थी, लेकिन फिर भी हमेशा खुश रहती थी। उस समय एक ही घर और एक ही रजाई था। उसी में हम सभी भाई-बहन सोते थे। घर कच्ची मिट्टी का बना था। बारिश के समय में छत के ऊपर से पानी टपकता रहता था। उस समय हमें यही डर सताता रहता था कि घर आंधी में गिर न जाए। दादा के समय का घर था। इस कारण काफी मजबूत था। अभाव के बावजूद उन्हें लोग काफी आदर करते थे। वे हम सभी भाई-बहनों को पढ़ाने के साथ ही संस्कृत के श्लोक सुनाती थी। उस समय मां से कोई शिकायत नहीं थी। जितने भी खेत थे, सभी दूसरे के पास गिरबी था। एक वेतन ही सहारा था। उस समय असुविधाओं के बावजूद हम सभी को पढ़ते देख लोग हंसते थे, लेकिन अभी हालात ये हैं कि वे लोग हम पांचों भाइयों को देखकर अपने बेटे को कोसते हैं।
परिवार के अन्य सदस्य
बिनोद भैया पढऩे में काफी तेज थे। यह हमें पता नहीं था, लेकिन घरवाले यही कह रहे थे। उन्हें सरकार की तरफ से छात्रवृत्ति मिली हुई थी। इस कारण वे रानीगंज स्कूल में पढ़ते थे। अच्छे थे। वे भी बहुत प्यार करते थे। उस समय उनसे जुड़ी एक घटना मुझे अभी तक याद है। हुआ यूं कि छात्रवृत्ति में पास होने के बाद बिनोद भैया को हॉस्टल भेजने की तैयारी होने लगी। हॉस्टल में एक चौकी भी जरूरी थी। घर में एक ही चौकी थी, जिस पर घर की इज्जत टिकी हुई थी। कहने का आशय यह कि जो भी गेस्ट आते थे, उन्हीं पर सोते थे। हमलोग उस समय नीचे में ही सोते थे। भयजी को घर से कोई मतलब नहीं था। मां ही सब कुछ थी। मां के पास कुछ तख्ता था। उसे लेकर वह लताम बाबा के पास गई और उसे बनाने के लिए कही। पेशे से वे मिस्त्री नहीं थे। घर में मिस्त्री को देने के लिए पैसे नहीं थे, इस कारण वे ही किसी तरह बना रहे थे। उनसे घर के संबंध अच्छे थे। जब वे दरवाजे पर बना रहे थे, तो मैं भी वहीं था। मेरे साथ और कौन-कौन थे, याद नहीं है। लेकिन इतना याद है कि जब उसे बस के ऊपर चढ़ाया जा रहा था, तो उसी समय उसके कुछ भाग टूट चुके थे। बाद में बिनोद भैया ने बताया कि उतारते वक्त वह पूरी तरह से टूट चुका था। रात को वे बेंच लगाकर हॉस्टल में सोते थे। प्रमोद भैया मेरे साथ ही रहते थे। जब हमलोग साथ रहते तो लड़ाई करते रहते थे और उनसे अलग रहने की कल्पना से ही रोने लगते थे। वे पढऩे में तेज थे। चुन्नू छोटी बहन थी। प्यारी थी। उसे हमेशा परेशान करता रहता था। बैसाखी टूटने के बाद उसी के कंधे को पकड़कर एक वर्ष तक चला। रास्ते में उसे खूब रुलाता था। याद है मुझे बचपन की वह घटना, जब रास्ते में स्कूल जाते वक्त शरारत करने को सूझी। उस समय चारो ओर पानी ही पानी था। मैं चुन्नू को डराया कि मैं यही डूब जाता हूं। वह मुझे रोक रही थी और मैं आगे बढ़ता जा रहा था। अंत में वह जोर-जोर से चिल्लाने लगी, तभी मैं रुका और प्रथम बार उसके प्यार का अहसास हुआ। उसके बाद से उसे इस मामले में कभी भी परेशान नहीं किया।
रविवार, 7 फ़रवरी 2010
मैं और मेरा जीवन दो
जब डूबने लगा
घर के बगल में पोखर था। उसमें गांव के सभी बच्चे नहाते थे। मैं भी उनमें से एक था। जब मॉर्निंग स्कूल होता था, तो स्कूल से आने के बाद घर न जाकर पोखर में ही कूदते थे और खूब नहाते थे। उस समय लड़का-लड़की दोनों साथ-साथ नहाते थे। हमलोग नहाने में इतने मस्त हो जाते थे कि समय का ज्ञान ही नहीं रहता था। घर से सभी के मां-पिताजी आते थे, तभी हमलोग बाहर निकलते थे। हजार बार नहाने के लिए मना किया जाता था, लेकिन हमलोग कभी नहीं माने। उस समय बीमार भी नहीं पड़ते थे। अब तो बारिश में नहाने के बाद बुखार आ जाता है। समझ में नहीं आता कि इसी शरीर को अब क्या हो गया है? खैर, मुझे इस पचड़े में नहीं पडऩा है। जो तैरने जानते थे, वे खूब तैर रहे थे। जो नहीं जानते थे, वे सभी सीख रहे थे। हालांकि मुझे बताया गया कि तुम्हारे पैर खराब हैं, इस कारण तुम नहीं तैर सकते। लेकिन फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी और तैरने की कोशिश करता रहा। इस सिलसिले में एक दिन नहाते वक्त डूब गया। बहुत पानी पी लिया था। उस समय डूबने का एक गजब का अनुभव हुआ। बल्कि यूं कहिए कि मौत को सामने देखकर जिंदा हुआ। मैं पानी के अंदर चिल्ला रहा था, लेकिन मेरी आवाज वहां नहानेवालों तक नहीं पहुंच रही थी। हारकर भगवान का नाम लेने लगा। उस समय यह पता था कि मरते वक्त भगवान का नाम लेने से स्वर्ग जाता था। भगवान का नाम ले ही रहा था कि एकाएक पप्पू से टकराया। उन्होंने मुझे बाहर निकाला और मेरी जान किसी तरह बची। अपने आप उल्टी होने लगी और फिर नहाने लगा। लेकिन उस दिन से एक डर समा गया। कहते हैं न कि करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान, वही मेरे साथ हुआ। न जाने कब मैं तैरने के लिए सीख गया। खुद मुझे भी पता नहीं चला। नदी में दोस्तों के साथ खूब तैरने लगा। उस समय लगा कि अभ्यास से कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है। सभी लोग नंगे ही नहाते थे। स्कूल से आने के बाद सभी लोग कपड़े खोलते थे और नंगा नहाना शुरू कर देते थे। उस समय शर्म शब्द पता नहीं था। लड़का-लड़की में अंतर समझने लगा था, लेकिन सेक्स शब्द से अनजान था। उस समय मेरे पास चप्पल या जूता कुछ नहीं था। इसके बिना ही रोड पर चलते था। कभी इसकी जरूरत भी नहीं पड़ी। वैसे भी उस समय चप्पल या जूते का प्रयोग हॉस्टल के लड़के ही करते थे। गांव में तकरीबन सभी का यही हाल था। इस समय पढऩे में काफी मन लगने लगा। स्कूल में अच्छे स्टूडेंट्स के रूप में गिनती होने लगी। लेकिन घरवाले की नजर में बेवकूफ ही था। इस कारण काफी दुखी रहता था। उस समय विद्यानंद यादव क्लास टीचर थे। सभी उन्हें विद्या बाबु कहते थे। बहुत बढिय़ा टीचर थे। मैथ पर उनकी पकड़ अच्छी थी। एक दिन मेरा भांजा मीठू मेरे साथ पढऩे गया। हम दोनों एक ही वर्ग में पढ़ते थे। वह बढिय़ा कपड़ा पहनता था और स्मार्ट भी बना रहता था। इस कारण स्वयं को उसके सामने हीन अनुभव करता था। विद्या बाबु ने एक प्रॉब्लम क्लास के सभी स्टूडेंट्स को बनाने के लिए कहा। संयोग से दो तीन मिनट पहले वह बनाकर दिखा दिया और मैं बना ही रहा था। समय को भांपते हुए विद्या बाबु बोले कि वाह भांजा तो तुम्हें हरा दिया। सभी लोग हंस पड़े। मैं भी उनमें से एक था। बात आई और गई हो गई। वह फिर घर चला गया। मैं जब चार बजे घर गया तो यह बात पूरी तरह फैल चुकी थी। उस समय बात को बतंगर बनाने पर मुझे बहुत गुस्सा आया, लेकिन लाचार था।
गार्जियन
बाबा मेरी नजर में अपने बाबा के बारे में अधिक याद नहीं है, लेकिन वे अच्छे थे और पढ़े-लिखे भी थे। नियमित पूजा करते थे। यदि कभी मेला लगता था, तो मीठाई खिलाते थे। एक दिन की बात है। मैं और प्रमोद भैया पांडे बाबा के यहां गए थे। वहां कोई उत्सव हो रहा था। क्या था, हमें ठीक से पता नहीं है। हमलोग आने के बाद बाबा के पास ही सोए थे। मैं, प्रमोद भैया और बहनें थीं। जहां तक मुझे याद है कि बाबा हमलोगों को शांत रहने के लिए कह रहे थे, और हमलोग गाना गा रहे थे। गाना का बोल था कि समधि ---ताल ठोकै दै, कियो नै लै छै मोल----। यह सिलसिला लगभग एक घंटा से चल रहा था। अंत में उनका धैर्य जवाब दे गया और वे गुस्सा से मारने के लिए उठे। सभी लोग भाग गए। मैं नहीं भाग सका और पकड़ लिए गए। सभी का गुस्सा मुझ पर ही उतारा गया और खूब मारे। वह मार अभी तक याद है और इसकी कसक अभी भी जिंदा है कि सबसे पहले भागने के बवाजूद पैर खराब होने की वजह से पीटा गया, अन्यथा औरों की तरह मैं भी भाग गया होता। इसके बाद उनके हाथ से मार नहीं खाया। मरते वक्त मैं वहीं था। उनके मरने से मुझे किसी तरह की फीलिंग नहीं हुई। वे बीमार थे, तो इस कारण खुश था कि इसी बहाने पढ़ाई नहीं करनी पड़ती थी। उस समय हमेशा पढ़ाई न करने का बहाना ढूंढा करता था।
पापा को हमलोग इसी नाम से पुकारते थे। उस समय तक उनके बारे में बहुत अधिक नहीं जानते थे। जब उन्हें वेतन मिलता था, तो बहुत सारे फल, बढिय़ा सब्जी और भात खाने को मिलता था। उस समय भात सबसे प्रिय था। मुझे याद है कि पंद्रह दिनों तक रोज रोटी ही खानी पड़ती थी। नुनु काका के यहां सप्ताह में एक दिन भात बन जाता था। जब भी भात बनता था, हमें जरूर मिलता था। यह काकी की महानता थी। सभी लोग उसे लड़ाकू कहते थे, लेकिन दिल की बूरी नहीं थी। वह भले ही भूखी रह जाए, लेकिन हमें जरूर देती थी। नुनू काका ट्विशन पढ़ाते थे। इस कारण उनके यहां लेट से खाना बनता था। वैसे तो जब भी भात बनता, मैं जगा रहता था। लेकिन एक रात सो गया। जब नींद खुली, तो सभी लोग खा चुके थे। स्वयं कोई विकल्प न देखकर राम-राम करने लगा, काकी और मां समझ गई। भात खाकर ही सोया। उस समय की घटना पर हंसी भी आ रही है और आश्चर्य भी। उस समय की घटना पर यही लगता है कि बचपन में किस तरह के दिमाग थे।
घर के बगल में पोखर था। उसमें गांव के सभी बच्चे नहाते थे। मैं भी उनमें से एक था। जब मॉर्निंग स्कूल होता था, तो स्कूल से आने के बाद घर न जाकर पोखर में ही कूदते थे और खूब नहाते थे। उस समय लड़का-लड़की दोनों साथ-साथ नहाते थे। हमलोग नहाने में इतने मस्त हो जाते थे कि समय का ज्ञान ही नहीं रहता था। घर से सभी के मां-पिताजी आते थे, तभी हमलोग बाहर निकलते थे। हजार बार नहाने के लिए मना किया जाता था, लेकिन हमलोग कभी नहीं माने। उस समय बीमार भी नहीं पड़ते थे। अब तो बारिश में नहाने के बाद बुखार आ जाता है। समझ में नहीं आता कि इसी शरीर को अब क्या हो गया है? खैर, मुझे इस पचड़े में नहीं पडऩा है। जो तैरने जानते थे, वे खूब तैर रहे थे। जो नहीं जानते थे, वे सभी सीख रहे थे। हालांकि मुझे बताया गया कि तुम्हारे पैर खराब हैं, इस कारण तुम नहीं तैर सकते। लेकिन फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी और तैरने की कोशिश करता रहा। इस सिलसिले में एक दिन नहाते वक्त डूब गया। बहुत पानी पी लिया था। उस समय डूबने का एक गजब का अनुभव हुआ। बल्कि यूं कहिए कि मौत को सामने देखकर जिंदा हुआ। मैं पानी के अंदर चिल्ला रहा था, लेकिन मेरी आवाज वहां नहानेवालों तक नहीं पहुंच रही थी। हारकर भगवान का नाम लेने लगा। उस समय यह पता था कि मरते वक्त भगवान का नाम लेने से स्वर्ग जाता था। भगवान का नाम ले ही रहा था कि एकाएक पप्पू से टकराया। उन्होंने मुझे बाहर निकाला और मेरी जान किसी तरह बची। अपने आप उल्टी होने लगी और फिर नहाने लगा। लेकिन उस दिन से एक डर समा गया। कहते हैं न कि करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान, वही मेरे साथ हुआ। न जाने कब मैं तैरने के लिए सीख गया। खुद मुझे भी पता नहीं चला। नदी में दोस्तों के साथ खूब तैरने लगा। उस समय लगा कि अभ्यास से कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है। सभी लोग नंगे ही नहाते थे। स्कूल से आने के बाद सभी लोग कपड़े खोलते थे और नंगा नहाना शुरू कर देते थे। उस समय शर्म शब्द पता नहीं था। लड़का-लड़की में अंतर समझने लगा था, लेकिन सेक्स शब्द से अनजान था। उस समय मेरे पास चप्पल या जूता कुछ नहीं था। इसके बिना ही रोड पर चलते था। कभी इसकी जरूरत भी नहीं पड़ी। वैसे भी उस समय चप्पल या जूते का प्रयोग हॉस्टल के लड़के ही करते थे। गांव में तकरीबन सभी का यही हाल था। इस समय पढऩे में काफी मन लगने लगा। स्कूल में अच्छे स्टूडेंट्स के रूप में गिनती होने लगी। लेकिन घरवाले की नजर में बेवकूफ ही था। इस कारण काफी दुखी रहता था। उस समय विद्यानंद यादव क्लास टीचर थे। सभी उन्हें विद्या बाबु कहते थे। बहुत बढिय़ा टीचर थे। मैथ पर उनकी पकड़ अच्छी थी। एक दिन मेरा भांजा मीठू मेरे साथ पढऩे गया। हम दोनों एक ही वर्ग में पढ़ते थे। वह बढिय़ा कपड़ा पहनता था और स्मार्ट भी बना रहता था। इस कारण स्वयं को उसके सामने हीन अनुभव करता था। विद्या बाबु ने एक प्रॉब्लम क्लास के सभी स्टूडेंट्स को बनाने के लिए कहा। संयोग से दो तीन मिनट पहले वह बनाकर दिखा दिया और मैं बना ही रहा था। समय को भांपते हुए विद्या बाबु बोले कि वाह भांजा तो तुम्हें हरा दिया। सभी लोग हंस पड़े। मैं भी उनमें से एक था। बात आई और गई हो गई। वह फिर घर चला गया। मैं जब चार बजे घर गया तो यह बात पूरी तरह फैल चुकी थी। उस समय बात को बतंगर बनाने पर मुझे बहुत गुस्सा आया, लेकिन लाचार था।
गार्जियन
बाबा मेरी नजर में अपने बाबा के बारे में अधिक याद नहीं है, लेकिन वे अच्छे थे और पढ़े-लिखे भी थे। नियमित पूजा करते थे। यदि कभी मेला लगता था, तो मीठाई खिलाते थे। एक दिन की बात है। मैं और प्रमोद भैया पांडे बाबा के यहां गए थे। वहां कोई उत्सव हो रहा था। क्या था, हमें ठीक से पता नहीं है। हमलोग आने के बाद बाबा के पास ही सोए थे। मैं, प्रमोद भैया और बहनें थीं। जहां तक मुझे याद है कि बाबा हमलोगों को शांत रहने के लिए कह रहे थे, और हमलोग गाना गा रहे थे। गाना का बोल था कि समधि ---ताल ठोकै दै, कियो नै लै छै मोल----। यह सिलसिला लगभग एक घंटा से चल रहा था। अंत में उनका धैर्य जवाब दे गया और वे गुस्सा से मारने के लिए उठे। सभी लोग भाग गए। मैं नहीं भाग सका और पकड़ लिए गए। सभी का गुस्सा मुझ पर ही उतारा गया और खूब मारे। वह मार अभी तक याद है और इसकी कसक अभी भी जिंदा है कि सबसे पहले भागने के बवाजूद पैर खराब होने की वजह से पीटा गया, अन्यथा औरों की तरह मैं भी भाग गया होता। इसके बाद उनके हाथ से मार नहीं खाया। मरते वक्त मैं वहीं था। उनके मरने से मुझे किसी तरह की फीलिंग नहीं हुई। वे बीमार थे, तो इस कारण खुश था कि इसी बहाने पढ़ाई नहीं करनी पड़ती थी। उस समय हमेशा पढ़ाई न करने का बहाना ढूंढा करता था।
पापा को हमलोग इसी नाम से पुकारते थे। उस समय तक उनके बारे में बहुत अधिक नहीं जानते थे। जब उन्हें वेतन मिलता था, तो बहुत सारे फल, बढिय़ा सब्जी और भात खाने को मिलता था। उस समय भात सबसे प्रिय था। मुझे याद है कि पंद्रह दिनों तक रोज रोटी ही खानी पड़ती थी। नुनु काका के यहां सप्ताह में एक दिन भात बन जाता था। जब भी भात बनता था, हमें जरूर मिलता था। यह काकी की महानता थी। सभी लोग उसे लड़ाकू कहते थे, लेकिन दिल की बूरी नहीं थी। वह भले ही भूखी रह जाए, लेकिन हमें जरूर देती थी। नुनू काका ट्विशन पढ़ाते थे। इस कारण उनके यहां लेट से खाना बनता था। वैसे तो जब भी भात बनता, मैं जगा रहता था। लेकिन एक रात सो गया। जब नींद खुली, तो सभी लोग खा चुके थे। स्वयं कोई विकल्प न देखकर राम-राम करने लगा, काकी और मां समझ गई। भात खाकर ही सोया। उस समय की घटना पर हंसी भी आ रही है और आश्चर्य भी। उस समय की घटना पर यही लगता है कि बचपन में किस तरह के दिमाग थे।
शनिवार, 30 जनवरी 2010
मैं और मेरा जीवन 1
जब तीसरे वर्ग में था
पहले की अपेक्षा काफी कुछ समझने लगा था। मेरा रोल नंबर 21 था। घर का माहौल ऐसा था कि रोज स्कूल जाने की आदत पड़ गई। किताब और बोरा लेकर नियमित आने लगा। उस समय स्कूल में नीचे में ही बैठना पड़ता था। इस कारण सभी लोग बैठने के लिए बोरा या पन्नी लाते थे। जो अमीर थे, वे पन्नी लाते थे और शेष बोरा लाते थे। उस समय अनुभव यह हुआ कि क्लास में बिना पढ़े प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण नहीं हुआ जा सकता है। यह बात मैं अच्छी तरह समझ लिया था। लेकिन न जाने चाहकर भी पढ़ाई में मन नहीं लगता था। स्कूल से रोज यही सोचकर निकलता कि कल से खूब पढ़ूंगा, लेकिन घर जाते ही स्कूल की बातें भूल जाता था। आर्थिक स्थिति खराब होने की वजह से कपड़े भी ढंग के नहीं थे। पहनने के लिए एक पेंट और एक शर्ट था। उस समय गंजी भी नहीं था। स्कूल और घर में उसी को पहनता रहता था। इस कारण वह काफी गंदा हो जाता था। नंगा ही नहाता था उस समय। शर्म शब्द पता नहीं था और न ही इसकी अनुभूति ही हो रही थी। शारीरिक रूप से अक्षम आग में घी का काम कर रहा था। नाक से नेटा और मुंह से लार टपकना रोज की आदत बन गई थी। इन सब विशेषताओं के कारण मेरे पास कोई भी स्टूडेंट्स नहीं बैठता था। मैं भी स्वयं को उससे अलग समझ अकेला ही बैठता था। साथ में मेरे गांव के दो स्टूडेंट्स संतोष और पप्पू थे। वे लोग कभी मेरे पास तो कभी उन लोगों के पास बैठते थे। यही दोनों वास्तव में मेरे स्कूल और घर के दोस्त थे। घर में पप्पू का छोटा भाई पिंटू भी मिल जाता था। पढऩे में कोई भी तेज नहीं था। पारिवारिक माहौल की वजह से मैं ही इनमें से बीस था। लेकिन इस तरह का अनुभव उस समय नहीं हुआ था। पप्पू उम्र में काफी बड़ा था। इस कारण वह हम दोनों को बेवकूफ बनाता रहता था और हमलोग अनजाने में बनते रहते थे। उस समय किताब की कुंजी रखना घर में जरूरी नहीं समझा जाता था। इस कारण मेरे पास किताब ही थे। उस किताब की हालत आज के फुटपाथ बच्चे की कपड़े से की जा सकती है। कहने का आशय यह है कि दो महीने में में ही किताब के एक-एक पन्ने गायब हो रहे थे और शुरू और अंत के दो तीन अध्याय नहीं रहते थे। कुछ तो अपनी लापरवाही और कुछ शुरू से पुरानी किताब मिलने की वजह से यह स्थिति हो जाती थी। उस समय हमसे जो सीनियर स्टूडेंट्स थे, वे अपनी किताब आधी दाम में बेचते थे और हमलोग खरीदते थे। यदि संयोग से नई किताब मिल जाती थी, तो उसका पन्ना अधिक रहता था। लेकिन जब पापा पढ़ाते थे और बीच से पेज गायब रहता था, तो मार भी खानी पड़ती थी। पुरानी किताब पर तो बहाना चल जाता था, लेकिन नई किताब में बचने का कोई विकल्प नहीं रहता था।
दाय की विदाई
उस समय मां को बहुत अधिक नहीं जानता था और उनसे प्रेम भी कम ही करता था। कारण यह था कि मैं हमेशा अपनी बड़ी बहन यानी कि दाय के पास ही सोता, उठता और बैठता था। मैं उस पर पूरा अधिकार रखता था। यदि वह बिना कहे कहीं चली जाती थी, तो उनके बगैर खूब रोता था। यही कारण था कि हम दोनों हमेशा साथ-साथ रहते थे। कब से उनके साथ मैं रह रहा था, यह तो मैं नहीं जानता। लेकिन मां बोल रही थी कि बेहतर केयर की वजह से बचपन से ही मैं उनके साथ रह रहा था। मां के अनुसार दाय को काम में मन नहीं लगने की वजह से हमें सौंप दिया गया था। लेकिन अनजाने में ही हम दोनों का प्रेम इतना बढ़ गया कि एक दूसरे के बिना एक पल भी रहना मुश्किल हो रहा था। उस समय दाय को छोड़कर मैं किसी के साथ नहीं रहना चाहता था। वह हमेशा ही मेरा केयर करती रहती थी। मैं उन्हें काफी परेशान करता था, लेकिन वह हमें कभी-कभी मारती थी। उनके साथ गांव घूमता रहता था। उस समय तक मैं पति और पत्नी का मतलब नहीं जानता था। यही कारण था कि जब दाय के पति यानी आचार्य जी आते थे, तो मैं उनके साथ ही सोने की जिद करता और घरवाले उनसे अलग सोने के लिए दबाव डालते थे। इस मामले में हमेशा मेरी ही जीत होती थी। उस समय मैं काफी जिद्दी था। यह मुझे आभास हो गया था। इस कारण बाद में इसका काफी फायदा उठाया। घरवाले लाचार होकर मेरी बात मानते गए और मैं जिद्दी बनता गया। इससे मेरा दुस्साहस बढ़ता गया और घर में जो चाहता था, वही करता था। यदि कभी मेरा पहला औजार काम नहीं करता था, तो दूसरा औजार यानी कि भूख हड़ताल पर उतर जाता था। सभी को दया आ जाती थी और मेरी बात मान ली जाती थी। स्वयं को विजयी देखकर इस मामले में और भी दृढ़ होता गया। मेरी हिम्मत बढ़ती गई और घरवाले की परेशानी भी।
जब मैं बेहोश हो गया
मुझे ठीक तरह से याद नहीं है कि मैं क्यों घरवाले से खफा था। लेकिन यह याद जरूर है कि मैं दो दिनों तक घरवाले के लाख समझाने के बावजूद खाना नहीं खाया था। उस समय पास में पैसे भी नहीं रहते थे। मॉर्निंग स्कूल था। इस कारण सुबह उठकर स्कूल चला गया। सोचा कि ग्यारह बजे तक तो भूखा रह ही जाऊंगा। आठ बजे के लगभग एकाएक जोरों से नींद आने लगी। धीरे-धीरे आंख को बंद करने लगा और भूख से बेहोश हो गया। कब हम घर आए, पता नहीं चला। जब मेरी आंखें खुली, तो मां के गोद में था और मां कुछ खिला रही थी। उस समय यह जाना कि बिना खाना खाए बेहोश भी हुआ जा सकता है। उस दिन से रूठा तो बहुत, लेकिन न खाने की वजह से बेहोश नहीं हुआ।
दाय रात को अंधेरे में रो रही है। इस तरह की घटना दो चार दिनों से रोज देखता था। घर में काफी चहल-पहल थी। मां दाय को विदाई करने के लिए व्यवस्था कर रही थी। परसों दाय का द्विरागमन यानी कि गौना था। इस कारण वह रो रही थी। मुझे कोई भी कुछ भी बताने के लिए तैयार नहीं था। अंत में मुझे पता चला कि दाय परसों के बाद यहां नहीं रहेगी। यह सुनते ही मैं परेशान हो गया और रोने लगा। अंत में घरवाले दाय के साथ मुझे उनके ससुराल भेज दिए। वहां मैं एक महीने रहा और खूब मजे किया। आते वक्त दाय रो रही थी और मैं काफी खुश था। खुशी का कारण यह था कि मुझे नया कपड़ा मिलनेवाला था। कपड़े की खुशी में मैं दाय को भूल गया। वैसे भी एक महीने रहने के बाद मुझे उनसे दूरी बढ़ती गई और मैं पहले की अपेक्षा अधिक परिपक्व हो गया था। अपने घर आया और जहां तक मुझे याद है कि मैं उनके लिए कभी नहीं रोया। यह कैसे हुआ। अभी तक इसका उत्तर नहीं मिल पाया है। अभी भी यह मेरे लिए पहेली बनी हुई है।
जब मैं बन गया शाकाहारी
