बुधवार, 23 नवंबर 2011

यूनीक आइडेंटीफिकेशन अथॉरिटी

 अमेरिका की दो नामी शिक्षण संस्थाओं से पढ़कर आए और नंदन निलेकनी के नेतृत्व में यूनीक आइडेंटीफिकेशन अथॉरिटी से जुड़कर काम कर रहे तुषार वशिष्ठ और मैथ्यू चेरियन भारत में योजना आयोग द्वारा पेश की गई आधिकारिक परिभाषा से इतने (अ)प्रभावित हुए कि उन्होंने 32 रुपये रोजाना के खर्च में कुछ दिन गुजारने का फैसला कर लिया।

इस देश में सदियों से गरीबों पर प्रयोग होते रहे हैं, लेकिन हाल में ही गरीबी पर किया गया प्रयोग अपने आप में विशिष्ट और देश के राजनेताओं, नौकरशाहों के सामने एक नजीर पेश करने वाला है। अमेरिका की दो नामी शिक्षण संस्थाओं से पढ़कर आए और नंदन निलेकनी के नेतृत्व में यूनीक आइडेंटीफिकेशन अथॉरिटी से जुड़कर काम कर रहे तुषार वशिष्ठ और मैथ्यू चेरियन भारत में योजना आयोग द्वारा पेश की गई आधिकारिक परिभाषा से इतने (अ)प्रभावित हुए कि उन्होंने 32 रुपये रोजाना के खर्च में कुछ दिन गुजारने का फैसला कर लिया। सरकार ने शहर में 32 और गांव में 26 रुपये वाली जो गरीबी रेखा निर्धारित की है उसके संदर्भ में देश की इन दो मेधावी शख्सियतों ने व्यावहारिक परीक्षण करके देखा कि 26 या 32 रुपये प्रतिदिन में क्या एक नागरिक अपनी गुजर-बसर कर भी सकता है? इनका यह अद्वितीय प्रयोग पांच हफ्तों तक चला। अपनी जरूरतों में कटौती करने के उपरांत पहले हफ्ते में ये इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि शहर में डेढ़ सौ रुपये प्रतिदिन से कम में एक व्यक्ति जीवन गुजार ही नहीं कर सकता। फिर दो हफ्तों के लिए इन दोनों ने अपने खर्चो में और कटौती की तो भी खर्चा सौ रुपये प्रतिदिन रहा। इन्होंने निष्कर्ष निकाला कि सौ रुपये रोज पर जीवन गुजारना बहुत मजबूरी भरा काम है। इसके बाद अगले दो हफ्तों के लिए इन्होंने अपने सभी खर्चो में कटौती कर दी और 32 रुपयों में जिंदा रहकर दिखाया। निष्कर्ष यह निकला कि शहरों में 32 रुपये में सिर्फ जिंदा रहने के लिए ही जिया जा सकता है। पांच हफ्तों के प्रयोग में इन्होंने यह जानने की कोशिश भी की कि गरीब लोग इससे भी कम आमदनी में कैसे जिंदा रहते होंगे? इनका अंतिम निष्कर्ष यह है कि इंसान घनघोर गरीबी में भी जैसे-तैसे जीवित रह लेता है, पर उसकी शारीरिक और मानसिक ताकत इतनी कम हो जाती है कि खुद या अपने परिवार को गरीबी से निजात दिलाने के बारे में वह सोच भी नहीं पाता। इन्होंने अपने अनुभव से बताया कि शहरों में गरीबी की रेखा 120 से 150 रुपये रोज की आय पर निर्धारित होनी चाहिए तो गांवों में 90 से 110 रुपये के बीच। सरकार इनकी यह सिफारिश तो मानने से रही, पर इन्होंने जो किया है वह सराहनीय है। काश, हमारे देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलूवालिया भी कोई ऐसा ही प्रयोग करके देखते तो शायद समझ पाते कि गरीबी है क्या? मैं तो यह कहता हूं कि व्यावहारिक यह होगा कि इस रिपोर्ट को बनाने वाले सभी योजना आयोग के सदस्यों को 965 रुपये देकर कहा जाए कि आप सब लोग इन रुपयों पर कम से कम एक महीना गुजर-बसर करके दिखाएं। अगर संभव हो तो इस रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करने वाले योजना आयोग के अध्यक्ष हमारे माननीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी इसी तरह व्यावहारिक रूप से एक बार शहर या गांव में इतने ही रुपयों में रहने को कहा जाए। तब इन लोगों को समझ में आएगा कि रिपोर्ट बनाने और वास्तविक जीवन जीने में कितना फर्क है। यह देश की विडंबना है कि इतने बड़े अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के होते हुए भी और इतनी चरम महंगाई को देखते हुए भी योजना आयोग द्वारा इस तरह कि रिपोर्ट बनाया गया। यह तो सरासर गरीब और गरीबों के साथ मजाक है । गरीबी पर किया गया यह प्रयोग आपने आप में बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इस प्रयोग को ऐसे दो लोगों ने किया जिन्होंने अपनी शिक्षा भी अमेरिका से प्राप्त की है। यह लोग काफी धनाड्य और साधन संपन्न भी हैं। यह उन लोगों के लिए एक नजीर है जो पांच सितारा होटलों के वातानुकूलित कमरों में बैठकर गरीबों पर रिपोर्ट बनाते हैं और उसे सही ठहराने के लिए अपना तर्क भी देते हैं। गरीबी पर अध्ययन के लिए कई देशो की यात्राएं की जाती हैं और उन पर करोड़ों रुपये खर्च किए जाते हैं। योजना आयोग ने महंगाई के बढ़ते बोझ से गरीबों की नई परिभाषा बनाई है। गांव में गरीब का घर रोजाना 26 रुपये में चलाने की बात करने वाले योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया का विदेश यात्राओं का रोजाना औसत खर्च है 11354 रुपये। योजना आयोग ने एक आरटीआइ के जवाब में यह बताया कि अहलूवालिया ने पांच साल में जुलाई 2006 से जुलाई 2011 तक सरकारी खर्च पर 35 बार विदेश यात्रा पर गए। इन यात्राओं में उन पर कुल 2 करोड 4 लाख 36 हजार 825 रुपये का खर्च आया। रोजाना औसतन विदेश यात्रा पर 11354 रुपये खर्च करने वाले योजना आयोग के हमारे उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया आखिर गरीबों का दर्द समझें भी कैसे जबकि उन्हें इसका कोई अनुभव ही नहीं है और न ही वह ऐसा प्रयोग ही चाहते हैं। आज भारत विश्व की चौथे नंबर की अर्थव्यवस्था है। आज लगभग हर क्षेत्र में भारत अच्छी तरक्की कर रहा है। हमारी क्षमता का लोहा सारी दुनिया मान रही है, लेकिन इतनी तरक्की होने के बावजूद भारत आज भी गरीब राष्ट्रों में गिना जाता है तो इसके लिए आखिर दोष किसका है? आर्थिक तरक्की से जहां देश का अमीर वर्ग और भी अमीर हुआ है तो गरीब वर्ग लगातार गरीब होता जा रहा है। भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए गरीबी एक अभिशाप बनकर उभरी है। इसलिए राष्ट्रहित में यह आवश्यक है की गरीबी का पूर्ण उन्मूलन करने के लिए प्रयास किया जाए। आज जीडीपी के आंकड़े सिर्फ कागजों तक ही सीमित हैं। असल में तो आज भी झुग्गी झोपडी में रहने वाले लोग 40 से 50 रुपये रोजाना कमाते हैं। उनका जीवन स्तर काफी निम्न है। उन्हें दो वक्त की रोटी के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। देश की आधी से ज्यादा आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही है। इसलिए यह आवश्यक है कि इस गंभीर समस्या की तरफ सरकार का ध्यान आकर्षित किया जाए। तमाम वैश्विक संस्थाएं जैसे विश्व बैंक आदि भी निर्धनता दूर करने के लिए काफी मदद करते हैं, लेकिन वह मदद भ्रष्टाचार के कारण गरीबों तक नहीं पहुंच पाता। इस कारण उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। गरीबी से निपटने के लिए सबसे पहले सरकार को भ्रष्टाचार दूर करना पड़ेगा तभी सही मायने में गरीबी का उन्मूलन होगा। इसके लिए सरकार के साथ-साथ जनता का भी फर्ज बनता है कि अपनी कमाई का छोटा सा हिस्सा गरीबों को दें। तभी भारत सही मायने में विकसित देश बन सकेगा। हमारे देश में नेताओं और नौकरशाहों की संवेदनशीलता व जवाबदेही लगता है खत्म हो चुकी है नहीं तो इतनी शर्मनाक रिपोर्ट शायद ही आती जिसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है। वास्तव में इस रिपोर्ट का असली मकसद सस्ते दर पर वितरित किए जाने वाले अनाज की मात्रा को कम करना है। जब योजना आयोग के ऐसे इरादे हों तो फिर किसी को यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि जो खाद्य सुरक्षा विधेयक चर्चा में है, वह आम आदमी का भला करने वाला है।
शशांक द्विवेदी 

शनिवार, 19 नवंबर 2011

मैं अच्छा कैसे बन जाऊं, मैं अच्छाई से डरता हूँ....

मर्यादा जीवन भर पूजी, बदले मे वनवास मिला...
बड़ी सती थी जिसको कहते जग का तब उपहास मिला...
शिव का आधा अंग बनी, पर बदले मे थी आग मिली...
सत्यमूर्ति बन भटक रहा था, बुझी पुत्र की साँस मिली...

इंद्रिय सारी जीत चुका था, उसको पुत्र वियोग मिला...
विष प्याला उपहार मिला था कृष्ण भक्ति का जोग लिया...
दानवीर, आदर्श सखा, पर छल से था वो वधा गया...
ज्ञान मूर्ति इक संत का शव भी, था शैय्या पर पड़ा रहा...

धर्म हेतु उपदेश दिया पर पूरा वंश विनाश मिला...
हरि के थे जो मात पिता उनको क्यूँ कारावास मिला...
मात पिता का बड़ा भक्त था, बाणों का आघात हुआ...
ऐसे ही ना जाने कितने अच्छे जन का ह्रास हुआ....

थे ऐसे भी जो पाप कर्म की परिभाषा का अर्थ बने...
जो अच्छाई को धूल चटाते, धर्म अंत का गर्त बने...
जो अत्याचार मचाते थे, दूजो की पत्नी लाते थे...
वो ईश के हाथों मरते थे, फिर परम गति को पाते थे...

अब ये बतलाओ सत्य बोल मैं कौन सा सुख पा जाऊँगा...
मैं धर्म राह पे चला अगर,दुख कष्ट सदा ही पाऊँगा...
नाम अमरता नही चाहिए, चयन सुखों का करता हूँ...
मैं अच्छा कैसे बन जाऊं, मैं अच्छाई से डरता हूँ....

धर्म गुरुओं का लीप लॉक

  चुंबन से आत्‍मिक प्रेम बढेगा और धर्मगुरु एक दूसरे धर्म के बारे में गलत बातें कम फैलाएंगे। इसमें उन्‍हें कि‍सी  प्रकार की परेशानी भी नहीं होगी, क्‍योंक‍ि पुरुष धर्मगुरु दूसरे पुरुष के होठ चुसेंगे। लेकि‍न डर लगता है क‍ि यद‍ि बाबा रामदेव कि‍सी का होठ चुसेंगे, तो उन पर क्‍या गुजरेगी।  

आजकल सभी फि‍ल्‍मों में लीप लॉक अनि‍वार्य सा हो गया है। कोई भी फि‍ल्‍म इसके बि‍ना हि‍ट नहीं होती है। यह बात हमारे धर्म गुरु को भी अच्‍छी लगी। इस समय हालात ये हैं क‍ि उन्‍हें कोई भाव नहीं दे रहा है। अपनी चर्चा के लिए उन्‍होंने लीप लॉक का हि‍ट फि‍ल्‍मी फार्मूला अपनाया। यह सीन काफी हि‍ट रहा और  यूरोपीय देशों में एक इतालवी कंपनी के ' अनहेट ' सीरीज के विज्ञापन इधर कुछ ज्यादा ही चर्चा में हैं। इनमें एक - दूसरे से तीखी घृणा के लिए पहचाने जाने वाले लोगों को - जो प्राय : पुरुष ही हैं - फोटोशॉप के जरिये तैयार की गई नकली तस्वीरों में एक - दूसरे को होंठों पर चूमते दिखाया गया है। कुछेक पश्चिमी और कुछ अरबी समाजों में मुलाकात के वक्त गाल से गाल सटाने की परंपरा है। जब - तब भावातिरेक में लोग एक - दूसरे को गाल पर चूम लेते हैं , लेकिन होठों पर चुंबन का वहां एक स्पष्ट सांस्कृतिक संदर्भ है। ईसाई परंपरा में पति अपनी नवविवाहिता पत्नी को सार्वजनिक रूप से सिर्फ एक बार होंठों पर चूमता है। बाकी सभी संदर्भों में होठों पर चुंबन निजी दायरे की चीज समझी जाता है और इसे यौन संसर्ग के एक हिस्से की तरह देखा जाता है। स्वाभाविक था कि यूरोप में इस पूरी सीरीज पर , और खासकर इसकी उस तस्वीर पर तीखी प्रतिक्रिया देखी गई , जिसमें मौजूदा पोप को मिस्र के एक कट्टरपंथी मौलवी के साथ होंठ से होंठ मिलाए दिखाया गया था। लोगों के विरोध से विज्ञापन जारी करने वाली कंपनी बुरी तरह डर गई और उसने अनहेट सीरीज से इस तस्वीर को हटा देने का फैसला कर लिया। लेकिन इस सीरीज के बाकी सारे हिस्से आज भी ज्यों के त्यों हैं। विज्ञापन की नई थ्योरी में चर्चित होना ही सब कुछ समझा जाता है , भले ही चर्चा की वजह सही हो या गलत। लेकिन विज्ञापन बनाने वालों में सबसे ज्यादा शातिर लोग अपनी चर्चा के फॉर्म्युले में कोई फिलॉसफिकल एंगल भी जोड़ना चाहते हैं , ताकि उनके प्रॉडक्ट के बारे में होने वाली बात ज्यादा दीर्घजीवी हो सके। मसलन , अनड्रेस ( निर्वस्त्र होने ) की तर्ज पर बनाए गए शब्द अनहेट को इसके साथ छपने वाली तस्वीरों से जोड़कर देखें तो एकबारगी ऐसी गफलत हो सकती है कि इसमें लोगों से एक - दूसरे के प्रति जाति , नस्ल , धर्म आदि पर आधारित घृणा को छोड़कर विश्वशांति की तरफ बढ़ने की अपील की गई है। कहना कठिन है कि शांति के ऐसे चाकलेटी फॉर्म्युले लोगों को करीब लाते हैं , या उन्हें खिझाकर एक - दूसरे से और ज्यादा दूर धकेल देते हैं।मुझे तो लगता है क‍ि इससे लोग काफी करीब आएंगे। क्‍योंकि चुंबन से आत्‍मिक प्रेम बढेगा और धर्मगुरु एक दूसरे धर्म के बारे में गलत बातें कम फैलाएंगे। इसमें उन्‍हें कि‍सी  प्रकार की परेशानी भी नहीं होगी, क्‍योंक‍ि पुरुष धर्मगुरु दूसरे पुरुष के होठ चुसेंगे। लेकि‍न डर लगता है क‍ि यद‍ि बाबा रामदेव कि‍सी का होठ चुसेंगे, तो उन पर क्‍या गुजरेगी। 