यह घटना भी इन्हीं वर्षों के दौरान घटी। घर में नुनू काका के अलावा बिनोद भैया ही वैष्णव थे। उस समय वैष्णव का कुछ अर्थ भी नहीं जानता था। पहले मैं रोज मछली खाता था। ऐसा मां कहती है। दिमाग पर जोर देने के बाद मुझे भी याद पड़ रहा है कि यदि गांव में कहीं भी मछली या मांस देख लेता, तो उसे खाने के बाद ही दम लेता था। कभी-कभी मां करछूल में मछली तलकर खिलाती थी। उस समय मछली के अलावा किसी और व्यंजन में स्वाद का दीवाना नहीं था। रात के आठ बजे आंगन में सोए हुए थे और नुनू काका रामायण पढ़ रहे थे। रामायण सुनाते हुए बोले कि जो मांस-मछली खाएगा, उसे चौसठ जन्मों तक गिद्ध ही रहना पड़ेगा। उस समय जीवन के प्रति सकारात्मक सोच था। मरने के नाम से ही परेशान हो जाता था। याद है मुझे कि सोते वक्त मैं और मेरी छोटी बहन यह कल्पना कर रहे थे कि यदि भगवान आते हैं और एक वरदान मांगने के लिए कहते हैं, तो क्या मांगोगी? उसका उत्तर तो याद नहीं है, लेकिन मुझे यह अच्छी तरह से पता है कि मैंने भगवान से यह मांगा था कि मैं जिंदगी भर अमर रहूं। भले ही अब इस बात पर हंसी आती है, लेकिन हकीकत यही थी। गिद्ध वाली बात मेरे मन में बैठ गई और निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी। उसी समय निश्चय किया कि आज से मांस नहीं खाऊंगा। बचपन से ही वचन के प्रति ईमानदार था और जो वचन के पक्के थे, उन्हें काफी आदर भी करता था। यह अभी तक जारी है। यही कारण है कि इसमें ढिलाई बरतनेवाले लोगों से मैं काफी दूर रहता हूं। चाहे वह सगा-संबंधी ही क्यों न हो। एक बार वैष्णव बनने के बाद कभी भी मांस-मछली नहीं खाया। घरवाले काफी दबाव दिए, लेकिन निर्णय पर अडिग रहा। जब मछली देखकर खाने की हुईएक दिन घर में मछली बना था। देखने के साथ ही लार टपकने लगा। निश्चय किया कि रात को चुराकर अवश्य खाऊंगा। आधी रात को उठकर जैसे ही खाने की कोशिश करने लगा कि रात के अंधेरे में दिल से आवाज आई कि तुम अपने मां-बाप से छिपकर खा सकते हो, लेकिन भगवान देख रहा है। मैंने मछली जहां से उठाया, वहीं रख दिया। उस दिन से कभी भी प्रयास नहीं किया। धीरे-धीरे स्वाद भी भूल गया हूं। अब जब बड़ा हुआ हूं, तो उसे देखकर दया आती है। इस कारण खाने की इच्छा नहीं हो रही है। लाचारी बनी ताकत
दरवाजे पर सोया हुआ था। दोपहर का समय था। एकाएक मां मुझे डांट रही थी और मैं जागकर कुछ समझने की कोशिश कर रहा था। बात समझने में देर नहीं लगी। हुआ यूं कि जब मैं सोया था, तो छोटा काका मेरी बैसाखी लेकर उसे काट दिए। यह मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि उन्होंने जानकर नहीं काटा। खैर मेरी एक बैसाखी के दो टुकड़े हो गए। किसी तरह उससे चल रहा था। अंत में वह भी टूट गई। घर में इतने पैसे नहीं थे कि तुरंत बैसाखी खरीदा जाए। इस कारण एक बैसाखी से ही चलने की कोशिश करने लगा। स्कूल जाते समय एक छोर से छोटी बहन का हाथ पकड़ लेता था और दूसरी तरफ बैसाखी रहती थी। यह सिलसिला लगभग एक वर्ष तक चला। बाद में ऐसा हुआ कि दो बैसाखी रहने के बावजूद मैं एक ही बैसाखी पर चलने लगा और आज तक जारी है। परोक्ष रूप से चाचा ने मेरा उपकार ही किया। यदि वे इस तरह की नादानी नहीं करते,तो आज मैं यह सब लिखने के काबिल नहीं होता। एक बैसाखी से मुझे यह फायदा हुआ कि मैं औरों की तरह किताब और कॉपी लेकर चल सकता था। पहले पीठ पर किताब लेने पड़ते थे। क्योंकि दोनों हाथ में बैसाखी था। जिस तरह दशरथ राम को वनवास भेजकर राम को भगवान बना दिए, उसी तरह मेरे चाचा ने बैसाखी काटकर अनजाने में ही मेरा बहुत बड़ा उपकार कर गए। उसी समय मुझे यह भी विश्वास हुआ कि अभ्यास से कुछ भी हासिल किया जा सकता है। यदि दो बैसाीखी से चलता, तो... इस कल्पना से ही रूह कांप उठती है।
बदला नजारा, बदली हवा
उस समय मैं हीन भावना से ग्रस्त हो गया था और यह समझ बैठा था कि जिंदगी की गाड़ी इसी तरह से चलती रहेगी। चुनापुर के संतोष झा क्लास में फस्र्ट करता था। उस समय उससे आंख मिलाने की ताकत मुझमें नहीं थी। वह आया और मुझे समझाया कि तुम मेरी तरह बन सकते हो, मैंने हंसते हुए कहा कि यह संभव नहीं है। यदि तुम साफ-सुथरे कपड़े और पढ़ाई में बेहतर करते हो, तो तुम्हारे पास भी लोग बैठने लगेंगे। एक ही कपड़ा होने की वजह से साफ-सुथरा कपड़ा तो नहीं, लेकिन उस दिन से पढऩे में एक गजब का जुनून सवार हो गया। मैं खूब मेहनत करने लगा। जब परीक्षा के दिन आए, तो काफी परेशान थे। मुझे खुद पर विश्वास नहीं था। इस कारण परीक्षा हॉल में गांव के संतोष, पप्पू और मैं एक साथ बैठा। पप्पू उम्र में हमलोगों से बड़ा था। इस कारण वह हमें एक कुंजिका दिया और बोला कि इसे छिपाकर रख दो। मैंने वैसा ही किया। प्रश्नपत्र देने से पहले टीचर ने सभी स्टूडेंट्स को धमकाया कि यदि किसी के पास कुछ भी है, तो दे दो, वरना पकड़े जाने पर परीक्षा हॉल से बाहर निकाल दिए जाओगे। कभी भी परीक्षा में नकल नहीं किया था। इस कारण काफी डर गया और उसकी किताब निकालकर टीचर को दे दिया। संतोष भी कुछ रखा था, लेकिन वह नहीं दिया। गुस्से से वे दोनों हमारे पास से अलग बैठ गए और हमें अपनी हाल पर छोड़ दिया। मैं अंदर ही अंदर काफी डर गया। अंत में किसी तरह की सहायता मिलते न देखकर स्वयं को विश्वास में लिया और परीक्षा में लिखने लगा। एक भी नकल नहीं किया और मेरे रोल नंबर छलांग लगाते हुए तीन पर आ गया। यह आपको फिल्म की तरह लग रहा हो, लेकिन हकीकत यही था। इससे मेरा आत्मविश्वास काफी बढ़ गया और मैं भी आगे में सभी दोस्तों के साथ बैठने लगा। मेरे न चाहते हुए भी आगे की सीट पर मेरे सिवा किसी की हिम्मत नहीं होती थी बैठने की।
पहले की अपेक्षा काफी कुछ समझने लगा था। मेरा रोल नंबर 21 था। घर का माहौल ऐसा था कि रोज स्कूल जाने की आदत पड़ गई। किताब और बोरा लेकर नियमित आने लगा। उस समय स्कूल में नीचे में ही बैठना पड़ता था। इस कारण सभी लोग बैठने के लिए बोरा या पन्नी लाते थे। जो अमीर थे, वे पन्नी लाते थे और शेष बोरा लाते थे। उस समय अनुभव यह हुआ कि क्लास में बिना पढ़े प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण नहीं हुआ जा सकता है। यह बात मैं अच्छी तरह समझ लिया था। लेकिन न जाने चाहकर भी पढ़ाई में मन नहीं लगता था। स्कूल से रोज यही सोचकर निकलता कि कल से खूब पढ़ूंगा, लेकिन घर जाते ही स्कूल की बातें भूल जाता था। आर्थिक स्थिति खराब होने की वजह से कपड़े भी ढंग के नहीं थे। पहनने के लिए एक पेंट और एक शर्ट था। उस समय गंजी भी नहीं था। स्कूल और घर में उसी को पहनता रहता था। इस कारण वह काफी गंदा हो जाता था। नंगा ही नहाता था उस समय। शर्म शब्द पता नहीं था और न ही इसकी अनुभूति ही हो रही थी। शारीरिक रूप से अक्षम आग में घी का काम कर रहा था। नाक से नेटा और मुंह से लार टपकना रोज की आदत बन गई थी। इन सब विशेषताओं के कारण मेरे पास कोई भी स्टूडेंट्स नहीं बैठता था। मैं भी स्वयं को उससे अलग समझ अकेला ही बैठता था। साथ में मेरे गांव के दो स्टूडेंट्स संतोष और पप्पू थे। वे लोग कभी मेरे पास तो कभी उन लोगों के पास बैठते थे। यही दोनों वास्तव में मेरे स्कूल और घर के दोस्त थे। घर में पप्पू का छोटा भाई पिंटू भी मिल जाता था। पढऩे में कोई भी तेज नहीं था। पारिवारिक माहौल की वजह से मैं ही इनमें से बीस था। लेकिन इस तरह का अनुभव उस समय नहीं हुआ था। पप्पू उम्र में काफी बड़ा था। इस कारण वह हम दोनों को बेवकूफ बनाता रहता था और हमलोग अनजाने में बनते रहते थे। उस समय किताब की कुंजी रखना घर में जरूरी नहीं समझा जाता था। इस कारण मेरे पास किताब ही थे। उस किताब की हालत आज के फुटपाथ बच्चे की कपड़े से की जा सकती है। कहने का आशय यह है कि दो महीने में में ही किताब के एक-एक पन्ने गायब हो रहे थे और शुरू और अंत के दो तीन अध्याय नहीं रहते थे। कुछ तो अपनी लापरवाही और कुछ शुरू से पुरानी किताब मिलने की वजह से यह स्थिति हो जाती थी। उस समय हमसे जो सीनियर स्टूडेंट्स थे, वे अपनी किताब आधी दाम में बेचते थे और हमलोग खरीदते थे। यदि संयोग से नई किताब मिल जाती थी, तो उसका पन्ना अधिक रहता था। लेकिन जब पापा पढ़ाते थे और बीच से पेज गायब रहता था, तो मार भी खानी पड़ती थी। पुरानी किताब पर तो बहाना चल जाता था, लेकिन नई किताब में बचने का कोई विकल्प नहीं रहता था।
दाय की विदाई
उस समय मां को बहुत अधिक नहीं जानता था और उनसे प्रेम भी कम ही करता था। कारण यह था कि मैं हमेशा अपनी बड़ी बहन यानी कि दाय के पास ही सोता, उठता और बैठता था। मैं उस पर पूरा अधिकार रखता था। यदि वह बिना कहे कहीं चली जाती थी, तो उनके बगैर खूब रोता था। यही कारण था कि हम दोनों हमेशा साथ-साथ रहते थे। कब से उनके साथ मैं रह रहा था, यह तो मैं नहीं जानता। लेकिन मां बोल रही थी कि बेहतर केयर की वजह से बचपन से ही मैं उनके साथ रह रहा था। मां के अनुसार दाय को काम में मन नहीं लगने की वजह से हमें सौंप दिया गया था। लेकिन अनजाने में ही हम दोनों का प्रेम इतना बढ़ गया कि एक दूसरे के बिना एक पल भी रहना मुश्किल हो रहा था। उस समय दाय को छोड़कर मैं किसी के साथ नहीं रहना चाहता था। वह हमेशा ही मेरा केयर करती रहती थी। मैं उन्हें काफी परेशान करता था, लेकिन वह हमें कभी-कभी मारती थी। उनके साथ गांव घूमता रहता था। उस समय तक मैं पति और पत्नी का मतलब नहीं जानता था। यही कारण था कि जब दाय के पति यानी आचार्य जी आते थे, तो मैं उनके साथ ही सोने की जिद करता और घरवाले उनसे अलग सोने के लिए दबाव डालते थे। इस मामले में हमेशा मेरी ही जीत होती थी। उस समय मैं काफी जिद्दी था। यह मुझे आभास हो गया था। इस कारण बाद में इसका काफी फायदा उठाया। घरवाले लाचार होकर मेरी बात मानते गए और मैं जिद्दी बनता गया। इससे मेरा दुस्साहस बढ़ता गया और घर में जो चाहता था, वही करता था। यदि कभी मेरा पहला औजार काम नहीं करता था, तो दूसरा औजार यानी कि भूख हड़ताल पर उतर जाता था। सभी को दया आ जाती थी और मेरी बात मान ली जाती थी। स्वयं को विजयी देखकर इस मामले में और भी दृढ़ होता गया। मेरी हिम्मत बढ़ती गई और घरवाले की परेशानी भी।
जब मैं बेहोश हो गया
मुझे ठीक तरह से याद नहीं है कि मैं क्यों घरवाले से खफा था। लेकिन यह याद जरूर है कि मैं दो दिनों तक घरवाले के लाख समझाने के बावजूद खाना नहीं खाया था। उस समय पास में पैसे भी नहीं रहते थे। मॉर्निंग स्कूल था। इस कारण सुबह उठकर स्कूल चला गया। सोचा कि ग्यारह बजे तक तो भूखा रह ही जाऊंगा। आठ बजे के लगभग एकाएक जोरों से नींद आने लगी। धीरे-धीरे आंख को बंद करने लगा और भूख से बेहोश हो गया। कब हम घर आए, पता नहीं चला। जब मेरी आंखें खुली, तो मां के गोद में था और मां कुछ खिला रही थी। उस समय यह जाना कि बिना खाना खाए बेहोश भी हुआ जा सकता है। उस दिन से रूठा तो बहुत, लेकिन न खाने की वजह से बेहोश नहीं हुआ।