बुधवार, 16 नवंबर 2011

इंटरनेट पापा

  इंटरनेट के आविर्भाव ने सम्पूर्ण विश्व में एक नई क्रान्ति उत्पन्न कर दी है। आज हम अपने घर में बैठकर ही अनेकों आवश्यक कार्यों को इंटरनेट की सहायता से निबटा सकते हैं। इंटरनेट ने “वसुधैव कुटुंबकम्” की धारणा को सत्य में परिणित कर दिखाया है। आप किसी भी समय किसी भी देश के किसी भी व्यक्ति से सम्पर्क कर सकते हैं। ईमेल अथवा एसएमएस के द्वारा कहीं पर भी तत्काल संदेश भेजा जा सकता है। यह बात हमारे सहयोगी मनोज जी को काफी अच्‍छी लगी और उन्‍होंने घर पर इंटरनेट ले ल‍िया। उस समय उनके बच्‍चे काफी खुश हुए क‍ि अब फेसबुक और मेल से दोस्‍तों से खूब बातें करूंगा, लेकि‍न उन्‍हें क्‍या पता था क‍ि पापा अब पापा नहीं रह जाएंगे, वे इंटरनेट पापा बन जाएंगे। अभी तक यही होता था क‍ि उनके बच्‍च्‍ो स्‍कूल में अच्‍छे मार्क्‍स ले आते थे, और मार्क्‍स देखकर वे काफी खुश हो जाते थे क‍ि बच्‍चे की पढाई अच्‍छी चल रही है। इंटरनेट आने से उनका ज्ञान दायरा बढा और वे इंटरनेट की तरह फास्‍ट सोचने लगे। वे पुराने खयालात के आदमी हैं। इस कारण इंटरनेट पर अश्‍लील फोटो देखना या फेसबुक पर चैटिंग करना अच्‍छा नहीं लगता था। वे सोचने लगे क‍ि आखिर कि‍स तरह इंटरनेट का सदुपयोग हो। उन्‍होंने सोचा क‍ि इंटरनेट के माध्‍यम से बच्‍चों की पढाई जांची जाए। इसमें फायदा यह है क‍ि सही उत्‍तर के ल‍िए उन्‍हें द‍िमाग भी नहीं खंपाना पडेगा और बच्‍चों की पढाई के बारे में भी सही जानकारी मि‍ल जाएगी। इसके पहले बच्‍चे उन्‍हें इंटरनेट के बारे में काफी कुछ बताया करते थे। बात के स‍िलसिले में ऑनलाइन टेस्‍ट की बात भी कह दी। बच्‍चे तो बच्‍चे होते हैं, बोलने के बाद उन्‍हें कुछ भी याद नहीं रहती है। आजकल के बच्‍चे इतने मॉडर्न हो गए हैं क‍ि उनके गर्लफ्रेंड की संख्‍या कि‍तनी है, वे भी याद नहीं रहते हैं। याद रहते हैं, तो  स‍िर्फ नई फ्रेंड, नए मोबाइल, बाइक या नई कार। आजकल वे इतने ओवर कॉनफि‍डेंस होने लगे हैं क‍ि अपने माता पि‍ता को हमेशा बेबकूफ बनाना चाहते हैं। पैरेंट़स समझते हुए भी प्‍यार के वशीभूत खुद को अज्ञानी समझना ही बेहतर समझते हैं।  बच्‍चे यह नहीं समझते क‍ि वे उनके बाप हैं। अगर वे मॉडर्न हो जाएं तो बच्‍चे बच्‍चे ही रह जाएंगे। आज तेंदुलकर और अमि‍ताभ से बढिया उदाहरण क्‍या हो सकता है। वे दोनों  क‍िसी भी आनेवाली पीढी से आगे चलते हैं। मनोज जी इंटरनेट लेने के बाद बच्‍चों को ऑनलाइन टेस्‍ट लेना शुरू कर दि‍ए। बच्‍चे कभी सोचे  भी नहीं थे क‍ि पापा इस तरह के टेस्‍ट ले सकते हैं। अब वे काफी परेशान हैं और इस इंटरनेट पापा से परेशान भी । उन्‍हें समझ में नहीं आ रहा है क‍ि वे क्‍या करें।       ‍       

बुधवार, 9 नवंबर 2011

vaibhav: द ओल्ड मैन एण्ड द सी

vaibhav: द ओल्ड मैन एण्ड द सी

vaibhav: अंधा ने अंधी के इज्‍जत को तार तार कर द‍िया

vaibhav: अंधा ने अंधी के इज्‍जत को तार तार कर द‍िया

vaibhav: नदी के द्वीप

vaibhav: नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

इसे मैं ग्रेजुएशन में पढा था, लेकि‍न स‍िर्फ पढा था, कुछ भी समझ में नहीं आया। दरअसल उस समय मैं काफी उपन्‍यास इसलि‍ए पढता था क‍ि लोगों के सामने शेखी बघार सकूं। जब मैं नौकरी करने लगा तो इसके बारे में काफी कुछ सुना। फि‍र से पढने की इच्‍छा हुई और पढने लगा। अब भी बहुत कुछ नहीं समझ पाया हूं, लेकि‍न जो समझा, उसे यहां इसलि‍ए दे रहा हूं क‍ि जब कभी मौका मि‍लेगा। इस पर मनन करूंगा। शेखर की जीवनी मुझसे काफी मि‍लती है। मैं भी बचपन में इसी स्‍वभाव का था, लेकि‍न अंतर यह है क‍ि अब मैं बदल चुका हूं और अक्रामक नहीं हूं, जैसा क‍ि पहले था। शेखर एक ऐसा व्यक्ति है जो पूरी ईमानदारी से अपने जीवन के सुख-दुख से गुज़रना चाहता है. वो पिता की सलाह को नज़रअंदाज़ कर अंग्रेज़ी की बजाय हिंदी में लेखन करना चाहता है क्योंकि अंग्रेज़ी से उसे दासता की अनुभूति होती है। नदी के द्वीप उपन्यास में व्यक्ति नदी के द्वीप की तरह है. चारों तरफ नदी की धारा से घिरा लेकिन फिर भी अकेला और अपनी सत्ता में स्वतंत्र. उपन्यास के मुख्य पात्र रेखा और भुवन एक-दूसरे के प्रति आकृष्ट हैं. दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी हैं लेकिन फिर भी रेखा भुवन को छोड़कर डॉक्टर रमेश चंद्र से विवाह करती है. गौरा और भुवन के बीच भी एक-दूसरे के लिए आकर्षण है लेकिन वे उसे सही रूप में व्यक्त नहीं कर      

 

शेखर: एक  जीवनी

'शेखर' की भूमिका में लिखते हैं कि यह जेल के स्थगित जीवन में केवल एक रात में महसूस की गई घनीभूत वेदना का ही शब्दबद्ध विस्तार है ये उपन्यास है.
अज्ञेय ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि शेखर के जीवन की कुछ घटनाएं और स्थान उनके जीवन से मिलते-जुलते हैं लेकिन जैसे-जैसे शेखर का विकास होता गया है वैसे-वैसे शेखर का व्यक्ति और रचनेवाला रचनाकार एक-दूसरे से अलग होते गए हैं
शेखर जन्मजात विद्रोही है. वो परिवार, समाज, व्यवस्था, तथाकथित मर्यादा – सबके प्रति विद्रोह करता है. वो स्वतंत्रता का आग्रही है और व्यक्ति की स्वतंत्रता को उसके विकास के लिए बेहद ज़रूरी मानता है.
कहते हैं यथार्थवादी साहित्य में किसी भी पात्र का जन्म अकस्मात् नहीं होता, या यों कहें वो महज़ कोरी कल्पना नहीं होता. कार्य-कारण संबंधों के आधार पर ही किसी यथार्थवादी रचना में घटनाओं और पात्रों का जन्म और विकास होता है. ‘शेखर’ में व्यक्ति स्वातंत्र्य की अनुभूति और अभिव्यक्ति की जो छटपटाहट पूरे उपन्यास में नज़र आती है वो दरअसल प्रेमचंद के गोदान (1936) के पात्र ‘गोबर’ के चरित्र का स्वाभाविक विकास है.
‘गोबर’ की संवेदना का ही स्वाभाविक विकास है अज्ञेय का ‘शेखर’ जो अपने अंतर्मन की आवाज़ सुनता है और वही करता है जिसकी गवाही उसका विवेक देता है. वो स्कूल नहीं जाना चाहता क्योंकि वो मानता है कि स्कूलों में टाइप बनते हैं जबकि शेखर व्यक्ति बनना चाहता है. एक ऐसा व्यक्ति जो पूरी ईमानदारी से अपने जीवन के सुख-दुख से गुज़रना चाहता है. वो पिता की सलाह को नज़रअंदाज़ कर अंग्रेज़ी की बजाय हिंदी में लेखन करना चाहता है क्योंकि अंग्रेज़ी से उसे दासता की अनुभूति होती है.
इस उपन्यास में ‘शेखर’ एक निहायत ईमानदार व्यक्ति है, अपनी अनुभूतियों और जिज्ञासाओं के प्रति बेहद ईमानदार. जीवन की नई-नई परिस्थितियों में उसके मन में कई सवाल उठते हैं और वह अनुभव करता चलता है, सीखता चलता है.
अज्ञेय ने मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से ‘शेखर’ के ज़रिए एक व्यक्ति के विकास की कहानी बुनी है जो अपनी स्वभावगत अच्छाइयों और बुराइयों के साथ देशकाल की समस्याओं पर विचार करता है, अपनी शिक्षा-दीक्षा, लेखन और आज़ादी की लड़ाई में अपनी भूमिका के क्रम में कई लोगों के संपर्क में आता है लेकिन उसके जीवन में सबसे गहरा और स्थायी प्रभाव शशि का पड़ता है जो रिश्ते में उसकी बहन लगती है, लेकिन दोनों के रिश्ते भाई-बहन के संबंधों के बने-बनाए सामाजिक ढांचे से काफी आगे निकलकर मानवीय संबंधों को एक नई परिभाषा देते हैं.
हिंदी साहित्य के लिए शशि-शेखर संबंध तत्कालीन भारतीय समाज में एक नई बात थी जिसे लेकर आलोचकों के बीच उपन्यास के प्रकाशन के बाद से लेकर आज तक बहस होती है.
शेखर एक जगह शशि से कहता है – ‘कब से तु्म्हें बहन कहता आया हूं, लेकिन बहन जितनी पास होती है, उतनी पास तुम नहीं हो, और जितनी दूर होती है, उतनी दूर भी नहीं हो’- ये भारतीय उपन्यास में स्त्री-पुरुष संबंधों की एक नई अभिव्यक्ति थी.
‘शेखर’ दरअसल एक व्यक्ति के बनने की कहानी है जिसमें उसके अंतर्मन के विभिन्न परतों की कथा क्रम के ज़रिए मनोवैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करने की कोशिश अज्ञेय ने की है. इस उपन्यास के प्रकाशन के बाद कुछ आलोचकों ने कहा था कि ये अज्ञेय की ही अपनी कहानी है.
लेकिन अज्ञेय ने इसका स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि शेखर के जीवन की कुछ घटनाएं और स्थान उनके जीवन से मिलते-जुलते हैं लेकिन जैसे-जैसे शेखर का विकास होता गया है वैसे-वैसे शेखर का व्यक्ति और रचनेवाला रचनाकार एक-दूसरे से अलग होते गए हैं.

‘नदी के द्वीप’

ये उपन्यास अलग-अलग पात्रों के जीवन, उनके सुख-दुख, उनके आंतरिक भावावेश को कवित्वपूर्ण भाषागत अभिव्यक्तियों के ज़रिए बयां तो करता है लेकिन युगीन यथार्थ को पूरी तरह स्पर्श नहीं कर पाता और इसकी वजह है पात्रों का अपने भीतर जीते जाना, बाहर या समाज में नहीं
इस उपन्यास के मुख्य पात्र हैं भुवन, रेखा, गौरा और चंद्रमाधव.
भुवन विज्ञान का प्रोफेसर है, रेखा एक पढ़ी-लिखी पति द्वारा परित्यक्ता स्त्री है, गौरा भुवन की छात्रा है. उपन्यास में दो अन्य गौण पात्र हैं हेमेंद्र और डॉक्टर रमेशचंद्र. हेमेंद्र रेखा का पति है जो केवल उसे पाना चाहता है और जब हासिल नहीं कर पाता तो उसे छोड़ देता है.
उसे सौंदर्योबोध, नैतिकता जैसे मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं. डॉक्टर रमेशचंद्र रेखा का नया पति हैं जो एक सुलझा हुआ इनसान है.
‘शेखर’ की तुलना में इस उपन्यास में घटनाएं बहुत कम हैं क्योंकि उपन्यास के पात्र बाहर बहुत कम जीते हैं.
वे ज्यादातर आत्ममंथन या आत्मालाप कर रहे होते हैं. ये इतने संवेदनशील पात्र हैं कि बाहर की जिंदगी की हल्की सी छुअन भी इन्हें भीतर तक हिला कर रख देती है. अज्ञेय ने उपन्यास में पात्रों की इसी भीतरी ज़िंदगी को विभिन्न, प्रतीकों, बिम्बों और कविताओं के ज़रिए उभारने की कोशिश की है.
उपन्यास में भुवन रेखा और गौरा दोनों के बेहद क़रीब है. ये तीनों ही मध्यवर्गीय संवेदना से भरे, आधुनिकता बोध वाले बुद्धिजीवी पात्र हैं. लेकिन इनकी सबसे बड़ी समस्या ये है कि ये भीतर ही भीतर चाहे जितनी ही लंबी विचार सरणि बना लें, उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाते.
यहां तक कि एक-दूसरे के लिए अपनी भावनाएं भी. इस उपन्यास में व्यक्ति नदी के द्वीप की तरह है. चारों तरफ नदी की धारा से घिरा लेकिन फिर भी अकेला और अपनी सत्ता में स्वतंत्र.
उपन्यास के मुख्य पात्र रेखा और भुवन एक-दूसरे के प्रति आकृष्ट हैं. दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी हैं लेकिन फिर भी रेखा भुवन को छोड़कर डॉक्टर रमेश चंद्र से विवाह करती है. गौरा और भुवन के बीच भी एक-दूसरे के लिए आकर्षण है लेकिन वे उसे सही रूप में व्यक्त नहीं कर पाते.
कुल मिलाकर ये उपन्यास अलग-अलग पात्रों के जीवन, उनके सुख-दुख, उनके आंतरिक भावावेश को कवित्वपूर्ण भाषागत अभिव्यक्तियों के ज़रिए बयां तो करता है लेकिन युगीन यथार्थ को पूरी तरह स्पर्श नहीं कर पाता और इसकी वजह है पात्रों का अपने भीतर जीते जाना, बाहर या समाज में नहीं.

अंधा ने अंधी के इज्‍जत को तार तार कर द‍िया

प‍िछले द‍िनों अखबार में एक खबर छपी थी क‍ि एक अंधा ने अंधी के इज्‍जत को तार तार कर द‍िया। इस तरह की घटना पहली बार सुना था। इस कारण इसे सबसे पहले पढा क‍ि आख‍िर यह संभव कैसे हुआ। कहानी यह थी क‍ि एक अंधे की शादी अंधी लडकी से हुई और दोनों काफी खुश थे। कि‍सी कारणवश उसे बाहर जाना पडा। अपनी पत्‍नी की रक्षा की ज‍िम्‍मेदारी  उन्‍होंने अपने अंधे दोस्‍त को  सौंपकर चला गया। उसके अंधे दोस्‍त ने उनकी पत्‍नी की इज्‍जत लूट ली। जो अखबार में एक सनसनीखेज खबर बन गई। उस दि‍न से मैं काफी परेशान हूं क‍ि आखि‍र यह अन्‍य खबर से अलग क्‍यों दि‍ख रहा है। इस समय मुझे प्रश्‍न मन में आ रहे हैं, जो परेशान कि‍ए हुए है।  प्रश्‍न इस प्रकार है

क्‍या अंधा को अंधा दोस्‍त ही  मि‍ला अपनी पत्‍नी की देखभाल करने के  ल‍िए। 

अंधा ने उस अंधी लडकी की इज्‍जत क्‍यों लूटी। 

काफी सोचने के बाद मैं इस नि‍ष्कर्ष  पर पहुंचा क‍ि मेरे अंधे भाई सोचे होंगे क‍ि आंख वाले दोस्‍त इससे भी खतरनाक होते हैं, क्‍योंक‍ि वे आंखों से शारीरि‍क सुंदरता देख सकते हैं।  और सुंदरता तो इतनी बला होती है क‍ि जि‍सने भी नजर डाली, बूरी नजर डाली। कम से कम उसकी पत्‍नी बूरी नजर से तो बच ही गई।  महिलाओं के बारे में…ऊंची-ऊंची बातें…घर में, परिवार में, सड़क पर दफ्तर में, मंच पर…। मगर, अकेले में नारी के प्रति विपरीत सोच, अर्थात हर आंख निहारती है देह। लैला-मजनूं व हीर-रांझा की प्रेम कहानियां इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह गई हैं। प्रेम की परिभाषा बदल चुकी है। नारी को देवी का दर्जा सिर्फ भाषणों में ही दिया जा रहा है। यदि ऐसा न होता तो हर विज्ञापन में अद्र्धनग्न नारी न दिखती। नेताओं की पार्टी में अद्र्धनग्न युवतियों को नहीं नचाया जाता। बलात्कार की घटना में अप्रत्याशित वृद्धि नहीं होती। टेलीविजन पर चल रहे कार्यक्रम को पिता-पुत्री साथ बैठकर देखने से परहेज नहीं करते। लेकिन यह हो रहा है…। वहीं, सोलह की उम्र में पैर रखते ही छात्र-छात्राओं में दोस्ती के प्रति बेचैनी नहीं बढ़ती। चंद दिनों में ये प्रेमी-प्रेमिका भी न बनते? मगर, यह भी हो रहा है…। क्योंकि प्रेम तो कहीं है ही नहीं, प्रेम तो हवश का रूप ले चुका है। उसे तो चाहिए बस देह सुख। तभी तो, बच्ची बन रही ‘बच्ची’ की ‘मां’…। ये सभी काम आंखवाले देख रहे हैं और कर रहे हैं। इस मामले में इसे आंख वाले से अधिक वरीयता मि‍लनी चाहि‍ए। मुझे लगता है क‍ि इसी कारण उन्‍होंने अपने अंधे दोस्‍त पर वि‍श्‍वास  कि‍या होगा। लेकि‍न यह क्‍या उन्‍होंने आंखवालों की तरह हरकत कर दी। अब कि‍स पर वि‍श्‍वास कि‍या जाए। सुना है क‍ि डायन भी दस घर छोडकर डायन करती है। आजकल सभी अपनी जात‍ि की रक्षा के लि‍ए संसद तक  मार्च करते हैं और बल‍िदान तक देने के लि‍ए तैयार रहते हैं। यद‍ि कि‍सी  जात‍ि पर  उनकी ही जात‍ि के लोग अत्‍याचार करता है, तो कुछ भी नहीं होता है। अगर पंडीजी के बेटे ने भगवान को गाली दे दी, तो चलेगा, लेकिन यही बात मुस्‍लि‍म कर दे तो दंगा फैल जाएगा। वास्‍तव में अब मानवीयता नाम की चीज नहीं रह गई है। रि‍लेशन की पर‍िभाषा भी आधुनि‍क तरीके से तर्क सहि‍त अपने फायदे के लि‍ए बनाई जा रही है।  आज कहीं हवशी पि‍ता अपनी बेटी की आबरु लूट रहे हैं, तो कहीं मां अपने बेटे के साथ संबंध बना रही है। इस मामले में भाई बहन भी पीछे नहीं हैं। आजकल इस तरह की खबरें न्‍यूज पेपर में छपती रहती है और समाज के लोग अब इस तरह की घटना के आदी हो गए हैं। अब उन्‍हें इस तरह की घटना सामान्‍य लग रही है, जबक‍ि एक एक इस तरह की कल्‍पना करने से पाप लगता था। कहने का आशय यह है क‍ि इस वातावरण में आप  कि‍सी पर भी व‍ि‍श्‍वास नहीं कर सकते हैं। लेकि‍न व‍िश्‍वास पर दुनि‍या कायम है। 

बेवफाई का अहसास इन ,
हवावों में क्यों है तारी ।

क्या किसी भरोसे को फिर,
तोड़ने की है बारी ।

पहले के जख्म अभी सूखे भी नही ,
फिर क्या दूसरे जख्मों की है तय्यारी ।

करते रहे इलाज जिस्म के दागों की ,
आखिर में पता चला ये,,तो दिल की है बीमारी।

        ‍       
     

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

चाँदी की हँसुली

 नारी-मुक्ति के नाम पर आज महिला , मुक्त नारी होती जा रही है । ऐसी बात नहीं है कि सोनरी को स्त्री को आगे बढ़ने पर आपत्ति है । स्त्री तरक्की करे, पढे-लिखे, उसका समाज में बराबरी का दर्जा हो,उसका सम्मान हो, इस पर  एतराज नहीं है, पर एक सम्मान के दायरे में हो, यही चाहती है । आजकल यही नहीं है। मह‍िला आधुनकिता के नाम पर कुछ भी करने के लि‍ए तैयार हो जाती है। आज आप कोई भी फिल्‍म  देखें, हर जगह उन्‍हीं के बदन दि‍खाए जाते हैं। आज के संदर्भ में यह उपन्‍यास एकदम सटीक है।      



श्री नन्दलाल भारती सामाजिक सरोकारों और अपने लेखकीय दायित्व के प्रति भी वे सचेत हैं । इसी का प्रतिफल है, इनका उपन्यास ‘चाँदी की हँसुली’। दरअसल यह लोक जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज है। मनुष्य का सम्बंध संस्कारों से है और समाज का संस्कृति से। जहाँ मनुष्य होंगे, वहाँ समाज होगा। अकेले मनु्ष्य से समाज का निर्माण नहीं होता। गाँव, ग्रामीणजन, प्रकृति और परम्पराओं से निर्मित होती है संस्कृति । समाज के आचार-विचार, तीज-त्यौहार,जीवन-शैली संस्कृति के लिये जिम्मेवार हैं। 51 कड़ी के उपन्यास चाँदी की हँसुली की कथा के जीन पक्ष हैं - पहले में गरीब खेतिहर मजदूर गुदरीराम एवं उसकी पत्नी मंगरी है । दूसरे में मुख्यतः प्रेमनाथ और पत्नी सोनरी का प्रेमालाप है तो उनका जीवन संघर्ष भी है । तीसरे में नई पीढ़ी के राजू-रूपमती हैं । कथा के केन्द्र में चाँदी की हँसुली है,यह केवल चाँदी की हँसुली की कथा नहीं है, यह औरतों के आभूषण-प्रेम की कहानी भी है । गहनें औरत की बड़ी कमजोरी हैं । हर औरत को चाहे गरीब हो अमीर,गहनों की चाह होती है। गहने स्त्री के श्रृंगार का मुख्य साधन हैं । लेकिन सभी की चाह कहां पूरी होती है ! गरीब के सपने कहाँ पूरे होते हैं । निर्धन स्त्री गहनों के लिये तरसती रह जाती है । बचपन से उसे हँसुली का बड़ा शौक था, पर वह कभी चाँदी की हँसुली से आगे नहीं बढ़ सकी । वैवाहिक जीवन में, यहां तक की जिन्दगी के आखिर दिनों तक, असली हँसुली के लिये तरसती रह गयी । कर्ज चुकाने के लिये उसे अपनी चाँदी की हँसुली को साहूकार को लौटा देने या गिरवी रख देने तक का विचार करना पड़ा ।लेखक के अनुसार ‘गोदनें’ भी हमारे स्थायी गहने हैं ।
उपन्यास में जातिवाद,आर्थिक-सामाजिक विषमता-विसंगति,निर्धनता,मजूदरों की हाड़-तोड़ मेहनत तथा जमींदारों -साहूकारों द्वारा किये जा रहे षोषण का हृदयस्पर्षी चित्रण है । कई बार कृ्षक की भूमि को जमींदार धोखे से हड़प लेता है । कृ्षक जीवन भर तरसता रह जाता है । छोटी जाति के प्रेमनाथ का यह दर्द देखिये- ‘ हम मूलनिवासियों को स्वार्थ-सत्ता के मोह ने हाशिये पर लाकर पटक दिया है । पता नहीं हमें हमारी जमीन कभी वापस मिलेगी भी या नहीं ?’ आज भी स्थिति भिन्न नहीं है। ऋण के बोझ-तले दबे किसान आत्म हत्याएँ कर रहे हैं । अर्थाभाव के कारण खेतिहर श्रमिक को किन-किन कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है, यह उपन्यास,’चाँदी की हँसुली’ उसका आईना है । इन लोगों के सपने पूरे नहीं हो पाते । यहाँ तक कि संतान को उच्च शिक्षा के लिये शहर भेजने के मार्ग में भी बहुत सी बाधाएँ मुंह फाड़े खड़ी हो जाती हैं ।दलित का जमकर शोषण होता है । चाहे वह गाँव में हो या शिक्षित होकर शहर में नौकरी कर रहा हो, उसका मान-सम्मान नहीं होता । छोटी जाति वालों के प्रति नफरत है । परीक्षा हो या साक्षात्कार,उनके साथ भेदभाव किया जाता है । नारी-मुक्ति के नाम पर स्त्री में आ रहे बदलावों के प्रति भी लेखक ने चिन्ता व्यक्त की है । बूढ़ी हो चुकी सोनरी जब उपचार हेतु बेटे-बहू के पास शहर जाती है तो वहां तथाकथित आधुनिक नारियों को देख दुःखी और अचंभित होती है । उसे आज की नारी का अति आधुनिकतापन अच्छा नहीं लगता है । उसकी पीड़ा यह है कि नारी-मुक्ति के नाम पर आज महिला , मुक्त नारी होती जा रही है । ऐसी बात नहीं है कि सोनरी को स्त्री को आगे बढ़ने पर आपत्ति है । स्त्री तरक्की करे, पढे-लिखे, उसका समाज में बराबरी का दर्जा हो,उसका सम्मान हो, इस पर सोनरी को एतराज नहीं है, पर एक सम्मान के दायरे में हो, यही चाहती है ।
उपन्यासकार का आधुनिकता बोध इसी मुद्दे तक सीमित नहीं रहा । तन्त्र में मौजूद भ्रष्टाचार पर भी लेखक ने कड़ा प्रहार किया है । सरकारी कारिन्दे और बिचौलिये की मिलीभगत साधनहीनों को मिलने वाली सहायता या अनुदान राशि का बड़ा हिस्सा बीच में ही किस तरह हड़प जाते हैं, लेखक ने उसका कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया है । प्रेमनाथ को शामियाने के धंधे के लिये पच्चीस हजार का ऋण स्वीकृत होता है,लेकिन उसके पल्ले मात्र दस हजार पड़ते हैं । शेष दूसरे डकार जाते हैं। यही नहीं,शामियाने का जो सामान उसको उपलब्ध कराया जाता है,वह भी आधा-अधूरा और कटा-फटा होता है । प्र्रेमनाथ-पच्चीस हजार के सूद का देनदार हो जाता है सो अलग । वह सब ओर से ठगा जाता है । वस्तुतः जब लोकतन्त्र अपने धर्म का निर्वाह नहीं करता है तो शोषित-पीड़ित व्यक्ति हृदयहीन,अमानवीय और असंवेदनशील हो जाता है और तब नक्सली जैसा मूवमेंट स्तित्व में आता है। जो लोकतांत्रिक तरीके से हासिल नहीं हुआ, उसे वह हिंसा द्वारा प्राप्त करना चाहता है । हिंसा में ही उसे त्वरित उपाय नजर आता है ।

भारती के इतिहास -बोध की झलक भी उपन्यास में देखने को मिलती है । वह कहते हैं कि जमींदारों और पूंजीपतियों ने अंग्र्रेजो की भांति लोगों में फूट डालो और राज करो की नीति को अपनाया। उसी प्रकार जैसे अ्रग्रेजों ने चालाकी से हमारे देश को हड़प लिया वैसे ही जमींदारों-साहूकारों ने षोशित-वंचित, गरीब किसानों की जमीन को हड़प लिया । गाँवों में जमीन-जायदाद को लेकर परिवारजनों के बीच विवाद और वैमनस्य तब भी होता था आज भी होता है । यहाँ तक कि भाई-भाई की हत्या कर देता है । अलग होकर शहर में रह रहा,स्वार्थी और आत्म-केन्द्रित भीखानाथ अपने भाई दीनानाथ की हत्या कर जमीन हथिया लेता है । इतना सब होते हुए भी गाँव कई मायनों में शहर से भिन्न है । वहाँ लोगों के बीच आत्मीयता है,अपनत्व की भावना है । एक परिवार की बेटी पूरे गाँव की बेटी होती है । कृतिकार यहां सामाजिक जागरूकता का परिचय देते हुए सोनरी से कहलवाता है कि होली पर हुड़दंग,गाली-गलौज तथा कीचड़ और हानिकारक मिलावटी रंग पोतने जैसी कुप्रवृत्तियों से बचना चाहिये । होली के त्यौहार को शालीनता से मनाना चाहिये । सोनरी और उसके पति प्रेमनाथ के बीच प्रेम और विश्वास की जो डोर है,प्यार भरी नोंक-झोंक है,उलाहने और प्रेम -प्रसंग है, वे लेखक के अभिव्यक्ति कौशल के प्रमाण हैं । हँसुली माध्यम से लेखक ने निम्न वर्ग की लाचारी,बेरोजगारी,शोषण और जीवन-संघर्ष को रेखांकित करने का प्रयास किया है। यह सर्वहारा के सपनों के टूटने-बिखरने के कारणों की तला्श की करूण कथा है हँसुली निम्न वर्ग की आशा-आकांक्षा है और पूंजीवादी शोषण के कारण उसे हासिल न कर पाना उसकी विवशता । लेखक को विषमतावादी समाज के गले में एक सुन्दर हँसुली की अपेक्षा है।

रशीदी ट‍िकट

रशीदी ट‍िकट जब मैं पढा था, तो उस समय शादी नहीं हुई थी। न ही मैं लेखक के बारे में कुछ जानता था और न ही जानने की दि‍लचस्‍पी ही थी। इंटरनेट खंगाल रहा था क‍ि उसी समय इसके कुछ वाक्‍य अनायास ही गुगल पर दि‍खाई दि‍ए। उस समय मैं गुनाहों का देवता पढा था और इसी तरह की उपन्‍यास पढना चाहता था। रशीदी टि‍कट पढने में न जाने बहुत मजा आया। ' रसीदी टिकट' अमृता प्रीतम की बहुचर्चित आत्मकथा है। 'कई घटनाएं जब घट रही होती हैं, अभी-अभी जख्मों-सी, तब उनकी कोई कसक अक्षरों में उतर आती है... लेकिन वक्त पाकर अहसास होता है कि ये बातें, लंबे समय के लिए साहित्य को कुछ दे नहीं पाएंगी... ये वक्ती आंधियां होती हैं...' अपनी उम्र बिता चुकी वक्ती आंधियों को छांटते हुए और नई बातें यादों के रूप में जोड़ते हुए लेखिका ने आत्मकथा को नया और संक्षिप्त रूप दिया है। हां, मूल चिंतन वही है जो मूल आत्मकथा में था। अध्यापन करने वाले मां-बाप की यह संतान मां राज बीबी और पिता नंद साधु को याद करते हुए अपने चरित्र का आधार भी खोलती चली है। चरित्र, जो बरतनों को हिंदू-मुसलमान होने से रोकता है। जो परछाइयों को बहुत बड़ी हकीकत मानता है। जो कवि पिता की इस नसीहत को मानने से इनकार कर देता है कि अमृता को सिर्फ धामिर्क कविताएं लिखनी चाहिए। जो दकियानूसी विचारों से बाहर निकल खुली हवा में सांस लेना चाहता है। जो तसव्वुर को कायम रखना चाहता है। अमृता प्रीतम की यह आत्मकथा बताती है कि उसे नफरत के दायरे पर तरस आता है, उसे विभाजन ने बुरी तरह प्रभावित किया था कि 'वारिस शाह' जैसी कविता की रचना हुई। यह बताती है कि रचनाकार को कैसे अपनी आलोचना की परवाह नहीं करनी चाहिए, चाहे जमाना बैरी हो जाए। साहिर से करीबी और इमरोज से गहरी दोस्ती के बीच के वक्फे को भी अमृता ने खूबसूरती से सामने रखा है। इस किताब को पढ़ना एक ऐसे बुखार से गुजरना है जो आपको नायिका की जिंदगी की हर सच्चाई से रूबरू करा देता है। बगैर बुखारी ताप के उन तक पहुंचना नामुमकिन है। दरअसल, यह एक आत्मकोलाज है, जहां डायरी संस्मरण, कविताएं, स्वप्न और जिंदगी के कड़वे यथार्थ घुलमिल गए हैं। यहां यात्राएं हैं और उनके भीतर हैं अंतर्यात्राएं। यहां एक व्यक्ति की लगातार विस्तृत होती दुनिया भी है, जहां दुनिया भर के अदीब शामिल हैं और स्त्री की वह हकीकत भी जो उसे कमजोर भी बनाती है और मजबूत भी। अच्छी बात यह है कि यह पुरानी 'रसीदी टिकट' की पूरक है। दोनों को एक साथ पढ़ने पर रोचक अध्ययन परिणाम आएंगे। यहां अमृता की रचना-प्रक्रिया और उसके अंत:सूत्र खुलते हैं तो पात्रों की अंतर्कथाएं भी। जिंदगी का भले ही कोई रफ ड्राफ्ट न होता हो, अमृता ने यह साबित कर दिया कि आत्मकथा दोबारा लिखी जा सकती है और अगर वह खुद ही तराश दी गई हो, तो कहना ही क्या! इमरोज का मुखपृष्ठ अमृता का जीवन-घट और गहरा देता है।
किताब की खास बातें - 
- तस्वीर चाहे किसी भी खास व्यक्ति की हो, यह सवाल नहीं है, जो अच्छे लगते हैं, वे हर समय खयालों में रहते हैं, तस्वीरों में नहीं। 
- हम सभी जानते हैं कि इंसान और इंसाफ के दरमियान एक लंबा फासला है, जिसे तय करते हुए लोगों की जिंदगी के जाने कितने साल और उनकी कितनी कमाई बर्बाद हो जाती है।