दाय रात को अंधेरे में रो रही है। इस तरह की घटना दो चार दिनों से रोज देखता था। घर में काफी चहल-पहल थी। मां दाय को विदाई करने के लिए व्यवस्था कर रही थी। परसों दाय का द्विरागमन यानी कि गौना था। इस कारण वह रो रही थी। मुझे कोई भी कुछ भी बताने के लिए तैयार नहीं था। अंत में मुझे पता चला कि दाय परसों के बाद यहां नहीं रहेगी। यह सुनते ही मैं परेशान हो गया और रोने लगा। अंत में घरवाले दाय के साथ मुझे उनके ससुराल भेज दिए। वहां मैं एक महीने रहा और खूब मजे किया। आते वक्त दाय रो रही थी और मैं काफी खुश था। खुशी का कारण यह था कि मुझे नया कपड़ा मिलनेवाला था। कपड़े की खुशी में मैं दाय को भूल गया। वैसे भी एक महीने रहने के बाद मुझे उनसे दूरी बढ़ती गई और मैं पहले की अपेक्षा अधिक परिपक्व हो गया था। अपने घर आया और जहां तक मुझे याद है कि मैं उनके लिए कभी नहीं रोया। यह कैसे हुआ। अभी तक इसका उत्तर नहीं मिल पाया है। अभी भी यह मेरे लिए पहेली बनी हुई है।
जब मैं बन गया शाकाहारी
यह घटना भी इन्हीं वर्षों के दौरान घटी। घर में नुनू काका के अलावा बिनोद भैया ही वैष्णव थे। उस समय वैष्णव का कुछ अर्थ भी नहीं जानता था। पहले मैं रोज मछली खाता था। ऐसा मां कहती है। दिमाग पर जोर देने के बाद मुझे भी याद पड़ रहा है कि यदि गांव में कहीं भी मछली या मांस देख लेता, तो उसे खाने के बाद ही दम लेता था। कभी-कभी मां करछूल में मछली तलकर खिलाती थी। उस समय मछली के अलावा किसी और व्यंजन में स्वाद का दीवाना नहीं था। रात के आठ बजे आंगन में सोए हुए थे और नुनू काका रामायण पढ़ रहे थे। रामायण सुनाते हुए बोले कि जो मांस-मछली खाएगा, उसे चौसठ जन्मों तक गिद्ध ही रहना पड़ेगा। उस समय जीवन के प्रति सकारात्मक सोच था। मरने के नाम से ही परेशान हो जाता था। याद है मुझे कि सोते वक्त मैं और मेरी छोटी बहन यह कल्पना कर रहे थे कि यदि भगवान आते हैं और एक वरदान मांगने के लिए कहते हैं, तो क्या मांगोगी? उसका उत्तर तो याद नहीं है, लेकिन मुझे यह अच्छी तरह से पता है कि मैंने भगवान से यह मांगा था कि मैं जिंदगी भर अमर रहूं। भले ही अब इस बात पर हंसी आती है, लेकिन हकीकत यही थी। गिद्ध वाली बात मेरे मन में बैठ गई और निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी। उसी समय निश्चय किया कि आज से मांस नहीं खाऊंगा। बचपन से ही वचन के प्रति ईमानदार था और जो वचन के पक्के थे, उन्हें काफी आदर भी करता था। यह अभी तक जारी है। यही कारण है कि इसमें ढिलाई बरतनेवाले लोगों से मैं काफी दूर रहता हूं। चाहे वह सगा-संबंधी ही क्यों न हो। एक बार वैष्णव बनने के बाद कभी भी मांस-मछली नहीं खाया। घरवाले काफी दबाव दिए, लेकिन निर्णय पर अडिग रहा। जब मछली देखकर खाने की हुईएक दिन घर में मछली बना था। देखने के साथ ही लार टपकने लगा। निश्चय किया कि रात को चुराकर अवश्य खाऊंगा। आधी रात को उठकर जैसे ही खाने की कोशिश करने लगा कि रात के अंधेरे में दिल से आवाज आई कि तुम अपने मां-बाप से छिपकर खा सकते हो, लेकिन भगवान देख रहा है। मैंने मछली जहां से उठाया, वहीं रख दिया। उस दिन से कभी भी प्रयास नहीं किया। धीरे-धीरे स्वाद भी भूल गया हूं। अब जब बड़ा हुआ हूं, तो उसे देखकर दया आती है। इस कारण खाने की इच्छा नहीं हो रही है। लाचारी बनी ताकत
दरवाजे पर सोया हुआ था। दोपहर का समय था। एकाएक मां मुझे डांट रही थी और मैं जागकर कुछ समझने की कोशिश कर रहा था। बात समझने में देर नहीं लगी। हुआ यूं कि जब मैं सोया था, तो छोटा काका मेरी बैसाखी लेकर उसे काट दिए। यह मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि उन्होंने जानकर नहीं काटा। खैर मेरी एक बैसाखी के दो टुकड़े हो गए। किसी तरह उससे चल रहा था। अंत में वह भी टूट गई। घर में इतने पैसे नहीं थे कि तुरंत बैसाखी खरीदा जाए। इस कारण एक बैसाखी से ही चलने की कोशिश करने लगा। स्कूल जाते समय एक छोर से छोटी बहन का हाथ पकड़ लेता था और दूसरी तरफ बैसाखी रहती थी। यह सिलसिला लगभग एक वर्ष तक चला। बाद में ऐसा हुआ कि दो बैसाखी रहने के बावजूद मैं एक ही बैसाखी पर चलने लगा और आज तक जारी है। परोक्ष रूप से चाचा ने मेरा उपकार ही किया। यदि वे इस तरह की नादानी नहीं करते,तो आज मैं यह सब लिखने के काबिल नहीं होता। एक बैसाखी से मुझे यह फायदा हुआ कि मैं औरों की तरह किताब और कॉपी लेकर चल सकता था। पहले पीठ पर किताब लेने पड़ते थे। क्योंकि दोनों हाथ में बैसाखी था। जिस तरह दशरथ राम को वनवास भेजकर राम को भगवान बना दिए, उसी तरह मेरे चाचा ने बैसाखी काटकर अनजाने में ही मेरा बहुत बड़ा उपकार कर गए। उसी समय मुझे यह भी विश्वास हुआ कि अभ्यास से कुछ भी हासिल किया जा सकता है। यदि दो बैसाीखी से चलता, तो... इस कल्पना से ही रूह कांप उठती है।
बदला नजारा, बदली हवा
उस समय मैं हीन भावना से ग्रस्त हो गया था और यह समझ बैठा था कि जिंदगी की गाड़ी इसी तरह से चलती रहेगी। चुनापुर के संतोष झा क्लास में फस्र्ट करता था। उस समय उससे आंख मिलाने की ताकत मुझमें नहीं थी। वह आया और मुझे समझाया कि तुम मेरी तरह बन सकते हो, मैंने हंसते हुए कहा कि यह संभव नहीं है। यदि तुम साफ-सुथरे कपड़े और पढ़ाई में बेहतर करते हो, तो तुम्हारे पास भी लोग बैठने लगेंगे। एक ही कपड़ा होने की वजह से साफ-सुथरा कपड़ा तो नहीं, लेकिन उस दिन से पढऩे में एक गजब का जुनून सवार हो गया। मैं खूब मेहनत करने लगा। जब परीक्षा के दिन आए, तो काफी परेशान थे। मुझे खुद पर विश्वास नहीं था। इस कारण परीक्षा हॉल में गांव के संतोष, पप्पू और मैं एक साथ बैठा। पप्पू उम्र में हमलोगों से बड़ा था। इस कारण वह हमें एक कुंजिका दिया और बोला कि इसे छिपाकर रख दो। मैंने वैसा ही किया। प्रश्नपत्र देने से पहले टीचर ने सभी स्टूडेंट्स को धमकाया कि यदि किसी के पास कुछ भी है, तो दे दो, वरना पकड़े जाने पर परीक्षा हॉल से बाहर निकाल दिए जाओगे। कभी भी परीक्षा में नकल नहीं किया था। इस कारण काफी डर गया और उसकी किताब निकालकर टीचर को दे दिया। संतोष भी कुछ रखा था, लेकिन वह नहीं दिया। गुस्से से वे दोनों हमारे पास से अलग बैठ गए और हमें अपनी हाल पर छोड़ दिया। मैं अंदर ही अंदर काफी डर गया। अंत में किसी तरह की सहायता मिलते न देखकर स्वयं को विश्वास में लिया और परीक्षा में लिखने लगा। एक भी नकल नहीं किया और मेरे रोल नंबर छलांग लगाते हुए तीन पर आ गया। यह आपको फिल्म की तरह लग रहा हो, लेकिन हकीकत यही था। इससे मेरा आत्मविश्वास काफी बढ़ गया और मैं भी आगे में सभी दोस्तों के साथ बैठने लगा। मेरे न चाहते हुए भी आगे की सीट पर मेरे सिवा किसी की हिम्मत नहीं होती थी बैठने की।
गुरुवार, 28 जनवरी 2010
मैं और मेरा जीवन
जब मारा पहली बॉल पर छक्का
मुझे पढ़ाई में कभी भी मन नहीं लगता था। हमेशा खेलने और प्रमोद भैया से लडऩे में ही समय जाया हो जाता था। जिंदगी मजे में चल रही थी कि एक दिन परीक्षा सिर आ गई। क्लास कभी नहीं गया था। एकाएक परीक्षा देने पहुंच गया। चलने में लाचार था। इस कारण लाल भैया अपने कंधे पर मुझे स्कूल ले गए और परीक्षा हॉल में बैठा दिए। उस समय जहां तक मुझे याद है कि प्रश्न में क्या लिखा था, मुझे कुछ भी पता नहीं है। लेकिन टीचर सभी को एक दोहा लिखने के लिए कह रहे थे। मुझे अपने क्लास के सभी दोहे याद थे, लेकिन लिखने का अभ्यास नहीं था। इस कारण मैं रोने लगा। टीचर हमें कुछ भी लिखने के लिए कह रहे थे। अपना नाम और वर्ग किसी तरह लिख ही रहा था कि रोशनाई कॉपी पर गिर गई। मेरे भैया बाहर से देख रहे थे। उसे टीचर भगा रहे थे और वे किसी तरह वहां खड़े थे। बाद में उन्होंने काफी मेहनत के बाद अंदर मुझे लेने के लिए दाखिल हुए और पंद्रह मिनट में कॉपी भर दिए। उस समय तक मुझे कुछ भी पता नहीं था। जब एक महीने के बाद भैया स्कूल से आए, तो सभी लोग मुझे शाबासी दे रहे थे। क्योंकि मैं अपने वर्ग में प्रथम आया था। याद है मुझे उस समय की घटना, जब हम और भी पढ़ाई नहीं करने लगे। मुझे यह विश्वास हो गया था कि फिर मैं ही प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होऊंगा। उस समय न चल पाने के बावजूद मेरे पैर आसमान में थे। सच कहिए, तो उसी समय से मुझे सहारे की अहमियत मालूम हुई और मुझे लगने लगा कि अपने परिवार की बदौलत आसमान में उड़ा जा सकता है। लेकिन यह अधिक दिनों तक नहीं रही।
सेकेंड बॉल पर बोल्ड
जब सेकेंड क्लास में गया, तो पता चला कि मुझे कुछ भी नहीं आता है, जो कि सही आकलन था। आत्मविश्वास इतना गिर गया कि मैंने पढऩा ही छोड़ दिया। घर में दबाव की वजह से जो कुछ पढ़ता था, बस वही था। इस बार की परीक्षा में भैया नहीं थे। इस कारण हमें ही लिखना पड़ा। जो कुछ भी जानता था, उसे लिख दिया। रिजल्ट के पीछे यह धारणा अभी भी बनी हुई थी कि फस्र्ट नहीं, तो सेकेंड अवश्य आऊंगा। उस समय रिजल्ट निकलने से पहले स्कूल में बांस और झाड़ू देना पड़ता था। इससे अधिक माक्र्स मिलते थे। पहली बार इस उत्साह से अपने बांस बाड़ी गया स्वयं बांस काटने। मुझसे नहीं कटी बांस। मुझे यह सीख मिली कि जो देखने में बड़ा होता है, उसे काटना उतना ही मुश्किल होता है। खैर बांस और झाड़ू स्कूल मेेें पहुंचाया। रिजल्ट के दिन सभी स्टूडेंट्स को बुलाया गया। सभी क्लास से उन तीन नामों को बताया गया, जो प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी से उत्तीर्ण थे। मेरा नाम किसी में नहीं था। काफी दुख हुआ मुझे उस समय। प्रमोद भैया का नाम सुनकर मुझे और भी दुख हुआ। क्योंकि हमें यही डर था कि घर जाने पर वे सभी को बताएंगे और अपनी शेखी बघारेंगे। दुखी होकर मैं टीचर के पास गया और पूछा कि मास्टर साहब हम पास नहीं कर पाए हैं। उस समय रिजल्ट का अहमियत मालूम हुआ और उसका दबाव भी पता चला। टीचर भावुक होकर सभी के सामने बोले कि विजय झा भी पास कर गया है। उस समय का बालमन इतना भी समझ नहीं पाया कि वे हमें उत्साह बढ़ाने के लिए झूठ बोल रहे हैं। एकाएक मेरा दिमाग बदल गया और अपने दो साथियों का नाम न सुनकर उन्हें पढऩे के लिए नसीहत देने लगा। प्रमोद भैया हमें डांटते हुए बोले कि तुम भी तो पास नहीं हुए हो। मैं तपाक से बोला कि आपकी तरह मेरा भी नाम पुकारा गया है। हम दोनों में इस तरह की बहस एक दिन में तीन चार बार अवश्य हो जाया करती थी। छोटे होने का हम हमेशा फायदा उठाते और वे गलती न रहने के बावजूद हमेशा पीटते रहते। जब अनजाने में नाटक सीखाएक रात हम दोनों भाई पढ़ रहे थे। हम दोनों को पढऩे में मन नहीं लग रहा था। पढ़ाई छोड़कर उनके सामने रोने का एक्टिंग कर रहा था। रोने की एक्टिंग में ऐसा खो गया कि रोने की आवाज घर से बाहर पहुंच गई और लाल भैया दौड़ते हुए हमलोगों को देखने के लिए आ ही रहे थे कि मैं उन्हें देखकर सही में रोने लगा। संयोग से आंसू भी टपकने लगे। भैया ने जब रोने का करण पूछा, तो मैं प्रमोद भाई का नाम लगा दिया और बोला कि वे हमें मार रहे थे। वे हतप्रभ थे। उस समय वे कुछ भी उत्तर नहीं दे पा रहे थे। लाल भैया उन्हें मार रहे थे और बेचारा बिना मारे ही मार खा रहा था। उस समय पहली बार उन पर तरस आया और अपने आप में यह विश्वास जागा कि परिस्थितियां आने पर इस तरह के नाटक से बचा जा सकता है। बाद में इसका काफी उपयोग किया।