यूं तो हर परछाईं किसी काया की परछाईं होती है, काया की मोहताज, पर कई परछाइयां ऐसी भी होती हैं, जो इस नियम के बाहर होती हैं, काया से भी स्वतंत्र।
- दीवानेपन के अंतिम शिखर पर पैर रखकर खड़े नहीं रहा जा सकता, पैरों पर बैठने के लिए धरती का टुकड़ा चाहिए। - दुखांत यह नहीं होता कि जिंदगी की लंबी डगर पर समाज के बंधन अपने कांटे बिखरते रहें और आपके पैरों में से सारी उम्र लहू बहता रहे। दुखांत यह होता है कि आप लहूलुहान पैरों से एक उस जगह पर खड़े हो जाएं, जिसके आगे कोई रास्ता आपको बुलावा न दे।
- कुछ घटनाएं बहुत ही थोड़े समय के बाद रचना का अंग बन जाती हैं, पर कुछ घटनाओं को कलम तक पहुंचने के लिए बरसों का फासला तय करना पड़ता है। 
- दुनिया के सब सच्चे लेखक मुझे ककनूसी नस्ल के प्रतीत होते हैं। रचनात्मक क्रिया की आग में जलते और फिर अपनी राख में से रचना के रूप में जन्म लेते हुए।
- भले ही कहानी के हर पात्र के साथ लेखक का गहरा साझा होता है, पर एक दूरी हर साझे का हिस्सा होती है।
- लेखक दो तरह के होते हैं - एक जो लेखक होते हैं, और दूसरे, जो लेखक दिखना चाहते हैं। जो हैं, दिखने का यत्न उनकी आवश्यकता नहीं होता। 

प्राइड ऐंड प्रेजुडिस : जेन ऑस्टिन

19वीं सदी के शुरू के इंग्लैंड के कुलीन समाज के रहन-सहन, रीति-रिवाज, नैतिक आचरण आदि पर केंद्रित की गई यह किताब मॉडर्न पाठकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है। किताब कुलीन परिवार की पांच बेटियों में से दूसरे नंबर की एलिजाबेथ की कहानी कहती है। आज भी पाठकों की सबसे चहेती किताबों में से एक मानी जानेवाली इस किताब में वर्ग का फर्क खुलकर सामने आता है। अक्‍सर हम यही सोचते थे क‍ि हम भारतीयों की तरह कोई नहीं है। जेन ऑस्टन के उपन्‍यास पढने के बाद मेरा यह भ्रम टूट गया। मैं सोचने के लिए मजबूर हो गया क‍ि उनकी सोच भी हम सभी से कि‍तनी म‍िलिती जूलती है। इस उपन्‍यास को पढ1ने के बाद कलेजा मंुह को आ जाता है और एक नई सोच भी डेवलप होती है। इसके साथ ही यह भी सोचने केलिए विवश करती है क‍ि व्‍यकत‍ि किस तरह वक्‍त के सामने मजबूर हो जाता है और अंत में लाख कोशिश करने के बावजूद हारकर आदमी किस तरह की राय कायम करता है। जेन ऑस्टन के इस नॉवल को साहित्य की दुनिया में क्लासिक का दर्जा हासिल है। सन 1813 में आई इस किताब पर कई फिल्में भी बनीं लेकिन कोई भी किताब की ऊंचाइयों को नहीं छू पाई। परिजनों के आपसी जुड़ाव, प्यार, इज्जत (प्राइड) और पूर्वाग्रह (प्रेजुडिस) की यह कहानी बताती है कि प्यार किस तरह खुद पूर्वाग्रहों से दूर निकल जाता है। यह प्यार को महसूस करने, उससे इनकार करने, उसे स्वीकार करने और इन सबसे ऊपर उसकी जीत की कहानी है। किताब यह भी बताती है कि शक्ल-सूरत देखकर किसी के बारे में राय कायम नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने पर आप धोखा खा सकते हैं। नॉवल की कहानी एलिजाबेथ के आसपास बुनी गई है, जो बेनेट परिवार की दूसरे नंबर की बेटी है। उसकी चार बहनें हैं - रहमदिल और भोलीभाली जेन, पढ़ाकू मैरी व किटी और फ्लर्ट लाडिया। मां की बहुत इच्छा है कि उसकी बेटियों की शादी खूब पैसेवाले परिवारों में हो। अपनी इस चाहत को पूरी करने के लिए वह हर मुमकिन कोशिश करती है। जब रईस मि. बिंग्ले उस इलाके में आते हैं तो मां उसे जेन की ओर आकर्षित करने की कोशिश करती है। बिंग्ले का दोस्त मि. डार्सी शुरुआत में एक घमंडी, अकड़ू और उद्देश्यहीन शख्स नजर आता है। लेकिन जब वह एलिजाबेथ (जोकि उन सबमें सबसे ज्यादा पूर्वाग्रह से पीड़ित थी) को चाहने लगता है, तो पता चलता है कि किस तरह किसी के प्यार में पड़ने पर एक पुरुष अपने तौर-तरीके और महिला अपनी सोच बदल सकती है। किताब का सबसे बड़ा सबक यह है कि कवर से किताब के बारे में राय नहीं बनानी चाहिए... यानी किसी की शक्ल देखकर आप उसके बारे में सही राय नहीं बना सकते। साथ ही, किसी के बारे में अपरिपक्व तरीके से भी राय नहीं बनानी चाहिए। किताब यह भी कहती है कि प्यार अपना रास्ता खुद तलाश लेता है, जैसे कि जेन और बिंग्ले या एलिजाबेथ और डार्सी के मामले में हुआ। किताब यह भी साबित करती है कि हर प्रेम कहानी का अपना तरीका और अपनी राह होती है। कहानी के किरदार ब्लैक एंड वाइट के बजाय ग्रे शेड वाले हैं, यानी खूबियों के साथ-साथ कमियों से भी भरे। मजेदार यह है कि हर कमी कहानी में एक दिलचस्प सिनेरियो पैदा करता है और बाद में उसकी परफेक्ट एंडिंग हो जाती है। करीब 200 साल पहले लिखे जाने के बावजूद किताब में दर्शाए गए सामाजिक दबावों को आज भी महसूस किया जा सकता है। यह हमें दिल के मामलों को हैंडल करना सिखाती है और बताती है कि आप अपने दिल की सुनें, प्यार अपनी राह खुद तलाश लेगा। यह माफ करने की सीख देती है, पूर्वाग्रहों को खत्म करने का पाठ पढ़ाती है और कहती है कि बंद दिमाग जिंदगी में मददगार साबित नहीं होता। किताब अपने परिवार को हिफाजत करने का सबक भी सिखाती है। किताब की मुख्य बातें - किसी महिला की कल्पना की रफ्तार काफी तेज होती है। वह एक पल में तारीफ से प्यार और प्यार से शादी तक छलांग लगा लेती है। - अपमान कई बार छलावा भर होता है। जरूरी नहीं है कि सामनेवाले ने हमें अपमानित करने की मंशा के साथ कोई काम किया। कई बार किसी की लापरवाही तो कई बार हमें उत्साहित करने की किसी की कोशिश भी हमें अपमान महसूस हो सकती है। - दूसरे लोग चाहते हैं कि हम उन विचारों की जिम्मेदारी लें, जिन्हें उन्होंने हमारा करार दिया है, जबकि हमने कभी उन पर गौर ही नहीं किया। - अच्छा विचार एक बार खोता है तो हमेशा के लिए खो जाता है। - हर शख्स में खास तरह की बुराई होती है। उसे पैदाइशी खोट भी कह सकते हैं और अच्छी-से-अच्छी शिक्षा उसे दूर नहीं कर सकती। - जितना ज्यादा हम दुनिया को देखते हैं, उतना ज्यादा असंतोष होता है। मानव स्वभाव की अस्थिरता के बारे में विश्वास और मजबूत होता जाता है। - सिर्फ बीते हुए कल के बारे में सोचें क्योंकि उसे याद करना हमें खुशी देता है। - अगर कोई महिला किसी पुरुष का फेवर करती है तो उसे (पुरुष) इसे महसूस कर लेना चाहिए। - हम दूसरे के घमंड को माफ कर सकते हैं, बशतेर् उसने हमारे स्वाभिमान को ठेस न पहुंचाई हो। - गर्व और अहंकार दो अलग-अलग चीजें हैं। बिना अहंकार भी कोई शख्स गर्व महसूस कर सकता है। जिसे हम गर्व मानते हैं, वह दूसरों की निगाह में अहंकार हो सकता है।

बुधवार, 26 अक्टूबर 2011

मैं सि‍मट कर रह गया हूं।

 एक बार एक संन्यासी ऊंचे पहाड़ पर स्थित मंदिर दर्शन के लिए बीच रास्ते में थककर एक छायादार जगह पर खड़े होकर सुस्ताने लगा। तभी उसने देखा कि एक ग्रामीण महिला अपने कंधे पर अपने बच्चे को उठाये सीढ़ी चढ़ती आ रही है। उसके चेहरे से पसीना छल-छला रहा है, पर वह गीत गा रही है। सन्यासी ने उस महिला से कहा आओ थोड़ी देर छांव में आराम कर लो तुमने इतना बोझा भी उठा रखा है। वह महिला बोली महाराज यह बोझ नहीं मेरा बेटा है। यह मेरी जिम्मेदारी है यह भगवान का वरदान है। जब आप अपनी जिम्मेदारी को भगवान का नाम लेकर उठाते है तो वह बोझ नहीं लगता बल्कि आत्मिक खुशी देता है। अपने को जिम्मेदार महसूस करना अपने अस्तित्व का मान बढ़ाना है।
आज दीपावली है, लेकिन मन नहीं लग रहा है। क्‍योंक‍ि मैं अपने घर पर नहीं हूं। यहां अपना मकान भी है और सारी आधुन‍िक सुवि‍धाएं भी, पत्‍नी भी हैं और बच्‍चे भी। लेकि‍न मां नहीं है। वह घर पर हैं। हमें उनसे मि‍लने के लि‍ए टाइम नहीं है। जब मैं बच्‍चा था तो यही सोचता था क‍ि बडे होने के बाद आदमी के पास खुशी के अनेक मौके होते हैं और आदमी मन के मालि‍क होते हैं। अब जब पुरानी बातें सोचता हूं तो दुखी हो जाता हूं। पत्‍नी बहुत अच्‍छी है, खयाल भी रखती है और प्‍यार भी करती है, लेकि‍न वो नहीं मि‍ल पाता है, जो मां देती थी। यह सोचकर कभी कभी बैचेन हो जाता हूं क‍ि आदमी आखिर क्‍या करे। जब पढाई कर रहा था तो सोचता था क‍ि नौकरी के बाद जि‍दगी बेहतर होगी और शादी के बाद झक्‍कास, लेकि‍न मैं गलत था।  जहां मैं रह रहा हूं, सभी अपने होते हुए भी अपने नहीं हैं। क्‍योंक‍ि उनकी संस्‍कत‍ि हमसे नहीं मि‍लती और मेरा रहन सहन उसे नहीं समझ में आता है। क्‍या इसी के लि‍ए इतना पढा और बेहतर नौकरी की। हम इस समय पेंडुलम की तरह हैं। काश आज मैं घर पर परहता,!  जम्‍मेदारि‍यों का बोझ आदमी को अंधा बना देता है। आज जि‍म्मेदारी इतनी बढ गई है क‍ि मैं सि‍मट कर रह गया हूं। खुद को अकेला महसूस कर रहा हूं। शायद यही सत्‍य है।  बर्बादि‍यों का जश्‍न मना रहा हूं। इस डर से क‍ि हो सकता है, अभी जो नसीब है, वह भी आगे न मि‍ल‍े। अक्सर अपनी जिंदगी में हम लोगों से सुनते आये है कि हम जिम्मेदारी के कारण जिंदगी का मजा नही ले पाते है।  यह बात बिल्कुल सही नही है।विश्व में अधिक ऊंचाई में पहुंचने वाले सभी लोग जिम्मेदार होते है या मै कहूंगा कि जो लोग जिम्मेदार होते है वही ऊंचाईयों को छू सकते है। अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर या देश के ऊंचे पदों पर बैठे राजनीतिज्ञ या अधिकारी अपनी जिम्मेदारी से कभी नहीं भागते। किसी जहाज का कप्तान, किसी संयुक्त परिवार का मुख्या या किसी बड़े उद्योग का चेयर मैन बनना जितनी जिम्मेदारी का काम है, उतनी ही उनकी शान है, उनकी इज्जत है। मैने अपनी जिंदगी में कई लोग ऐसे देखे है जो दूसरों के बोझ को हल्का करते है और साथ ही साथ खुश भी रहते है। कम उम्र में उनकी इन आदतों को समझ नही पाया था पर अब उनके व्यक्तित्व को नमन करता हूँ। यही सोचकर आगे  बढ रहा हूं। नमस्‍कार आपको दीपावली की शुभकामनाएं।

शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

लॉ ऑफ डिमिनिशिंग यूटिलिटी

सही नाप के जूते


लता शर्मा
उर्मि से उर्वशी बना दी गई इस उपन्यास की नायिका की कथा, सिर्फ इसी की गाथा नहीं है। यह उन सब महत्वाकांक्षी सुंदरियों की गाथा है जो दरअसल, सावित्री, नेहा या निकिता नहीं, उर्वशी बनने के लिए सब कुछ दांव पर लगा देती हैं। जिन्हें समझाया जाता है कि ‘तुम्हारी देह, तुम्हारा मस्तिष्क, तुम्हारी अपनी पूंजी है। अंततः उसका निवेश होना ही है, तो तुम स्वयं करो। कम से कम अस्सी प्रतिशत लाभांश तो मिलेगा।’ उन्हें बाकायदा तैयार किया जाता है, चाहे घरेलू परिस्थितियां कितनी भी गई-गुजरी क्यों न हों! करियर सबसे जरूरी है, तो फिर बेहतरीन को ही क्यों न चुना जाए! क्या करना है डॉक्टर या इंजीनियर बनकर जब मिस इंडिया बनने के लिए सिर्फ ग्रेजुएट होना अनिवार्य है! तो फिर चलो फिनिशिंग स्कूल, सीखो कैट वॉक और मोहक अंदाज। जॉइन करो एक्वेटिक क्लब। भरो मिस इंडिया बनने का फार्म। और फिर आगे ही आगे चलते चलो उर्वशी की तरह, पीछे मुड़कर देखना मना है। कामयाबी आगे खड़ी इंतजार कर रही है। बनो करोड़ों दिलों की मलिका और अंततः बदल जाओ खुद एक कमोडिटी में। खरीदो भी और बिकती भी जाओ।

बाजार देखते-देखते, बाजार हो जाने की यह गाथा सिर्फ मनोरंजन भर नहीं है। लता शर्मा का स्त्री-विमर्शकार यहां कथाकार में बखूबी प्रवेश करता है। बताता है कि अस्सी प्रतिशत लाभांश पाने की महत्त्वाकांक्षा का अर्थ क्या है यदि विवेक को ताक पर रख दिया जाए। आप इस उपन्यास को पढ़ना शुरू करेंगे, तो फिर पूरा पढ़े बगैर नहीं छोड़ सकते। रोशनी की रंगीन चमक में चहकते चेहरे की दास्तान भर नहीं है यह, यहां अकेली उदासी में टूटती सांसों की गमजदा आवाज भी सुनी जा सकती है।

उपयोगिता ह्वास नियम अर्थात्
लॉ ऑफ डिमिनिशिंग यूटिलिटी


इस सदी के बूढ़े महानायक के सामने नाच रही है विश्वसुंदरी।
यह नाच है?
‘नाच कांच है, बात सांच है।’ (सूत्रधार-संजीव)
फिर तो सच है यह सब।
मुक्त अर्थव्यवस्था के सामने नाच रही है अर्धनग्न स्त्री देह।
नाच है यह।

बूढ़े के ढीले जबड़ों, लटके गालों, लरियाते होंठों के पास, ठीक नाक के नीचे अपना उन्नत वक्ष उठा-गिरा रही है सुंदरी।
हर बूढ़े मर्द को तसल्ली मिलती है।
जेब में नोट हो तो ये उन्नत वक्ष ऐन नाक के नीचे, होंठों के पास। युवा नायक पर बूढ़े महानायक को तरजीह देती है सुंदरी।
क्यों?