केले की रोटी
घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। पापा टीचर थे। हम पांच भाई और बहन थे। पापा के सिवा कोई कमानेवाला नहीं था। तीन बहनों की शादी हो चुकी थी। परिवार काफी बड़ा था। सिर्फ दो बड़ी बहने और बड़े भैया घर में नहीं थे। घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं था। मां किसी तरह सभी भाई-बहनों को बहला रही थी। दो दिनों से खाना में उबला हुआ आलू ही खा रहे थे। भाई-बहनों में मैं सबसे ज्यादा शरारती था। जहां तक मुझे याद है कि उस समय मुझे यही पता चला कि घर में खाने के लिए आलू के सिवा कुछ भी नहीं है, बस मैं रोना शुरू कर दिया कि मुझे रोटी चाहिए। मां परेशान हो गई, लेकिन कुछ कर भी नहीं सकती थी। पापा महीने में एक बार घर आते थे और दूसरे दिन विदा हो जाते थे। उस समय इतने कर्ज थे कि मुश्किल से खाने के लिए पैसा बचता था। खाना मिलते न देख मैं रोने लगा। अंत में मां ने रोटी बनाई और हमें खिलाई। तब जाकर शांत हुआ। उस समय किसकी रोटी बनाई गई थी, मुझे पता नहीं था। जब बड़ा हुआ, तो मां बताई कि घर में कुछ न देखकर कच्चा केला को उबालकर उसी की रोटी बनाई और तुम्हें शांत किया। उस दिन जब भी उबला हुआ आलू और केला देखता हूं, तो पुरानी यादें ताजा हो जाती है।
आज के परिप्रेक्ष्य में
जब पुरानी घटना को आज के परिप्रेक्ष्य में देखता हूं, तो लगता है कि पिताजी कितने महान थे कि अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़कर नौकरी करते थे और अपनी जिंदगी अपने बच्चे में बिता दिए। आज के मां-बाप इस तरह कर सकते हैं? यदि मां-बाप अपने बच्चे के लिए इस तरह के कार्य कर भी लें, तो औरत अपने बच्चे के लिए इतना त्याग कर सकती है। हम खुशनसीब हैं कि हमें इस तरह के पैरेंट्स नसीब हुए हैं। फिर स्वयं को देखता हूं, तो और भी परेशान हो जाता हूं। अपने बचपन के व्यवहार को देखकर मैं यह कह सकता हूं कि इस तरह के शरारती बच्चे को कम से कम मैं नहीं झेल सकता। मुझे यह भी सीख मिली कि सहारे की डोर पकड़कर आप जीवन की सफर तय नहीं कर सकते हैं। इस तरह के सहारे जीवन में कभी-कभी मिलते हैं। जो इन सहारा का सदुपयोग करते हैं, उन्हें कभी भी कठिनाइयां नहीं आती है। इस अनुभव का मैंने बाद में उपयोग किया और आज अनुभव का फायदा उठाकर इस मामले में खुश हूं। फिर सोचता हूं कि क्या आज के बच्चे को इस तरह ठगा जा सकता है?
मुझे पढ़ाई में कभी भी मन नहीं लगता था। हमेशा खेलने और प्रमोद भैया से लडऩे में ही समय जाया हो जाता था। जिंदगी मजे में चल रही थी कि एक दिन परीक्षा सिर आ गई। क्लास कभी नहीं गया था। एकाएक परीक्षा देने पहुंच गया। चलने में लाचार था। इस कारण लाल भैया अपने कंधे पर मुझे स्कूल ले गए और परीक्षा हॉल में बैठा दिए। उस समय जहां तक मुझे याद है कि प्रश्न में क्या लिखा था, मुझे कुछ भी पता नहीं है। लेकिन टीचर सभी को एक दोहा लिखने के लिए कह रहे थे। मुझे अपने क्लास के सभी दोहे याद थे, लेकिन लिखने का अभ्यास नहीं था। इस कारण मैं रोने लगा। टीचर हमें कुछ भी लिखने के लिए कह रहे थे। अपना नाम और वर्ग किसी तरह लिख ही रहा था कि रोशनाई कॉपी पर गिर गई। मेरे भैया बाहर से देख रहे थे। उसे टीचर भगा रहे थे और वे किसी तरह वहां खड़े थे। बाद में उन्होंने काफी मेहनत के बाद अंदर मुझे लेने के लिए दाखिल हुए और पंद्रह मिनट में कॉपी भर दिए। उस समय तक मुझे कुछ भी पता नहीं था। जब एक महीने के बाद भैया स्कूल से आए, तो सभी लोग मुझे शाबासी दे रहे थे। क्योंकि मैं अपने वर्ग में प्रथम आया था। याद है मुझे उस समय की घटना, जब हम और भी पढ़ाई नहीं करने लगे। मुझे यह विश्वास हो गया था कि फिर मैं ही प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होऊंगा। उस समय न चल पाने के बावजूद मेरे पैर आसमान में थे। सच कहिए, तो उसी समय से मुझे सहारे की अहमियत मालूम हुई और मुझे लगने लगा कि अपने परिवार की बदौलत आसमान में उड़ा जा सकता है। लेकिन यह अधिक दिनों तक नहीं रही।
सेकेंड बॉल पर बोल्ड
जब सेकेंड क्लास में गया, तो पता चला कि मुझे कुछ भी नहीं आता है, जो कि सही आकलन था। आत्मविश्वास इतना गिर गया कि मैंने पढऩा ही छोड़ दिया। घर में दबाव की वजह से जो कुछ पढ़ता था, बस वही था। इस बार की परीक्षा में भैया नहीं थे। इस कारण हमें ही लिखना पड़ा। जो कुछ भी जानता था, उसे लिख दिया। रिजल्ट के पीछे यह धारणा अभी भी बनी हुई थी कि फस्र्ट नहीं, तो सेकेंड अवश्य आऊंगा। उस समय रिजल्ट निकलने से पहले स्कूल में बांस और झाड़ू देना पड़ता था। इससे अधिक माक्र्स मिलते थे। पहली बार इस उत्साह से अपने बांस बाड़ी गया स्वयं बांस काटने। मुझसे नहीं कटी बांस। मुझे यह सीख मिली कि जो देखने में बड़ा होता है, उसे काटना उतना ही मुश्किल होता है। खैर बांस और झाड़ू स्कूल मेेें पहुंचाया। रिजल्ट के दिन सभी स्टूडेंट्स को बुलाया गया। सभी क्लास से उन तीन नामों को बताया गया, जो प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी से उत्तीर्ण थे। मेरा नाम किसी में नहीं था। काफी दुख हुआ मुझे उस समय। प्रमोद भैया का नाम सुनकर मुझे और भी दुख हुआ। क्योंकि हमें यही डर था कि घर जाने पर वे सभी को बताएंगे और अपनी शेखी बघारेंगे। दुखी होकर मैं टीचर के पास गया और पूछा कि मास्टर साहब हम पास नहीं कर पाए हैं। उस समय रिजल्ट का अहमियत मालूम हुआ और उसका दबाव भी पता चला। टीचर भावुक होकर सभी के सामने बोले कि विजय झा भी पास कर गया है। उस समय का बालमन इतना भी समझ नहीं पाया कि वे हमें उत्साह बढ़ाने के लिए झूठ बोल रहे हैं। एकाएक मेरा दिमाग बदल गया और अपने दो साथियों का नाम न सुनकर उन्हें पढऩे के लिए नसीहत देने लगा। प्रमोद भैया हमें डांटते हुए बोले कि तुम भी तो पास नहीं हुए हो। मैं तपाक से बोला कि आपकी तरह मेरा भी नाम पुकारा गया है। हम दोनों में इस तरह की बहस एक दिन में तीन चार बार अवश्य हो जाया करती थी। छोटे होने का हम हमेशा फायदा उठाते और वे गलती न रहने के बावजूद हमेशा पीटते रहते। जब अनजाने में नाटक सीखाएक रात हम दोनों भाई पढ़ रहे थे। हम दोनों को पढऩे में मन नहीं लग रहा था। पढ़ाई छोड़कर उनके सामने रोने का एक्टिंग कर रहा था। रोने की एक्टिंग में ऐसा खो गया कि रोने की आवाज घर से बाहर पहुंच गई और लाल भैया दौड़ते हुए हमलोगों को देखने के लिए आ ही रहे थे कि मैं उन्हें देखकर सही में रोने लगा। संयोग से आंसू भी टपकने लगे। भैया ने जब रोने का करण पूछा, तो मैं प्रमोद भाई का नाम लगा दिया और बोला कि वे हमें मार रहे थे। वे हतप्रभ थे। उस समय वे कुछ भी उत्तर नहीं दे पा रहे थे। लाल भैया उन्हें मार रहे थे और बेचारा बिना मारे ही मार खा रहा था। उस समय पहली बार उन पर तरस आया और अपने आप में यह विश्वास जागा कि परिस्थितियां आने पर इस तरह के नाटक से बचा जा सकता है। बाद में इसका काफी उपयोग किया।
केले की रोटी
घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। पापा टीचर थे। हम पांच भाई और बहन थे। पापा के सिवा कोई कमानेवाला नहीं था। तीन बहनों की शादी हो चुकी थी। परिवार काफी बड़ा था। सिर्फ दो बड़ी बहने और बड़े भैया घर में नहीं थे। घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं था। मां किसी तरह सभी भाई-बहनों को बहला रही थी। दो दिनों से खाना में उबला हुआ आलू ही खा रहे थे। भाई-बहनों में मैं सबसे ज्यादा शरारती था। जहां तक मुझे याद है कि उस समय मुझे यही पता चला कि घर में खाने के लिए आलू के सिवा कुछ भी नहीं है, बस मैं रोना शुरू कर दिया कि मुझे रोटी चाहिए। मां परेशान हो गई, लेकिन कुछ कर भी नहीं सकती थी। पापा महीने में एक बार घर आते थे और दूसरे दिन विदा हो जाते थे। उस समय इतने कर्ज थे कि मुश्किल से खाने के लिए पैसा बचता था। खाना मिलते न देख मैं रोने लगा। अंत में मां ने रोटी बनाई और हमें खिलाई। तब जाकर शांत हुआ। उस समय किसकी रोटी बनाई गई थी, मुझे पता नहीं था। जब बड़ा हुआ, तो मां बताई कि घर में कुछ न देखकर कच्चा केला को उबालकर उसी की रोटी बनाई और तुम्हें शांत किया। उस दिन जब भी उबला हुआ आलू और केला देखता हूं, तो पुरानी यादें ताजा हो जाती है।
आज के परिप्रेक्ष्य में
जब पुरानी घटना को आज के परिप्रेक्ष्य में देखता हूं, तो लगता है कि पिताजी कितने महान थे कि अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़कर नौकरी करते थे और अपनी जिंदगी अपने बच्चे में बिता दिए। आज के मां-बाप इस तरह कर सकते हैं? यदि मां-बाप अपने बच्चे के लिए इस तरह के कार्य कर भी लें, तो औरत अपने बच्चे के लिए इतना त्याग कर सकती है। हम खुशनसीब हैं कि हमें इस तरह के पैरेंट्स नसीब हुए हैं। फिर स्वयं को देखता हूं, तो और भी परेशान हो जाता हूं। अपने बचपन के व्यवहार को देखकर मैं यह कह सकता हूं कि इस तरह के शरारती बच्चे को कम से कम मैं नहीं झेल सकता। मुझे यह भी सीख मिली कि सहारे की डोर पकड़कर आप जीवन की सफर तय नहीं कर सकते हैं। इस तरह के सहारे जीवन में कभी-कभी मिलते हैं। जो इन सहारा का सदुपयोग करते हैं, उन्हें कभी भी कठिनाइयां नहीं आती है। इस अनुभव का मैंने बाद में उपयोग किया और आज अनुभव का फायदा उठाकर इस मामले में खुश हूं। फिर सोचता हूं कि क्या आज के बच्चे को इस तरह ठगा जा सकता है?
सोमवार, 25 जनवरी 2010
बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया
लोग हमें कामयाब समझकर खुश हो रहे थे और मेरी तरह बनने के लिए कह रहे थे, तो मैं कामयाबी का अर्थ समझ रहा था और बर्बादियों का जश्न मनाने में मशगूल था।
उस समय अक्सर मैं भ्रम में रहता था कि आदमी खुशी और कामयाबी में से किसे वरीयता दे? जब बच्चा था, तो पापा यही बताए थे कि यदि तुम अपने उद्देश्यों में कामयाब हो जाओ, तो खुशियां अपने आप आ जाएगीं। पापा ही नहीं, टीचर और अन्य सभी लोग भी यही कहते थे। इस कारण उस समय संदेह की गुंजाइश ही नहीं थी। उस समय कामयाबी एक सपना था, तो खुशी हकीकत। मुझे याद है कि उस समय मैं छोटी-छोटी चीज मिलने पर भी काफी खुश हो जाता था। उस समय मुझे यह पता नहीं था कि यही स्वर्णिम समय है खुशी पाने का। कामयाब व्यक्ति को देखकर अनेक तरह की कल्पना करता रहता था उस समय। कामयाब बनने के लिए दिनरात लग गया अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में। मेहनत का नतीजा या किस्मत कहिए कि लगभग पच्चीस की उम्र में देश के प्रतिष्ठित अखबार में नौकरी भी मिल गई। उस दिन काफी खुश था इसे पाकर। मुझे लगा कि अब हमें खुशियां ही खुशियां मिलेगी। याद है मुझे कि जब नौकरी मिली थी, तो गांव के सभी लोग काफी खुश थे। मैं भी उन लोगों के बदले व्यवहार से खुश था। मुझे लगा कि मंजिल मिल गई। अब सिर्फ परमानेेंट खुशियां आनी हंै।
सपना हो न सका अपना
नौकरी के दूसरे दिन से ही सपना देखना शुरू कर दिया। हर रोज वही ऑफिस और बॉस का मनहूस चेहरा। ऑफिस में उनका चेहरा देखना लाचारी था, लेकिन कमबख्त रात के अंधेरे में भी वही ऑफिस और बॉस सपने में दिखाई दे रहा था। एक बार लाइट जलाकर सो गया, तो नींद में सपने देखने लगा। मुझे लगा कि शायद लाइट का फायदा उठाकर वे हमारे कमरे में घुस गए हों। इस कारण उस दिन से लाइट बंद करके सोता हूं। लेकिन सपना आना बंद नहीं हुआ। लोग हमें देखकर काफी खुश थे और परिवार वाले की अपेक्षा मुझ पर बढ़ गई थी। लेकिन उस समय मेरी हालत न भागा जाए है हमसे और न ठहरा जाए है हमसे जैसी थी। यदि मैं नौकरी छोड़ता तो लोगों की नजरों में नाकामयाब कहलाने का डर था। इसकी संभावना मात्र से ही रूह कांप उठती थी। इसके विपरीत नौकरी में रहकर अंदर से और कमजोर हो रहा था। उस समय मुझे यह अहसास दिलाया गया कि मुझे कुछ भी नहीं आता है। इससे काफी परेशान हो गया। एक सीनियर ने हमें बताया कि इस तरह की स्थिति हर नए लोगों के साथ होती है। तुम अपवाद नहीं हो। विश्वास तो नहीं हुआ, लेकिन दिलासा के लिए न मानने के सिवा कोई और विकल्प नहीं था। उस समय खुशी शब्द ही भूल गया। स्वयं को एक लाश के समान समझता था। दुनिया हमें खुशनसीब और कामयाब समझ रही थी। और हम कामयाबी का मतलब धीरे-धीरे समझ रहे थे। वक्त का एक-एक लम्हा काटना मुश्किल हो रहा था। इस आशा से काम करता जा रहा था कि सब कुछ सीखने के बाद खुशियां ही खुशियां आएंगी। उसी समय सही अर्थों में कामयाब कहलाऊंगा। लेकिन अब पता चला कि आदमी कभी भी पूर्ण नहीं होता है, उसे हर दिन सीखने पड़ते हैं। स्वयं को दिलासा देने के लिए उन सभी लोगों से मिला, जिन्हें मेरे साथ सभी लोग कामयाब कहते हैं। उनसे संबंध बढ़ाया और दिल की बात जानने की कोशिश की। लेकिन कहीं भी कामयाब व्यक्ति को अपनी जिंदगी से खुश नहीं देखा। इसके विपरीत वे हमसे ज्यादा तनाव में थे। जब सत्यम के सीईओ को जेल जाने की खबर पढ़ी, तो पक्का विश्वास हो गया कि कामयाबी और खुशी एक साथ कभी नहीं मिल सकती है।
यदि आप कामयाब हो रहे हैं, तो कुछ पलों के लिए खुशियां अवश्य आएंगी और फिर विलुप्त हो जाएगी। खुशी पाने के लिए फिर से कामयाब होना पड़ेगा। यह जिंदगी में अनवरत जारी रहेगी। अब मैं यह समझ रहा हूं कि कामयाबी का कोई अंत नहीं है। खुशियां भी इन्हीं पीछे-पीछे चलती है। यदि आपको सही में खुश रहना है, तो संतुष्टï होना पड़ेगा। यदि आप संतुष्टï हैं, तो जिंदगी की गाड़ी के पहिए भले ही लोगों की नजर में पंक्चर है, लेकिन यह तय है कि उसी गाड़ी से आप जिंदगी का नैया पार लगा लेंगे। जबसे मुझे इस बात का अहसास हुआ है, तब से काफी खुश हूं। भले ही आप मुझे कायर समझिए, अब कामयाबी के लिए मैं नहीं दौड़ सकता।
उस समय अक्सर मैं भ्रम में रहता था कि आदमी खुशी और कामयाबी में से किसे वरीयता दे? जब बच्चा था, तो पापा यही बताए थे कि यदि तुम अपने उद्देश्यों में कामयाब हो जाओ, तो खुशियां अपने आप आ जाएगीं। पापा ही नहीं, टीचर और अन्य सभी लोग भी यही कहते थे। इस कारण उस समय संदेह की गुंजाइश ही नहीं थी। उस समय कामयाबी एक सपना था, तो खुशी हकीकत। मुझे याद है कि उस समय मैं छोटी-छोटी चीज मिलने पर भी काफी खुश हो जाता था। उस समय मुझे यह पता नहीं था कि यही स्वर्णिम समय है खुशी पाने का। कामयाब व्यक्ति को देखकर अनेक तरह की कल्पना करता रहता था उस समय। कामयाब बनने के लिए दिनरात लग गया अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में। मेहनत का नतीजा या किस्मत कहिए कि लगभग पच्चीस की उम्र में देश के प्रतिष्ठित अखबार में नौकरी भी मिल गई। उस दिन काफी खुश था इसे पाकर। मुझे लगा कि अब हमें खुशियां ही खुशियां मिलेगी। याद है मुझे कि जब नौकरी मिली थी, तो गांव के सभी लोग काफी खुश थे। मैं भी उन लोगों के बदले व्यवहार से खुश था। मुझे लगा कि मंजिल मिल गई। अब सिर्फ परमानेेंट खुशियां आनी हंै।
सपना हो न सका अपना
नौकरी के दूसरे दिन से ही सपना देखना शुरू कर दिया। हर रोज वही ऑफिस और बॉस का मनहूस चेहरा। ऑफिस में उनका चेहरा देखना लाचारी था, लेकिन कमबख्त रात के अंधेरे में भी वही ऑफिस और बॉस सपने में दिखाई दे रहा था। एक बार लाइट जलाकर सो गया, तो नींद में सपने देखने लगा। मुझे लगा कि शायद लाइट का फायदा उठाकर वे हमारे कमरे में घुस गए हों। इस कारण उस दिन से लाइट बंद करके सोता हूं। लेकिन सपना आना बंद नहीं हुआ। लोग हमें देखकर काफी खुश थे और परिवार वाले की अपेक्षा मुझ पर बढ़ गई थी। लेकिन उस समय मेरी हालत न भागा जाए है हमसे और न ठहरा जाए है हमसे जैसी थी। यदि मैं नौकरी छोड़ता तो लोगों की नजरों में नाकामयाब कहलाने का डर था। इसकी संभावना मात्र से ही रूह कांप उठती थी। इसके विपरीत नौकरी में रहकर अंदर से और कमजोर हो रहा था। उस समय मुझे यह अहसास दिलाया गया कि मुझे कुछ भी नहीं आता है। इससे काफी परेशान हो गया। एक सीनियर ने हमें बताया कि इस तरह की स्थिति हर नए लोगों के साथ होती है। तुम अपवाद नहीं हो। विश्वास तो नहीं हुआ, लेकिन दिलासा के लिए न मानने के सिवा कोई और विकल्प नहीं था। उस समय खुशी शब्द ही भूल गया। स्वयं को एक लाश के समान समझता था। दुनिया हमें खुशनसीब और कामयाब समझ रही थी। और हम कामयाबी का मतलब धीरे-धीरे समझ रहे थे। वक्त का एक-एक लम्हा काटना मुश्किल हो रहा था। इस आशा से काम करता जा रहा था कि सब कुछ सीखने के बाद खुशियां ही खुशियां आएंगी। उसी समय सही अर्थों में कामयाब कहलाऊंगा। लेकिन अब पता चला कि आदमी कभी भी पूर्ण नहीं होता है, उसे हर दिन सीखने पड़ते हैं। स्वयं को दिलासा देने के लिए उन सभी लोगों से मिला, जिन्हें मेरे साथ सभी लोग कामयाब कहते हैं। उनसे संबंध बढ़ाया और दिल की बात जानने की कोशिश की। लेकिन कहीं भी कामयाब व्यक्ति को अपनी जिंदगी से खुश नहीं देखा। इसके विपरीत वे हमसे ज्यादा तनाव में थे। जब सत्यम के सीईओ को जेल जाने की खबर पढ़ी, तो पक्का विश्वास हो गया कि कामयाबी और खुशी एक साथ कभी नहीं मिल सकती है।
यदि आप कामयाब हो रहे हैं, तो कुछ पलों के लिए खुशियां अवश्य आएंगी और फिर विलुप्त हो जाएगी। खुशी पाने के लिए फिर से कामयाब होना पड़ेगा। यह जिंदगी में अनवरत जारी रहेगी। अब मैं यह समझ रहा हूं कि कामयाबी का कोई अंत नहीं है। खुशियां भी इन्हीं पीछे-पीछे चलती है। यदि आपको सही में खुश रहना है, तो संतुष्टï होना पड़ेगा। यदि आप संतुष्टï हैं, तो जिंदगी की गाड़ी के पहिए भले ही लोगों की नजर में पंक्चर है, लेकिन यह तय है कि उसी गाड़ी से आप जिंदगी का नैया पार लगा लेंगे। जबसे मुझे इस बात का अहसास हुआ है, तब से काफी खुश हूं। भले ही आप मुझे कायर समझिए, अब कामयाबी के लिए मैं नहीं दौड़ सकता।
शुक्रवार, 22 जनवरी 2010
जब मुझे प्रेमचंद पर गुस्सा आया
बचपन में हमलोग लताम (अमरूद) बहुत ही चुराते थे। इसके चलते कितनी ही बार डांट और मार पड़ चुकी थी। गांव में लताम बाबा के यहां बहुत लताम था। इस कारण उसे लताम बाबा कहते थे। एक दिन गलती से मैं उनके चंगुल में फंस गया और वे काफी पीटे थे। यह बात मैं घर में इस कारण नहीं बताया कि भैया और भी मारते। उस दिन कसम खाई थी कि बड़ा होने पर इसका बदला अवश्य लूंगा। लेकिन यह क्या जब मौका मिला, तो मैं उन्हें देखकर रोने लगा।