बूढ़ा सत्ता है, धन है–इसीलिए अथाह ऊर्जा है।
अधेड़-बूढ़ों के सामने मेला लगा है। सोलह से अठारह, बीस से बाइस वर्ष तक की आतुर नवयौवनाओं का…
…क्या है,…कौन है जो इन्हें इसे नग्न नृत्य के लिए विवश कर रहा है? अभिभावक?…उनकी अपनी महत्त्वाकांक्षा?
या उपभोक्ता संस्कृति और मुक्त बाजार के शाश्वत नियम।

लज्जा

लज्जा’ बांग्लादेश की बहुचर्चित लेखिका तसलीमा नसरीन का पाँचवाँ उपन्यास है। इस उपन्यास ने न केवल बांग्लादेश में हलचल मचा दी है, बल्कि भारत में भी व्यापक उत्ताप की सृष्टि की है। यही वह उत्तेजक कृति है, जिसके लिए लेखिका को बांग्लादेश की कट्टरवादी साम्प्रदायिक ताकतों से सजा-ए-मौत की घोषणा की है। दिलचस्प यही है की सीमा के इस पार की साम्प्रादयिक ताकतों ने इसे ही सिर माथे लगाया। कारण ? क्योंकि यह उपन्यास बहुत ही शक्तिशाली ढंग से बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करता है और उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण करता है जो एक लंबे अरसे से बांग्लादेशी हिन्दुओं की नियति बन चुका है। हमारे देश की हिन्दूवादी शक्तियों ने ‘लज्जा’ को मुस्लिम आक्रमकता के प्रमाण के रूप में पेश करना चाहा है, लेकिन वस्तुतः ‘लज्जा’ दुधारी तलवार है। यह मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर जितनी तल्खी से आक्रमण करता है, उतनी ही तीव्रता से हिन्दू साम्प्रदायिकता की परतें भी उघाड़ता है। वस्तुतः यह पुस्तक साम्प्रदायिकता मात्र के विरुद्ध है और यही उसकी खूबसूरती है।

‘लज्जा’ की शुरुआत होती है 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़े जाने पर बांग्लादेश के मुसलमानों की आक्रमक प्रतिक्रिया से। वे अपने हिन्दू भाई-बहनों पर टूट पड़ते हैं और उनके सैकड़ों धर्मस्थलों को नष्ट कर देते हैं। लेकिन इस अत्याचार, लूट, बलात्कार और मन्दिर ध्वंस के लिए वस्तुतः जिम्मेदार कौन है ? कहना न होगा कि भारत के वे हिन्दूवादी संगठन जिन्होंने बाबरी मस्जिद ध्वंस का प्रतिशोध की राजनीति का खूँखार चेहरा दुनिया के सामने रखा। वे भूल गये कि जिस तरह भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं, उसी तरह पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं। लेखिका ने ठीक ही पहचाना है कि ‘भारत कोई विच्छिन्न ‘जम्बूद्वीप’ नहीं है। भारत में यदि विष फोड़े का जन्म होता है, तो उसका दर्द सिर्फ भारत को ही नहीं भोगना पड़ेगा, बल्कि वह दर्द समूची दुनिया में, कम-से-कम पड़ोसी देशों में तो सबसे पहले ही फैल जाएगा।’ क्यों ? क्योंकि इस पूरे उपमहादेश की आत्मा एक है, यहाँ के नागरिकों का साझा इतिहास और एक साझा भविष्य है। अतः एक जगह की घटनाओं का असर दूसरी जगह पड़ेगा ही। अतः हम सभी को एक-दूसरे की संवेदनशीलता का खयाल रखना चाहिए और एक प्रेम तथा सौहार्दपूर्ण समाज की रचनी करनी चाहिए। ऐसे समाज में ही हिन्दू, मुसलमान तथा अन्य समुदायों के लोग सुख और शान्ति से रह सकते हैं। प्रेम घृणा से अधिक संक्रामक होता है।

लेकिन बांग्लादेश का यह ताजा उन्माद सिर्फ बाबरी मस्जिद टूटने की प्रतिक्रिया भर थी ? नहीं। तसलीमा की विवेक दृष्टि और दूर तक जाती है। वे यह दिखाने की कोशिश करती हैं कि इसका संबंधमूलतः धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल से है। यद्यपि पाकिस्तान का निर्माण होने के बाद कायदे-आजम मुहम्मद अली जिन्ना ने घोषणा की थी कि धर्म नहीं, जातीयता ही किसी समुदाय को एक रख सकती है, लेकिन पाकिस्तान के दृष्टिहीन शासकों ने इस आदर्श को तिलांजलि दे दी और वे पाकिस्तान को एक मुस्लिम राष्ट्र बनाने पर तुल गये। लेकिन क्या धर्म का बन्धन पाकिस्तान को एक रख सका ? बांग्लादेश का एक मुक्ति संग्राम एक सर्वथा सेकुलर संघर्ष था। किन्तु सेकुलरबाद का यह आदर्श स्वतंत्र बांग्लादेश में भी ज्यादा दिन नहीं टिक सका। वहाँ भी, पाकिस्तान की तरह ही धर्मतांत्रिक राज्य बनाने की अधार्मिक कोशिश की गयी। नतीजा यह हुआ कि बांग्लादेश में वह बदसूरत आग फिर सुलग उठी, जिसके कारण पहले के दशकों में लाखों हिन्दुओं को देश त्याग करना पड़ा था। संकेत स्पष्ट है जब भी धर्म और राजनीति का अनुचित सम्मिश्रण होगा, समाज में तरह-तरह की बर्बताएँ फैलेंगी।

तसलीमा नसरीन मूलतः नारीवादी लेखिका हैं। वे स्त्री की पूर्ण स्वाधीनता की प्रखर पक्षधर हैं। अपने अनुभवों से वे यह अच्छी तरह जानती हैं कि स्त्री के साथ होने वाला अन्याय व्यापक सामाजिक अन्याय का ही एक अंग है। इसलिए वे यह भी देख सकीं कि कट्टरतावाद सिर्फ अल्पसंख्यकों का ही विनाश नहीं करता, बल्कि बहुसंख्यकों का जीवन भी दूषित कर देता है। कठमुल्ले पंडित और मौलवी जीवन के हर क्षेत्र को विकृत करना चाहते हैं। सुरंजन और परवीन एक-दूसरे को प्यार करते हुए भी विवाह के बंधन में नहीं बंध सके, क्योंकि दोनों के बीच धर्म की दीवार थी और माहौल धर्मोन्माद से भरा हुआ था। धर्मोन्माद के माहौल में सबसे ज्यादा कहर स्त्री पर ही टूटता हैः उसे तरह-से-तरह से सीमित और प्रताड़ित किया जाता है। सुरंजन की बहन माया का अपहरण करने वाले क्या किसी धार्मिक आदर्श पर चल रहे थे ? उपन्यास का अन्त एक तरह की हताशा से भरा हुआ है और यह हताशा सिर्फ सुरंजन के आस्थावान पिता सुधामय की नहीं, हम सबकी लज्जा है, क्योंकि हम अब भी उपमहादेश में एक मानवीय समाज नहीं बना पाए हैं।
यह एक नये ढंग का उपन्यास है। कथा के साथ रिपोर्ताज और टिप्पणी का सिलसिला भी चलता रहता है। इसलिए यह हमें सिर्फ भिगोता नहीं, सोचने विचारने की पर्याप्त सामग्री भी मुहैया करता है। कहानी और तथ्य उपन्यास में भी उसी तरह घुले-मिले हुए हैं, जिस तरह कल्पना और यथार्थ जीवन में। आशा है, तसलीमा की यह विचारोत्तेजक कृति हिन्दी पाठक को न केवल एक नयी भूमि परिचित कराएगी, बल्कि उसे एक नया विचार संस्कार भी देगी।

गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011

लोग माजी का भी अंदाज़ा लगा लेते हैं
मुझको तो याद नहीं कल का भी क़िस्सा कोई

बेसबब आँखों में आँसू नहीं आया करते
आपसे होगा यक़ीनन मेरा रिश्ता कोई

बिगड़ते रिश्तों को फिर से बहाल मत करना,
जो टूट जाएँ तो उनका ख़याल मत करना।

हरेक दोस्त को बढ़कर गले लगा लेना,
किसी बिछुड़ते हुए का मलाल मत करना।

जिन्हें सुने तो कोई बेनक़ाब हो जाए,
किसी से भूलकर ऐसे सवाल मत करना।

नज़र चुरानी पड़े आइने से रह-रहकर,
ज़मीर इतना भी अपना हलाल मत करना

वफ़ा-ओ-प्यार की उम्मीद दुनियादारों से,
तुम अपने होश में ऐसा कमाल मत करना।

पड़ी है उम्र अभी, और बहुत-सी चोटें हैं,
तुम अपने मन को अभी से निढाल मत करना।

उसूल, दोस्ती, ईमान, प्यार, सच्चाई,
तुम अपनी ज़िंदगी इनसे मुहाल मकरना


कम से कम बच्चों के होंठों की हँसी की ख़ातिर
ऐसे मिट्‍टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ

भीख से तो भूख अच्छी गाँव को वापस चलो
शहर में रहने से ये बच्चा बुरा हो जाएगा

 


मेरी क़िस्मत की लकीरें, मेरे हाथों में न थीं,
तेरे माथे पर कोई, मेरा मुक़द्‍दर देखता।।

चोट खाते हैं ज़हर पीते हैं
छोड़कर गाँव की फिज़ा जो लोग
शहर की बस्तियों में जीते हैं
बच्चा खो जाए ग़म तो होता है
आज बच्चे का खो गया बचपन
इस बड़े ग़म में आज कौन रोता है

जो मिले उसके संग होती है
ज़िंदगानी अज़ीज़ बच्चों की
जैसे पत्नी का रंग होती है

बच्चा स्कूल रोज़ जाता है
बस्ता दिल से लगा के रखता था
आजकल पीठ पर उठाता है

ज़रा सा ग़म हो तो होते हो नीम जान मियाँ
हमारे सर से गुज़रते हैं आसमान मियाँ

लिपटी हुई है वक़्त से मायूसियों की धूप
कितनी उदासी आज की इस दोपहर में है

मशहूर शेर

ज़ुबाँ पर बेखुदी में नाम उसका आ ही जाता है, अगर पूछे कोई ये कौन है बतला नहीं सकता।

रोज़ मय पी है, तुम्हें याद किया है लेकिन, आज तुम याद न आए, ये नई बात हुई -

तुमको चाहा तो ख़ता क्या है बता दो मुझको, दूसरा कोई तो अपना-सा दिखा दो मुझको

मैं ज़िंदगी की दुआ माँगने लगा हूँ बहुत, जो हो सके तो दुआओं को बेअसर कर दे।।

डूबने वाला था, और साहिल पे चेहरों का हुजूम, पल की मौहलत थी, मैं किसको आँख भरकर देखता।।

कुछ निशानात हैं राहों में तो जारी है सफ़र
ये निशानात न होंगे तो किधर जाऊँगा

शनिवार, 15 अक्टूबर 2011

शादी आजकल
युवा उम्मीद में जीते हैं, बूढे यादों में, लेकिन युवा वर्ग की ये उम्मीदें इतनी होती हैं कि जिंदगी के अन्य पहलुओं के बारे में सोचने का मौका नहीं मिलता। शादी भी उनकी प्राथमिकता सूची में पीछे खिसकती जा रही है। आजकल पैसा ही सबकुछ है। पहले की लडकी यह नहीं देखती थी, आज पैसे नहीं है तो लउकियां बात भी नहीं करती है। यही कारण है क‍ि आजकल का युवा पहले कमाता है, पिफर शादी के बारे में सोचता है। जो युवा नहीं कमाता है, उसे काफी परेशानी होती है। आजकल के माहौल भी ऐसे हो गए हैं कि लव आसानी से कुछ दिनों के लिए हो जाते हैं। आज के मॉडर्न लव में प्रेमिका या प्रेमी के लिए किसी और के साथ संबंध खराब नहीं लगता है। वे इसे आपसी समझौता मानते हैं। आज युवाओं के पास वाकई सब कुछ है। बेहतरीन करियर, बैंक बैलेंस, घर, गाडी, सुख-सुविधाएं, दोस्त..। इन सबके बीच शादी कहां है? ओह गॉड, ऐसी भी क्या जल्दी है! कुछ दिन तो चैन से जीने दो.. युवाओं का जवाब ऐसा ही होता है। एक फ्रेंच कहावत है कि युवा उम्मीद में जीते हैं, बूढे यादों में, लेकिन युवा वर्ग की ये उम्मीदें इतनी होती हैं कि जिंदगी के अन्य पहलुओं के बारे में सोचने का मौका नहीं मिलता। शादी भी उनकी प्राथमिकता सूची में पीछे खिसकती जा रही है। शलमान खान ग्लैमर की दुनिया में हैं, जहां देर से शादी बडा मसला नहीं है। पिछले कुछ वर्षो में शादी की उम्र तेजी से आगे खिसकने लगी है। महानगरीय युवाओं में सिंगल रहने के साथ ही लिव-इन रिलेशनशिप का ट्रेंड बढा है। शादियां भी हो रही हैं, लेकिन उस तरह नहीं, जैसी अपेक्षा पुरानी पीढी को थी। रिश्ते जन्म-जन्मांतर के बंधन के बजाय सुविधा बनते जा रहे हैं। इस संबंध में युवाओं के तर्क भी अजीब होते हैं। आजकल के युवा और युवतियों की यह दलील होती है क‍ि शादी किए जाते हैं। माता-पिता लाडले बेटे को दूसरे शहर या देश भेजने से पहले सर्वगुणसंपन्न व गृहकार्य में निपुण लडकी के पल्ले नहीं बांध पाते। बदलाव तो आया है, लेकिन बजाय इसकी आलोचना के उन स्थितियों-मूल्यों को समझने की कोशिश की जानी चाहिए जो युवाओं की सोच को निर्धारित कर रही हैं।
मुश्किल है शादी का फैसला
क्या वाकई युवाओं के लिए विवाह का निर्णय लेना मुश्किल हो रहा है? दिल्ली स्थित एक पी.आर. कंपनी से जुडी गौरी कहती हैं, मैं 24 की हूं। मेरा मानना है कि पहले करियर जरूरी है। शादी से डर यह है कि ससुराल में एडजस्ट कर पाऊंगी कि नहीं। अरेंज मैरिज नहीं करूंगी। वैसे मेरे पुरुष मित्र भी हैं, मगर अभी तक कोई ऐसा नहीं मिला, जिस पर भरोसा कर सकूं। देहरादून में मेडिकल छात्रा 19 वर्षीय नताशा के विचार अलग हैं। कहती हैं, एक उम्र के बाद भावनात्मक साझेदारी जरूरी है। मैं अभी इतनी परिपक्व नहीं हूं कि फैसले खुद ले सकूं। इसलिए शादी का फैसला मम्मी-पापा पर छोडूंगी। करियर तो जरूरी है। मैं नहीं समझती कि युवा शादी या कमिटमेंट से बचते हैं। करियर के चलते शादी में देरी जरूर होती है। शादी को लेकर लडकों के भय अलग तरह के हैं। दिल्ली में एक कॉल सेंटर में कार्यरत रोहित अपनी पीडा बयान करते हैं, मम्मी-पापा ने मेरे लिए लडकी पसंद की। चट मंगनी पट ब्याह वाली बात हो गई। मंगेतर की जिद थी कि अपने लिए वह खुद खरीदारी करेगी। मैंने उसकी बात मानी, अब पछता रहा हूं। मेरा पूरा बजट बिगड गया। उसे समझाया, लेकिन वह नहीं समझी। मेरी जिम्मेदारियां बहुत हैं। शादी के बाद भी उसका यही स्वभाव रहा तो कैसे निभा पाऊंगा। पुणे स्थित मल्टीनेशनल कंपनी के 25 वर्षीय कंप्यूटर इंजीनियर अंकित का कहना है कि उन्हें कंपनी तीन वर्ष के लिए यू.एस. भेज रही है, जिसमें शर्त है कि इस दौरान वह शादी नहीं कर सकेंगे। कहते हैं, शादी का फैसला माता-पिता ही लें तो बेहतर है। मैं ऐसी लडकी से शादी नहीं करना चाहता, जो मेरे घरवालों के साथ न निभा सके। पैरेंट्स ही बहू चुनेंगे तो बाद में मुश्किल नहीं होगी। सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता के.जैन कहती हैं, मैंने शादी नहीं की है, लेकिन 50 की उम्र में कमी खलती है। शादी न करने का बडा नुकसान यह है कि भावनात्मक साझेदारी नहीं हो पाती। बहन-भाई या मित्र सभी अपने घर-परिवार में व्यस्त हैं। शाम को घर लौटने पर घर खाली लगता है। बिजली, फोन, गैस जैसे तमाम बिल खुद भरने पडते हैं। अकेले महानगरों में जीवनयापन वाकई मुश्किल है। अभिनेत्री प्राची देसाई की मां अमिता का कहना है कि आज युवाओं के पास मनचाहा करियर है, लेकिन मनचाही जिंदगी नहीं है। कहती हैं, मेरी बेटी प्राची ग्लैमर व‌र्ल्ड में है। वह मेरी हर बात मानती है, फिर भी मैं अपने विचार उस पर नहीं थोप सकती। माता-पिता के साथ मेरे भी मतभेद होते थे, पर वह समय अलग था। नई पीढी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है। शादी अब कमिटमेंट से ज्यादा कंपेनियनशिप है। प्राची का करियर ऐसा है कि शादी से बाधा हो सकती है। यदि वह 30 की उम्र में यह फैसला ले तो आश्चर्य नहीं होगा। मैंने दोनों बेटियों प्राची, ईशा के साथ नौकरी की। पति अकसर बाहर रहते थे। प्राची पंचगनी में पढती थी, घर पर मैं अकेले मैनेज करती थी। मेरी बेटियां भी सब संभाल सकेंगी, कहना मुश्किल है।
करियर है प्राथमिकता
एक ग्लोबल स्वीडिश सर्वे बताता है कि भारतीय युवा की प्राथमिकता सूची में काम, करियर और उच्च जीवन स्तर सर्वोपरि है। भारतीय समाज की धुरी है परिवार, लेकिन आज का युवा परिवार व बच्चे की चाह से दूर जा रहा है। कई लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि शादी से इतर भी जिंदगी है। ये यूरोपीय युवाओं की तुलना में करियर को ज्यादा महत्व दे रहे हैं। यह सर्वे एशिया सहित यूरोप व उत्तरी अमेरिका के17 देशों में 16 से 35 वर्ष की आयु के बीच किया गया था। इसके अनुसार 17 फीसदी जापानी व 27 प्रतिशत जर्मन जहां अपनी निजी जिंदगी व काम से खुश हैं, वहीं50 फीसदी से भी ज्यादा भारतीय युवा जिंदगी व करियर से खुश हैं। सर्वे कम से कम यह तो दर्शाता है कि देर से शादी बडी चिंता का विषय नहीं है।
रिश्ते बदलाव के दौर में
हाल ही में डॉ. शेफाली संध्या की पुस्तक लव विल फॉलो : ह्वाई द इंडियन मैरिज इज बर्रि्नग आई है। यह भारत व विदेशों में रहने वाले दंपतियों पर 12 वर्र्षो के शोध के बाद लिखी गई है। इसके मुताबिक 25 से 39 वर्ष की आयु वाले भारतीय जोडों में तलाक के केस बढे हैं। 80-85 फीसदी मामलों में यह पहल स्त्रियां कर रही हैं। 94 फीसदी मध्यवर्गीय युगल मानते हैं कि वे शादी से खुश हैं, लेकिन ज्यादातर का कहना है कि दोबारा मौका मिले तो वे मौजूदा साथी से शादी नहीं करेंगे। एक तिहाई भारतीय सेक्स लाइफ से संतुष्ट नहीं हैं। दिल्ली की वरिष्ठ मैरिज काउंसलर डॉ. वसंता आर. पत्री कहती हैं, सामाजिक मूल्य बदले हैं तो वैवाहिक रिश्ते भी बदले हैं। तलाक भी इसलिए बढे हैं, क्योंकि लडकियां आत्मनिर्भर हैं। पहले शादियां इसलिए चलती थीं कि लोगों के पास कोई विकल्प नहीं था। खामोशी से सब कुछ सहन करने वाली पीढी अब नहीं है।
विवाह आउटडेटेड नहीं
इसमें कई तरह की समस्याएं हैं, फिर भी मैं विवाह संस्था का समर्थन करता हूं, तब तक करता रहूंगा, जब तक कि इससे बेहतर कुछ और नहीं मिल जाता। आप क्‍या सोचते हैं। जहां तक मेरा अनुभव कहता है क‍ि विवाह सभी को करनी चाहिए। इस संबंध में शिशिर का कहना है क‍ि शादी तभी करनी चाहिए, जब कमाई अच्‍छी हो। कमाई की भी अलग परिभाषा है इनके पास। ये कहते हैं क‍ि आज के युवा का बेसिक नीड मोबाइल, लेपटॉप है, लेकिन हमारे पिता के समय यह जरूरी नहीं थी। यही अंतर हो जाता है आज पैरेंट़स के साथ तालमेल बनाने में। आज अगर आप इस तरह के बेसिक नीड को पूरा नहीं कर पाएंगे, तो आपकी शादी सफल नहीं हो सकती है।