हुआ यूं कि रोड पर शाम को पांच दोस्त बातें कर रहे थे। अंधेरा था। उन पांचों में से एक मैं भी था। उस समय लगभग सात बज रहे होंगे। ठंड भी ज्यादा थी। सभी लोग घर में थे। रोड पर हमलोगों के अलावा अंधेरा और कभी-कभी गाडिय़ां चल रही थीं। देहात में शाम सात बजे बस भी नहीं चलती है। हमलोग बात कर ही रहे थे कि किसी के गिरने की आवाज आई। आवाज से हमलोग चौंके और दौड़े। वहां जाने के बाद पता चला कि लताम बाबा दूध लेकर आ रहे थे, और अंधेरे में गिर पड़े। देखते ही मुझे बचपन की यादें तरोताजा हो गई लेकिन उनकी हालत देखकर कलेजा मुंह को आ गया। बदला लेने की भावनाएं भी मर गई। उन्हें कहा कि क्या जरूरत है आपको इस उम्र में भी दूध लाने की। यदि अंधेरे में गए ही थे, तो टॉर्च तो साथ में ले लिए होते। इस पर वह कुछ नहीं बोले और चलते बने। चोट उन्हें जोर से लगी थी। मुझे लगा कि कल वे डॉक्टर से दिखा लेंगे।
दूसरे दिन जब उनके घर गया, तो उनकी पतोहू उन्हें गालियां दे रही थी। सुनने में यहां तक आया कि वह मारती भी है। उस समय चेतावनी दे रही थी कि इस बार गलती होने पर आपका खाना ही बंद कर दिया जाएगा। लताम बाबा हमें देख रहे थे और मैं कल रात की घटना याद कर रहा था। मुझे लगा कि शायद उन्हें कल वाली घटना न बताई गई हो। उन्हें बताने ही जा रहा था कि उनका पोता बोला कि देखिए इस बूढ़े के चक्कर में मां आज ब्राह्मण को नहीं खिला पाई। बाबा रात को दूध ही गिरा दिए। इसलिए मां गुस्सा कर रही है। इस पर अपने बच्चे की हां में हां मिलाते हुए वह बोली कि हे भगवान, मेरा न खिलाने का सभी पाप इन्हें ही लग जाना। मैं यही सोचने लगा कि यह कौन सा धर्म है। फिर दरिद्रनारायण की कहानी याद आ गई, जिसमें भगवान को खुश करने के लिए दूर दूर से लोग आ रहे है। चढावे में पैसे के साथ ही बहुमूल्य उपहार भी दे रहे हैं। लेकिन फिर भी उन्हें भगवान का आशीर्वाद नहीं मिल रहा है, क्योंकि वे लोग जिसे भीखारी सझकर लात मार रहे थे, असल में भगवान वहीं दरिद्रनारयण का रूप लेकर थे। उस रात नहीं सोया और जब अपनी मां से इस संबंध में बात की, तो वह बोली कि बेचारे की यही हालत हर दिन होती है। सिर्फ एक पापी पेट पालने के लिए उन्हें यह करना पड़ता है। जबकि एक समय उनकी तूती बोलती थी और गांव वाले काफी इज्जत करते थे। कुछ वर्षों के बाद घर गया तो मां बोली कि आज भोज है, क्योंकि लताम बाबा मर गए हैं। मुझे उस समय प्रेमचंद की कफन कहानी याद आ गई। यह कहानी प्रेमचंद कब लिखे थे, हमें पता नहीं है, लेकिन आज हालात वही है, लेकिन पात्र और तरीका बदल गया है। आज के पढ़े-लिखे बुजुर्ग के पास पैसे हैं, तो उन्हें प्यार करने वाला और देखने वाला कोई नहीं है। कफन कहानी में दारू की भट्टी पर खाते हुए बाप-बेटा यह कह रहा था कि वह मरी भी तो खूब खिला-पिलाकर। आज गांव वाले भी परोक्ष रूप से यही कह रहे होंगे। क्योंकि खाना बहुत ही स्वादिष्ट बना था। फिर जब पता चला कि उसकी पतौहू पढ़ी-लिखी है, तो प्रेमचंद पर काफी गुस्सा आया कि शायद कफन से ही वह इस तरह के कार्य करने के लिए प्रेरित हुई होगी। मुझसे रहा नहीं गया और उनसे इस बारे में पूछा, तो वह बताई कि
कफन पढऩे के बाद मैं बहुत रोई थी। बेचारी औरत भूखे और प्यासे मर गई। उसके ससुर और पति मौज कर रहे थे। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। कोई भी औरत इस तरह की हालत बर्दास्त नहीं कर सकती है। वहां सुनने वाले उन्हें शाबाशी दे रहे थे, तो हमारी आत्मा यह कह रही थी कि तुम्हारा भी तो तरीका बेहतर नहीं था। प्रेमचंद के कहानी लिखने का तो उद्देश्य यह नहीं था। वह तो समाज को सीख देना चाहते थे, न कि किसी और से बदला लेने के लिए। सच कहिए तो लताम बाबा की दुर्दशा और पतोहू के व्यवहार को देखकर हमें प्रेमचंद पर काफी गुस्सा आ रहा है।
हुआ यूं कि रोड पर शाम को पांच दोस्त बातें कर रहे थे। अंधेरा था। उन पांचों में से एक मैं भी था। उस समय लगभग सात बज रहे होंगे। ठंड भी ज्यादा थी। सभी लोग घर में थे। रोड पर हमलोगों के अलावा अंधेरा और कभी-कभी गाडिय़ां चल रही थीं। देहात में शाम सात बजे बस भी नहीं चलती है। हमलोग बात कर ही रहे थे कि किसी के गिरने की आवाज आई। आवाज से हमलोग चौंके और दौड़े। वहां जाने के बाद पता चला कि लताम बाबा दूध लेकर आ रहे थे, और अंधेरे में गिर पड़े। देखते ही मुझे बचपन की यादें तरोताजा हो गई लेकिन उनकी हालत देखकर कलेजा मुंह को आ गया। बदला लेने की भावनाएं भी मर गई। उन्हें कहा कि क्या जरूरत है आपको इस उम्र में भी दूध लाने की। यदि अंधेरे में गए ही थे, तो टॉर्च तो साथ में ले लिए होते। इस पर वह कुछ नहीं बोले और चलते बने। चोट उन्हें जोर से लगी थी। मुझे लगा कि कल वे डॉक्टर से दिखा लेंगे।
दूसरे दिन जब उनके घर गया, तो उनकी पतोहू उन्हें गालियां दे रही थी। सुनने में यहां तक आया कि वह मारती भी है। उस समय चेतावनी दे रही थी कि इस बार गलती होने पर आपका खाना ही बंद कर दिया जाएगा। लताम बाबा हमें देख रहे थे और मैं कल रात की घटना याद कर रहा था। मुझे लगा कि शायद उन्हें कल वाली घटना न बताई गई हो। उन्हें बताने ही जा रहा था कि उनका पोता बोला कि देखिए इस बूढ़े के चक्कर में मां आज ब्राह्मण को नहीं खिला पाई। बाबा रात को दूध ही गिरा दिए। इसलिए मां गुस्सा कर रही है। इस पर अपने बच्चे की हां में हां मिलाते हुए वह बोली कि हे भगवान, मेरा न खिलाने का सभी पाप इन्हें ही लग जाना। मैं यही सोचने लगा कि यह कौन सा धर्म है। फिर दरिद्रनारायण की कहानी याद आ गई, जिसमें भगवान को खुश करने के लिए दूर दूर से लोग आ रहे है। चढावे में पैसे के साथ ही बहुमूल्य उपहार भी दे रहे हैं। लेकिन फिर भी उन्हें भगवान का आशीर्वाद नहीं मिल रहा है, क्योंकि वे लोग जिसे भीखारी सझकर लात मार रहे थे, असल में भगवान वहीं दरिद्रनारयण का रूप लेकर थे। उस रात नहीं सोया और जब अपनी मां से इस संबंध में बात की, तो वह बोली कि बेचारे की यही हालत हर दिन होती है। सिर्फ एक पापी पेट पालने के लिए उन्हें यह करना पड़ता है। जबकि एक समय उनकी तूती बोलती थी और गांव वाले काफी इज्जत करते थे। कुछ वर्षों के बाद घर गया तो मां बोली कि आज भोज है, क्योंकि लताम बाबा मर गए हैं। मुझे उस समय प्रेमचंद की कफन कहानी याद आ गई। यह कहानी प्रेमचंद कब लिखे थे, हमें पता नहीं है, लेकिन आज हालात वही है, लेकिन पात्र और तरीका बदल गया है। आज के पढ़े-लिखे बुजुर्ग के पास पैसे हैं, तो उन्हें प्यार करने वाला और देखने वाला कोई नहीं है। कफन कहानी में दारू की भट्टी पर खाते हुए बाप-बेटा यह कह रहा था कि वह मरी भी तो खूब खिला-पिलाकर। आज गांव वाले भी परोक्ष रूप से यही कह रहे होंगे। क्योंकि खाना बहुत ही स्वादिष्ट बना था। फिर जब पता चला कि उसकी पतौहू पढ़ी-लिखी है, तो प्रेमचंद पर काफी गुस्सा आया कि शायद कफन से ही वह इस तरह के कार्य करने के लिए प्रेरित हुई होगी। मुझसे रहा नहीं गया और उनसे इस बारे में पूछा, तो वह बताई कि
कफन पढऩे के बाद मैं बहुत रोई थी। बेचारी औरत भूखे और प्यासे मर गई। उसके ससुर और पति मौज कर रहे थे। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। कोई भी औरत इस तरह की हालत बर्दास्त नहीं कर सकती है। वहां सुनने वाले उन्हें शाबाशी दे रहे थे, तो हमारी आत्मा यह कह रही थी कि तुम्हारा भी तो तरीका बेहतर नहीं था। प्रेमचंद के कहानी लिखने का तो उद्देश्य यह नहीं था। वह तो समाज को सीख देना चाहते थे, न कि किसी और से बदला लेने के लिए। सच कहिए तो लताम बाबा की दुर्दशा और पतोहू के व्यवहार को देखकर हमें प्रेमचंद पर काफी गुस्सा आ रहा है।
शुक्रवार, 15 जनवरी 2010
तिल खाने से तेल हो जाएगा
कल मकर संक्रान्ति थी। सभी लोग काफी खुश थे। मैं भी उनमें से एक था। अखबार में नौकरी करता हूं। इस कारण ऑफिस में छुट्टïी नहीं थी। घर से निकलने में दुख भी नहीं हो रहा था। क्योंकि मैडम यहां नहीं हैं। रास्ते में आते वक्त सोचने लगा कि एक औरत के रहने से जिंदगी कैसे बदल जाती है। क्योंकि उसी समय याद आ गई वह पुरानी घटना, जिस समय मेरी पत्नी काफी दुखी होकर हमें ऑफिस के लिए विदा कर रही थी। उस दिन दशहरा था। इस कारण हमें छुट्टïी नहीं थी। उस दिन हमें भी आने में काफी दुख हुआ था और आज उसके न होने से ही हालात बदल गए हैं। क्या उसके न होने का इतना बड़ा फर्क पड़ता है? अब हमारी खुशी उसी पर अवलंबित हो गई है? यह सोच ही रहा था कि मोबाइल की घंटी बजी और रौब से बोली कि कल आप किसी के यहां तिल तो नहीं खा लिए थे? मैं प्रश्न से हैरान था। फिर भी बात बढ़ाते हुए पूछा कि खाने से तिलचट्टïा बन जाऊंगा। नहीं, लेकिन नहीं खाना चाहिए। क्योंकि आज के दिन जिस किसी का तिल खाएंगे, उसी के हो जाएंगे। आइडिया मजेदार लगा। लेकिन दुख यह था कि हमें कोई भी तिल खाने के लिए नहीं बुलाया। लेकिन यह प्रश्न अभी भी हास्यास्पद लग रहा है कि ऐसा होता है? यदि ऐसा होता तो बचपन में उसकी मां के तिल तो खूब चुराके खाया था, लेकिन नहीं वह हमारी बन पाई और न ही उसकी मां की टेढ़ी नजर सीधी हुई। काश तिल में ऐसी शक्ति होती तो आजतक उसकी भक्ति में लगा रहता और और...। फिर सोचने लगा कि तिल खिलाकर बॉस को अपने पाले में कर लेता, बहुत सारी संपत्ति अपने नाम कर लेता और और बहुत कुछ कर लेता। फिर दादी की बात याद आई कि वह