रविवार, 14 अगस्त 2011

द ओल्ड मैन एण्ड द सी


मैं अंग्रेजी उपन्‍यास नहीं पढता हूं, क्‍योंक‍ि उसे समझने के ल‍िए अतिरि‍क्‍त उर्जा खपानी पडती है। लेक‍िन यह उपन्‍यास पढने से नहीं बच पाया। इसकी भी रोचक घटना है। 15 अगस्‍त पर दैन‍िक जागरण जोश के ल‍िए स्‍टोरी लखि रहा था, क‍ि उसी में हे‍म‍िग्‍वे का कोट था।इंटरनेट से पता क‍िया तो वे लेखक के रूप में जाना। उसी समय बॉस ने इसके बारे में बताया और ओल्‍ड मैन एंड सी का नाम बताया। फि‍र क्‍या था, लग गया उसे पढने के लि‍ए। आज खुश हूं क‍ि इसके बारे में कुछ लखि पा रहा हूं।


नोबेल पुरस्कार विजेता उपन्यासकार अर्नेस्ट हेमिंग्वे की विश्वविख्यात कृति ‘द ओल्ड ऐण्ड द सी’ काफी रोचक और द‍िल को दहलानेवाली है। हेमिंग्वे को सन् 1954 में इसी उपन्यास पर साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला था। सात वर्ष बाद सन् 1961 में हेमिंग्वे ने स्वयं को गोली मार कर आत्महत्या कर ली थी। हेमिंग्वे के पिता ने भी आत्महत्या की थी, तब उन्होंने अपने पिता को पलायनवादी कहा था। यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि जिस लेखक ने अपने पिता की हत्या की आलोचना की एवं ‘द ओल्ड मैन एण्ड द सी’ के नायक संतियागो का जीवन-दर्शन था कि मनुष्य ध्वस्त हो सकता है परन्तु पराजित नहीं, उस लेखक ने अपने पिता के ही पिस्टल से आत्महत्या कर ली क्योंकि जिन शर्तों के साथ वह जीना चाहता था, उनके साथ जी नहीं सका। बूढ़ा मछुआरा संतियागो एक बड़ी मछली पकड़ने के लिए लगातार चैरासी दिनों तक समुद्र में जाता है और बिना मछली पकड़े वापस आ जाता है। उपन्यास में संतियागो की रोमांचक कथा है। उपन्यास की कथावस्तु के गठन में अर्नेस्ट हेमिंग्वे काफी सतर्क रहे हैं। वे अपनी बात सीधी भाषा में बिना वाग्जाल के कहने में माहिर हैं। बूढ़े मछुआरे की रोमांचक कथा मनुष्य की जिजीविषा एवं जीवन जीने की जद्दोजहद की कथा है। मछुआरा बूढ़ा, दुबला-पतला, मरियल एवं विपन्न है। चैरासी दिनों तक वह एक बड़ी मछली पकड़ने का स्वप्न लेकर समुद्र में दूर-दूर तक जाता है। चालीस दिनों तक एक छोटा लड़का उसके साथ नाव में जाता है, वह बूढ़े अनुभवी मछुआरे से मछली मारने का हुनर सीखना चाहता है। लेकिन, बूढ़े मछुआरे की लगातार असफलता से बच्चे के माता-पिता उसे भाग्यहीन करार देते हैं फिर भी लड़का बूढ़े के प्रति अगाध श्रद्धा रखता है और समुद्र से लौटने पर बूढ़े के खाने-पीने की व्यवस्था में लग जाता है। चालीस दिनों के पश्चात बूढ़ा मछुआरा समुद्र में अकेले नाव लेकर जाता है। अगले चैवालिस दिनों तक बूढ़े को बड़ी मछली पकड़ने में सफलता नहीं मिलती है। पचासिवां दिन वह पुनः अपना भाग्य आजमाने नौका लेकर अकेले निकल पड़ता है। ‘द ओल्ड मैन एण्ड द सी’ में इसी पचासिवें दिन के अभियान की रोमांचक कथा का वर्णन है। बूढ़ा भाग्यवादी नहीं है। वह जीवन के प्रत्येक दिन को एक नये जीवन के रूप में आरंभ करता है। वह जीवन में सदा सटीक होना चाहता है। जीवन के विषय में बूढ़े का दर्शन सचमुच प्रेरणादायक है। उसका कहना है कि अगर कोई भाग्यवादी है तो भाग्य साथ दे, इसके लिए भी मनुष्य को पहले से तैयार रहना चाहिए। जो जीवन में सफल होना चाहते हैं उन्हें मछुआरे की तरह समुद्र में मछली मारते समय, की उसकी एकाग्रता से प्रेरणा लेनी चाहिए। मछली मारना बूढ़े मछुआरे का जन्मना पेशा है। जिन्दगी में अन्य पेशा अख्तियार करने का उसके पास विकल्प नहीं है। बूढ़े के आत्मालाप का उपन्यासकार ने जीवंत वर्णन किया है। पचासी दिनों के पश्चात एक विशाल मछली बूढ़े की बंसी में फंस जाती है। मछली विशाल है, जब तक थक नहीं जाती है तब तक बूढ़ा बंसी की डोर खींच नहीं सकता। पूरी रात मछली समुद्र तट में तैरती रही। उसने न अपना मार्ग बदला न दिशा। बूढ़े मछुआरे को रात के अकेलेपन में सहयोगी लड़के की याद आती है। भूख भी लगती है। ताकत के लिए उसे टुना मछली का कच्चा मांस खाना पड़ता है। वह सोचता है कि बुढ़ापे में अकेला नहीं रहना चाहिए। लेकिन वह विवश है। बुढ़ापे में आजीविका के लिए अकेले उस समुद्र में जाना पड़ता है। शायद यह अमेरिकी समाज में बूढ़े व्यक्तियों के आत्मसंघर्ष का ही रूपक है। बूढ़ा यथार्थवादी है, वह समझता है कि जीवन में ऐसी स्थितियों से बचना संभव नहीं है। अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने अमेरिकी जीवन स्थितियों का वर्णन किया है। लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में बूढ़ों का जीवन कम कठिन नहीं रह गया हैं बूढ़े मछुआरे का महात्मय के विषय में कल्पना एवं अंत संवाद विलक्षण एवं मोहक हैं। उपन्यासकार दिखाता है कि एक ओर महामत्स्य का जीवन है जो मनुष्य के जाल-फंदों एवं कपट से दूर समुद्र की स्याह अटल गहराइयों में निरापद महसूस करता हैं दूसरी ओर बूढ़ा मछुआरा मनुष्य है जो आजीविका की तलाश में समुद्र में जाता है और बड़ी मछली को खोजता है। दोनों के सामने कोई विकल्प नहीं है। दोनों को अपने अस्तित्व के लिए एक-दूसरे के खिलाफ लड़ना है। बूढ़ा मछुआरा थक कर चूर है। उसका अनुमान है कि फंसी हुई मछली आधा दिन और एक रात के पश्चात एक और दिन में थक जायेगी और वह अपने शिकार पर पूर्ण विजय पा लेगा। उसके बायें हाथ की अंगुलियां थककर अकड़ गयी है। उसे उम्मीद है कि काफी धूप मिलने से या बोनिटो के कच्चा मांस खाने से अंगुलियों की अकड़न खत्म हो जायेगी। यहां बूढ़े मछुआरे की मनःस्थिति के थकने की प्रतीक्षा कर रहा है। शीघ्र ही दूसरी रात आनेवाली है। वह पशु-पक्षी समुदाय से मानव जीवन की तुलना करता है। छत्तीस घंटे तक बूढ़ा जगा रहा। वह भूखा था। डाल्फिन की दो पट्टियां खाकर उसने भूख शांत की। धीरे-धीरे महामत्स्य थक गई। बूढ़े का संघर्ष जारी रहा। मछली काफी थक चुकी थी। उसका प्रतिरोध समाप्त हो चुका था। अब वह डोरी के खिंचाव के अनुसार दिशा बदल रही थी। मछली थक कर नौका से सटकर तैरने लगी। बूढ़े मछुवारे के लिए शिकार करने का अनुकूल अवसर था। नौका में रखे बरछी से बूढ़े ने विशाल मछली के पंजर में प्रहार किया। मछली पूरी ताकत से सतह के ऊपर उछली और धड़ाम से जल में गिर गयी। बूढ़े मछुआरे ने मछली को नौका में बांध दिया। बरछी के घाव से मछली के कलेजे का रक्त समुद्र के जल में फैल गया। बूढ़ा मछली के साथ तट की ओर लौट रहा था। रक्त की गंध पाकर विशालकाय शार्क मछलियां नौका की ओर आकर्षित होने लगी। पहली शार्क मछली का चालीस पाउंड मांस काट कर ले गयी। शार्क के साथ बूढ़े मछुआरे के संघर्ष का रोमांचक एवं अविस्मरणीय वर्णन उपन्यास में है। ऐसा जैसे युद्ध का आंखों देखा हाल का वर्णन हो। ऐसे अद्भुत संघर्ष का वर्णन अर्नेस्ट हेमिंग्वे जैसा उपन्यासकार ही कर सकता था। अंत तक बूढ़ा मछुआरा शार्क को मार गिराता है, पर तब तक शिकार मछली काफी क्षतिग्रस्त हो चुकी है। मरते-मरते शार्क मछुआरे की बरछी अपने सिर में लेती गयी। बूढ़ा हथियारविहीन हो गया। मनुष्य जीवन के संघर्ष में शायद ऐसे ही निहत्था हो जाता है। ऐसे विकट काल में बूढ़ा मछुआरा असीम धैर्य एवं मानसिक संतुलन का परिचय देता है। उसने सोचा कि मनुष्य पराजय के लिए नहीं बना है। मनुष्य ध्वस्त हो सकता है, लेकिन पराजित नहीं। और कई शार्कों ने आक्रमण जारी रखा। इन आक्रमणों के बीच बूढ़ा मछुआरा लगातार तट की ओर नौका के साथ बढ़ता रहा। अंत में वह शार्कों के साथ मुगदर से लड़ता है। मुगदर भी हाथ से छूट कर समुद्र में समा जाता है। तट पर पहुंचते-पहुंचते सुबह हो गयी। वह तट पर शिकार मछली के कंकाल के साथ पहुंचता है, कंकाल की लम्बाई अठारह फीट थी। अंत में बूढ़े संतियागो एवं बालक मनोलिन के बीच कारूणिक बातचीत है। मनोलिन बूढ़े को समझता है कि उसे कोई पराजित नहीं कर सकता। उपन्यासकार हेमिंग्वे कर्मवाद की महान शिक्षा देते हैं। मनोलिन इस घटना के बाद अपने विषय में स्वतंत्र रूप से निर्णय लेता है, परिवारवालों की परवाह नहीं करता, उसे बूढ़े मछुआरे से बहुत कुछ सीखना है। वह अगले दिन से मछली मारने समुद्र में बूढ़े के साथ जायेगा।

रविवार, 10 जुलाई 2011

अवांछित बेटियां

अवांछित बेटियां

अपने गर्भ में आये विनष्ट मादा भ्रूणों की स्मृतियों को शाखा ने गुडियों के रूप में सहेज लिया था। जब घर में अंबर नहीं होता और वह अकेली होती तो छुपाकर रखी इन गुडियों को वह कबर्ड से निकालती, फिर उन्हें अपने सीने से चिपका कर मातृत्व की सरिता द्वारा सींचने लग जाती। तीन बार गर्भपात की वह शिकार हुई थी, इसलिये तीन गुडियां थीं उसके पास। इनके नाम तक रखकर उसने क्रोशिये और धागे से लिख दिये थे उनकी कलाइयों पर। हर बार वह इनकी उम्र का हिसाब लगाती और एक अपराधबोध से भरकर विह्वल हो जाती, '' मुझे माफ कर देना मेरी बच्चियों! तुम सबको कोख में ही मार देने के जुल्म में पति और समाज के साथ मैं भी साझीदार हूं। चाहती थी कि तुम सबकी और तुम्हारे जैसी अनेकों की मां बन कर मैं फलों से लदा एक विशाल छतनार पेड बन जाऊं। पति नामधारी पुरुष के बिना गर्भ धारण करना और फिर भरण - पोषण करना संभव होता और उसमें समाज का कोई दखल नहीं होता तो मैं अपनी दसों इन्द्रियों की कसम खाकर कहती हूं, मेरी अजन्मी पुत्रियों, मैं अभी से सिर्फ और सिर्फ लडक़ियों को जन्म देती, जिनकी संख्या कम से कम दो दर्जन होती बल्कि इससे भी ज्यादा कर पाती तो मुझे और मजा आता।''

शाखा जब कॉलेज में पढती थी तब से ही सहेलियों से अपने मनोभावों को शेयर करती हुई यह इच्छा जताती थी कि वह बहुत सारी लडक़ियों की मां बनना चाहती है। सहेलियां उसका तेवर जानतीं थीं और यह समझती थीं कि ऐसा कह कर दरअसल वह अपने भीतर के एक विरोध को मुखर कर रही है। उसके परिवार में कई बाल - बच्चेदार दम्पत्ति थे, बडे भाइयों और चाचाओं के, लेकिन सबने बडी चालाकी से सिर्फ नर शिशुओं को जन्म दिया था। सिर्फ एक उनके पिता थे, जिन्होंने कोई चालाकी नहीं की थी, इसलिये उन्हें चार बेटियां ही थीं और इसके लिये वे एक हीनभावना से हमेशा ग्रसित रहा करते थे। घर के दूसरे लोग भी इस मामले को लेकर उनके प्रति उपेक्षा - भाव रखते थे। शाखा को इन स्थितियों से सख्त ऐतराज था और इस ऐतराज की प्रतिक्रिया में वह दर्जनों बेटियों की मां बनना चाहती थी। मगर विवाह के तुरन्त बाद ही उसे पता चल गया कि वह महज उसकी एक अपरिपक्व सोच एवं भावुकता थी।

जब पहला ही गर्भ ठहरा तो अम्बर ने भ्रूण परीक्षण के लिये उसे तैयार होने को कहा, '' शाखा मुझे लडक़ी नहीं चाहिये। तुम अपनी आंखों से देख चुकी हो कि छोटी बहन की शादी ने मुझे कितनी जिल्लत दी और किस कदर दिवालिया बना दिया। आज भी उसकी ससुराल के कुत्ते मेरे जिस्म को नोंच रहे हैं, जैसे मैं उनका जन्मजात
कर्जदार हूं। अब और साहस नहीं है कि बेटी ब्याहने के नाम पर कोई दोबारा मेरी खाल उतार ले। मामूली सी नौकरी है, जिसके जरिये अपने लिये भी चन्द हसरतें और चंद सपने पूरे करने हैं, अन्यथा यह जिन्दगी दहेज जमा करने में ही स्वाहा हो जायेगी।''

शाखा को एकबारगी लगा था कि अंबर के उठाए मुद्दे को वह बेजा नहीं ठहरा सकती। यह सच है कि परिधि के विवाह में उसने क्या कुछ नहीं सहा। चार साल तक पागलों की तरह भटकने के बाद थक - हारकर उसे अपनी हैसियत से बाहर जाकर एक बडी दहेज राशि पर एक रिश्ता तय करना पडा। क्लर्क से रिटायर हुए पिता की सारी जमापूंजी, छह सात साल की अपनी नौकरी में काट - कपटकर की गयी बचत और ऊपर से हर मुमकिन कर्ज लेकर जो कुल जमा हुआ, वह अब भी काफी कम था उस दाम से जो लडक़े के बाप ने अपने बेटे के लिये लगाया था। अपनी बहन परिधि को अंबर बहुत प्यार करता था। वह एक अच्छे घर में जाकर सुख से रहे, यह उसकी दिली ख्वाहिश थी। लडक़े के पिता के सामने जाकर उसने हाथ जोड दिये, '' खुद को पूरी तरह निचोडक़र भी मैं इतना रस नहीं निकाल सका कि आपके इच्छा - पात्र को भर सकूं। मुझ पर कृपा कर के थोडी सी रियायत''

जैसे उसके उबल पडने का कोई स्विच ऑन हो गया हो,

वह फनफना उठा -
'' तो तुम भाड में जाओ, मेरा घर कोई राहत केन्द्र नहीं है। कई लोग पहले ही क्यू में हैं, तुम अपनी बराबरी की कोई दूसरी जगह ढूंढ लो।''
ऐसा बेमुरव्वत सलूक तो कोई सूदखोर महाजन भी नहीं करता होगा। उसने समझ लिया कि बेहतर है यहां से जाकर किसी कसाई से अनुरोध किया जाय। इस घर में परिधि कभी सुखी नहीं रह सकती।

उसने दूसरे घर - वर की तलाश शुरु कर दी इसमें दो वर्ष और लग गये। धैर्य की ऐसी सख्त परीक्षा शायद इस दुनिया में अन्य किसी भी चीज क़े ढूंढने में नहीं हो सकती। एक बार तो उसे ऐसा भी लगा कि इस परीक्षा में बार बार फेल हो जाना ही उसकी नियति है। परिधि के लिये लडक़ा ढूंढना उससे शायद संभव नहीं।

उसके एक रिश्तेदार ने सलाह दी, '' अगर ऊंची रकम देने की सामर्थ्य नहीं है तो पसंद - चयन की कसौटी को जरा लचीला कर लेना चाहिये।''

अन्तत: उसने ऐसा ही किया। अपनी रूपवती - गुणवती बहन के लिये उसे एक डेढ आंख वाले थुथुरमुंहे लडक़े को पसन्द करना पडा। यहां नगद उतना ही मांगा गया, जितना वह दे सकता था। खुद को यह समझाकर शादी कर दी कि चेहरे की स्थूल सुन्दरता से कहीं बडी होती है आंतरिक सुन्दरता। मगर यहां आलम यह था कि कोई सी भी सुन्दरता नहीं थी। शादी के बाद परिधि को मंहगे घरेलू उपकरण मांग लाने के लिये परेशान किया जाने लगा। अंबर एक की पूर्ति करता तब तक दूसरी मांग फिर उग आती। तात्पर्य यह कि परिधि की जान प्रताडना और थूकम - फजीहत की सांसत में जाकर फंस गयी। अंबर से आये दिन थुथुरमुंहा और उसके परिवार की रार - तकरार मचने लगी।

यह परिस्थिति आज भी जारी है, ऐसे में अगर वह बेटी के बाप होने को अभिसाप मानकर इससे बचने के लिये सख्त एहतियात बरतना चाहता है तो शाखा इस मानसिकता को समझ सकती है। उसने उसकी मन:स्थिति से सहमति व्यक्त करते हुए कहा, '' मैं तुम्हारी पीडा से अलग नहीं हूं अम्बर। दहेज के दानवी चेहरों ने हजारों - लाखों घर उजाडे हैं और बेशुमार जिन्दगियां तबाह की हैं लडक़ियां फिर भी जन्म लेती रही हैं और दुनिया को अगर रुक नहीं जाना है तो जन्म लेती ही रहेंगी। तुम्हारी तो एक ही बहन थी, मेरे पिता ने तो चार बेटियों को ब्याहा है। उनके एक जमाई तुम भी हो, तुमने तो उनसे कभी कुछ लेने में रुचि नहीं दिखाई। तो लोग तुम्हारी तरह भी हैं दुनिया में। मेरी यह पहली प्रेगनेन्सी है, इसे प्लीज र्निद्वन्द्वता से सम्पन्न होने दो। पहले इशू में कोई वर्जना, कोई रुकावट, कोई संशय उचित नहीं। अगर बेती भी होती है तो हमें उसे स्वीकार करना है। आखिर बेटी के रूप में कम से कम एक संतान घर में जरूरी भी है और उसकी परवरिश हमारा दायित्व भी है।''

अंबर ने कोई जिरह नहीं की। शाखा तनिक अचम्भित रह गई इतनी आसानी से वह मान जायेगा, सोचा नहीं था। कुछ पल चिंतामग्न रहने के बाद कहा उसने, '' एक बेटी घर के लिये कितनी अहम् होती है, यह मुझसे ज्यादा कौन जान सकता है शाखा? जब मेरी मां चल बसी थी तो बहुत छोटी होकर भी परिधि ने ही पूरे घर को संभाला था। मैं उससे कई साल बडा था, लेकिन घर को संवारने - संभालने और रसोई सीधी करने के मामले में मैं किसी काम का नहीं था। दमा और हृदय रोग के मरीज बाऊजी को परिधि ने अपनी सुश्रुषा से हमेशा संतुष्ट रखा। वे कहते थे मुझे, '' अपनी परिधि की सुघडता देखो, अंबर। इसने घुट्टी में ही कब सीख लिया यह सब, हमें पता ही नहीं चला। ऐसी ही बेटियां घर की लक्ष्मी कही जाती हैं। इसके मनोहारी बर्ताव, सम्बोधन और बोल घर को स्वर्ग का आभास दिलाने लगते हैं। मैं न भी रहूं तो इसका ब्याह खूब अच्छी जगह करना बेटे।'' कहकर एक दीर्घ नि:श्वास भरी अम्बर ने।

'' बाऊजी सचमुच उसके ब्याह के लिये नहीं रहे और मैं ऐसा नालायक साबित हुआ कि चाह कर भी परिधि के लिये मनोनुकूल घर - वर नहीं ढूंढ सका। बेचारी हमेशा दबी - घुटी - सहमी और उदास रहती है।'' एक मायूसी उतर आई अम्बर के चेहरे पर, '' परिधि की हालत देखता हूं तो घर में दूसरी बेटी की उपस्थिति की कल्पना मात्र से हृदय थर्रा जाता है। लेकिन तुम चाहती हो कि मातृत्व के तुम्हारे पहले अवसर को स्वछंद रहने दिया जाये तो चलो मैं तुम्हारी भावना को आहत नहीं करता, मगर इसके साथ ही यह आश्वासन भी चाहता हूं कि अगली बार तुम फिर मेरे सामने ऐसे सवाल उठा कर मेरी परीक्षा नहीं लोगी।''

शाखा ने हंसी में अनुराग घोलते हुए कहा, '' अगर बेटा हो गया इस बार तो अगली बार भी मेरा यह सवाल कायम रहेगा ।''
'' चलो मान लिया।'' अंबर भी हंस दिया, स्निग्ध और समर्पण की हंसी।
पति - पत्नी के बीच यह दिल्लगी भरा मुंहजवानी करार हो गया।

शाखा ने बालिका शिशु को जन्म दिया, आशंका ऐसी ही थी, हालांकि दोनों ने मन ही मन पुत्र प्राप्ति की घनघोर कामना की थी। नियति प्राय: ऐसा ही विधान रचती है, जिससे आप भागना चाहते हैं, वह आपके पीछे लग जाती है।

मुन्नी घर में पलने लगी, लाड - प्यार के सहज और स्वाभाविक परिवेश में पलने लगी। बिना किसी ग्रन्थि के। बर्ताव में ऐसी शालीनता की सीमा बस यहीं तक रही। अगले इशू से उनकी प्राथमिकता बदल गई।

दूसरे, तीसरे और चौथे गर्भ का हश्र गुडियों में परिवर्तित हो गया। हर बार शाखा का शरीर ही नहीं अंतस भी लहूलुहान हुआ। वह सोचती थी कि एक देवकी थी जिसके जन्मे बच्चे को उसका भाई कंस नष्ट कर देता था, एक वह है जिसके बिनजन्मे बच्चे को ही उसका पति नष्ट करवा देता है। कंस को अपनी मृत्यु का भय और उसके पति कोधन और मान की हानि का भय है। देवकी को बचाने के लिये कई शक्तियां थीं, मगर वह स्वयं अपने आपको भी बचाने का उपक्रम नहीं करती। कंस क्रूर और बर्बर था, जबकि उसका पति उदार और भावुक है।

शाखा के मन में आता कि जब गर्भपात ही उसकी नियति है तो फिर वह गर्भ धारण ही क्यों करे? क्यों नहीं ऑपरेशन करवा कर इस झंझट से ही मुक्त हो जाये। संतान के नाम पर मुन्नी तो है ही। बेटा नहीं हो रहा तो न हो ज़रूरी भी क्या है? लेकिन अगले ही पल वह इस सच्चाई की पकड में आ जाती कि ऐसे निर्णय लेने को भी क्या वह स्वतन्त्र है? मतलब एक औरत न तो अपनी मरजी से मां बन सकती है और न मां बनने से इंकार कर सकती है। अपनी कोख तक पर उसे अधिकार नहीं। अधिकार की बात वह करे भी तो कैसे, आखिर अंबर उसे प्यार भी तो कम नहीं करता। प्यार के नाम पर भी कभी - कभी कितना कुछ बर्दाश्त करना होता है।

अंबर ने कहा, '' यह हमारी आखिरी कोशिश होगी और तुम्हारी आीखरी तकलीफ। बहुत ज्यादती सह ली तुमने। अगर बेटा रह गया तो ठीक है, वरना इससे छुट्टी पाकर बस मुन्नी से ही हमें सब्र कर लेना है।''

शाखा को लगा कि दोनों के मन के बीच जैसे कोई टेलीपैथी हो गयी। यही तो वह भी चाहती है। अब भला ऐसे आत्मीय और मीठे संभाषण करने वाले पति को कोई खलनायक कैसे करार दे? क्या प्यार और विश्वास भी खलनायकी का अस्त्र हो सकता है? उसके मन ने कहा, शायद हां और शायद ज्यादा खतरनाक एवं अचूक भी।

डॉक्टर के पास गये वे लोग। उसकी जानकारी में शहर में एक ही डॉक्टर था जो यह काम करता था। इस काम के लिये डॉक्टर ऊंची फीस लेता था। गर्भ परीक्षण करके गर्भाशय की धुलाई भी उसके जिम्मे होती थी। परीक्षण पर वैधानिक प्रतिबंध लगने के बाद डॉक्टर ने यों यह धंधा बन्द कर दिया था, फिर भी कुछ खास परिस्थितियां और कुछ खास लोग नियम - कानून के दायरे से हमेशा, कई जगह, कई बार बाहर तो होते ही हैं। डॉक्टर से बहुत नजदीकी से जान पहचान हो जाने बाद अंबर भी खुद को इसी खास श्रेणी में मानता था।

डॉक्टर से अंबर ने कहा, '' अंतिम बार आपको कष्ट देने आया हूं। इस बार अगर नर भ्रूण न रहा तो धुलाई करके बंध्याकरण का ऑपरेशन कर दीजिए।''

डॉक्टर ने बहुत देर तक अंबर और शाखा की आंखों में झांक कर देखा और कहा, '' इस बार तुम्हें निराश होना पडेग़ा भाई। मैं ने यह काम पूरी तरह बन्द कर दिया है। दुनिया को असंतुलित करने का अपराध अब और मुझसे नहीं होगा।''
'' डॉक्टर आप जानते हैं कि किसी भी शर्त पर मुझे यह काम करना है। यहां नहीं तो कहीं और जाना होगा, कहीं और भटकना होगा तथा मुझे ज्यादा पैसे खर्च करने होंगे, ज्यादा परेशान होना पडेग़ा। ऐसा अन्याय आप हम पर क्यों करेंगे?''
'' मतलब समाज और कानून तुम्हारे लिये कोई मायने नहीं रखते?''
'' बहुत मायने रखते हैं मैं पहले भी कह चुका हूं यह समाज और कानून आखिर क्यों यह व्यवस्था नहीं करता कि लडक़ियों के प्रति भेदभाव न हो और उनकी शादी में फकीर और दीवालिया होने की नौबत न आये। अगर ऐसा हो जाये तो मेरा दावा है कि लडक़ियों के जन्म को सर्वत्र प्राथमिकता मिलने लगेगी। चूंकि यह सभी जानते हैं कि बेटियों से न सिर्फ दुनिया आगे चलती है, बल्कि खूबसूरत भी बनती है। मां - बाप को सहारा और सम्मान देने के मामले में लडक़ियों का बर्ताव असंदिग्ध रूप से विश्वसनीय होता है।''

डॉक्टर जानता था कि यह आदमी माननेवाला नहीं है अपनी बहन की शादी में जो दंश झेल चुका है, उसे भूल नहीं सकता। एक बार तो वह परिधि को भी लेकर आ गया था। परिधि ने अपने भाई का समर्थन करते हुए कहा था , '' भैया ठीक कहते हैं, डॉक्टर! बेटी वही पैदा करे जिसके घर में लाखों - करोडाें जमा हों। मैं आज भी अपने घर में रौरव भोग रही हूं। यह जीवन ही मेरा मानो व्यर्थ होकर रह गया। मेरे बाद एक और लडक़ी इस घर में आ चुकी है, अब दूसरी भी अगर आ गयी तो भैया खुद को बेचकर भी कोई उपाय नहीं कर पायेंगे।''

डॉक्टर ने अपने मन में एक निश्चय किया और फिर शाखा का अल्ट्रासाउण्ड करके खुशखबरी देने के अन्दाज में बताया, '' अरे! यह तो चमत्कार हो गया। इस बार भ्रूण मादा नहीं नर है। मुबारक हो, बेटे का बाप बनोगे तुम।''
ठगा सा रह गया अंबर। शाखा को भी अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। डॉक्टर मजाक तो नहीं कर रहा। लेकिन डॉक्टर की भंगिमा मजाक की कतई नहीं थी।

छह महीने तक उन्हें इंतजार करना था किया। इस दौरान कई सपने, हसरतें सजाते रहे। खुशियां कई शक्लें अख्तियार कर उनके भीतर हिलोरें लेती रही। वे बेटे को पालने, पढाने और ब्याहने तक की मानसिक रूपरेखा तैयार करते रहे।

इंतजार की बहुप्रतीक्षित घडी ख़त्म हुई और शाखा का प्रसव सम्पन्न हो गया। जन्म लेने वाला शिशु बालक नहीं बालिका थी। अंबर को लगा जैसे आसमान से चारों खाने चित्त गिर गया हो धरती पर। डॉक्टर ने झूठ कह कर उसके साथ छल किया। क्यों किया उसने ऐसा? इस झूठ की उसे कितनी बडी क़ीमत चुकानी होगी, बार - बार बताने पर भी उसने समझने की कोशिश नहीं की। उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड क़िया। मुन्नी के लिये अभी से ही उसे एक चौथाई तनख्वाह की सेविंग करनी पड रही थी, फलस्वरूप वह स्थायी तौर पर तंगी और अभाव का शिकार था। एक और के लिये भी अगर ऐसी व्यवस्था करनी पडे तो फिर महीने दस दिन उपवास में ही गुजारने होंगे। अंबर आपे से बाहर हो गया और चट्टान जैसी कठोरता उसके चेहरे पर उतर आयी। नवजात शिशु को लेकर वह डॉक्टर के पास चला गया।
'' डॉक्टर'' जैसे दहाड उठा अम्बर, '' तूने मेरे साथ बहुत भद्दा और बेहूदा मजाक किया है, मैं इसके लिये तुम्हें कभी माफ नहीं कर सकता। तुम्हें इसकी सजा भोगनी होगी।''

डॉक्टर स्तब्ध रह गया, हमेशा शिष्ट और शालीन आचरण करने वाला व्यक्ति क्या इतना प्रचण्ड रूप धारण कर सकता है?
'' तुमने झूठ बता कर मेरी आधी अधूरी खुशियों पर कहर बरपा दिया है। गर्भ में जिसे तुमने लडक़ा बताया वह लडक़ी थी। इसके पैदा होने के जिम्मेदार तुम हो, इसलिये इसे मैं तुम्हारे पास छोडने आया हूं। अगर तुमने इसे लेने से इंकार कर दिया तो मेरे पास इसे सिवा मृत्यु देने के कोई और उपाय नहीं । चूंकी मेरी ओर से इसे मृत्यु मिलन िथी, वह अगर तीन महीने की भ्रूणावस्था में नहीं मिली तो अब मिल जायेगी और इसकी जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ तुम पर होगी।''
डॉक्टर की जिह्वा तालू से चिपक गयी थी अपने नवजात शिशु के प्रति एक पिता क्या इतना असहिष्णु और निर्मम हो सकता है? पितृत्व की गोद अगर कांटेदार हो गयी थी तो क्या मातृत्व के स्तन का दूध भी सूख गया? शाखा ने जुल्म ढाने के लिये इस दुधमुंही को इसके हवाले कैसे कर दिया? क्या व्यवस्था वाकई इतना सड - ग़ल गयी है कि मातृत्व और पितृत्व जैसे मूल्य बेमानी हो गये हैं? एक बच्चा जो दुनिया में आता है, पूरी तरह पराश्रित होता है, उसे आप फेंक दें, काट दें, गाड दें इसका उसे कोई बोध नहीं होता।

लेकिन यह एक नैतिकता है, मनुष्य में नहीं जानवरों तक में कि वे अपने नवजात बच्चे के लिये अधिकतम उदार, शुभेच्छु और पालनहार होते हैं। आज एक मां बाप ही अपने बच्चे को मारने पर तुले हैं, महज इसलिये कि शिशु बालक नहीं बालिका है। तो यह दुनिया इतनी खराब और बुरी हो गयी?