भी हमलोगों को तिल खिलाती थी और हमें यह वचन देना पड़ता था कि हम आपके बने रहेंगे। लेकिन वे पहले हमें धोखा दीं और इस संसार से चल बसीं। वैसे भी जिंदा रहती तो दुखी ही रहती। क्योंकि हमारे पड़ोसी की मां भी अपने बच्चे को तिल खिलाकर यही वचन कह रही थी और वे भी निभाने का वादा कर रहे थे। अभी हालात ये हैं कि वह भूखी मर रही है और बेटे को देखने के लिए टाइम नहीं है। इस संबंध में मां से जब पूछा तो मां ने बताई कि वह आज ही तिल खिलाने के लिए आई थी और वही वचन दोहरा रही थी। क्या विश्वास इतना सख्त होता है कि हालात भी उन्हें नहीं डिगा सकता? तभी तो देश के अंदर ही इंडियाऔर भारत है। एक तरफ सर्दी में खास तरह की व्यवस्था की जाती है और लोग कड़ाके की सर्दी आने का इंतजार करते हैं, ताकि जिंदगी का लुत्फ उठाया जा सके। दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें खाना तो दूर, पहनने के लिए एक कपड़े तक नहीं हैं। यदि रोड या पुल के किनारे वे अपना बसेरा बनाए भी हैं, तो सरकार की टेढ़ी नजर है और सौंदर्य के नाम पर उन्हें घर से बेघर करके मरने के लिए छोड़ दिया गया है। लेकिन फिर भी वे आपका तिल नहीं खाएंगे। भले ही उन्हें भूख है। आप इस पर हंसिए या आश्चर्य व्यक्त किजिए। हमारे भारत में हकीकत यही है। तभी तो भारत को विविधता का देश कहा जाता है।
सोमवार, 11 जनवरी 2010
सीरत बदल गई है तो हैरत न कीजिए
सीरत बदल गई है, तो हैरत न कीजिए
हम हादसों के शहर में रहते हैं दोस्तो।
आज हर दिल्लीवाले के जुबान पर यही शेर है और इसका पालन भी कर रहे हैं। तभी तो अंधे को उस पार ले जानेवाला कोई नहीं मिला। हुआ यूं कि रोज की तरह आज भी शाम को ऑफिस से घर जा रहा था। ऑटो पकडऩे के लिए रोड पार करना पड़ता है। वहां रेड लाइट नहीं है। इस कारण सभी लोग जान जोखिम में डालकर ही उस पार होते हैं। मैं उस पार होने के लिए लगभग दस मिनट से खड़ा था, लेकिन गाड़ी के वेग को देखते हुए उस पार जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। अपनी कमजोरी पर गुस्सा भी आ रहा था और भगवान से गुस्सा भी कर रहा था। मैं वहां खड़ा होकर सोचने लगा कि क्या यही जिंदगी है? एक तरफ बीमारी न आए, इसके लिए पहले से ही दवाई की जाती है और यहां न चाहकर भी सभी अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं। गाड़ी तभी रुकती है, जब लोग उसके आगे खड़े हो जाते हैं। वैसे भी यह दुनिया किसी की नहीं है। हां, तो मैं बात कर था कि दस मिनट से हम उस पार जाने के लिए सोच रहे थे और हर बार हमारी हिम्मत जवाब दे देती थी। उसी समय एक सुरदास जी आए और उन्होंने भी उस पार जाने के लिए लोगों से निवेदन किया। बहुत लोग तो उनकी बात पर ध्यान ही नहीं दिए। मैं भी उनमें से एक था। हो सकता है कि सभी को कुछ न कुछ लाचारी रही हो, लेकिन मेरी लाचारी यह है कि मैं खुद बैसाखी से चल रहा हूं। इस कारण अपनी जान को तो जोखिम में डाल तो सकता हूं, लेकिन दूसरे की जान को जोखिम में नहीं डाल सकता। क्या मेरी तरह वे लोग भी यही सोचते हैं? लेकिन वे तो मेरी तरह लाचार नहीं हैं। अंत में देखा कि कोई भी उसे उस पार तक नहीं पहुंचाया। कुछ देर बाद देखा कि वे खुद हिम्मत बांधकर पार होने लगे। उधर से गाड़ी आ रही थी। इस कारण मैंने उन्हें रोका। वे हम पर बहुत गुस्साए और बोले कि क्यों रोकते हो हमें? मैंने कहा कि गाड़ी आ रही थी। इस कारण रोका। शायद आप .... हो जाते। दुखी मन से वे बोले कि दोस्त यहां के लोगों को देखकर तो जीने की इच्छा भी मर गई है। हमें होने देते उस पार। दोनों मेरे हित में होता। अगर मैं मर जाता तो भी उस पार यानी कि धरती से ऊपर चला जाता और यदि बच जाता तो भी उस पार यानी कि अपना घर पहुंच जाता। अंत में मैंने उसे अपनी रिस्क पर उस पार पहुंचाने का निर्णय लिया। सभी लोग हम दोनों की जोड़ी को देखकर हंस रहे थे और मुस्कुराकर उस पार हो रहे थे। फिर मैं भी सोचने लगा कि अपनी जिंदगी बचाने के लिए ही तो हम रोज दस मिनट इसी में जाया करते हैं। काश यहां भी रेड लाइट होती तो यह दिन नहीं देखने पड़ते। अभी तक यही लोगों से सुना है कि यदि खुद संकट में हो, तो दूसरे की जान को संकट में नहीं डालना चाहिए। मैं उन्हें लेकर उस पार चला गया। क्या मैं गलत किया? मैं यह सोचकर काफी परेशान हूं कि यदि ऊपर के पंक्ति सही हैं, तो इस आधार पर मैं गलत हूं, लेकिन यदि मानवता के हित में देखें, तो शायद आप भी शब्दों की परवाह न करते हुए भावनाओं को तवज्जो देते और वही करते जो मैंने किया है। फिर अंतर्मन से आवाज आई कि यदि हमलोगों में संवेदनाएं होती, तो उस अंधे को तुम्हारी जरूरत क्यों पड़ती। तुम भी इसलिए ऐसा किए कि तुम्हारे पास दस मिनट का समय था। हादसों के इस शहर में दस मिनट में या तो मेट्रो पकड़कर नोएडा से दिल्ली पहुंचा जा सकता है या दुर्घटना में अल्ला के प्यारे हुआ जा सकता है। अब तुम्ही बताओ कि आजकल तुम्हारी तरह किसके पास दस मिनट का समय है। समयाभाव के कारण ही तो अपने से सभी अलग रहना चाहता है। अपने लोगों के लिए घर में भी समय नहीं है। यह तो दिल्ली की रोड है, जहां रोज आंख वाले मरते हैं, आज अंधा ही मर जाता तो कौन सा भूकंप आ जाता। आप ही बताइये न मैंने गलत किया?
हम हादसों के शहर में रहते हैं दोस्तो।
आज हर दिल्लीवाले के जुबान पर यही शेर है और इसका पालन भी कर रहे हैं। तभी तो अंधे को उस पार ले जानेवाला कोई नहीं मिला। हुआ यूं कि रोज की तरह आज भी शाम को ऑफिस से घर जा रहा था। ऑटो पकडऩे के लिए रोड पार करना पड़ता है। वहां रेड लाइट नहीं है। इस कारण सभी लोग जान जोखिम में डालकर ही उस पार होते हैं। मैं उस पार होने के लिए लगभग दस मिनट से खड़ा था, लेकिन गाड़ी के वेग को देखते हुए उस पार जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। अपनी कमजोरी पर गुस्सा भी आ रहा था और भगवान से गुस्सा भी कर रहा था। मैं वहां खड़ा होकर सोचने लगा कि क्या यही जिंदगी है? एक तरफ बीमारी न आए, इसके लिए पहले से ही दवाई की जाती है और यहां न चाहकर भी सभी अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं। गाड़ी तभी रुकती है, जब लोग उसके आगे खड़े हो जाते हैं। वैसे भी यह दुनिया किसी की नहीं है। हां, तो मैं बात कर था कि दस मिनट से हम उस पार जाने के लिए सोच रहे थे और हर बार हमारी हिम्मत जवाब दे देती थी। उसी समय एक सुरदास जी आए और उन्होंने भी उस पार जाने के लिए लोगों से निवेदन किया। बहुत लोग तो उनकी बात पर ध्यान ही नहीं दिए। मैं भी उनमें से एक था। हो सकता है कि सभी को कुछ न कुछ लाचारी रही हो, लेकिन मेरी लाचारी यह है कि मैं खुद बैसाखी से चल रहा हूं। इस कारण अपनी जान को तो जोखिम में डाल तो सकता हूं, लेकिन दूसरे की जान को जोखिम में नहीं डाल सकता। क्या मेरी तरह वे लोग भी यही सोचते हैं? लेकिन वे तो मेरी तरह लाचार नहीं हैं। अंत में देखा कि कोई भी उसे उस पार तक नहीं पहुंचाया। कुछ देर बाद देखा कि वे खुद हिम्मत बांधकर पार होने लगे। उधर से गाड़ी आ रही थी। इस कारण मैंने उन्हें रोका। वे हम पर बहुत गुस्साए और बोले कि क्यों रोकते हो हमें? मैंने कहा कि गाड़ी आ रही थी। इस कारण रोका। शायद आप .... हो जाते। दुखी मन से वे बोले कि दोस्त यहां के लोगों को देखकर तो जीने की इच्छा भी मर गई है। हमें होने देते उस पार। दोनों मेरे हित में होता। अगर मैं मर जाता तो भी उस पार यानी कि धरती से ऊपर चला जाता और यदि बच जाता तो भी उस पार यानी कि अपना घर पहुंच जाता। अंत में मैंने उसे अपनी रिस्क पर उस पार पहुंचाने का निर्णय लिया। सभी लोग हम दोनों की जोड़ी को देखकर हंस रहे थे और मुस्कुराकर उस पार हो रहे थे। फिर मैं भी सोचने लगा कि अपनी जिंदगी बचाने के लिए ही तो हम रोज दस मिनट इसी में जाया करते हैं। काश यहां भी रेड लाइट होती तो यह दिन नहीं देखने पड़ते। अभी तक यही लोगों से सुना है कि यदि खुद संकट में हो, तो दूसरे की जान को संकट में नहीं डालना चाहिए। मैं उन्हें लेकर उस पार चला गया। क्या मैं गलत किया? मैं यह सोचकर काफी परेशान हूं कि यदि ऊपर के पंक्ति सही हैं, तो इस आधार पर मैं गलत हूं, लेकिन यदि मानवता के हित में देखें, तो शायद आप भी शब्दों की परवाह न करते हुए भावनाओं को तवज्जो देते और वही करते जो मैंने किया है। फिर अंतर्मन से आवाज आई कि यदि हमलोगों में संवेदनाएं होती, तो उस अंधे को तुम्हारी जरूरत क्यों पड़ती। तुम भी इसलिए ऐसा किए कि तुम्हारे पास दस मिनट का समय था। हादसों के इस शहर में दस मिनट में या तो मेट्रो पकड़कर नोएडा से दिल्ली पहुंचा जा सकता है या दुर्घटना में अल्ला के प्यारे हुआ जा सकता है। अब तुम्ही बताओ कि आजकल तुम्हारी तरह किसके पास दस मिनट का समय है। समयाभाव के कारण ही तो अपने से सभी अलग रहना चाहता है। अपने लोगों के लिए घर में भी समय नहीं है। यह तो दिल्ली की रोड है, जहां रोज आंख वाले मरते हैं, आज अंधा ही मर जाता तो कौन सा भूकंप आ जाता। आप ही बताइये न मैंने गलत किया?
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