डॉक्टर ने अत्यन्त दुखी होकर कहा, '' माना कि मुझसे गलती हो गयी, हालांकि हुई नहीं। गलती तो मैं पहले करता रहा, इस बार तो मैं ने पिछली गलतियों को सुधारने की कोशिश की है। खैरमैं ने चाहे जो भी किया मगर अब जो तुम करने जारहे हो वह इन्सानियत के नाम पर भयानक धब्बा होगा।''

'' बकवास मत करो डॉक्टर, मैं तुमसे यहां कोई पाठ पढने नहीं आया हूं। मेरे लिये क्या अच्छा और क्या बुरा है, इसका फैसला मुजे खुद करना है। तुम्हारे पास कई बार मैं ने अपना दुखडा रोया, फिर भी तुमने ऐतबार नहीं किया। तुम अगर समझते हो कि मैं बहुत हिंस्त्र, बर्बर और जालिम हूं तो यही सही। अब बताओ इस बच्ची को यहां छोडूं या ले जाकर कहीं दफन कर दूं?''

डॉक्टर एक गहरे अर्न्तद्वन्द्व में घिर गया। दो बित्ते के लाल टुड - टुड करते फूल जैसे मासूम कोमल जिस्म की दो छोटी - छोटी बेहद निरीह और पवित्र आंखें चारों ओर नाच रही थींकभी मुस्कुरा कर कभी रोकर। जैसे इस दुनिया में आने का उसे हर्ष भी हो रहा था शोक भी। डॉक्टर को लगा कि इस नन्हीं सी जान को जिन्दगी से बेदखल करना सरासर अन्याय होगा। भ्रूण की बात कुछ और होती है, मगर अब यह पूरी तरह प्राण धारण किया हुआ एक मानवीय शरीर है। अंबर के चेहरे पर जिस तरह खून और वहशीपन सवार है कि आज वह कुछ भी कर गुजरेगा। बहुत दूर तक न सोच कर फिलहाल इसे बचाने का उपक्रम करना जरूरी है।

उसने कहा, '' ठीक है, तुम्हें बेटी नहीं चाहिये न तो इस नन्हीं सी जान को मेरे पास छोड दो। लेकिन मेरी एक शर्त है - तुम्हारे घर में जो आठ वर्ष की हो चली पहली बेटी है, उसे भी मेरे सुपुर्द करना होगा। आखिर उसे भी रखने का तुम्हें हक क्या है और फिर उससे भी मुक्त होकर क्यों नहीं तुम जरा ठाट से बसर करो।''

कुछ पल के लिये अम्बर हतप्रभ रह गया। कोई भी जवाब देते न बना।
डॉक्टर ने फिर कहा, '' सोच में क्यों पड ग़ये, तुम्हें तो दोहरी खुशी होनी चाहिये। तुम एक से पिण्ड छुडाना चाहते थे, मैं दोनों से छुडवा रहा हूं।''
'' ठीक है, मैं तैयार हूं।'' उसका चेहरा तमतमा गया, '' तुम्हें अगर मसीहा बनने का ज्यादा ही शौक है तो मुझे क्या आपत्ति! हालांकि तुम्हारी इस शर्त के पीछे का मकसद मैं समझ गया हूं। तुमने मेरी यह नस ठीक पकडी है कि मुन्नी को हमने आठ साल तक पाला है और उससे हठात् मोह झटक देना हमारे लिये आसान नहीं। लेकिन इस अवांछित नन्हीं के विवाह की पर्वतनुमा जिम्मेवारी से बचने के लिये मैं यह करने को भी तैयार हूं।''

नन्हीं को छोड क़र वह घर चला गया। शाखा को जल्दबाजी में सूचित कर दिया कि डॉक्टर नन्हीं के साथ मुन्नी की भी परवरिश का जिम्मा मांगता है। इसलिये मुन्नी को लेकर जा रहा हूं उसे सौंपने।

शाखा फटी आंखों से उसे देखती रह गई और अम्बर मुन्नी को लेकर यों चला गया जैसे वह घर की फालतू निष्प्राण वस्तु हो। घर में कोई सामान भी होता है तो उसका हट जाना एक खालीपन का आभास जगाता रहता
है । मुन्नी को तो आठ वर्ष तक अपने घनिष्ठ लाड प्यार के साये में कलेजे के टुकडे क़ी तरह रका था शाखा ने। वह प्रसूति अवस्था में पडी नन्हीं से बिछुडने के सदमे से उबर भी नहीं पायी थी कि एक और आघात पर्वत टूटने की तरह बरस पडा छाती पर। एक औरत की क्या इतनी ही औकात है कि जब चाहा उसकी कोख उजाड दी, जब चाहा उसकी गोद छीन ली? गाय - बकरियों से भी गयी गुजरी हालत। इस विषय पर उससे मशविरा किया जाये, इस लायक भी उसे नहीं समझा गया?

शाखा अभी तक अपनी अजन्मी बेटियों के नाम की गुडिया सहेजती रही थी, अब उसे इसी श्रेणी में एक साथ दो जीवित आत्माओं की स्मृतियों को भी सहेजना पडेग़ा। वह जब इन गुडियों से आत्मालाप और कन्फेशन करती थी, मुन्नी भी इन्हें छूकर रोमांचित हो उठती थी। अब वह भी इनके साथ एक नयी गुडिया के रूप में शामिल हो जायेगी। शाखा की आंखें जार जार बहने लगीं जो आठ साल तक उसकी दिनचर्या की हर सांस में शरीक रही है, उसका बिछोह क्या सहा जा सकेगा? खासकर यह जानते हुए कि वह जीवित है और इसी शहर में है!

अंबर ने मुन्नी को बहला - फुसला कर डॉक्टर के पास छोड दिया और घर लौट आया। डॉक्टर उसकी मुद्रा देखता - पढता रहा, जो न सिर्फ आवेश भरी थी बल्कि उसमें व्याकुलता और हिचकिचाहट का भाव भी समाया था। वह मानसिक रूप से बिलकुल ही स्वस्थ नहीं लग रहा था।

अंबर ने घर में प्रवेश किया तो लगा कि किसी अपरिचित जगह में आ गया है। रात में एक कमरे में होकर भी दोनों ने बात नहीं की। शायद वे सोये भी नहीं, सिर्फ सोने का ढोंग करते रहे।

सारा कुछ अस्त - व्यस्त सा हो गया। शाखा घर का कोई काम शुरु करती और उसे लेकर बदहवास सी शून्य में ताकती हुई बैठी रह जाती। शाखा की मनोदसा भी सामान्य नहीं रह गयी थी। घर में हर जगह मुन्नी का अस्तित्व बिखरा पडा था छोटे - छोटे रंग बिरंगे चॉक, जूते - मोजे, खिलौने, स्कूल बैग और किताबें। शाखा अपना रोज सुबह का एक डेढ घण्टा उसे जगाने, नहला - धुला कर तैयार करने में और स्कूल पहुंचाने में लगाती थी। अब मुन्नी के बिना जैसे उसके पास कोई व्यस्तता नहीं बची। अंबर से उसका एकदम अबोला हो गया। कोई भी

बात करने के लिये उसके होंठ नहीं खुल रहे थे। जैसे दोनों के बीच कोई कडी थी जो कट गयी, टूट गयी।

उसकी हालत देख कर अंबर बहुत चिंतित हो उठा और आसक्ति जताते हुए पूछा, '' तुम मुझसे बोलती क्यों नहीं शाखाक्यों नहीं बोलती? तुम समझती हो मैं ने तुम पर जुल्म किया है, अगर यह सच है तो उतना ही जुल्म मैं ने अपने आप पर किया है। तुम मुन्नी की मां हो तो मैं भी उसका पिता हूं। मेरे सीने में भी दिल है जो उसकी याद में तडपता है।''
शाखा ने कोई जवाब नहीं दिया। तेजी से भागकर कमरे में बन्द हो गयी।

किसी अनिष्ट की सोचकर, एक ऊंचे स्टूल पर चढक़र रोशनदान से झांककर देखा अंबर ने शाखा पागलों की तरह पांच गुडियों को बारी - बारी से बिलख - बिलख कर अपने सीने से चिपका रही थी, चूम रही थी और आत्मालाप कर रही थी। पांचों गुडियों की कलाइयों पर मोटे मोटे हरूफों में नाम लिखे थे। सबसे लम्बी वाली मुन्नी थी और सबसे छोटी वाली नन्हीं।

अंबर का कलेजा चाक - चाक हो गया तो शाखा ने अपनी अजन्मी बच्चियों को भी अपनी गिनती और स्मृति से अलग नहीं किया और अपने वजूद में उन्हें शामिल रखा? फिर यह कैसे संभव है कि जन्मी और पाली - पोसी हुई से वह अलग रह ले?

उसे लगा कि मां बिना मुन्नी और नन्हीं भी इसी तरह बिलख रही होंगी। उसे यह भी महसूस हुआ कि जिन्दगी किसी गणित की तरह गुणा - भाग कर नहीं चल सकती और मुकम्मल सुख पाने में सिर्फ लाभ धन का ही, हानि का भी महत्व होता है। स्टूल पर रखे उसके पैर बुरी तरह लडख़डाने लगे, जैसे मुन्नी उससे लिपट कर पापा-पापा कहती हुई उसे झकझोरने लग गयी हो।

भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल

भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल के लिए संघर्ष सहमतियों और असहमतियों के द्वंद्व की अवस्था में पहुंच चुका है। राजनीतिक वर्ग और नागरिक समाज के टकराव से शुरू हुआ भ्रष्टाचार के खिलाफ एक पारदर्शी जनवाद का यह संघर्ष अंतोगत्वा संसद बनाम सड़क की निर्णायक, लेकिन सकारात्मक बहस की दिशा में बढ़ रहा है। संसद बनाम सड़क के इस संघर्ष में सामाजिक संक्रमण का एक ऐतिहासिक संदर्भ भी निहित है तो वहीं वर्तमान लोकतंत्र में परिवर्तन की सार्थक आवश्यकता भी। सत्तापक्ष के तर्क कि कानून सड़क पर नहीं संसद में बनता है, वास्तव में सत्ता में भागीदारी और हस्तक्षेप की नागरिक समाज की कोशिशों को आंशिक रूप से नकारने की युक्ति भर ही है, लेकिन गांधी के राजनीतिक वारिस होने का दावा करने वाली देश में सत्तारूढ़ राजनीतिक धारा संभवतया यह भूल जाती है कि अनावश्यक जनविरोधी कानून तोड़ने और नए जनपक्षीय कानून बनाने का काम सड़कों और संघर्ष के मैदानों में ही होता रहा है। दांडी मार्च से नमक पर अंग्रेजों के आधिपत्य और एकाधिकार को चुनौती देने का काम महात्मा गांधी ने इसी राजनीतिक समझदारी के तहत किया और देश की आजादी, भारत की संसद और संसदीय लोकतंत्र सड़क से कानून तोड़ने और नए कानून बनाने के इन्हीं संघर्षो की परपंरा का ही नतीजा है। वर्तमान लोकतांत्रिक परंपराओं और संसद में कानून बनाने का तर्क भी दुनिया में कहीं नहीं होता, अगर स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का नारा देने वाली फ्रांस की क्रांति सड़क की नहीं, किसी संसद की मोहताज होती। वर्तमान संसदीय जनवाद के आधार वाली तमाम यूरोपीय संसदों की रचना सड़कों के संघर्षो से ही हुई हैं, लेकिन सभी ऐतिहासिक तथ्यों और दंतकथाओं के बावजूद कानून के संसद में ही बनने के तर्क की अपनी आवश्यकताएं और विवशताएं हैं। दरअसल, वर्तमान समय सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संक्रमण का दौर है, जिसमें उत्पादन के तरीके बदल रहे हैं तो अर्थव्यवस्था का स्वरूप भी और समाज एवं संस्कृति भी मूल बदलावों से होकर गुजर रही है। अगर कुछ नहीं बदल रहा है तो वह है वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था, लेकिन अब लोकतंत्र में पारदर्शिता के लिए खडे़ हो रहे जनांदोलन वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को सीधा चुनौती दे रहे हैं। वास्तव में वर्तमान प्रतिनिधि लोकतंत्र ऐसी राजनीतिक व्यवस्था है, जो एक अवस्था विशेष में पंहुचकर कुलीनतंत्र में बदल जाती है। वैसे तो समाज अपने हितों की रक्षा और समाज को बेहतर ढंग से संचालित करने के लिए ही प्रतिनिधियों का चयन करके उन्हें संसद में भेजता है, लेकिन विडंबना यह है कि चुने हुए प्रतिनिधियों का यह समाज एक नए राजनीतिक वर्ग में परिवर्तित हो जाता है। यह नया राजनीतिक वर्ग अपने हितों के अनुकुल जनवाद की नई परिभाषाएं बनाता है। संविधान को अपने हितों के अनुरूप नए ढंग से परिभाषित भी करता है। इस नए वर्ग के लिए राष्ट्र एक संपत्ति की तरह है, जिसके संसाधनों का वह अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए भरपूर उपयोग एवं दुरुपयोग करता है। अब लोकपाल बिल के प्रतीक के रूप में लोकतंत्र में पारदर्शिता के इस संघर्ष द्वारा खड़ी की गई चुनौतियां वर्तमान प्रतिनिधि लोकतंत्र के लिए नया और गंभीर संकट लेकर आई हैं। हालांकि भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्षरत लोकपाल अधिनियम समर्थकों की भी अपनी विवशताएं हैं। विडंबना यह है कि नागरिक समाज के आंदोलन का प्रतिनिधित्व गैर-सरकारी संगठनों की संस्कृति में प्रशिक्षित एवं पारंगत नेतृत्व कर रहा है। इन गैर-सरकारी संगठनों की भी अपनी एक अलग संस्कृति और कार्यशैली पिछले कुछ वर्षो में विकसित हुई है। राजनीतिक विरोध इन गैर-सरकारी संगठनों की संस्कृति का एक प्रमुख स्वभाव है, जो किसी नए राजनीतिक विकल्प बनने की राह में हमेशा एक बड़ी बाधा का काम ही करेगा। लेकिन बगैर एक राजनीतिक ढांचे के किसी भी राष्ट्र और व्यवस्था की कल्पना भी बेमानी है। हालांकि अब बदलाव की शुरुआत हो चुकी है। सूचना और प्रौद्योगिकी में तेज विकास के स्तर पर और विकास जनित नई ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था के स्तर पर भी। अब पारदर्शिता के लिए हो रहे जनांदोलनों के विरुद्ध व्यर्थ प्रलाप करने वाले और जनवादी सुधारों के लिए संसदीय एकाधिकार के तर्क देने वाली राजनीति को समझना चाहिए कि सड़क की यह लड़ाई केवल भारतीय ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लोकतंत्र को नया विकल्प और अधिक मजबूती देगी।